मानुष तन / आदित्य अभिनव

Gadya Kosh से
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"शब्बो! चल जल्दी निकल लेते हैं। अम्मा शाम को छ: बजे जटाहवा बरम बाबा वाले शिवाला में आने को कही थी।" अनारो ने ट्रेन से उतरते हुए अपनी प्यारी सखी शबनम से कहा, जिसे प्यार से वह शब्बो बुलाती है।

"अनारो! समय तो देखो। पाँच बज गए हैं और पाँच किलोमीटर की दूरी तय करनी है, वह भी पैदल। कोई सवारी भी तो नहीं मिलती।" शबनम ने अपने दुपट्टे को फिर से ओढ़ते हुए कहा।

"शब्बो! तुम तो मेरी लखतेज़िगर हो। अगर तुम न समझोगी तो कौन समझेगा। अम्मा कितनी मुश्किल से आएगी मुझसे मिलने। भैया को पता चल जाए तो घर में प्रलय आ जाए। लेकिन माँ–तो आखिर माँ होती है शब्बो माँ।" अनारो का स्वर भारी होने लगा था।

"अनारो! तुम ठीक कह रही हो माँ–तो केवल माँ होती है। मैं भी जब अपने माँ के बारे में सोचती हूँ जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं, माँ की ममता क्या होती है जाना ही नहीं, तो भी इतना तो समझ ही जाती हूँ कि माँ-माँ होती है ठीक तुम्हारी माँ जैसी।" पिघलती हुई शबनम ने अपने जूड़े को गालों पर मारते हुए कहा।

"शब्बो! तेरे पप्पा तो होंगे। उनको तो तुमने देखा होगा।" अनारो ने कहा।

" मैं तो जनमजली हूँ। जन्म देते समय माँ चल बसी। पप्पा एक नम्बर का शराबी। दादी के गोद में पलने बढ़ने लगी। पता नहीं कैसे पड़ोसियों को भनक लग गई। चार साल की हुई

थी। घर परिवार, टोला मुहल्ला ढ़ंग से पहचाना भी न था कि एक दिन गुरु महाराज पहुँच गए दल बल के साथ और अपने डेरे पर लेकर आ गए। दादी ने छुपाने की बहुत कोशिश की लेकिन गुरु महाराज के आगे एक न चल सकी। पिछले साल गाँव में बधैया गाने गई थी तो पता चला कि दादी तो बहुत पहले ही चल बसी थी और पप्पा को-को भी शराब ने पिछले साल पी लिया। "


दोनों सखियाँ तेज कदमों से लवकुशपुर की ओर बढ़ रही थीं। दूर-दूर तक कोई भी आता जाता नहीं दिखाई नहीं पड़ रहा था। ट्रेन में भी 630 रुपये की उगाही कर ली थी दोनों ने। स्लीपर डिब्बें में ज्यादा हाथ लगता है। अनारो का गला बड़ा ही सुरीला है इस लिए अनारो ही गाती है और शबनम ताली बजाकर पैसा इक्कट्ठा करती है। रुपये को मोड़कर अंगुलियों में फसाने के बाद भी ताली बजाने में अब इन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। एस 6 में पाँच सात कॉलेजिया लड़के टोंट पर टोंट कसे जा रहे थे लेकिन पॉकिट से फूटी कौड़ी न निकाल रहे थे। अनारो आकर बैठ गई थी नेता बन रहे लड़के पास और अपना दुपट्टा ओढ़ा दिया। झट पॉकिट से दस रुपये का नोट निकाल थमा दिया कॉलेजिया हीरो बाबू ने।

"ठीक किया तुमने अनारो! बड़ा सयाना बन रहा था र—साला।" शबनम ने अनारो के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

"अरे, शब्बो मेरी जान! ऐसे-ऐसे न जाने कितने को मैंने शीशे में उतारा है। वह तो अभी कच्ची उमर का उफान है।" अनारो ने इठलाते हुए कहा।

तभी ट्रैक्टर की आवाज सुनाई दी। पीछे कुछ दूरी पर एक ट्रेलर आता दिखाई दिया। दो छोकरे थे। एक चला रहा था दूसरा माथे पर मुरेठा बाँधे मगन हो गा रहा था–

हमारा चढ़ल बा जवनिया गवना ले जा राजा जी

अरे ले जा राजा जी अरे ले जा राजा जी

कैसे काटी हम जवनिया गवना ले जा राजा जी

" ऐ बाबू! कहाँ जायेंगे? लवकुशपुर तक चलेंगे क्या? अनारो ने मुस्कान फेंकते हुए पूछा।

"हाँ–हाँ, लवकुशपुर से आगे मुबारकपुर तक जाना है।" ट्रैक्टर चला रहे नौजवान ने कहा।

"हम भी बैठ लें।" शब्बो ने अनुरोध किया।

"हाँ–हाँ, आ जाओ।" पीछे बैठे मुरेठा बाँधे नौजवान ने कहा।


ट्रेलर में बैठने के बाद मुरेठे वाला नौजवान भी पीछे ट्रेलर में आ गया। वह अनारो के पास सट कर खड़ा हो गया। कली को देखकर भौरा मँडराने लगा। अनारो का लम्बा छरहरा बदन, कमर तक लटके काले-काले बाल, चमकता दुधिया रंग और गालों पर छिटक रही लाली किसी को भी उसे नारी का अप्रतिम सौंदर्य मानने के लिए बाध्य कर देता था। उसकी नजरें बार-बार उसे ऊपर से नीचे तक घूर रही थी। उसे थोड़ा-सा संदेह उसके आवाज के भारीपन से हुआ था लेकिन प्रेम के अंकुर ने संदेह को टिकने नहीं दिया।

