मान्य भाषा / रामचन्द्र शुक्ल
सबसे पहिले हमें यह देखना है कि साहित्य की भाषा का संगठन होता कैसे है। एक भाषा ग्रहण करने के पहिले लोग लिखने पढ़ने में अपने अपने प्रान्त की भिन्न भिन्न बोलियों का व्यवहार करते हैं। जिस भू भाग में लिखने की चर्चा तथा भिन्न भिन्न प्रदेशों के लोगों के सम्मेलन का अवसर अधिक होता है, अच्छे प्रभावशाली कवि और ग्रन्थकार होते हैं, उनकी बोली का अनुकरण धीरे-धीरे और भागों के लोग भी करने लगते हैं। इस प्रकार क्रमश: यह बोली और प्रान्तों के पढ़े लिखे लोगों पर अपना अधिकार जमाकर एक बड़े भू भाग की साहित्य भाषा बन जाती है। अत: यह सिद्ध हुआ कि साहित्य की भाषा यथार्थ में किसी एक प्रान्त की बोली ही है जो कुछ परिवर्तित और परिमार्जित होती, आवश्यकतानुसार दूसरी बोलियों के शब्दों को समेटती अन्य प्रान्तों के बीच भी फैल जाती है। वह कोई बिलकुल गढ़ी हुई, बनावटी या आकाश से उतरी हुई भाषा नहीं होती। यदि उस बोली का व्याकरण सीधा, और उसके नियम विस्तृत हुए तो वह और भी जल्दी अपने लिए जगह कर लेती है। जो लोग संस्कृत को बिलकुल बनावटी और गढ़ी हुई भाषा समझे हुए हैं उन्हें शायद यह बात अच्छी न लगे। पर यदि वे विचार कर देखेंगें तो उनके जी में भी यह बात जमने लगेगी कि आरम्भ में एक मूल आर्य भाषा से निकल कर फैली हुई अनेक बोलियों में से एक को चुनकर ही उसका संस्कार किया गया था। यदि ऐसा न होता तो पाणिनि को अपने सूत्रों में पूर्वीय और पाश्चात्य प्रयोगों का निर्देश नहीं करना पड़ता। जब कुछ आर्य लोग पंजाब से चलकर जहाँ उनकी बस्ती जम गई थी, पूर्व और दक्षिण की ओर फैलने लगे तब उनकी बोलियों में स्थानिक भाषाओं के संसर्ग से विभेद पड़ने लगा। इसी अनार्यत्व को बचाने के लिए प्राचीन वैयाकरण पंजाब और अफगानिस्तान के पास की बोली को आर्यों की टकसाली भाषा मानकर उसके नियम ढूँढ़ ढूँढ़ कर निकालने लगे। अत: यह न समझना चाहिए कि इन नियमों और सूत्रों के जितने प्रयोग सिद्ध हो सकते हैं वा जितने शब्द बन सकते हैं वे सबके सब बोलचाल में थे।
यद्यपि आरम्भ में हिन्दी कविता भिन्न भिन्न प्रदेशों में भिन्न भिन्न बोलियों में होनी आरम्भ हुई पर 16वीं शताब्दी के कृष्णोपासक वैष्णव कवियों के समय से उसे कुछ-कुछ एकरूपता प्राप्त होने लगी। देश के प्रत्येक विभाग के लोग ब्रजभाषा में ही कविता करने का प्रयत्न करने लगे। कवित्ता, सवैया, छप्पय आदि के लिए तो मानो ब्रजभाषा बनी ही थी। केवल दोहे और चौपाइयों में और प्रान्तों की बोलियों के लिए जगह रह गई। यहाँ तक कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी अपनी कवितावली की भाषा व्रज ही रक्खी। अत: हमें यह कहने में कुछ संकोच नहीं कि इन्हींल व्रज के भक्त कवियों की भाषा ऐसी हुई जो अपने मण्डल से और आगे बढ़ी और फैली। आज यदि ये ब्रजभाषा के कवि राह न निकाल गए होते तो वर्तमान हिन्दी और उर्दू गद्य को इतने विस्तृत भूभाग में स्थान न मिलता, सारे उत्तरीय भारत के लिए एक साहित्य भाषा संगठित न होती।
