मानदण्ड / परंतप मिश्र
जाने-अनजाने रास्तों के घुमावदार मोड़ पर प्रतीक्षित अनगिनत स्मृतिस्तम्भ इतिहास के विस्तृत दस्तावेजों के पन्नों में सूख चुकी स्याही से अपने अस्तित्व को आज के परिवेश में पुनर्मूल्यांकन की राह पर पुनः चलने को उत्सुक हैं। व्यतीत हो चले पलों की बढ़ती उम्र की डेहरी पर ठहर कर अपने खंडहरों की ईंट व तोरणों से लिपटी शैवालों पर सुबह-शाम की लालिमा से सुप्तावस्था को प्राप्त मानव संवेदनशील दृष्टि को साधनारत है।
तत्कालीन कला कि उत्कृष्टता के ऊँचें पायदानों पर आरूढ़ शिल्प विन्यास, कुशल शिल्पी के द्वारा तराशे गए प्रत्येक प्रस्तर खण्ड की बहुमूल्य कृतियाँ आज की उपभोक्तावादी संस्कृति के वियावान में निखरने के लिए किये गए स्वयं पर हुए छेनी और हथौड़े के प्रहार का स्मरण कर अपनी चेतना और स्पन्दन को अपने भीतर ही आत्मसात किये बैठे हैं।
काल के विकास क्रम में बहुत सारी सभ्यताओं का निरंतर सांस्कृतिक उत्थान इसका प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। ज्ञान और विवेक के अद्भुत सामंजस्य के द्वारा विलक्षण प्रतिभाओं ने पुराने प्रतिमानों एवं मानदण्डों को विस्थापित कर श्रेष्ठ्तम की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। पर विकास की इस अद्भुत यात्रा में भी क्या हम पुरातनता को पुर्णतः समाप्त कर सकते हैं, शायद नहीं क्योकि पुरातनता ही स्वयं समाप्त होकर नवीनता को आधार प्रदान करती है। आधारभूत संरचना को पुर्णतः विस्थापित नहीं किया जा सकता। सम्भवतः स्वरुप परिवर्तित क्या जा सकता है। आज का अस्तित्व बीते हुए कल के प्रसव का ही परिणाम है। प्रकाश स्रोत सूर्य से निकली हुई अनंत दिव्य किरणें अपने जीवन दायिनी स्पर्श से पृथ्वी के कण-कण को जागृत करने न जाने कितने प्रकाशवर्षों की यात्रा कर अपने गन्तव्य की ओर आज भी अग्रसर हैं।
विस्मृत समाज का यह विखंडित स्वरुप ही है जो बुद्धिजीवियों के कसौटी पर खरे उतरे सिद्धांतों पर अनवरत कुठाराघात कर, कुछ तथाकथित मंदबुद्धि प्राणियों के शिखर पर आरूढ़ होने की लोलुपता प्रचलित मूल्यों के राजमहल के हर प्राचीर की परछाई से लज्जित हो रही है। प्रकृति के हर कण नें अपना सर्वस्व देकर विश्व निर्माण की प्रक्रिया में समय के पटल पर निज हस्ताक्षर को अंकित किया है। गढ़े हुए विश्व में आज भी कण-कण आत्मस्वरूप होकर परम्पराओ और विरासतों में स्वांस ले रही है।
सार्वजनिक जीवन बड़ा ही संवेदनशील होता है, छोटा से छोटा निर्णय जीवन के अंतिम छोर तक खड़ा होता है। आज के समय में की गयी व्याख्या कल के सिद्धांतों की दशा और दिशा को तय करेगी। प्रत्येक उपेक्षा का एक मूल्य होता है जिसे कभी न कभी चुकाना पड़ता है। उपेक्षित होकर भी जो धैर्य के साथ अग्रसर होते हैं, भविष्य में वे ही उपेक्षा का प्रतिउत्तर गढ़ते हैं।
व्यवहारिक जगत में आदर्शों से पोषित नैतिक मूल्यों के स्तम्भ कालातीत रहे हैं। पर समय, देश और काल के सापेक्ष इसमें निरंतर शुचिता के साथ पुष्ट भी किया गया है। प्रवाहमय ज्ञान एक बहते हुए जल स्रोत की तरह है। जो जल एक पल एक स्थान पर था दूसरे ही पल वह कहीं और बह जाता है, स्थिर न होकर प्रतिपल स्थान परिवर्तन करता है, कुछ बुद्धिजीवियों की दृष्टि में यह बुद्ध दर्शन के क्षणभंग वाद का उदाहरण हो सकता है। पर यहाँ पर क्षणों की भंगुरता न होकर क्षणों की निरन्तरता हो रही है जो प्रवाह एवं गति जीवन के विकास का लक्ष्य है।
समय के आकलन में प्रतिमान और मानदण्ड का अपना अमूल्य योगदान है। जैसे हम सभी ने देखा है कि युग की महान विभूतियाँ काल प्रसूत होती हैं और इसके साथ ही साथ साहित्य समाज का दर्पण रहा है। तटस्थ विश्लेषण की ज्योत्स्ना में किया गया तुलनात्मक विवेचन ऐतिहासिक मानचित्र पर युग-प्रवाह को दर्शाने में सफल हो सकता है।
इतिहास के आईने से झाँकता प्रतिपल परिवर्तित होता हुआ भूगोल, अपनी धुरी पर घूमता हुआ दिन और रात को समेटे ग्रहण के काल में भी विजयी रहा है। तभी तो भूगोल ने भी अपने परिवर्तन से इतिहास की दुनिया को अपने अनुसार ढाला है। आशा है यह परिवर्तनशील गति विकास के सापेक्ष उतरोत्तर नए आयाम की आधारशिला को स्थापित करती रहेगी।