"आपके पिताजी का नाम?" उसने पूछा।

"मेरा नाम अनारो है।"

"और मेरा शबनम।"

नौजवान का भ्रम दूर हो गया था। लेकिन वह यह देखकर हैरान था कि इतना सुंदर कोई किन्नर भी हो सकता है।

"रोक देना भैया! आ गया जटाहवा बरम बाबा।" अनारो ने आवाज लगाया।

शिवाला पहुँचते ही दोनों ने पहले देवाधिदेव महादेव भगवान् शिव को माथा टेका फिर मंदिर के बरामदे में बैठ इंतजार करने लगे।


रामेश्वर साहनी के घर नौ साल बाद खुशी आई है। बेटे अमर के जन्म के बाद रामेश्वर को लगने लगा था कि अब कुछ न होगा। अपनी पत्नी पार्वती को वह अब ऊसर खेत ही मान चुके थे। लेकिन आठ साल बाद ठूँठ गाछ फिर से हरिआई थी। दाई रामरती का मायका और रामेश्वर का ननिहाल एक ही गाँव में था। रामरती के साथ पार्वती का ननद भौजाई का रिश्ता था। सोइरी में बच्चे की रोने की आवाज सुन रामेश्वर हुलस उठे थे। पार्वती प्रसव पीड़ा से कराह रही थी। रामरती ने बच्चे को गोद में लिया।

"अरे! इ का भया–ये दइया!" कहकर रामरती ने अपना माथा पीट लिया।

"काहे माथा पीट रही हो, बधैया देने के जगह रुलैया काहे, बबुनी!" पार्वती ने कराहते हुए कहा।

"बच्ची को गोद में लिए हुए रामरती पार्वती के कान के पास आकर बोली" धोखा होई गवा खोजवा–पैदा होइस हवै। "

पार्वती यह सुनने को तैयार नहीं थी। वह बोली "ठीक से देखी–बबुनी हमे लड़की लागत हवै।"

"ना ए भौजी! खोजवा–हवै हम बच्चा पैदा करवाते-करवाते बुढ़ा गईनी। हमार अखिया धोखा नाही खा सकै।"

"जे ऊपर वाला के मर्जी। लाओ हमारा गोद में दै–द।" ठंडी साँस भरते हुए पार्वती ने कहा।

"बबुनी! तु हमार ननद हऊ–हम तोहके सोना के कंठा देब। ई बात तोहरा सिवा केहू के पता नाही लागे के चाही।" पार्वती के स्वर में अनुनय भरा था।

टी. वी. मैकेनिक रामेश्वर ने बच्ची का नाम रखा–आशा। उसके पैदा होते ही उनकी इलेक्ट्रोनिक की दुकान चल निकली। पहले जहाँ पूरे दिन में इक्का दुक्का टी. वी., पंखा और रेडियो मरम्मत के लिए आते थे वहीं अब रोज कम से कम चार–पाँच टी. वी., पंखा और रेडियो आ ही जाते हैं। आशा जगी थी आशा के आने के बाद। छठियार बड़े धूमधाम से किया था रामेश्वर ने। पार्वती आशा को हमेशा हृदय से सटाये रखती थी। इलैस्टिक की कच्छी और चुन्नट वाला फ्रॉक पहनाती। बच्ची का गुह मूत खुद करती; किसी और को नहीं करने देती। अब घर से बाहर भी वह कम ही निकलती। कभी कभार जब आशा सो रही होती तो आस पास के औरतों से टोले मुहल्ले का हाल चाल ले लेती, नहीं तो वह घर गृहस्थी और आशा में ही व्यस्त रहती। अमर चौदह वर्ष का हो चुका था। गाँव से पाँच किलोमीटर दूर बसंतपुर कस्बे के गवर्मेंट हाई स्कूल में नौवीं कक्षा में था। पढ़ने में कुछ खास नहीं था लेकिन पिता चाहते थे कि जहाँ तक चाहेगा पढ़ायेंगे। आशा का पाँचवाँ पूरा होने वाला था।

सावन का महीना उतरने वाला था। रात को मूसलाधार बारिश हुई। मुहल्ले का पोखर पानी से लबालब भर गया। रामेश्वर दुकान पर थे। अमर स्कूल चला गया था। पार्वती आटा गूँध रही थी। खिड़की से बच्चों को कागज का नाव चलाता देख आशा मन ही

मन मचल उठी। चुपके से निकल गई। वह भी बच्चों के साथ पोखर में तैर रहे नावों को पानी के हिलोरों से आगे बढ़ाने लगी। नाव को आगे करने के चक्कर में ध्यान ही नहीं रहा और उसका पैर फिसल गया, वह पानी में गिर पड़ी। बच्चों ने शोर मचाया "आशा पोखर में गिर गई गिर गई।"

यह तो भगवान् की कृपा थी रामेश्वर के पड़ोसी रामबचन राय गेहूँ पिसवाने के लिए साईकिल से जा रहे थे। तुरंत साईकिल वहीं पटक, पानी में कूद गए और आशा को निकाल लाए। तब तक वह दो डुबकी पानी में लगा चुकी थी। पोखर के बगल में ही शत्रुघ्न सिंह का मकान था। उनकी पत्नी बसंती देवी दौड़ी–दौड़ी आई। तुरंत आशा को लिटाकर पानी

