मानसून में हि‍रनी फॉल / रश्मि शर्मा

Gadya Kosh से
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रॉंची से 120 - 125 कि‍लोमीटर की दूरी पर है चक्रधरपुर। पर कभी गई नहीं थी उस ओर। अचानक एक मि‍त्र के घर जाना पड़ा। मानसून के खुशनुमा मौसम में नि‍कल पड़े सड़क मार्ग से। रॉंची से शुरू कि‍या सफर खूंटी, मुरहू, बंदगॉंव होते हुए चक्रधरपुर तक। एन एच 75 पर गुजरते हुए लग रहा था जैसे इतनी खूबसूरती कभी देखी न हो। मुरहू से थोड़ा आगे नि‍कले तो पोडाहाट का जंगल शुरू हो गया। घनेरे हरे-भरे जंगल और पहाड़ों की चोटी पर ठहरे बादल जैसे शि‍खर पर बर्फ लि‍पटी हो। कहीं सीधी तो कहीं बलखाती सड़क। सड़क के दोनों कि‍नारे इतने हरे-भरे पेड़ है कि‍ लगता है स्‍वच्‍छ वायु को अपने अंदर इतना भर लें, कि‍ कुछ दि‍नों तक ताजी हवा का अहसास होता रहे।

नीचे घाटी है तो ऊपर पहाड़। घने जंगल के बीच सीढ़ीदार खेती और बीच में झोपड़ीनुमा घर देख लगता है कि‍ हम वाकई पहाड़ पर चले आए हैं। वैसे तो झारखंड पठारी इलाका है, यहां की मि‍ट्टी भूरे रंग की होती है पर यह हरि‍याली देखकर लगता है अपना छोटानागपुर का क्षेत्र कि‍सी भी हि‍ल स्‍टेशन को टक्‍कर दे सकता है।

सड़क से धीमी रफ्तार से चलते-चलते हमें अचानक नदी के कलकल की आवाज आई। हम रुककर नीचे घाटी में झॉंके। नीचे पतली-सी नदी नजर आई, जि‍सका पानी मटमैला लग रहा था। पता चला ये रामगढ़ नदी का पानी है, जो नीचे उतरकर हि‍रनी जलप्रपात में तब्‍दील हो जाती है। नीचे गेस्‍ट हाउस जैसा नजर आ रहा था। हम बेहद खुश हुए कि‍ प्रकृति‍ के और पास जाने का मौका मि‍ल रहा है।

जरा नीचे घाटी से उतरने पर सड़क से आधा कि‍लोमीटर अंदर है हि‍रनी फॉल। अच्‍छा लगा कि‍ सरकार ने थोडा़ काम करवाया है यहां। हमें दो गार्ड भी मि‍ले, जो उस पूरे परि‍सर में मौजूद हमारे अलावा दो अन्‍य इंसान थे। अंदर जाने के लि‍ए टि‍कट भी है। साफ-सफाई की जाती है ऐसा लगा, या फि‍र अभी पि‍कनि‍क का मौसम नहीं, कोई भीड़भाड़ नहीं, सो स्‍वच्‍छता थी। रॉंची से बस 80 कि‍लोमीटर की दूरी पर है यह खूबसूरत जलप्रपात।

ऊपर पहाड़ों से चार धाराऍं नीचे आ रही थी। एक मोटी धार और बाकी पतली। करीब 121 फीट की ऊँचाई से गि‍रता है पानी। आसपास कई तरह के पौधे। सब हरे, मगर सबका हरापन अलग सा। पानी नीचे जाकर जरा गंदला सा लग रहा है। शायद बरसाती पानी और मि‍ट्टी के मि‍ल जाने के कारण ऐसा हुआ होगा। पानी के ऊपर एक छोटी सी पुलि‍या थी, जहां खड़े रहकर झरने का आनंद उठाया जा सकता है। कुछ बैठने के लि‍ए शेड भी हैं। वहां ऊपर जाने का रास्‍ता भी है। लोग झरने के पानी तक जा सकते हैं, घने पेड़ -पौधों के बीच से। मगर हमें आगे जाना था, इसलि‍ए नीचे से ही नि‍कल लि‍ए।

आगे सफ़र में हरि‍याली ने साथ नहीं छोड़ा। कहीं गाढ़ा हरा तो कहीं हल्‍का । पेडों के पत्‍तों का रंग गहरा था तो धान की बालि‍यों से लहलहाते सुग्‍गापंखी खेत। कच्‍चे घर, कहीं लकड़ी के बने तो कहीं खपरैल। सड़क पर साइकि‍ल सवार अपने कैरि‍यर में लकड़ी का बड़ा ऊँचा-सा गट्ठर लेकर चले जा रहे थे। गजब का संतुलन नजर आ रहा था। नीचे घाटी पर तेजी से उतरती साइकि‍ल और उस पर एक बड़ा गट्ठर। बेशक ये अवैध लकड़ि‍यां थी जो उन्‍होंने जंगल से अपने घर या बि‍क्री के लि‍ए काटी होंगी। पर आदि‍वासि‍यों के लि‍ए जंगल ही उनकी जीवि‍का का साधन है।