आगरे और दिल्ली के आसपास की बोली ही गद्य के लिए चुनी गई। लल्लू लाल ने अपना प्रेमसागर इसी बोली में लिखा। अब यह खड़ी बोली साहित्य की मान्य भाषा हो गई है। इधर बोलियों का मुख्य प्रभेद क्रिया के रूपों में देख पड़ता है। अत: यह जानने के लिए कि हिन्दी की यह टकसाली भाषा यथार्थ में कहाँ की है हमें देखना होता है कि उसकी क्रिया के रूपों का व्यवहार किस भूभाग के ग्रामों में होता है। यह जानी हुई बात है कि 'हम आते हैं', 'वे जा रहे हैं', और 'वह आवेगी' आदि वाक्य दिल्ली, आगरा, मेरठ आदि के देहातों को छोड़ बनारस, बलिया और आजमगढ़ के देहातों में नहीं बोले जाते। अत: वर्तमान हिन्दी भाषा का घर दिल्ली, आगरे के आसपास की भूमि ही कही जा सकती है। यहाँ पर खड़ी बोली और ब्रजभाषा के भेद निर्णय की आवश्यकता नहीं है। पंजाबी तथा ब्रजभाषा का संगम स्थान दिल्ली की खड़ी भाषा पर अधिक जोर दिया गया है जिससे पंजाब और गंगा जमुना के प्रदेश एक भाषा सूत्र में बाँध गए। अस्तु, किसी शब्द का कौन सा रूप ग्राह्य होगा, इसे स्थिर करने के लिए हम यह देखते हैं कि उस शब्द का कौन सा रूप ऊपर कहे हुए स्थानों में प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार किस शब्द वा वाक्य की अपेक्षा कौन शब्द वा वाक्य माननीय है इसका निश्चय भी किया जाता है, जैसे बनारस, मिरजापुर, गोरखपुर आदि के पढ़े लिखे लोग 'थरिया', 'सूति जाव' आदि न लिखकर 'थाली' 'सो जाओ' लिखेंगे। इसी तरह 'गोड़' के स्थान पर वे 'पैर' ही लिखेंगे। जो लोग लिखने पढ़ने की हिन्दी में इन प्रान्तीय शब्दों को लाते हैं वे कुशिक्षित समझे जाते हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि कुछ हिन्दी लेखक इस प्रान्तीय दोष (Provincialism) से अपने को नहीं बचा सकते हैं। अभी हाल में एक पुस्तक बनी है जिसमें खड़ी बोली के साथ एक पूर्वीय जिले के प्रचलित शब्दों का बड़ा बेढंगा मेल कराया गया है।
समाप्त करने के पहिले एक बात कह देना आवश्यक है। यद्यपि यह मान्य भाषा (Standard Language) यथार्थ में एक प्रान्त की बोली ही होती है पर जब वह एक बड़े भूभाग की साहित्य भाषा हो जाती है तब वह अपनी संकीर्णता को कम करने लगती है। वह अपने अभाव की पूर्ति के लिए और और प्रान्तों के शब्दों को लेती है। यदि किसी पशु, पक्षी, वृक्ष या किसी और वस्तु का नाम उसके मूलस्थान में न हुआ तो और प्रान्तों में उनके जो नाम प्रचलित हैं वे ले लिए जाते हैं। अभी हमारी हिन्दी में बहुत से पशु पक्षी तथा और बहुत सी वस्तुओं के नाम स्थिर नहीं हैं। लोग अपने प्रान्त के अनुसार उनके लिए भिन्न भिन्न नामों का प्रयोग करते हैं। अब ये नाम उपर्युक्त प्रक्रियानुसार स्थिर हो जाने चाहिए।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, मार्च, 1910 ई.)
[ चिन्तामणि भाग-4 ]