माप / सृंजय
"अरे...हां, हमारे गाउन का क्या हुआ?
साहब ने अपने पी०ए० से पूछा।
" 'सर, तब से में दो-तीन दफा तकाज़ा कर चुका हूँ।"
"अभी तक सिला या नहीं?’ साहब उत्सुक होकर बोले।
"दर्जी कह रहा था कि एक बार हाक़िम से कहते कि वो इधर तशरीफ़ लाते।” पी०ए० ने लगभग अनुरोध-सा करते हुए कहा।
तुम तो कहते थे कि वह सिर्फ़ हुलिया देखकर कपड़े सिल देता है!”
"यह तो एकदम आजमाई हुई बात है, सर ! पी० ए० ने गहरे आत्मविश्वास के साथ कहा, "अपने दामाद वाली घटना शायद आपको बताईं थी न। वह तो अब भी उसी दर्ज़ी से मिलने की इच्छा रखता है।”
"आपका दामाद मिलना चाहता है...
शायद वह दर्ज़ियों के पचड़े में कभी पड़ा नहीं है.. इसलिए” इस बार साहब का ड्राइवर धूपन राम बोल पडा, "जबकि मेरी जानकारी में एक ऐसी घटना है हुज़ूर !...कि एक दर्ज़ी ने दामाद से ज़िन्दगी भर के लिए ससुराल ही छुड़वा दी थी। कहा गया है न. . तीन जने अलगरज़ी - नाई, धोबी, दर्ज़ी।”
' 'काम करें मनमर्ज़ी।" साहब ने भी अपनी तरफ़ से तुक जोड़ते हुए कहा।
"ज़िन्दगी भर के लिए ससुराल छुडवा दी थी…वह भी एक अदने से दर्ज़ी ने?” पी० ए० पहले तो विस्मित हुए फिर उत्सुक होकर उछल-सा पड़े। "वह कैसे धूपन?…तुमने आज तक इस बारे में मुझे कभी कुछ नहीं बताया।”
“ अभी दर्ज़ी की बात चली तो वह घटना याद आ गई।" धूपन राम बोला, "वह घटना कोई गीता-रामायण थोड़े है कि हरदम चर्चा चलती रहे उसकी।"
"धूपन ! गीता-रामायण की घटनाओं से अब हमें उतनी मदद नहीं" मिलेगी, जितनी अपनी ज़िन्दगी के छोटे-छोटे खटराग प्रसंगों को सुनने से।" पी० ए० तनिक बेचैन होकर बोल पड़े।
दरअसल पी० ए० के चार बेटियाँ और दो तो बेटे थे। चारों बेटियों और एक बेटे की शादियाँ करवा चुके थे। बेचारे बेटी-दामाद से बड़े परेशान रहते थे। कभी यह बेटी तो कभी वह दामाद। कभी यह नतिनी तो कभी वह नाती। आए दिन कोई-न-कोई आया ही रहता था।. अपना और बेटे का परिवार ही कोई कम न था। बेटियों का भी भरा-पूरा कुनबा था। आने का कोई बहाना भर चाहिए। कोई दवा-दारू करवाने के नाम पर आ गया तो कोई यूँ ही भेंट करने के नाम पर। और नहीं तो अटेस्टेड करवाने के नाम पर ही आ धमके. . .चलो नाना के साहब से अटेस्टेड करवा लेंगे...।
अपने यहाँ के अफ़सर बड़े मिजाज़ दिखाते हैं ... ख़ूब जी हुज़ूरी की तो राज़ी हुए, लेकिन एक बार तीन से देशी अटेस्टेड भी नहीं करेंगे. अरे भई! यह काम तो तुम लोग अपने यहाँ भी करवा सकते थे।' पी० ए० दबी ज़ुबान में कहते भी, लेकिन कोई सुनता नहीं। एक बेटी का परिवार खिसकता, तब तक दूसरी का आ धमकता। जो कोई आता बिना कुछ लिए-दिए हटने का नाम ही नहीं लेता। पी० ए० बेचारे नाते-रिश्तेदारी निभाते-निभाते ही हलकान-परेशान रहा करते थे। ऐसे में दामाद से ससुराल छुड़वा देने की धूपन की बात उनके मर्म को छू गई। बोले, "धूपन ! ज़रा तफ़सील से बताओ न।"