निकालने का प्रयास किया गया। बसंती देवी उसे अपने घर ले आई। तौलिया से हर अंग का पानी पोछने लगी। सिर के बाल का पानी, चेहरा, छाती, कमर जाँघ अरे! यह–क्या यह-यह तो वह है खो—ज—वा खोजवा। "बसंती का माथा भन्न से किया। अच्छा तो अब तक पार्वती टोला, मुहल्ला, गाँव समाज से छुपाती रही। अब समझ में आया कि क्यों न आने देती थी अपनी बेटी को।" बसंती अचंभित हो मन ही मन गुणा भाग करने लगी।

थोड़ी देर बाद पार्वती रोती गाती आई और आशा को ले गई। पार्वती के जाते ही बसंती ने मुहल्ले की सात आठ महिलाओं को यह खबर सुनाई तब जाकर उसके पेट का पानी पचा। इधर पार्वती को मन ही मन अनुमान हो गया था कि तोता उड़ चुका है। मुहल्ले वालों की नजरों से उसे डर लगने लगा था। रात में पति से बोली "सुनते हैं, एक बात आपसे सीने पर सिल रखकर छुपाया है।"

"आखिर कौन-सी ऐसी बात है जो तुम मुझसे छुपाई थी वह भी सीने पर सिल रखकर।" रामेश्वर ने आश्चर्य से पत्नी को देखते हुए कहा।

"अपनी आशा लड़की नहीं–खोजवा है।" पार्वती ने सहमते हुए कहा।

"क्या?" रामेश्वर का मुँह खुला का खुला रह गया।

"हाँ–अमर के पापा हाँ।" कहकर पार्वती अपना सिर रामेश्वर के गोद में रख सिसकने लगी।

"हम सब दैव के आगे लाचार हैं, आशा की अम्मा; धीरज रखो।" रामेश्वर सांत्वना देते हुए पार्वती के सिर पर हाथ फेरने लगे।

पार्वती अब और ज्यादा चौकस रहती। आशा को बाहर नहीं निकलने देती। घर पर ही आशा के पढ़ने की व्यवस्था रामेश्वर ने कर दी। बसंतपुर से कॉन्वेंट में चलने वाली यू. के. जी. में चलने वाली सारी किताब कॉपियाँ खरीद लाए। अमर ने सब पर आशा का नाम, पिता का नाम और पता मोबाइल नम्बर के साथ लिख दिया। आशा के लिए यह पढ़ने के साथ-साथ खेलने का सामान भी था। वह हमेशा बैग अपने साथ रखती।

शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। अमर स्कूल से घर आ रहा था। अभी मुहल्ले में प्रवेश ही किया था कि देखा, सात आठ किन्नरों का जमात ताली पीटते हुए मुहल्ले से निकल रहा था। आपस में वे जो बातें कर रहे थे उससे ऐसा लग रहा था जैसे किसी को ले जाने के लिए आए हों। स्कूल में अपने साथियों से इनके बारे में बहुत कुछ सुन रखा था अमर ने। ताली पीट कर जबरन पैसा उगाहते हैं, अश्लील इशारें करते हैं, ऐसा सुना था उसने। उन्हें देखकर उसके मन में क्रोध और घृणा का मिश्रित भाव जाग उठा।

घर पहुचा तो माँ को डरा सहमा पाया। वह घर के कोने में आशा को सीने से चिपकाए रो रही थी।

" क्या हुआ, अम्मा! तुम रो क्यों रही हो? अमर ने बैग रखते हुए कहा।

दो दिन बाद ग्यारह बजे एकाएक किन्नरों की गुरु कमला मौसी अपने दल बल के साथ आ धमकी। सीधे घर में घुस गई। इस बार पार्वती को छुपाने का मौका नहीं मिल पाया। बेड रूम में पलंग के नीचे पार्वती ने छुपाया ही था कि कमला मौसी की नज़र पड़ गई। पलंग के नीचे घुसकर आशा को अपने गोद में लिए घर के बाहर आ गई। आशा अपने सीने से बैग को सटाये रोये जा रही थी। पार्वती कमला मौसी के पैरों पर गिर गिड़गिड़ाने लगी। "आप छोड़ दीजिए मेरी बच्ची को, हम इसे अपनी बेटी की तरह पालेंगे। छोड़ दीजिए–छोड़ दीजिए भगवान् की कसम छोड़ दीजिए।"

"यह हमारी जाति की है और इसे हम ले जायेंगे। आपने बहुत चालाकी दिखाई। कुल देवी बुचरा माता की आज्ञा है और हम इसका पालन करेंगे।" यह कह कमला मौसी आशा को जबरदस्ती गोद में उठा अपने दल बल के साथ चल दी। पूरा मुहल्ला मूक दर्शक बना हुआ था। पार्वती पछाड़ खाकर गिर पड़ी।

मंदिर के बरामदे में बैठी अनारो अपनी यादों में खो गई। उसे पिता की धुँधली-धुँधली याद आ रही थी। छ: फीट लम्बा कद काठी, बड़ी–बड़ी आँखें, रोबीला चेहरा और घनी मूँछे। वे घर पर लुंगी बनियान पहनते लेकिन दुकान जाते समय पैंट शर्ट पहना करते थे। पॉकेट में हमेशा टेस्टर पेन की तरह खोसे रहते। साईकिल उनका हमेशा चमकते