सड़क कि‍नारे कुछ बच्‍चे और थोड़ी-थोड़ी दूर पर कई जगह औरतें रूगड़ा लेकर बैठी थी कि‍ कोई सफर वाला इसे खरीद ले। बरसात के मौसम में रूगड़ा होता है। यह साल के जंगलों में मि‍लता है। रूगड़ा दो प्रकार का होता है, सफेद और काला रूगड़ा। आदि‍वासी महि‍लाएं इसे जंगलों से चुनकर लाती हैं। जहां से रूगड़ा नि‍कलता है उस जगह पर जमीन में दरारें पड़ जाती है। यह दोनों तरह से बि‍कता है, मि‍ट्टी सहि‍त या धोकर। धोने के बाद गोल-गोल सफेद दि‍खता है। इसे काटकर पकाया और खाया जाता है। स्‍वाद में बि‍ल्‍कुल मांसाहारी। ग्रामीणों का कहना है कि‍ रूगड़ा तभी नि‍कलता है जब बादल गरजते हैं। जि‍तनी अधि‍क बारि‍श होगी, रूगड़ा उतना ही नि‍कलेगा।

दरअसल जहां साल या सखुआ वृक्ष की पत्‍ति‍यां गि‍र कर सड़ती हैं, वहीं रूगड़ा उत्‍पन्‍न होता है। आदि‍वासि‍यों का मानना है कि‍ जि‍तना अधि‍क बादल गरजेंगे, बि‍जली कड़केगी, रूगड़ा उतना ही मि‍लेगा। यह मशरूम की प्रजाति‍ का होता है और स्‍वाद के साथ-साथ भरपूर पौष्‍टि‍क भी होता है। इसलि‍ए इसका दाम भी बहुत ज्‍यादा है। इस मौसम में रूगड़ा 400 रूपए कि‍लो बि‍का शुरूआत में और अभी भी बाजार में इसकी कीमत 160 रुपये कि‍लो है।

बहरहाल, हमने भी सोचा रूगड़ा खरीदा जाए, मगर वापसी में। हम चल रहे थे आगे और हमारे साथ था पोड़ाहाट का जंगल । पोड़ाहाट और सारंडा के जंगल को नक्‍सलि‍यों के कारण ज्‍यादा जाना जाता है। आए दि‍न नक्‍सली गति‍वि‍धि‍यों की खबर आती है। जंगलों में हाथी भी बहुत हैं जो कभी- कभी गांवों की ओर भी आ जाते हैं। यहां के जंगलों में साल, आम, कटहल, पलाश आदि‍ कई तरह के वृक्ष मि‍लते हैं। बहुत घना जंगल है और उतना ही खूबसूरत।

मानसून है इन दि‍नों। इतना भीगा-भीगा सा मौसम था जैसे पेड़ों ने अपनी फुनगि‍यों पर पानी समेट रखा है और धीरे-धीरे बरसा रही हैं जल जि‍ससे सारा वातावरण भीग रहा है। खेतों में औरतें धनरोपनी कर रही है। घुटनों तक साड़ी उठाए, झुकी हुई धान के बि‍चड़े (पौध) रोप रही थी। दूर से रंग-बि‍रंगे कपड़े पहने बहुत ही खूबसूरत लग रहा था सारा नजारा। पहाड़, हरि‍याली और खेतों का संगम आंखों के साथ-साथ दि‍ल को भी हरा कर रहा था।

इतनी देर सफर के बाद चाय की तलब हुई। हम नकटी गॉंव रुके। वहॉं एक झोपड़ी में वृद्ध महि‍ला ने कोयला चूल्‍हा सुलगाकर हमारे लि‍ए चाय बनाई। धुऍं की गंध के बावजूद चाय अच्‍छी बनी थी। अब कराईकेला के बाद चक्रधरपुर।

थोड़ी ही देर में हम चक्रधरपुर में थे। मि‍त्र का आवास हवेलीनुमा है। बाहर से भी और अंदर से भी। यह मकान 1930 में बनकर पूरा हुआ था। दीवार पर लगी तस्‍वीर में उसके दादाजी के साथ लेखक वि‍मलमि‍त्र की तस्‍वीर थी। पता चला कि‍ लेखक वि‍मल मि‍त्र का यहॉं आना-जाना था। मि‍त्र के दादाजी आचार्य शशि‍कर ने उनको अपने पुत्र के ब्‍याह का नि‍मंत्रण भेजा था और वो सबसे मि‍लने चक्रधरपुर आए थे।

