मानव अधिकारों के अमर सेनानी- मार्टिन लूथर किंग / मन्मथनाथ गुप्त
४ अप्रैल १९६८ को मार्टिन लूथर किंग अपने मोटल की बालकनी से झांककर मित्रों से बातचीत कर रहे थे कि उन्हें गोली मार दी गई और वह तुरन्त मर गए। सारे संसार में हाहाकार मच गया, क्योकिं वह एक ऐसे नेता थे, जिसकी नैतिकता मे किसी को सन्देह नहीं हो सकता था। वह संयुक्त राष्ट्र अमरीका के काले लोमों की ओर से लड़ रहे थे। कि उन्हें गोरों की तरह समान अधिकार दिये जायं। वह स्वयं उन्ही लोगों में थे।
अमरीका में इन काले नीग्रों लोगों का एक दुख-दर्द भरा इतिहास है। जब गोरों ने अमरीका को अपना उपनिवेश बना लिया (इसकी सफलता के कुछ ऐतिहासिक, कुछ आकस्मिक कारण थे) तो उन्हें यह अनुभव हुआ कि प्राप्त विशाल भूमि का सभ्यक रूप से दोहन-शोषण करने के लिए उन्हें मजदूरों की जरुरत है। उस समय तक संसार में दास प्रथा किसी न किसी रूप में थी। इसलिए मांग हुई कि दास लाये जायं।
पर दास कहां से मिलते? तब तक श्वेतांग लोगों में दास-प्रथा समाप्त हो चुकी थी। हां, अर्धदास (सिर्फ) प्रथा अब भी, यानी १९वीं सदीं के प्रारंम्भ में, यूरोपीय देशों में थीं। रूस में १८६१ में कानूनी रूप से अर्धदास प्रथा का अन्त हुआ, यघपि उसके बाद भी कई दशकों तक जारी रहीं। अंतिम रूप से रूस के गावों में जमींदारों के अत्याचारों का अन्त १९१७ में हुआ।
हां, तो जब अमरीका के विशाल भूमि के मालिकों को दास-किस्म के मजदूरों की जरूरत पड़ी, तो उसकी मूर्ति के लिए कुछ और लोग आगे बढ़ आये। ये थे डाकू यानी सामुद्रिक डाकू या उनसे मिलते-जुलते जहाजों के मालिक। उस समय अफ्रीका बहुत पिछड़ा हुआ था। वहां की कोई, खबर सभ्य जगत में नहीं पहुंचती थी तो भ्रष्ट और रंगे रूप में कि वहां के लोग खूंखार है, मर्दमखोर है उनमें किसी तरह की नैतिकता नहीं, वे मनुष्य के रूप में पशु है। कहा गया है कि ऐसे लोगो को, यहां तक कि ऐशिया के सुसभ्य लोगों को, सभ्य बनाने का काम श्वेतांग लोगो का है। इसका एक दर्शनशास्त्र बन गया, जिसको व्हाइट मैंस बर्डन यानी श्वेतांग जाति का नैतिक बोझ करार दिया जाता है।
इसी श्वेतांग जातियों के बोझ का एक नग्न रूप अब सामने आया है। वह यह था कि अफ्रीका के युवको और युवतियों और बालको औरबालिकाओं को छल, बल, कौशल से पकड़ और बांधकर अमरीका के जमीन्दारों के सिपुर्द करों। जिस प्रकार से लोग शिकार करते है, उसी प्रकार से अमरीका के समुद्र तटों पर अपने जहाज खड़े करके बन्दूकों से लैंस श्वेतांग सामुद्रिक डाकू अफ्रीका के गॉँवो की तरफ निकल जाते थे और बूढ़ो, बुढ़ियों, अपाहिजों के अतिरिक्त जो भी इनके पंजो में आ जाता था, उस पकडकर जहाज के हिस्से में डाल देते थे। वहां उन्हें भूखारखकर मारपीट कर हुक्म मानना सिखाया जाता था। फिर उन्हें अमरीका की दासमंड़ियो में ले जाकर बेच दिया जाता था। इस बीच मारपीट बलात्कार उपवास और सक्रामक रोगों के कारण आधे लोग मर जाते थे। उस जमाने में अमरीका में यत्र-तत्र दास बेचने की मंड़ियां थी, जिनका उसी प्रकार व्यपारियों और भद्र लोगों