"बहुत लम्बा क़िस्सा है।" कहकर धूपन ड्राइवर ने साहब की ओर उनका रुख भाँपने की गरज से देखा।
"लम्बा है तो क्या हुआ। ऐसे प्रसंगों में ही जीवन के गहरे राज़ छुपे होते हैं, जिन्हें सबको सुनना ही चाहिए।" पी० ए० से रहा नहीं जा रहा था। "सुनाओ न, साहब भी सुन लेंगे।"
"अब सुना भी डालो।” साहब भी मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए इशारा करने लगे। धूपन चालू हो गया —
"...यह सरकारी नौकरी पाने के पहले मैं प्राइवेट गाड़ी चलाया करता था। एक प्रोफ़ेसर कुमार थे, उनकी गाड़ी। उन्होंने ही बताया था कि उनके गाँव तेघरा के चौधरी का दामाद पहली बार ससुराल आया। रिवाज है कि शादी के बाद दामाद जब पहली बार ससुराल जाए तो उसे कम-से-कम नौ दिन रहना पड़ता है। दूसरे ही दिन चौधराइन बोलीं कि मेहमान पहली बार आए हैं, इन्हें कपडा-लत्ता देना होगा न ! 'क्या क्या देना होता है? चौधरी ने पूछा। 'अरे दिया तो पाँचों पोशाक जाता है' चौधराइन बोलीं। "धोती, कुरता, जांघिया, गंजी और गमछा।" "वाह रे, तुम्हारा दिमाग !' चौधरी बोले, "हमारा दामाद पुलिस अफ़सर बनने के लिए कम्पीटीशन की तैयारी कर रहा है और तुम उसे धोती-गमछा दोगी? अरे मैं तो अपने दामाद को पतलून दूँगा.. बल्कि सिलवाकर दूँगा, ताकि यहीं पहन सके। चौधरी खाते-पीते घर से थे। खेती-किसानी तो करवाते ही थे, उनके अलावा ज़ीरो माइल' चौराहे पर हाइवे से लगा प्लाट ख़रीदकर दर्जन भर दुकाने बनवाकर किराए पर उठा रखी थीं। उन्हीं में से एक दुकान मनसुख लाल बजाज की थी और एक हलीम दर्ज़ी की थी। वहीं से अपने तई सबसे महंगा कपड़ा ख़रीदकर हलीम दर्ज़ी को कुरता-पतलून सिलने के लिए दे दिया गया। हलीम दर्ज़ी अपने आपको इलाके भर का वाहिद मास्टर मानता था...किसी भी तरह की पोशाक सिलने को कहो, ना नहीं कहता था। ख़ातिरदारी में हलीम चौधरी के घर ख़ुद जाकर दामाद की माप भी ले आया। अगले दिन कपडा सिल भी गया। ख़ुशी-ख़ुशी कपड़े चौधराइन के हाथ में देते हुए चौधरी बोले, "मेहमान से कहो कि आज़ यहीं पहनकर वह हवाख़ोरी के लिए निकले।' शाम को जब दामाद ने कपड़े पहने तो अजीब तमाशा हो गया...पतलून का एक पाँयचा चौवा भर ऊपर तो दूसरा चौवा भर नीचे। पल-भर में ही दामाद ने खीजकर पतलून खोला और आलने पर फेंक दिया। चौधरी गुस्से में हलीम के सामने पतलून पटकते हुए बोले, "यह कैसा जोकरों जैसा पतलून सिलकर दे दिया?’