वि‍मल मि‍त्र जी रेलवे में काम करते थे और कुछ दि‍नों तक चक्रधरपुर डि‍वीजन में भी काम कि‍या था। यह लगभग 1940 के आसपास की बात है। उनके उपन्‍यास ‘चार ऑंखों का खेल’ चक्र धरपुर में रह रहे एंग्‍लो-इंडि‍यन के ऊपर आधारि‍त है। बाद में उन्‍होंनें नौकरी छोड़ दी थी।

चक्रधरपुर पश्‍चि‍मी सि‍ंहभूम में पहाड़ि‍यों से घि‍रा छोटा सा शहर है। आसपास जंगल होने के कारण यहॉं पहले बीड़ी का व्‍यापार खूब फलता-फूलता था। दूसरा, रेलवे डि‍वीजन होने के कारण यहॉं, रेलवे कर्मचारी अधि‍क हैं और यह शहर अपने रेलवे स्‍टेशन कोड के नाम पर रखा सी के पी के नाम से जाना जाता है। पोड़ाहाट (चक्रधरपुर) अखंड सि‍ंहभूम की राजधानी रही है।

हमलोगों ने काफी वक्‍त वहॉं गुजारा फि‍र दि‍न के भोजन के बाद वहां से चल पड़े। चूंकि‍ रास्‍ता लगभग सुनसान है और घाटी भी है, सो रात घि‍रने से पहले हमें लौटना ही था। बातचीत करते, नज़़ारे देखते हम लौटने लगे।

अब बारि‍श तेज होने लगी थी। घाटी की खूबसूरती और बढ़ गई इससे। तभी एक मोड़ पर एक औरत रूगड़ा बेचती दि‍खी। आखि‍रकार हमने गाड़ी रोक ही दी। उसने दो बरतन में रूगड़ा और दो में अमरूद रखे थे बेचने को। देखने से अमरूद काफी ताज़़ा लग रहा था, जैसे अभी तोड़ा हो। उसके पास एक काला कुत्‍ता बैठा था, साथ ही एक काली छतरी भी रखी थी बगल में। हमने दाम पूछा। वो हि‍ंदी बोल नहीं पा रही थी। उसने कहा- पुटका 90 टका, और टमरस 20 टका का। पुटका यानी रूगड़ा और टमरस मतलब अमरूद। तोलमोल का कोई हि‍साब नहीं था। सो जि‍तना कहा हमने उसे पैसे देकर सब खरीद लि‍या, क्‍योंकि‍ हम जानते थे कि‍ सामान खराब नहीं होगा और सब बि‍क जाने पर वह घर जा सकेगी। उसने बरतन समेटेे अपने। मैंने पूछा - ये कौन सी जगह है?

टेबो घाटी बोलकर वह चल पड़ी, हम भी। हमने वहीं अमरूद खाए, लाल अमरूद यानी टमरस का स्‍वाद बहुत दि‍न बाद लि‍या।

शाम होने वाली थी। गॉंव वालों की चहल-पहल से अच्‍छा लग रहा था। कुछ महि‍लाऍं भीगते हुए कुऍं पर कपड़े धो रही थी तो कुछ नहा रही थी। बच्‍चे छतरी ताने कहीं जा रहे थे, तो कुछ मुर्गियां दाना चुन रही थी घर के बाहर। खेतों में पानी जमा था। धान के नए पौधे का रंग खूब हरा, खूब सुंदर । पेड़ गहरे हरे रंग के थे। बारि‍श से दूर के सारे पेड़ धुंध में घि‍रे नजर आ रहे थे। भेड़, बकरी और गाय एक साथ चर रही थीं। उनका बूढ़ा चरवाहा छाता लि‍ए आराम से बैठा हुआ जानवरों को घास चरते देख रहा था। वापसी में वही नजारा। धान रोपती महि‍लाएं। ये श्रम का कार्य है। कई-कई दि‍न लग जाते हैं। छोटी बच्‍ची अपने से भी छोटी बहन को साइकि‍ल पर घुमा रही थी। एक औरत माथे पर झुरी (छोटी-छोटी सूखी लकड़ि‍यॉं) का बंडल लेकर एक हाथ से अपने बच्‍चे का हाथ थाम कर चली जा रही थी।

अब शाम ढलने लगी। बारि‍श भी तेज हो गई थी। हमने सफर का पूरा आनंद लि‍या और मानसून की हरीभरी याद लेकर चक्रधरपुर से वापस घर।

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