रहता। माँ का रोता कलपता चेहरा उसके आँखों के सामने बार-बार उभर आता है। वह गुरु महाराज कमला मौसी के पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ा रही थी लेकिन गुरु महाराज ने तनिक भी दया नहीं की। पिताजी दुकान पर थे और भैया स्कूल गया था। माँ का गोरा चटक रंग, पतला छरहरा शरीर, गोल मुखड़ा, नुकीली नाक और कमर तक लटकते काले-काले बाल। माँ का सुंदर सलोना रूप आँखों में तैरने लगा। भैया को याद करती है तो उसे लम्बे–पतले शरीर के साथ उसका गुस्सैल रूप भी प्रकट हो जाता है। एक बार खेल-खेल में उसने कॉपी फाड़ दिया था तो उसने गुस्से में उसे ऐसा थप्पड़ लगाया था कि पाँचों अंगुलियों के निशान उभर आए थे उसके बायें गाल पर। वह डरी सहमी रोती हुई माँ से लिपट गई थी। तब से वह मन ही मन भाई से बहुत डरती है। वह डर आज भी उसके जेहन से गया नहीं है। चौदह साल बाद पुराने ज़ंग लगे बक्से में उसे अपना बस्ता मिला था जो वह अपने साथ लाई थी। कितना खुश हुई थी वह पता और मोबाइल नम्बर पा कर। ऐसा लग रहा था कि वह फिर से चौदह साल पीछे चली गई हो अनारो नहीं वह आशा हो—अपने माँ की प्यारी दुलारी बेटी आशा। डरते-डरते रिंग किया था कि कहीं भाई न उठा ले। लेकिन भगवान् अरावन की कृपा रही कि माँ ने ही उठाया था। मैंने जब कहा था "प्रणाम अम्मा! मैं तुम्हारी आशा बोल रही हूँ" तो कुछ समय के लिए तो ऐसा लगा जैसे उसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा है। फिर धीरे से कहा था "युग युग जीओ बेटी–युग युग जीओ।" माँ के दर्द को वह मोबाइल पर ही महसूस कर रही थी। पिताजी के बारे में पूछा तो माँ की हिचकियाँ स्पष्ट सुनाई देने लगी थी। समझ गई कि पिताजी नहीं रहे। माँ के अकेलेपन और विवशता का आभास उसके आवाज से हो रहा था। भैया का नाम लिया तो कहने लगी "अब पिताजी की दुकान वही सम्भालता है। उसकी शादी हो गई है। दो बच्चें हैं–लड़का छ: साल का और लड़की तीन साल की।" मैंने कहा था "अम्मा! मुझे पता मिल गया है, कल आऊँगी लवकुशपुर।" "हाँ—हाँ बेटी–कल ही आओ–हाँ–कल ही। उसकी खुशी हुलसते स्वरों में स्पष्ट झलक रही थी। अगले ही क्षण उसने चेताते हुए कहा था" बेटी! शाम को छ: बजे के बाद आना, अमर जब दुकान पर रहे। तुम्हारा नाम सुनते ही आग बबूला हो जाता है। कहता है हमारा नाम डुबो दिया इसने। अब भी जब कोई कहता है कि तुम्हारी बहन खोज़वा है तो मन करता है कि चुल्लू भर पानी में डूब मरूँ। तुमसे पता नहीं क्या बैर है? अपनी एकलाद बहन से ही घृणा, समझ में नहीं आता, बेटी। शाम को ही आना

जटाहवा बरम बाबा वाले शिवाला पर छ: बजे। मैं किसी तरह आ जाऊँगी मिलने। अखियाँ तरस गई हैं बेटी। " अनारो के आँखों से आँसू टपकने लगे थे।

तभी दूर एक पतली काया साड़ी में लिपटी आती दिख पड़ी। माँ ही होगी। वह उठ कर खड़ी हो गई। धीरे-धीरे वह काया समीप आ गई। चेहरे को गौर से देखने लगी अनारो। "अम्मा!" कहकर वह गले से लिपट गई।

"मेरी बच्ची!" अनारो के बालों पर हाथ फेरते हुए पार्वती फूट पड़ी।

अनारो ने माँ के आँसुओं को पोछते हुए कहा "चलो अम्मा! मंदिर के बरामदे में बैठते हैं।"

"बेटी! तुम्हें देखने के लिए मेरी आँखें छछन गई थी। ऐसा लगता था कि तुम्हें बिना देखे ही मैं ऊपर चली जाऊँगी। यह भोले बाबा कि कृपा है कि तुझे देख रही हूँ वरना तुझसे मिलने की आशा तो त्याग ही दिया था, बेटी!" पार्वती ने अपने सीने से अनारो को चिपकाते हुए कहा।

"अम्मा!" कहकर अनारो पार्वती से चिपकती चली गई। उसके आँसू पार्वती के पीठ पर टपकने लगे।

"बेटी! तुम्हें देखकर मुझे अपने जवानी के दिन याद आ गए। वही रंग, वही रूप; सबकुछ वैसा ही है जैसा मेरा था जब शादी के बाद आई थी इस गाँव में, मेरी बेटी!" कहकर पार्वती ने अपने दोनों हाथों से अनारो की बलैया ली।

