मानस का हंस / अमृतलाल नागर / पृष्ठ-1
श्रावण कृष्णपक्ष की रात। मूसलाधार वर्षा, बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़कन से धरती लरज-लरज उठती है। एक खण्डहर देवालय के भीतर बौछारों से बचाव करते सिमटकर बैठे हुए तीन व्यक्ति बिजली के उजाले में पलभर के लिए तनिक उजागर होकर फिर अंधेरे में विलीन हो जाते हैं। स्वर ही उनके अस्तित्व के परिचायक हैं। ‘‘बादल ऐसे गरज रहे हैं मानो सर्वग्रासिनी काम क्षुधा किसी संत के अंतर आलोक को निगलकर दम्भ-भरी डकारें ले रही हो। बौछारें पछतावे के तारों-सी सनसना रही है।.....बीच-बीच में बिजली भी वैसे ही चमक उठती है जैसे कामी के मन में क्षण-भर के लिए भक्ति चमक उठती है।’’
‘‘इस पतित की प्रार्थना स्वीकारें गुरु जी, अब अधिक कुछ न कहें। मेरे प्राण के भीतर-बाहर कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं पा रहे हैं। आपके सत्य वचनों से मेरी विवशता पछाड़े खा रही है।’’ ‘‘हां ऽ, एक रूप में विवशता इस समय हमें भी सता रही है। जो ऐसे ही बरसता रहा हो हम सबेरे राजापुर कैसे पहुंच सकेंगे रामू ?’’
‘‘राम जी कृपालु है प्रभु। राजापुर अब अधिक दूर नहीं है। हो सकता है, चलने के समय तक पानी रुक जाय।’’ तीसरे स्वर की बात सच्ची सिद्ध हुई। घड़ी-भर में ही बरखा थम गई। अंधेरे में तीन आकृतियां मन्दिर के बाहर निकलकर चल पड़ी। ............................................... मैना कहारिन सबेरे जब टहल-सेवा के लिए आई तो पहले कुछ देर तक द्वारे की कुण्डी खटखटाती रही, सोचा नित्य की तरह भीतर से अर्गल लगी होगी, फिर औचक में हाथ का तनिक-सा दबाव पड़ा तो देखा कि किवाड़े उढ़के-भर थे। भीतर गई, ‘दादी-दादी’ पुकारा, रसोई वाले दालान में झांका, रहने वाले कोठे में देखा पर मैया कहीं भी न थीं। मैना का मन ठनका। बाकी सारा घर तो अब धीरे-धीरे खण्डहर हो चला है और कहां देखे ! पुकारे से भी तो नहीं बोलीं। कहां गई ? मैना ने एक बार सारा घर छानने की ठानी, तब देखा कि वे ऊपरवाले अध-खण्डहर कमरे में अचेत पड़ी तप रही हैं।
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