मानससरोवर और कैलास की 'भूमिका' / रामचन्द्र शुक्ल

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हिन्दी में क्या, प्राय: सभी भारतीय भाषाओं में यात्रा सम्बन्धी पुस्तकों की बहुत कमी है। भूमंडल के भिन्न भिन्न भागों के जैसे विस्तृत और मनोरंजक विवरण योरपीय भाषाओं में हैं, वैसे यहाँ की किसी भाषा में नहीं। क्या इसका कारण हमारी कूप मंडूकता है? कैसे कहें? प्राचीन काल में तो भारतवासी धर्म प्रचार तथा व्यापार के लिए बर्मा, श्याम, चीन, सिंहल, सुमात्रा, जावा इत्यादि दूर दूर के स्थानों में जल और स्थल के मार्गों से बराबर जाया करते थे। पर संस्कृत या प्राकृत में कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं जिसमें उन देशों का सच्चा विवरण हो। इधर एक हजार वर्ष से अलबत भारतीयों का अपने देश की सीमा के बाहर निकलना बन्द हो गया। पर देश के भिन्न भिन्न खंडो और प्रदेशों के बीच तीर्थयात्रा और व्यापार के निमित्त आना जाना बराबर जारी रहा। हमारा देश इतना विस्तृत है, उसके भीतर जलवायु, जनसमाज, प्राकृतिक दृश्यों इत्यादि की इतनी अनेकरूपता है कि एक प्रदेश के निवासी को दूसरे दूरस्थ प्रदेश के विवरण में कुतूहल और मनोरंजन की पर्याप्त सामग्री मिल सकती है। पर न तो किसी पुराने तीर्थयातत्री ने सागर चुम्बित मलय प्रदेश का वर्णन लिख, न उत्ताराखंड के गगनचुम्बी शिखरों का।

सच पूछिए तो जिस प्रकार सच्ची ऐतिहासिक जिज्ञासा जनता में बराबर दबी सी रही है, उसी प्रकार भौगोलिक जिज्ञासा भी। पर है यह जिज्ञासा स्वाभाविक। इधर उधर उपयुक्त सामग्री पाकर अब यह जाग उठी है। अब यात्रा सम्बन्धी कुछ पुस्तकें दिखाई पड़ने लगी हैं। इस प्रकार की अच्छी पुस्तकें भी प्रस्तुत हो सकती हैं जब हम लोगों में साहसी यात्री उत्पन्न हों जो दूरस्थ दुर्गम प्रदेशों में भ्रमण करें। पर यात्रा का साहस ही पर्याप्त नहीं है। यात्री में जिज्ञासा का प्राचुर्य और निरीक्षण की पूरी शक्ति होनी चाहिए। इसके बिना सहस्रों कोस का पर्यटन करके भी वह किसी प्रदेश के वैचित्रय का सम्यक् उद्धाटन न कर सकेगा-उन बातों को सामने न रख सकेगा जिनमें मन स्वभावत: रमता है।

भारतवर्ष के एक छोर से दूसरे छोर तक स्थान स्थान पर हिन्दुओं के तीर्थ प्रतिष्ठित हैं। कुछ तो भारत की सीमा के बाहर भी हैं, जैसे-हिंगुलाज और कैलास मानससरोवर। चारों धामों की यात्रा न जाने कितने दिनों से होती आ रही हैं। सबसे विकट और दुर्गम उत्ताराखंड के बदरी केदार की यात्रा मानी जाती है। उत्ताराखंड या हिमालय प्रदेश एक न्यारा लोक ही जान पड़ता है। गगनचुम्बी तुषारमंडित शिखरों के बीच बढ़ते हुए यात्री को देवलोक के मार्ग का अनुभव होता है। जिस समय वह लौटकर घर आता है, उसके साहस पर कितना साधुवाद मिलता है, उसकी बातें कितनी उत्कंठा से सुनी जाती हैं। पर हमारे धर्मवीरों या यात्रावीरों के साहस की सीमा बदरी केदार के आगे नहीं बढ़ती।

उसके आगे तो वह स्वर्ग समझा जाता है जो शायद बिना मरे नहीं दिखाई पड़ सकता। कैलास मानससरोवर पर पैरों से चलकर पहुँचने की बात सामान्य जनता कभी ध्यान में नहीं लाती।

