मानव आयोग / नरेन्द्र कोहली

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चोर ने खिड़की की शलाकाएँ काटीं और शीशा तोड़ कर कमरे में घुस गया। सामने एक व्यक्ति पड़ा सो रहा था। आसपास कोई नहीं था। उसकी पत्नी उसके निकट कहीं नहीं थी। कमरे में एक ही पलंग था, जिसका अर्थ था कि पति पत्नी अलग-अलग कमरों में सोते थे। उनमें कोई मतभेद रहा होगा।

चोर ने सोचा, अच्छा अवसर है। वह कुछ भी चुरा सकता था। कुछ भी... जो कुछ दृष्टि के सम्मुख था, उनमें से कुछ भी उठाया जा सकता था। आज उससे भूल हो गई थी, वह अपने साथ ट्रक या टैंपो जैसी कोई सवारी नहीं लाया था, नहीं तो इस घर का सारा सामान, यहाँ तक कि इस व्यक्ति समेत इसका पलंग भी वह उठा कर ले जा सकता था।

उसने टी. वी. उठा लिया। पर अंधेरे में पलंग के ही एक पाए से ठोकर लग गई। सोया हुआ आदमी हिला। चोर ने निकट जा कर देखा: वह हिला ही था। अभी जागा नहीं था। फिर भी चोर को क्रोध आ गया। वह हिला क्यों? उसे नहीं मालूम कि घर के लोग इस प्रकार हिलते जुलते रहें तो चोरों की एकाग्रता भंग होती है। किसी की साधना को इस प्रकार बाधित करना कोई न्याय है क्या। ...

चोर ने अपने क्रोध को बहलाना चाहा किंतु वह नहीं बहला। क्रोध साधारण क्रोध नहीं था। कलयुगी क्रोध था। रक्तबीज के समान बढ़ता गया।

चोर ने एक शलाका उठा ली और सोए व्यक्ति को ज़ोर से दे मारी। यह भी नहीं देखा कि उसका सिर मुँह किधर था। उसका सिर तो नहीं फट जाएगा। वह मर तो नहीं जाएगा। ... मर जाएगा तो मर जाए साला, पर वह हिला क्यों?

वह व्यक्ति मरा नहीं। इस बार ज़ोर से हिला। संयोग से शलाका की चोट तकिए पर पड़ी थी और उससे व्यक्ति की नीन्द उचट गई थी। उसने खतरे को भाँप लिया था और वह उचक कर खड़ा हो गया था।

चोर ने चाकू निकाल लिया। अच्छा था कि वह उस व्यक्ति को समाप्त ही कर डाले। फिर आराम से सुबह तक चीज़ें बटोरता और बाँधता रहेगा।

पर वह व्यक्ति भी कुछ कम नहीं था। उसने चोर के हाथ में चाकू देखा, तो तकिए के नीचे से पिस्तौल निकाल ली। चोर जब तक उसपर वार करता, उसने गोली चला भी दी थी।

गोली चोर के पैर में लगी। व्यक्ति ने गोली पैर में ही मारी थी। चोर भूमि पर गिर पड़ा। चोर के हाथ से चाकू खिसक गया और वह अपना पैर पकड़ कर बैठ गया। व्यक्ति ने आवाज़ें देकर घर के अन्य लोगों को भी बुला लिया और रस्सी भी मँगा ली। चोर के हाथ पैर बाँध दिए गए।

"अरे पुलिस को तो बुलाओ।" व्यक्ति की पत्नी ने कहा।

"पुलिस क्या करेगी?" व्यक्ति झल्लाया, "मैंने उसे पकड़ लिया है और उसे बाँध भी दिया है। अब पुलिस का अचार डालना है क्या?"

"तो उसे जेल में भी तुम ही रखोगे?" पत्नी झल्लाई, "तुम्हारे पास जेल है क्या? अपने तकिए के नीचे तो नहीं छुपा रखी?"

"यह घर जेल ही तो है।" व्यक्ति बोला, "तुमने आज तक मुझे बंदी ही तो बना रखा है।"

पत्नी का मूड बिगड़ गया, "स्वयं ही तो कहा करते थे कि तुम मेरी अलकों के बंदी बने रहना चाहते हो और अब आधी रात को जगा कर बकवास कर रहे हो। सारी उमर यही सब सुना है मैंने, पर आज नहीं सुनूँगी।" वह रुकी और फिर झपट कर उसने दुगने वेग से आक्रमण किया, "पुलिस बुलाओगे या चप्पल उठाऊँ?"

व्यक्ति ने फ़ोन कर दिया और चकित खड़ा रह गया, क्योंकि पुलिस सचमुच आ गई।

इंस्पेक्टर ने चोर को उसके कालर से पकड़ा तो चोर दहाड़ उठा, "खबरदार जो मुझे हाथ लगाया।"

"तो पाँव लगाएँ?" इंस्पैक्टर ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।

"नहीं! कोई आवश्यकता नहीं।" चोर ने खड़े होने का प्रयत्न किया, "मैं जा रहा हूँ, मानवाधिकार आयोग में, तुम्हारी शिकायत करूँगा।"

"थाने नहीं चलोगे?" इंस्पैक्टर ने रो कर पूछा।

"नहीं! मानवाधिकार आयोग में जाऊँगा।" चोर ने कहा।

"क्यों? वहाँ क्या है? तुम कोई ख़ास चीज़ हो कि थाने न जाकर मानवाधिकार आयोग जाओगे?"