‘क्यों क्या हुआ मालिक? हलीम ने कुछ न समझते हुए पूछा।
'देखो तो...एक पाँयचा चौवा भर ऊपर तो दूसरा चौवा भर नीचे,' चौधरी नाराज़गी में बोले, "ऐसा भी कहीं पतलून सिला जाता है।"
हलीम ने पतलून को मेज़ पर फैलाया, दोनों मोहरी मिलाई। मियानी बीच में की, कमर टानटून कर सीधी की, कई कोनों से फीते से नापा, "मालिक देखिए तो...कमर से मोहरी तक दोनों पाँव एकदम बराबर हैं कि नहीं?...न हो तो आप एक बार ख़ुद नापकर देख लें।
चौधरी से कुछ बोलते न बना, क्योंकि माप तो सचमुच सही निकल रही थी। उन्हें सकपकाया देखकर दर्ज़ी बोला, "मालिक पहनते वक़्त किसी वजह से जर्ब पड़ गया होगा" जाइए, फिर से पहनाकर देखिए, बिल्कुल सही निकलेगा।"
चौधरी लौट आए। दामाद को फिर से पतलून पहनाया गया। हाय रे किस्मत ! अब भी वही नज़ारा...एक पाँयचा ऊपर तो दूसरा नीचे। दामाद बेचारा ’मेनिक्विन' (कपड़े की दूकान में लगाया जाने वाला सजावटी पुतला) की तरह बिना हिले-डुले खड़ा का खड़ा रह गया। नीचे झुककर पतलून को एक तरफ़ से चौधरी टान रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ से चौधराइन ... लेकिन पतलून का अब भी वहीं हाल ! आख़िरकार खीजकर चौधरी बोले, "रहने दीजिए, मेहमान जी! ... खोल दीजिए। ..मैं फिर जाता हूँ शैतान के बच्चे उस हलीम के पास। 'वह दुलकी चाल से हलीम के पास आए। जितना हो सकता था, ख़री खोटी सुनाई। हलीम ने चुपचाप सिर झुकाकर पतलून खोला, मेज़ पर फैलाया और उसे हर तरफ़ से मापने लगा।
'नाप तो एकदम सहीं है, मालिक ! पता नहीं, कैसे, पहनते वक़्त बड़ा-छोटा हो जा रहा है! आप एक काम करेंगे?... मेहमान जी को एक बार यहीं ले आएँगे?'
यह भी हुआ। मेहमान जी दर्ज़ी की दूकान तक पहुँचे। उन्हें फिर से पतलून पहनाया गया…पाँयचों की छोटाई-बड़ाई में कोई फ़र्क न आया...आता भी कैसे? हलीम ने वहुत टानटून किया। दामाद के दोनों पैर तो कम-से-कम दर्जनों बार मापे होंगे। परेशान होकर बोला, खोल दीजिए ... देखता हूँ क्या किया जा सकता है।' उसने दामाद से चले जाने को कहा। चौधरी को वहीं रोक लिया।
चौधरी को लेकिन कल नहीं पड़ रहा था, "लगता है तुमने ढंग से नाप नहीं ली है। अन्दाज़ से सिल दिया है।'
नहीं, मलिक ! यूँ न बोलिए...नाप एकदम सही ली है। वैसे हमारा अन्दाज़ भी कमज़ोर नहीं होता। वैसे भी बदन के हर हिस्से की माप लेना मुमकिन भी नहीं होता ... सिलाई में कई बार अन्दाज़ से भी काम चलाना पड़ता है। अब कुरती के महरम (स्त्रियों की कुरती या अंगिया आदि का वह कटोरीनुमा अंश जिसमें स्तन रहते हैं) की माप हम लोग थोड़े लेते हैं। एक बार आँख उठाकर देख भर लेते हैँ...वह भी तिरछी नज़र से ... लेकिन सिलाई एकदम फ़िट बैठती है।
'इस पकी दाढ़ी में भी मेंहदी लगाते हो न !’ चौधरी ने हलीम की ललछौंही दाढ़ी की ओर इशारा करते हुए कहा, 'जो मरहम की माप लेने लगे तो इस दढ़िया में एको बाल न बचेगा. ..सब चीथा जाएगा', इस परेशानी में भी चौधरी के होंठ अन्दरूनी हँसी के चलते तिकोने हो गए।
"वह तो बात-बात में कहा मैंने।' हलीम भी मुस्कुरा पडा, "वऱना महरम की माप लेकर कौन अपना बाल नुचवाए।'
जब दामाद कुछ दूर चले गए और उनको ले जाने वाले की मोटरसाइकिल की फटफटाहट आनी बन्द हो गई तो हलीम ने चौधरी से फुसफुसाकर कहा, "मालिक ! एक बात कहू? किसी से कहिएगा तो नहीं?
