मानवता के उत्सव की 'रंग रसिया' / जयप्रकाश चौकसे

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मानवता के उत्सव की 'रंग रसिया'
प्रकाशन तिथि : 07 नवम्बर 2014


सार्थक आैर सानंद सिने प्रेमियों के लिए खुशी की बात है कि केतन मेहता को अपना सिनेमैटिक फार्म फिर मिल गया है। 'रंग रसिया' भारत की महान उदात्त संस्कृति का उत्सव मनाती फिल्म है। रंगों का उत्सव मनाने वाली इस फिल्म में मानव शरीर मन के विविध रंगों की झलक भी दिखती है। मनुष्य का तो शरीर ही प्रकृति का उत्सव है। वेदव्यास महाभारत में लिखते हैं, जिन पांच तत्वों से मिलकर संसार बना, उन्हीं पांच तत्वों से मनुष्य का शरीर बना। संसार में कुछ तत्व एक-दूजे के विरोधी नजर आते हैं जैसे पानी से आग बुझ जाती है, परंतु मनुष्य शरीर में इन तत्वों का सामंजस्य दिखाई पड़ता है। भूख की अग्नि उदर में लगने से, पाचक द्रव्य पैदा होते हैं तथा भूख इस पाचक द्रव्य में कोई बैर नहीं है।

इस फिल्म में बाल वय में चित्रकारी करते नायक की जीवन यात्रा आैर उसके स्वयं से द्वंद्व का विवरण है। सफलता के साथ अहंकार आैर उसके शमन की गाथा है। इसी तरह उनकी मॉडल सुनंदा के भीतरी द्वंद्व का भी विवरण है। क्लाइमैक्स के पूर्व वह राजा रवि वर्मा को अपने चित्र एक महिला मित्र को देते देखती है आैर विवाद के आवेश में वर्मा कहते हैं, 'मेरी कल्पना के परे तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं है।' उसकी कुछ साहसी पेंटिंग्स के प्रिंट बाजार में आने के बाद उसका जीना कठिन हो जाता है परंतु अदालत में वह संयत है आैर सगर्व कहती है कि उसकी साधारण आंखों में वर्मा ने 'देवी' देखी परंतु वर्मा के खिलाफ दलील देने वाले वकील को उसी में 'वेश्या' नजर रही है। क्या स्त्री को सारे खांचों से मुक्त केवल स्त्री नहीं माना जा सकता? उसकी गवाही कि उसे मॉडलिंग की प्रक्रिया में अपने व्यक्तित्व का असली सौंदर्य आैर संगीत समझ आया। अब अश्लीलता के आरोप का मुकदमा नई दिशा लेता है पर निर्णायक बयान स्वयं वर्मा देते हैं। वे कहते हैं कि इन पेंटिंग्स बनाने के पहले उन्होंने पूरे देश का सघन दौरा किया। अजंता, एलोरा, खजुराहो, कोनार्क गए आैर सांस्कृतिक विरासत की प्रेरणा से ही ये कृतियां बनाईं। वे कोर्ट में इन जगहों के चित्र भी देते हैं। उन्होंने सारे पौरोणिक ग्रंथ भी पढ़े हैं आैर उन्हीं कहानियों को अपनी पेंटिंग्स में प्रस्तुत किया है।

दरअसल भारत की उदात्त संस्कृति को अंग्रेजों की दासता के दिनों में विक्टोरियन चश्मे से देखा गया, उस कारण कुछ लोग इस उदात्त संस्कृति को संकुचित करने की चेष्टा करते हैं। फिल्म में चित्रकार आैर मॉडल के रिश्ते को भी समझने का प्रयास है। मॉडल महज माध्यम नहीं मनुष्य है आैर चित्रकार द्वारा बनाई गई अपनी सुंदर छवि को निहारते हुए कलाकार से भी प्यार करने लगती है। कलाकार की सुविधा के लिए घंटों स्थिर बैठी मॉडल ह्रदय में उठते ज्वार को दबाए रखती है आैर वह सृजन प्रक्रिया का अविभाज्य अंग है। 'मोनालिसा' की मॉडल की तलाश सदियों से जारी है।

फिल्म में सदियों से चल रहे एक युद्ध की अनावश्यकता को केतन मेहता रेखांकित करते हैं। रवि वर्मा की भूतपूर्व सेविका उन्हें मंदिर ले जाती है जहां बंद दरवाजे के बाहर दीवार पर वर्मा के बनाए राम, कृष्ण, हनुमान के चित्र लगे हैं आैर वह अवाम जिसके लिए मंदिर के द्वार सदियों से बंद हैं, तस्वीरों में ईश्वर की आराधना कर रहे हैं। वर्मा के लिथो प्रिंट्स गरीब से गरीब के घर लगे आैर उन्होंने पूजा की। इस दृष्टि से वर्मा ने धर्म का काम किया पर धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों को दुकानदारी जाने का भय हुआ तो उन्होंने अदालत में वर्मा पर धर्म हानि का दावा ठोंका। वर्मा आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि धर्म, विज्ञान आैर कला में विरोध कैसे पैदा किया जा सकता है? तीनों ही सत्य साध रहे हैं। कबीर का 'घूंघट के पट खोल तोहे पिया मिलेंगे' का अर्थ है कि सत्य पर कोई परदा नहीं पड़ा है, सारे घूंघट स्वयं मनुष्य ने आेढ़ रखे हैं। अहंकार, संपदा, छद्म ज्ञान, जाति-पांति, रंग भेद के घूंघट। सत्य तो आवरणहीन है। वैज्ञानिक, कलाकार, सच्चे धर्म साधक सभी सत्य के संधान में लगे हैं। 'रंग रसिया' घूंघट हटाने का प्रयास है। वर्तमान असहिष्णुता के दौर में फिल्म की गहरी सार्थकता है। फिल्म कला के निष्णात केतन मेहता ने कम बजट में भी 19वीं सदी का वातावरण विश्वसनीयता से रचा है। लोक संस्कृति आधारित उनकी पहली फिल्म 'भवनी भवई' का सीधा रिश्ता 'रंग रसिया' से है क्योंकि दोनों ही उदात्त संस्कृति की आदरांजलि की तरह है।