जो यह जानते हैं कि कैलास और मानससरोवर इसी भूलोक में हैं, उनके हृदय में अवश्य उक्त दिव्य दर्शनों के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की जिज्ञासाएँ उठती हैं। पर बहुत कम लोगों को उन्हें तृप्त करने का कुछ साधन प्राप्त होता है। उक्त दोनों स्थान तिब्बत में पड़ते हैं जहाँ कुछ दिनों पहले यात्रियों का पहुँचना एक प्रकार से असम्भव सा था। कुछ रमते साधु या सैर सपाटेवाले योरपियन ही उधर जा पड़ते थे। 17-18 वर्ष की अवस्था में उक्त प्रदेश का कुछ वर्णन ऍंगरेजी की एक पुस्तक में पाकर मैंने बड़े प्रेम से पढ़ा था। पर जहाँ तक मुझे स्मरण आता है, उससे मेरी तृप्ति नहीं हुई थी। उसके बहुत दिनों पीछे सत्यदेवजी की कैलास यात्रा हिन्दी में निकली, पर उस छोटी सी पुस्तक में मुझे मार्ग की दुर्गमता के रूख को वर्णन के अतिरिक्त और कुछ न मिला। कैलास मानससरोवर के सम्बन्ध में जो दिव्य, पुनीत और भव्य भावना परम्परा से बँधी चली आ रही है, उसी के अनुरूप हमारी जिज्ञासा भी हुआ करती है। ऐसी जिज्ञासा की तुष्टि वही यात्री कर सकता है जिसका अंत:करण जिज्ञासापूर्ण हो तथा जिसकी दृष्टि आसपास के स्वरूपों को स्पष्टता के साथ ग्रहण करनेवाली हो। इनके अतिरिक्त वर्णन द्वारा नाना दृश्यों के प्रत्यक्षीकरण की सामर्थ्य भी उसमें पूरी पूरी होनी चाहिए।

मुझे कितना आनन्द हुआ जब एक दिन अकस्मात् मेरे पुराने मित्र श्री सुशीलचन्द्र भट्टाचार्य इसी प्रकार के एक यात्री के रूप में मेरे सामने प्रकट हुए। मैंने बड़ी उत्कंठा के साथ उनकी कैलास मानससरोवर की यात्रा के सम्बन्ध में सैकड़ों प्रश्न पूछे। उन्होंने अपने वर्णन द्वारा मेरा बहुत कुछ कुतूहल शांत किया और दूसरे दिन कैलास मानससरोवर की यात्रा से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक फोटोग्राफ भी दिखाए।

अपनी यात्रा का विवरण उन्होंने बंग भाषा की प्रतिष्ठित पत्रिका वसुमती में खंडश: छपाया था जो पीछे पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। (रामचन्द्र वर्मा द्वारा अनूदित) वही पुस्तक हिन्दी में सामने पाकर मेरा आनन्द दूना हो गया। पाठक देखेंगे कि भाव पक्ष और व्यवहार पक्ष दोनों का उचित ध्यान रखकर इस पुस्तक का प्रणयन हुआ है। जिस प्रकार इसमें उन सब दृश्यों का सजीव और स्पष्ट चित्रण हुआ है जो सुषमा, भव्यता, विशालता, विचित्रता, पवित्रता इत्यादि की रहस्यमयी भावनाएँ जगाकर हमारे हृदय को अनुभूति की अत्यन्त रमणीय भूमि में पहुँचा देते हैं, उसी प्रकार उस विकट और दीर्घ यात्रा को निर्विघ्न और सुव्यवस्थापूर्वक समाप्त करने के लिए जितनी बातों का जानना आवश्यक है, उतनी सब और कहीं कहीं उससे बहुत अधिक भी इसमें दी हुई मिलेंगी। यह कह देना आवश्यक प्रतीत होता है कि यह पुस्तक केवल प्राकृतिक दृश्य वैचित्रय के अन्वेषक व्यक्तियों के निमित्त ही नहीं, धर्मपरायण तीर्थयात्रियों के उपयोग के लिए भी लिखी गई है। अत: इसमें कैलास मानससरोवर आदि की ठीक ठीक स्थिति का निर्देश करनेवाले प्रमाण भी रामायण, महाभारत पुराणादि से दिए गए हैं तथा प्रत्येक दर्शनीय स्थान का पूरा विवरण भी सन्निविष्ट है। इसके अतिरिक्त उन प्रदेशों में निवासियों के शील और आचार व्यवहार का भी परिचय दिया गया है जिससे यात्री बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं। यात्री को क्या क्या वस्तुएँ अपने पास रखनी चाहिए, मार्ग में कितने ठिकाने पड़ते हैं और कहाँ किस प्रकार की सवारी आदि का सुविधा हो सकती है, ये सब बातें मौजूद हैं। खर्च का भी ठीक ठीक ब्योरा दे दिया गया है।

अपने मित्र सुशील बाबू के धैर्य और साहस पर मैं जितना चकित और मुग्ध हूँ उतना ही इस प्रकार की पुस्तक प्रस्तुत करने के लिए कृतज्ञ भी हूँ। कैलास मानससरोवर के सम्बन्ध में ऐसी और कोई पुस्तक मेरे देखने में अभी तक नहीं आई।

(सन् 1935 ई.)

[ चिन्तामणि:भाग-4]