"भला, मैं क्यों किसी से कुछ कहने जाऊँ? चौधरी एकाएक शान्त होकर बोले।
"मालिक ! पतलून की सिलाई में कोई खोट नहीं, मेहमान जी के पैर ही छोटे-बड़े हैं तो मैं क्या करूँ? आपने गौर किया होगा ... तसल्ली के लिए उनके दोनों पैरों को मैंने कई बार मापा था। ख़ैर, घबराइए नहीं...मैं कमर की पट्टी खोलकर छोटा पाँव ठीक कर दूँगा।’
चौधरी को काटो तो ख़ून नहीं ... दामाद के पैर छोटे-बड़े कैसे हो गए? चलते समय तो बिल्कुल पता नहीं चलता। उन्होंने सिर पकड़ लिया।
"क्या कीजिएगा, मालिक !' हलीम दिलासा देते हुए कहने लगा, "ऊपर वाला अगर आदमी को सींग दे दे तो कोई सिर थोड़े कटा लेगा...उसी तरह जीना पड़ेगा...सींग के साथ ही जीना पडेगा... बहुत लाज लगी तो लम्बी पगड़ी में छुपाकर जीना पड़ेगा।'
चौधरी एकदम निराश होकर घर लौटे। किसी से कुछ बोले-चाले नहीं। जब सहा नहीं गया तो चौधराइन को एकान्त में बुलाकर कहने लगे, "हमारे करम ही छोटे हैं, ज्ञानती की माँ?’
'क्यों, क्या हुआ, जी?’ चौधराइन घबरा गईं। 'मेहमान जी अब पुलिस अफ़सर नहीं बन पाएँगे।' 'कैसे नहीं बन पाएँगे? रात-दिन तो मोटी…मोटी किताब बाँचते रहते हैं।’ वह रुआँसी होकर चौधरी को ताकने लगीं।
'उनके पैर ही छोटे-बड़े हैँ...पतलून में कोई ख़राबी नहीं है। यहाँ आँगन टेढ़ा नहीं है, नाचने वाली के पाँव ही टेढ़े हैं? चौधरी जितना सम्भव था फुसफुसाकर बोल रहे थे, 'कंपटीशन निकाल भी ले गए तो मेडिकल में छँट जाएँगे।’
'डॉक्टर को कुछ खिला-पिला कर काम नहीं निकल पाएगा?
'मैं पहले ही बहुत कुछ दे चुका हूँ, अब क्या सारी सम्पत्ति इसी दामाद पर लुटा दूँ?
चौधराइन को तो मानो साँप सूँघ गया, 'जा रे कपार ! इसी आशा पर, हैसियत से भी ऊपर जाकर, दान-दहेज देकर, फूल जैसी ज्ञानती का इनसे ब्याह करवाया गया कि पुलिस अफ़सर बन जाएँगे तो बेटी राज करेगी। अपना भी गाँव-जवार में मान बढ़ेगा, वर्दी के रुतबे और रूल से लोग हौँस खाएँगे... लेकिन अब तो सिपाही बनने पर भी आफ़त है।’
सिपाही, अब तो होम गार्ड भी न बन पाएंगे.’ चौधरी ने हताशा में होंठ काट लिए. चौधराइन रोने के लिए राग काढ़ने ही वाली थी कि चौधरी ने डपट दिया, ‘अब रो-धो कर तमाशा मत बनाओ ... जो बात सिर्फ हमें और हलीम को मालूम है उसे तुम्हारे चलते पूरा गांव जान लेगा ... अब चुप रहने में ही भलाई है.‘
चौधराइन चीखी-चिल्लाई नहीं, लेकिन चुप भी नहीं बैठी. कांटे खोंट-खींटकर उस अगुआ को गलियाने लगी जिसने यह विवाह करवाया था. मन भर अगुआ को सरापने के बाद शाम ढलते भी बेटी को समझाने लगी, 'हलीम दर्जी कह रहा था कि पाहुन जी के गोड़ छोटे-बड़े हैं, इसीलिए पतलून उपर-नीचे हो जा रहा है. तू आज की रात जरा दोनों गोड़ नापना तो...हां, ध्यान रखना, जब निर्भेंद सो जाएं, तब नापना...‘
"लेकिन नापूंगी कैसे? . ज्ञानती भी सकते में आकर बोली, "कहीँ फीता देख लेंगे तो?
