मानसिक पतन / शशि पुरवार
भोपाल जाने के लिए बस जल्दी पकड़ी और आगे की सीट पर सामान रखा था कि किसी के जोर जोर से रोने की आवाज आई, मैंने देखा एक भद्र महिला छाती पीट-पीट कर जोर जोर से रो रही थी।
"मेरा बच्चा मर गया... हाय क्या करू... कफ़न के लिए भी पैसे नहीं है। .
मदद करो बाबूजी, कोई तो मेरी मदद करो, मेरा बच्चा ऐसे ही पड़ा है घर पर। .....हाय मै क्या करूं."
उसका करूण रूदन सभी के दिल को बैचेन कर रहा था, सभी यात्रियों ने पैसे जमा करके उसे दिए,
"बाई जो हो गया उसे नहीं बदल सकते, धीरज रखो"
"हाँ बाबू जी, भगवान आप सबका भला करे, आपने एक दुखियारी की मदद की ".....!
ऐसा कहकर वह वहां से चली गयी। मुझसे रहा नहीं गया, मैंने सोचा पूरे पैसे देकर मदद कर देती हूँ, ऐसे समय तो किसी के काम आना ही चाहिए। जल्दी से पर्स लिया और उस दिशा में भागी जहाँ वह महिला गयी थी, पर जैसे ही बस के पीछे की दीवार के पास पहुची तो कदम वही रूक गए।
दृश्य ऐसा था कि एक मैली चादर पर एक 6-7 साल का बालक बैठा था और कुछ खा रहा था। उस भद्र महिला ने पहले अपने आंसू पोछे, बच्चे को प्यारी सी मुस्कान के साथ, बलैयां ली, फिर सारे पैसे गिने और अपनी पोटली को कमर में खोसा फिर बच्चे से बोली -
"अभी आती हूँ यहीं बैठना, कहीं नहीं जाना।"
और पुनः उसी रूदन के साथ दूसरी बस में चढ़ गयी।
मै अवाक सी देखती रह गयी व थकित कदमो से पुनः अपनी सीट पर आकर बैठ गयी। यह नजारा नजरो के सामने से गया ही नहीं, लोग कैसे-कैसे हथकंडे अपनाते है भीख मांगने के लिए कि बच्चे की इतनी बड़ी झूठी कसम भी खा लेते है, आजकल लोगो की मानसिकता में कितना पतन आ गया है।