"हाँ! मैं मानव हूँ। मानव के कुछ अधिकार होते हैं और उनकी रक्षा के लिए सरकार ने एक आयोग बनाया है। वह इसलिए तो नहीं बनाया गया कि वहाँ उल्लू बोलते रहें। वह बना है कि हम जैसे मानव वहाँ जाएँ और वह हमारी रक्षा करे। वह कवच है हमारा।"

"क्या कारण है तुम्हारा वहाँ जाने का। मानव तो यह भी है।" इंस्पैक्टर ने कहा।

"यह मानव है?" चोर ने घृणा से कहा, "इसने मुझे अपनी हत्या नहीं करने दी। इसने मुझे गोली मारी है। मेरे साथ, एक मानव के साथ, अमानवीय व्यवहार किया है। अब पुलिस इसका साथ देगी, तो मैं पुलिस की भी शिकायत करूँगा और अपनी गवाही के लिए किसी डॉक्टर को बुला लूँगा।"

पुलिस इंस्पैक्टर डर गया, "चलो, तुम्हें अस्पताल ले चलें। मरहम पट्टी तो करवा लो।"

"नहीं! नहीं जाऊँगा अस्पताल। तुम मामले को रफा दफा करना चाहते हो।"

"तो चल तुझे मानवाधिकार आयोग ही ले चलूँ।" इंस्पैक्टर को भी क्रोध आ गया, "मैं तुम्हें भागने तो नहीं दूँगा।"

चोर ने मानवाधिकार आयोग में, एक शांतिप्रिय नागरिक द्वारा अपने मानवीय अधिकारों के हनन की शिकायत कर दी।

"तुम इनके घर में क्यों घुसे थे?" आयुक्त ने चोर से पूछा।

"चोरी करने और यदि यह चोरी न करने दे तो इसकी हत्या करने।"

"क्यों? हत्या करना तो अपराध है।" आयुक्त ने कहा।

"होगा, किंतु यह प्रतिदिन अपनी पत्नी से मार खाता था। मुझ से इसकी पीड़ा देखी नहीं जाती थी। मैं इसे इसके यातनामय जीवन से मुक्ति दिलाना चाहता था।" चोर बोला, "मैं इसका शुभचिंतक हूँ। मैं मानवता का त्राता हूँ।"

"आपकी पत्नी आपको रोज़ पीटती थी?" आयुक्त ने व्यक्ति से पूछा।

"जी!"

"क्यों पीटती थी?"

"जी! हम दोनों में कुछ मतभेद हैं।"

"कैसे मतभेद, जो मारपीट तक जा पहुँचते हैं?"

" जी! वह ज़रा गंभीर विचारों की है। हर बात को बहुत गंभीरता से ग्रहण करती है। '

"और आप?"

"मैं कुछ हल्का फुल्का, विनोदी आदमी हूँ। जीवन को कभी मैंने उस प्रकार गंभीर दृष्टि से नहीं देखा।"

"यह क्या मतभेद हुआ?"

"जी! इससे अधिक मुँह खोलूँगा, तो नारी अधिकारों का हनन हो जाएगा और नारी आंदोलन की सदस्याएँ, मुझे भरे बाज़ार में जूते मारेंगी।"

"तो आपने प्रतिकार क्यों नहीं किया?"

"जी प्रतिकार करता तो वह महिला आयोग में चली जाती।"

"तो आप मार खाते रहे?"

"तो आप क्या करते हैं? आपकी पत्नी आपको मारती नहीं, या धिक्कारती नहीं, या अपमानित नहीं करती? आप ने कभी प्रतिकार किया?"

"बात तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की है।" आयुक्त ने बुरा-सा मुँह बनाया, "मुझे क्यों बीच में घसीटते हो?"

"मैंने तो उदाहरण दिया है श्रीमन!"

"ऐसे घटिया उदाहरण मत दिया करो, इससे मानव के अधिकारों का हनन होता है।" आयुक्त बोले, "तो तुम अपना दोष स्वीकार करते हो। तुम पर दोहरे आरोप हैं।"

"जी! क्या क्या?"

"तुम अपनी पत्नी से पिटते रहे और कुछ नहीं बोले। उससे मानव के अधिकारों का हनन हुआ।" आयुक्त ने कहा, "दूसरा, तुमने अपने घर में तुम्हारी हत्या के उद्देश्य से घुस आए इस चोर को गोली मारी। चोरों और हत्यारों के साथ ऐसा अमानवीय दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए।"

"जी सरकार! माई बाप!"

"अपना अपराध स्वीकार करते हो?"

"जी! माई बाप। स्वीकार करता हूँ।"

"तो फिर उसका दंड भी स्वीकार करो।" आयुक्त उसका दंड लिखने में व्यस्त हो गए।