में मान्यता प्राप्त थी, जैसे आलूमड़ी की होती है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नही, क्योकि अति प्राचीन काल से लेकर सर्वत्र (भारत में भी) दासप्रथा एक जायज प्रथा मानी जाती थी। अरस्तू-जैसे महान चिन्तक, जिनसे पाश्चात्य राजनैतिक चिन्तन का बहुत-कुडछ उद्भव माना जाता है, यह सोचते थे कि दासप्रथा समाज का जरुरी घटक माना जाता है। भगवान बुद्व दासों को अपने भिक्षुओ में शामिल नहीं करते थे, जबतक कि वे मालिको द्वारा मुक्त करार न दिये जायं।
अमरीका में दासप्रथा के इस नवीन संस्करण का कुछ व्यौरेवार चित्र 'टामकाका की कुटिया' में मिल सकता है। उपन्यास की दृष्टि से भी यह पुस्तक बहुत रोचक है। तथा साम्राज्य वाद का नंगा नाच और निर्लज्ज शोषण का भोंडा रूप प्रत्यक्ष कराता है। इधर इस दास प्रथा पर बहुत शोध किया गया है, जिससे पता चलता है कि अमरीका की नीग्रा-समस्या का रूप कितना निकट है। इस प्राकर मंगाये गये लोगों को यानी उनके वंशघरों का पता नहीं कि वे और उनके बाप, दादे या दादियां कहां से मंगाई गई थीं, उनकी भाषा या बोली क्या थी, उनका कोई धर्म था या नहीं। दूसरे शब्दो में, इन दासों पर भाषा, धर्म सभी कुछ मालिको की ओर से लादा गया। दु:ख की बात है कि आज से इतने अमरीकीकृत हो गए है कि अब अफ्रीका के लोगों से विशेष आत्मीयता का अनुभव नहीं होता।
तो यह वह माहौल था, जिसमें मार्टिन लूथर किंग का पालन-पोषण हुआ था। दास-प्रथा तो अमरीका में भी अब नहीं रहीं। दासों के वंशधर अब सभी दृष्टियों से शिक्षित नागरिक हो गए है, कानूनी रूप से उनकी और श्वेतांग नागरिकों की बराबरी मान ली गई है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह कानून द्वारा स्वीकृति बराबरी व्यावहारिक रूप में अधिक आ सकी है। उसके लिए बराबर संर्घष चलता रहा है और उसमें अनगिनत लोग शहीद हुए है। काले गोरों का यह संग्राम अब अब भी जारी है और संग्राम में जाने कितने लोग शहीद हो चुके है। इन शहीदों में प्रात:स्मरणीय नाम है मार्टिन लूथर किंग का इस संबन्ध में एक अमरीकी संगठन क्लुक्लुक्स क्लैन का नाम उल्लेखनीय है। यह एक अपव्ख्यात गुप्त समिति है, जिसका उद्देश्य नकाब पहनकर कालो का वध करना रहा है। जो भी काला व्यक्ति उस समिति को खतरनाक ज्ञात होता है, वह अपने नकाबपोश जल्लादों को भेलकर उसकी हत्या कर देती है। अक्सर यह अभियोग लगाया जाता है कि उस काले व्यक्ति ने किसी श्वेतांग युवती के साथ बलात्कार किया। आततायी अपने शिकार को वहां के श्वेत बाशिन्दों की सहायता से मारते-मारते मार डालते थे, जिससे 'लिंच' शब्द की उत्पत्ति हुई है।
मार्टिन लूथर किंग को पता था कि उन पर घातक हमले की तैयारी है। उन्होने हत्या से २४ घंटे पहले कहा था: 'जैसा कि सभी चाहेगे, मैं भी दीर्घजीवी होना चाहता हूं पर इस पर मुझको वह चाह भी नहीं। मैं तो अब यही चाहता हूं कि मुझमें ईश्वर की इच्छा पूर्ण हो।