"लेकिन तुम तो पहचान में ही नहीं आ रही हो अम्मा! चटकता रंग, दमकता मुखड़ा, काले-काले कमर तक लटकते बाल सब कहाँ चले गए पता ही नहीं चलता। पचास पचपन के उम्र में ही बूढ़ी लग रही हो।" अनारो ने पार्वती का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।

"अरे बेटी! अब जीवन किसी तरह कट जाए, यहीं प्रार्थना है ऊपर वाले से।" पार्वती ने ठंडी आह भरते हुए कहा।

एक घंटे तक दोनों बातों में मशगूल रहीं। घड़ी देखते हुए शबनम ने अनारो के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा "साढ़े सात बज रहे हैं। साढ़े आठ बजे ट्रेन है। कम से कम एक घंटा तो लगेगा ही टेशन जाने में।"

" अच्छा, ठीक है अम्मा! अब चलते हैं नहीं तो ट्रेन छूट जायेगी। अनारो ने पार्वती के हाथों को अपने हाथों ले उठते हुए काँपते स्वर में धीरे से कहा।

"बेटी! मेरा दिल तो तुम्हें जाने देना नहीं चाहता लेकिन क्या करूँ, दुनिया समाज कहाँ ऐसा करने देगा और तो और मेरा ही खून–तुम्हारा भाई–खुद यमराज है–यमराज तुम्हारे लिए बेटी यमराज।" कहते हुए उमड़ आए आँसुओं को पोछने लगी।

" ये लो अम्मा! कुछ रुपये हैं। अपने शरीर का ध्यान रखना। मैं फिर अगले महीने आऊँगी। शाम को फोन किया करूँगी। उठाना बाहर आकर बात करना अम्मा। अच्छा चलूँ-चलूँ न अम्मा चलूँ। कहते हुए अपने ब्लाउज से पाँच सौ का छ: नोट उसने पार्वती के हाथ में रखा और आँसुओं से भरा हुआ अपना चेहरा दूसरी ओर मोड़ लिया।

कुछ दूर साथ-साथ चलने के बाद पार्वती जब गाँव की ओर मुड़ने लगी तो अनारो ने उसके पाँवों को स्पर्श कर अपने माथे से लगाया।

"सदा खुश रहो बेटी! सदा खुश रहो।" पार्वती का स्वर काँपने लगा था।

दोनों अपने-अपने रास्ते चल पड़े। दोनों मुड़-मुड़ कर एक दूसरे को तब तक देखते रहे जब तक एक दूसरे के नजर से ओझल न हो गए।

अनारो साढे पाँच बजे ही पहुँच गई थी शिवाला पर। कल शाम को अम्मा से बात हुई थी, बोली थी कि छ: बजे तक आ जाऊँगी। इंतजार करते-करते सात बज गए। अमंगल की आशंका से अनारो का मन घबराने लगा था।

"शब्बो! चलो गाँव में पता करते हैं।" अनारो के स्वर में चिंता थी।

"ठीक है चलो।" शबनम ने खड़ा होते हुए कहा।

गाँव के चौक पर कुछ नौजवान आपस में बातें कर रहे थे। "चार बजे हॉस्पिटल से फोन आया था। बड़ा ही जबरदस्त एक्सीडेंट हुआ है। बचने का चांस कम है।" लाल शर्ट पहने साँवला-सा लड़का बोला।

"क्या हुआ, भैया!" पास आकर अनारो ने पूछा।

"रामेश्वर साहनी के बेटे अमर का एक्सीडेंट हुआ है। शहर गए थे टी. वी. का पार्ट्स लेने। मोटर साईकिल से आ रहे थे, पीछे से ट्रक ने ठोकर मार दिया। ये तो कहो कि हेल्मेट पहने थे नहीं तो ऑन स्पॉट डेथ हो जाता। सीरियस केस है। जिला हॉस्पिटल के आई. सी. यू. में भर्ती है।" गोरा लम्बा मरियल-सा लड़का एक रौ में बोल गया।

"चलो भागो, शब्बो! अभी तुरंत जिला अस्पताल चलना है।" शबनम का हाथ पकड़ कर दौड़ते हुए अनारो ने कहा।

जिला अस्पताल पहुँचते-पहुँचते साढ़े आठ बज गए। आई. सी. यू. वार्ड के सामने बरामदे में रखे बेंच पर बैठी पार्वती रो रही थी। दोनों बच्चे दादी से चिपक कर सुबक रहे थे। अमर कि पत्नी निर्मला को डॉक्टर ने बुलाया था। अनारो चुपचाप आकर पार्वती के बगल में बैठ गई और उसे अपने आगोश में लेते हुए कहा "धीरज रखो, अम्मा! सब ठीक हो जायेगा। भगवान् पर भरोसा रखो। वही सब करते है। बिगाड़ते वहीं हैं तो बनाते भी वहीं हैं। भैया ठीक हो जायेंगे।"

"अरे ना बेटी ना माथा पर चोट लगा है, खूने खून हो गया है सारा शरीर आ रे–मेरा बाबू को का होई–गवा बाबू अरे बाबू हो—हो–बाबू।" अनारो को देखते ही पार्वती पुक्का फाड़ कर रोने लगी।


तब तक निर्मला आ गई और घबराए हुए बोली "अम्मा जी! डॉक्टर बोला है कि तुरंत खून चाहिए 'ए' पोजिटिव। सगे रिश्तेदार का हो तो और अच्छा।" निर्मला के स्वर में हताशा झलक रही था।

