मानवीय एवं राष्ट्रीय मूल्य / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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आदमी जब जंगलों में रहता था, सभ्यता से कोसों दूर; तब भी वह अकेला नहीं था। उसके आसपास बहुत सारे लोग होते थे। समूह में रहते के कारण किसी एक ही आदमी की इच्छा प्रमुख नहीं होती थी। सबके सुख-दुःख का ध्यान रखना पड़ता था । सबके दुःख-दर्द में साझीदार होना पड़ता था। कबीले में रहने वाले आदमी ने जो कुछ सीखा- वह आने वाली पीढ़ी को सिखाया। अलाव के इर्द-गिर्द बैठकर एक-दूसरे को समझने की कोशिश हुई होगी। जीवन को बेहतर बनाने के उपाय सोचे होंगे। जीवन के प्रवाह को तोड़ने वाली बातों का विरोध किया होगा। जीवन को ठीक ढंग से चलाने के कुछ नए नियम बनाए होंगे। कुछ पुराने नियम चलते रहे होंगे। नए नियमों से वे बातें निकाली होंगी, जो आदमी को जोड़ने का काम नहीं करती थीं। युगों-युगों की बहती वैचारिक नदी आज राष्ट्र और विश्व के हर कोने को सींच रही है। न जाने कितने ही विचार पत्थरों की तरह कुछ दूर लुढ़ककर धारा के बीच में ही बैठ गए। कुछ विचार ऐसे हैं, जो युगों-युगों से छनकर यहाँ तक आ पहुँचे। ये विचार युगों पहले जितने ज़रूरी थे, आज भी उतने ही ज़रूरी हैं। इन्हीं जीवन- मूल्यों को मानवीय मूल्य कहते हैं। इनके बिना न तो जीवन चल सकता है और न मानवीयता ही बच सकती हैं।

किसी की आँखों से बहते आँसुओं को पोंछने वाली हथेलियाँ नहीं बदली हैं। निराश व्यक्ति को धीरज बँधाने वाली आवाजें नहीं बदली हैं। ठोकर खाकर गिरने वालों को सँभालने वाले हाथ हर जगह मौजूद हैं। भूखे को अपने हिस्से का कौर खिलाकर संतुष्ट होने वालों की कमी नहीं है। दूसरों की खुशियों में झूम-झूमकर आज भी लोग नाचते-गाते हैं। ये सारे गुण सदियों से छन-छनकर आज तक क्यों चले आ रहे हैं ? इसलिए चले आ रहे हैं; क्योंकि इनके बिना हमारा काम नहीं चल सकता, हमारे गाँव शहर और देश का काम नहीं चल सकता। सोधे ढंग से कहें तो इस धरती के किसी भी मानव का काम नहीं चल सकता।

प्रेम, दया, करुणा, परोपकार, शांति, विश्वास, सहयोग आदि ऐसे मूल्य हैं, जिनकी ज़रूरत लाखों साल पहले भी थी, आज भी हैं और जब तक इंसान धरती पर रहेगा, तब तक इनकी आवश्यकता बनी रहेगी। धर्म और मत-मतान्तर आते-जाते रहेंगे। आदमी का रहने का ढंग बदलता रहेगा, जीवन के तौर-तरीके बदलते रहेंगे। अगर नहीं बदलेगा, तो आदमी का वह हृदय, जो दूसरों की पीड़ा से पिघल जाता हैं; वे आँखें जो दूसरों को दुर्दशा देखकर भीग जाती हैं।

हम भारतीयों ने पूरी धरती को ही अपना कुटुम्ब मान लिया था। आज इस सच को स्वीकार करना समूची दुनिया की मजबूरी है। कोई भी ऐसा देश नहीं जिसका दूसरे देशों के बिना काम चल जाए। किसी एक देश पर बाढ़, अकाल, भूकम्प का संकट हो तो दूसरे देश सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं । ऐसा क्यों होता है ? मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए यह दौड़ लगानी पड़ती है। जिस दिन यह दौड़ बंद हो जाएगी, उस दिन मानवता की साँस रुक जाएगी।

कुछ ऐसे भी मूल्य होते है जिनकी आवश्यकता किसी विशेष स्थान या समय पर ही पड़ती है। स्थान और समय बदल जाने पर आवश्यकता भी बदल जाती है। पुराने जमाने में प्रजा की जो स्थिति होती थी, वह स्थिति आज के नागरिक की नहीं है। किसी आदेश को आँख मूंदकर स्वीकार कर लेना, आज संभव नहीं है। समाज में आए परिवर्तनों के कारण पुरानी रूढ़ियाँ और विश्वास टूटे हैं। ये मूल्य ऐसे हैं, जो समय की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं। भाईचारा ऐसा मानवीय मूल्य है, जो सारी कसौटियों पर खरा उतरा है और आज भी अपनी चमक बनाए हुए है।

जब-जब समाज ने मानवीय मूल्यों को ठुकराया है, तब-तब राष्ट्रीय मूल्यों पर चोट हुई है। आज़ादी के बाद राष्ट्रीय मूल्यों में तेज़ी से गिरावट आई है। राष्ट्रीय सम्पत्ति की तोड़-फोड़, दूसरों के धर्म और सम्प्रदाय को घृणा की दृष्टि से देखना, अपने हितों को देश के हित से बड़ा मानकर हड़तालें करना, क्षेत्र-जाति-बिरादरी के तुच्छ हितों के लिए जनता को गुमराह करना- ये सब ऐसी बातें हैं, जिनसे हमारा राष्ट्र कमजोर होता है, अलगाव की भावना भड़कती है। छोटे-छोटे स्वार्थों पर लड़-झगड़कर राष्ट्र को मजबूत नहीं बना सकते ।

एकता की स्थापना जिस तरह भी संभव हो, की जाए। जिन विचारों एवं कार्यों से राष्ट्र की एकता, आपसी भाईचारा, धार्मिक

सद्भावनाएँ नष्ट होती हों; उनका त्याग किया जाए। हम क्षेत्र विशेष की भावना से ऊपर उठकर सोचें। राष्ट्र की सभी भाषाओं का सम्मान करें। सभी प्रान्तों की परम्पराओं को समझें। जहाँ आपसी समझ की कमी है, वहीं भेदभाव उत्पन्न होगा।

धर्म निरपेक्षता ( पंथ निरपेक्षता )के बिना समूचे राष्ट्र को एकता के धागे में नहीं बाँधा जा सकता। छोटे-बड़े की भावना, ऊँच-नीच का भेदभाव, भाषाओं के झगड़े, अपने प्रांत को राष्ट्र से भी ऊपर मान लेने की गलतफहमी, राष्ट्र के लिए सबसे बड़ी बाधाएँ हैं । इन्हें दूर किए बिना राष्ट्रीय मूल्यों की रक्षा नहीं हो सकती । राष्ट्र, मानवीय मूल्यों की शक्ति है । राष्ट्र के कमजोर होने पर मानवीय मूल्य कैसे पनप सकते हैं ?

हमें जाति-पाँति छुआछूत, क्षेत्रीयता एवं व्यक्तिगत स्वार्थों की दीवारें गिरानी पड़ेगी । इन्हें गिराए बिना लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता। राष्ट्र, सभी धर्मों एवं सभी हितों से ऊपर हैं, जब यह समझकर हम आचरण करेंगे, तब कोई भी शक्ति हमें कमज़ोर नहीं कर सकेगी। तभी मानवीय मूल्यों की नींव पर हमारे राष्ट्रीय मूल्य सिर ऊँचा करके खड़े हो सकेंगे ।

[सैनिक समाचार 14 मार्च 1993