"ईश्वर ने मुझे पर्वत पर जाकर वह भूमि दिखा दी है, जिसे दिलाने कावादा उनकी तरफ से है। संभव है कि आप लोगो के साथ उस प्रतिज्ञात भूमि में न पहुंच पाऊं, पर मैं चाहता हूं कि आज रात को आप यह जान लें कि हम सब सामूहिक रूप से उस भूमि पर पहुंचेगें ही इस कारण आज मैं आज मैं सुखी हूं। मुझे न किसी बात की चिन्ता है, न किसी व्यक्ति का डर है। मेरी आंखों ने प्रभु के आगमन का गौरउव प्रत्यक्ष किया है।"
९ अप्रैल, १९६८ को अटलान्टा में उनकी अन्त्येष्टि क्रिया हुई। उसमें डेढ़ लाख जनता थी, जो अमरीका के लिए एक रिकार्ड है। वह कालों के आधुनिक मसीहा थे।
बचपन से ही उनको इस बात का बड़ा दुख था कि सब तरह से समान होते हुए भी गोरे कालों को समानता का दर्जा देने को तैयार नहीं। दक्षिण में तो इस बिषमता की हद थी। उत्तर में निस्बतन कुछ समता थी। अमरीकी इतिहास में दासता के प्रश्न को लेकर उत्तर-दक्षिण में गृहयुद्व हुआ था, जिसमें सौभाग्य से उत्तर ही यानी संघ सरकार की जीत हई, नहीं तो फासिस्टवादका उदय उसी समय होता। अब्राहम लिंकन की हत्या भी इसी सिलसिले में हुई। वह हृदय ये विश्वनागरिक थे।
मार्टिन लूथर किंग को नौजवानी में ही रंगभेद का कई बार शिकार होना पड़ा। एक बार सिनेमा गए तो वहां श्वेतांगों से अलग 'पीनट गैलरी' में यानी मूंगफली के छिलको में कुर्सी डाल कर चित्र देखना पड़ा। इसका नतीजा यह हुआ कि उनका मन चित्र पर नहीं जमा। वह यही सोचने लगे कि कैसे इस हीन अवस्था से कालों की मुक्ति कराई जाय। एक दूसरे अवसर पर वह एक रेस्तरां में खाने गऐ तो उनको पर्दे के अन्दर बैठना पड़ा। नौकरियों में भी गुण होने और सारी शर्ते पूरी करने पर भी कालों को स्थान नहीं मिलता। यह स्थिति अब भी हैं यद्यपि महायुद्वों में काले गोरों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर लड़े और मरे।
मार्टिन अभी सोच ही रहे थे कि कैसे क्या किया जाय कि वह मोर्डेकाई जानसन नामक व्यक्ति का व्यख्यान सुनने पहुंच गए, जो अभी भारतसे लौटे थे। जानसन ने महात्मा गांधी के विषय में बहुत कुछ कहा। बस, उनकी आंखें खुल गई। व्याख्यान सुनकर लौटे तो वहां महात्मा गांधी पर जितने भी ग्रन्थ मिले, खरीद डाले। उन्होने सोच लिया, अहिंसा ही कालों की नीति होनी चाहिए। गान्धी का उद्वरण देते हुए बोले, "संभव है, हमें स्वत्रतता तभी मिले, जब खून की नदियां बहेंपर यह खून हमारा खून होगा।" इसी वाक्य को मंत्र बनाकर उन्होने गोरों के मद और विरूद्व एक विराट आंदोलन खड़ा कर दिया। बहुत से गोरे शरीफ लोग उनके साथ हो गए। उनके निष्कलंक संग्राम के विरूद्व गोरे भड़क गए, क्योंकि वे उनके खिलाफ कुछ कह नहीं पाए। इसी का नतीजा यह हुआ कि उनको गोली मार दी गई। इसके बाद उन्हें शहीद की मर्यादा से वंचित करने के लिए कथित स्वतंत्र पत्रकारिता ने उनके चरित्र पर दोष ल्रगाना चाहा, पर सारे संसार ने घृणा के साथ उन अभियोगों को काल्पनिक बताया।
उनकी शहादत के बाद एक दशक होने जा रहा है। नौजवान नीग्रों कहते है, अहिंसा से कुछ नहीं होगा। इस लिए कुछ लोग दूसरे तरीके अपना रहे है। जो हो, मार्टिन लूथर किंग जिस उद्देश्य को लेकर शहीद हुए, वह अवश्य पूरा होगा।