" अस्पताल में इस समय 'ए' पोजिटिव खून ब्लड बैंक में नहीं है। डॉक्टर बोले हैं कि दो तीन घंटे के अंदर यदि इंतजाम नहीं हुआ तो बचने का चांस नहीं है।

"भाभी! रोइए मत, चलिए मेरा ब्लड 'ए' पॉजिटिव है। भगवान् पर भरोसा रखिए वही सब ठीक करेगा।" बेंच से उठ निर्मला को अपने सीने से लगाते हुए अनारो ने कहा।

पार्वती ने अनारो को भीतर जाते हुए देखा और आँचल से बह रहे आँसुओं को पोछा। निर्मला एहसान के बोझ से दबी कुछ बोल नहीं पा रही थी।

अनारो खून देकर आई ही थी कि नर्स आकर निर्मला को एक पर्ची थमाते हुए बोली "जान तो बच गई लेकिन खतरा अभी टला नहीं है। कल साढ़े ग्यारह बजे ऑपरेशन करना पड़ेगा। साठ हजार खर्च पड़ेगा। ये रहा एस्टीमेट।"

पर्ची हाथ में लिए दोनों हाथों से माथा को पकड़ निर्मला धम्म से बेंच पर बैठ गई।

"अम्मा जी! बैंक में मुश्किल से पच्चीस हज़ार रुपये होंगे। कुछ समझ नहीं आ रहा है? कैसे होगा? क्या करूँ?" निराशा हताशा में डुबी निर्मला ने ऊपर की ओर देखते हुए कहा।

निर्मला के बातों को सुन पार्वती के आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगे।

"अम्मा! मत रोओ। सब ठीक हो जायेगा। मैं हूँ न तुम्हारी बेटी।" पार्वती का कंधा पकड़ अपने सीने लगाते हुए अनारो ने कहा।

"भाभी! ऑपरेशन की चिंता छोड़िए। बच्चों को सम्भालिए। देखिए न कैसे रो-रो के बेहाल हो गए हैं? मैं कल 10 बजे आऊँगी। सब ठीक हो जायेगा।" अनारो ने निर्मला के कंधों को पकड़ सांत्वना देते हुए कहा।

"अब तुम्हारा ही आसरा है बेटी!" पार्वती ने कातर निगाहों से अनारो को देखा।

"अच्छा, अब मैं चलती हूँ भाभी! माँ और बच्चों को संभालिए, घबराइएगा मत। मैं कल 10 बजे तक आ जाऊँगी।" अनारो ने खड़े होते हुए कहा।

अमित और नेहा भी खड़े हो गए। दोनों बच्चें आशाभरी नजरों से अनारो को देख रहे थे।

अनारो को डेरा पहुँचते-पहुँचते 11 बज गए। तीस हजार रुपये उसने जमा कर रखे थे। सुबह उठते ही उसने दस हजार रुपये शबनम से लिए और हॉस्पिटल चल पड़ी। साढ़े नौ बजे ही वह पहुँच गई थी। निर्मला बैंक जाने की तैयारी कर रही थी।

"भाभी! आप बैंक से रुपये लेकर आइए, तब तक मैं यहाँ की व्यवस्था देखती हूँ।" अनारो ने निर्मला के बाँये कंधे पर अपना दाहिना हाथ रखते हुए कहा।

"अम्मा! ये रहे चालीस हजार रुपये, बाकी पच्चीस हजार बैंक से भाभी लेकर आ रही हैं। भगवान् ने चाहा तो ऑपरेशन सफल होगा। भैया ठीक हो जायेंगे।" अनारो ने रुपये की गड्डी माँ के हाथों में रखते हुए कहा।

पार्वती ने ममताभरी नजरों से अनारो को देखा और रुपये को अपने आँचल में बाँध लिया।

ऑपरेशन ढाई घंटे तक चला। ऑपरेशन के बाद में डॉक्टर ने निर्मला और अनारो को बुलाकर कहा "देखिए, बड़ा ही क्रिटीकल केस था। हम लोगों ने भरपूर कोशिश की है। ऑपरेशन सक्सेस हुआ है। ब्रेन और स्पाईनल कॉर्ड में क्लोटिंग था। लेजर से क्लोटिंग हटा दिया है। अभी ये चल फिर नहीं सकते। धीरे-धीरे स्थिति में सुधार होगा। छ: महीने तक फिजियोथैरेपी करनी पड़ेगी। छ: महीने बाद सब नोर्मल हो जायेगा। चलना फिरना सब कर सकेंगे और सामान्य जीवन जीने लगेंगे। लेकिन एक बात का ध्यान रखियेगा कि इनके दिमाग पर जोर न पड़े। इन्हें टेंशन न हो। एक सप्ताह बाद इन्हें घर ले जा सकते हैं।"

जिस दिन हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होना था। अनारो आई थी। माँ को आठ हजार रुपये देते हुए कहा "अम्मा! अपनी इस बेटी के रहते कोई चिंता मत करना। भैया का फिजियोथैरेपी नागा मत करना। दवा और खान पान का बढ़िया इंतजाम रखना। मैं हर महीने आऊँगी। किसी तरह रुपयों का व्यवस्था कर ही लूँगी। घबराना मत।"

गाँव से पाँच किलोमीटर पड़ता है बसंतपुर कस्बा। अमर का क्लाससाथी राघवेंद्र कुमार श्रीवास्तव ने अपना फिजियिथैरिपी सेंटर खोला है। वही प्रतिदिन आते हैं। एक घंटा समय देते हैं। बाकी लोगों से 300 रुपये प्रतिदिन का चार्ज है लेकिन बचपन के साथी का मामला है इसलिए यहाँ 200 रुपये लेते हैं। धीरे-धीरे सुधार हो रहा है।

निर्मला ने अपना सिलाई मशीन निकाल लिया है। उसके मायके में सिलाई का काम होता था। वह हर तरह की लेडीज सूट, ब्लाऊज, पेटीकोट, सलवार समीज, फ्रॉक आदि सीलती है। उसने इससे कुछ-कुछ कमाना शुरु कर दिया है। पार्वती और निर्मला घर गृहस्थी अपने बल पर चला रही हैं। अमर को किसी बात की चिंता न हो इसका ख्याल हमेशा दोनों रखती हैं।

हर महीने अनारो आती, माँ से मिलती। अमर के तबीयत का हाल पूछती और सात आठ हजार रुपये माँ को देकर जाती। कभी-कभी अमित भी अपनी दादी के साथ आता। अनारो का पाँव छूता और बुआ कहकर लिपट जाता। जाते वक्त सौ पचास रुपये अनारो अमित को अलग से देती।

तीन महीने बाद अमर बिछावन से स्वयं उठकर बैठने लगा था। चौथे महीने के अंत में वह पैरों के बल खड़ा हो गुसलखाना धीरे-धीरे खुद ही जाने लगा था। पाँचवे महीने के बाद वह चलने फिरने लगा। छठा महीना पूरा होने को है वह घर से बाहर निकलने लगा है। दुकान खोलने का विचार करने लगा है मन ही मन।

एक दिन दोपहर में खाना खाने के बाद जब पार्वती और निर्मला दोनों बैठकर बातें कर रही थीं, अमर ने पास बैठते हुए कहा " अम्मा! इतना सब खर्च अस्पताल का, ओपरेशन का, दवा का, फिजियोथैरेपी का–कहाँ से आया। बैंक में तो मात्र पच्चीस हजार रुपये ही थे। किसने दिया? कहाँ से आया? तुम लोगों ने मुझे कुछ बताया ही नहीं।

"तुम अपना ख्याल रखो जाओ, आराम करो। जाओ-जाओ तुम जानकर क्या करोगे।" पार्वती ने प्यार से डाँटते हुए कहा।

"नहीं अम्मा! निर्मला के सिलाई से थोड़ी बहुत आमदनी हो जाती है लेकिन इतना बड़ा खर्च कहाँ से आया समझ में नहीं आता। मुझे तो बचने की उम्मीद ही नहीं थी लेकिन तुम लोगों ने मुझे मौत के मुँह से निकाल लिया। आखिर इतने रुपये आए कहाँ से।" अमर ज़िद करने लगा।

"फिर वही बात। मैं कहती हूँ न जाओ आराम करो। तुम्हारे बड़े मामा जो बिहार बोर्ड ऑफिस, पटना में हेड क्लर्क हैं उन्होंने ही यह सब फर्ज निभाया है। जाओ सोओ, क्या करोगे ज्यादा जानकर। जाओ—जाओ।" पार्वती बड़ी आसानी से इतना बड़ा झूठ बोल गई।

"ठीक है अम्मा! जैसा तुम कहो।" अमर उठा और जाकर बिछावन पर सो गया।

छठा महीना पूरा हो गया। राघवेंद्र श्रीवास्तव ने कहा "अमर! अब फिजियोथैरेपी की आवश्यकता नहीं है। तुम धीर धीरे अपना सब काम कर सकते हो। एक हप्ते बाद दुकान पर भी बैठ सकते हो। एक बात का ध्यान रखना लम्बे समय तक मत बैठना। बीच-बीच में कमर को आराम देना।"

आज सुबह अमर छ: महीने के बाद दुकान गया था। दुकान खोलने के बाद अपने दोनों चेलों जिनको वह काम सिखाता है को लगाकर मकड़ी का जाला और धूल गर्दा साफ करवाया। पाँच बजे ही दुकान बंद कर घर आ गया था। धीरे-धीरे घर गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर लाने का प्रयास करने लगा था।

निर्मला चाय लेकर आई। चाय पीने के बाद वह माँ के कमरे में गया। "अम्मा! सोच रहा हूँ कि कल से दुकान नौ बजे रात तक खुला रखूँ। कुछ न कुछ मिल ही जयेगा। शाम को ग्राहक ज्यादा आते हैं।"

अम्मा वहाँ नहीं थी। "निर्मला! अम्मा कहाँ गई?"

"अरे अभी तो यही थी, न जाने कहाँ चली गईं।" निर्मला ने बात छुपाते हुए कहा।

"पापा! पापा! दादी पुराना शिवाला गई है बुआ से मिलने।" आँगन में खेल रहे अमित ने चहकते हुए कहा।

"बुआ, कौन बुआ? निर्मला! ये क्या बोल रहा है अमित?" अमर कुछ समझ नहीं पा रहा था।

"अरे पापा! आप नहीं जानते, आशा बुआ–जो शहर में डेरा पर रहती हैं। बड़ी अच्छी हैं बुआ।" अमित ने भोलेपन से कहा।

"अच्छा! तो वह–खोज़वा।" अमर दाँत पीसते हुए बोला।

"अमित!–तुम चुप रहो। क्या फालतू बकते रहते हो। अम्मा जी रुक्मिनी चाची के घर जाने को कह रही थीं शायद वहीं गई होंगी।" निर्मला अमित को खीचकर अपने कमरे में लेकर चली गई।

अमर क्रोध से उबल रहा था। उसके नथुने फड़फड़ाने लगे थे। "यह खोजवा मेरे इज्जत को मिट्टी में मिलाने पर तुला है। छोड़ूँगा नहीं इसे। एक्सीडेंट ने कमजोर कर दिया तो क्या प्रतिष्ठा को खुलेआम गाँव समाज में नीलाम होने दूँ। लोग–कहेंगे खोजवा इसकी बहन अभी भी आती है। नहीं नहीं–अभी–जाता हूँ इ—स खोजवा आशा–की तो खबर लूँगा ही माँ को भी नहीं-नहीं छोड़ूँगा मैं।" अमर चोट खाए नाग कि तरह फुफकार रहा था।

तेज कदमों से वह शिवाला की ओर बढ़ रहा था। तभी मोबाइल बज उठा। अरे! बड़े मामा जी का फोन है।

"प्रणाम मामा जी!"

"कैसे हो बेटा।"

"ठीक हूँ, अब ठीक हूँ। यह सब आपके ही एहसान का फल है मामाजी! आप न होते तो न जाने क्या होता? मैं बचता भी या नहीं भगवान् जाने आपका एहसान जन्म-जन्म तक नहीं उतरेगा–मामा जी।" अमर का स्वर कृतज्ञता के बोझ से दबा हुआ था।

"यह तुम क्या कह रहे हो–अमर एहसान–एहसान–कौन-सा एहसांन। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है।" मामा जी का आश्चर्यपूरित स्वर था।

"क्या बात कर रहे हैं मामा जी आप तो मेरे लिए भगवान् हैं भगवान्।" अमर का विनती भरा कातर स्वर उभरा।

"अरे बेटा! ऐसा कुछ भी नहीं है। मुझे यह पता जरूर चला था कि तुम्हारा एक्सीडेंट हो गया है लेकिन मैं व्यस्तता की वजह से आ भी नहीं सका था। रही रुपये पैसे से मदद की, तो वह भी नहीं कर सका क्योंकि हाथ बिल्कुल खाली चल रहा है इन दिनों। बड़ा बेटा अमृतेश अमेरिका में इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी में पी.एच. डी. कर रहा है और छोटा अविनाश आई. आई. टी., खडगपुर से बी. टेक। कर रहा है। इन सबका लोन इतना ज्यादा है कि बस दाल रोटी लायक ही मिल पाता है सेलरी में से। क्या करूँ बेटा कुछ भी मदद नहीं कर सका। बुरा मत मानना।" मामा जी के स्वर में अपराध बोध था।

"तो मामा जी–हर महीने रु—प ये आ प न हीं। खैर छोड़िए, आपका स्वास्थ्य कैसा है?" अमर की आवाज लड़खड़ाने लगी थी।

"ठीक है बेटा।"

"अच्छा, प्रणाम मामा जी।" अमर ने फोन काट दिया।

अमर के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। यदि मामा जी ने खर्चा नहीं दिया तो फिर कहाँ से कैसे हुआ यह सब इतना सारा खर्च। उसका सिर चकराने लगा। वह माथा पकड़ वहीं बैठ गया।

वह अचानक उठा और शिवाला की तरफ दौड़ने लगा। अस्पताल में नर्स कह रही थी "इस पेशेंट का तकदीर अच्छा है, सगे रिश्तेदार का खून मिल गया समय पर, नहीं तो मुश्किल था बचना।" ऑपरेशन का खर्च दवा का खर्च फिजियोथैरेपी का खर्च क्या यह सब यह सब उसने किया उसने उसने। " अमर अपने नियंत्रण में नहीं था।

शिवाला के बरामदे में पार्वती अनारो का सिर गोद में लिए बैठी थी। "अम्मा! क्या एक अंग नहीं होने से मैं आपकी बेटी नहीं हो सकती? बोलो ना अम्मा! क्या मैं भी बेटा या बेटी की तरह आपके गर्भ में नौ महीने नहीं रही थी? तो फिर क्यों ऐसा है कि हम समाज में इज्जत से नहीं जी सकते? अपने माँ बाप के साथ नहीं रह सकते? उनके बुढ़ापे का सहारा नहीं बन सकते? बोलो न अम्मा! बोलो ना।"

"तुम कैसी बहकी-बहकी फालतू की बातें कर रही हो? छोड़ो दुनिया समाज की बकवास। अरे, तुम मेरी बेटी नहीं बेटा हो मेरा छोटा बेटा मेरा राजा बेटा प्यारा दुलारा बेटा।" कहकर पार्वती ने अनारो को प्यार से चूम लिया।

अनारो माँ के गोद में निश्चल पड़ी सामने सड़क की तरफ देख रही थी। कोई दौड़ा चला आ रहा है। अरे, यह तो उसका भाई अमर है। वह एकाएक गोद से उठ खड़ी हुई। वह काँपने लगी। पार्वती ने आगे बढ़कर अमर को रोकना चाहा परन्तु वह आगे बढ़ चुका था। अनारो डरी सहमी पीछे की ओर सरकने लगी। अमर तेज कदमों से आगे बढ़ अनारो से लिपट गया। उसके आँखों से अविरल आँसू बह रहे थे।