'दुत्त पगली! बित्ते से नाप लेना ... हाँ, उनको पता नहीं चलना चाहिए'
दो-तीन रोज बाद चौधराइन ने पूछा, क्या री, कुछ पता चला?
"खाक पता चलेगा ज्ञानती ज़रा ऊबकर तनिक गुस्से में बोती, 'सोते भी हैं तो अजीब ढंग से...बाई करवट ही सोते हैं लेकिन बायाँ गोड़ घुटने से मोड़कर और दायां उसके ऊपर चढाकर, सीधा करके. सीधा पैर तो नाप लेती हूँ, लेकिन मुड़े पैर पर जैसे ही जांघ के ऊपर मेरा बित्ता सरकता है कि चिहुँककर जाग जाते हैं और मेरा कंधा पकड़कर मुझे पटक देते हैं. इसी फेरे में तीन रात से भर नींद सो भी नहीं पाई हूँ. भगवान जाने कौन सी नींद सोते हैं ... कोए की नींद कि कुकुर की नींद !'
आखिर जिसका डर था, वही हुआ. . न जाने कैसे पूरे तेघरा गांव में, जीरो माइल चौराहे तक यह बात फैल गई कि चौधरी का दामाद 'ड़ेढ़ गोड़ा है.
दामाद को भी पता चला तो चीख-चीखकर इंकार करने लगा, 'यह कैसी बकवास फैला रखी है आप लोगों ने? मेरे दोनों पैर ठीक हैं, न चलने में दिक्कत है, न दौड़ने में. कहिए तो में ताड़ के पेड़ पर चढ़कर दिखा दूं अगर मैं डेढ़गोड़ा होता तो मेरे अन्य पतलून भी ऊपर-नीचे होते. यह हलीम ही एकदम फालतू दर्जी है. फतुही-लंगोट सिलने वाला यह देहाती दर्जी पतलून सिलना क्या जाने ? मैं अभी जाकर उसका कल्ला तोड़े दे रहा हूँ.'
किसी अच्छे से डॉक्टर से चेक करवा लेने में क्या हर्ज है? चौधरी हाथ जोड़कर निहोरा करने लगे, "हलीम का कल्ता तोड़ने से तो बात पर और पक्की मुहर लग जाएगी ... तब किस-किसका कल्ला तोड़ेगें?
सास भी समझाने लगी, ज्ञानती भी समझाने लगी. जब सब कहने लगे तो दामाद बेचारे को भी यकीन-सा हो गया कि सचमुच कहीं पैर में ही खराबी तो नहीं है. अब कौन नौ दिन ठहरता है. अगले दिन ही उसने ससुराल छोड़ दी. अपने घर गया और वहाँ से सीधा शहर भागा. महीने भर लॉज में रहा, कई तरह से जांच करवाई, मगर 'कोई नुक्स पकड़ में नहीं आया. हो तब तो पकड़ में आए. खामखाह बेचारे के पंद्रह-बीस हजार रुपये गल गए, शहर के डॉक्टरों ने झिड़की दी सो अलग. बेचारे ने जिंदगी में अब कभी भी ससुराल न जाने की कसम खा ली. तो इस तरह हलीम दर्जी ने दामाद से ससुराल छुडवा दी." कहकर धूपन ड्राइवर चुप हुआ.
अपने रुतबे की संजीदगी भूलकर साहब तो यह किस्सा सुनकर हँसते हुए लोट-पोट हो गए. जब हँसी का दौर थमा तो उन्होंने यूं ही पूछ लिया, "वह लड़का पुलिस अफ़सर बना कि नहीं?"
"यह कोई मायने नहीं रखता." पी.ए. फट से बोल पड़े, "क्यों कि अफसर बनने के लिए तेज दिमाग के साथ-साथ यह पसमंजर भी मायने रखता है कि कौन किसका बेटा है या कौन किसका दामाद या कौन कैसे खानदान से है! यहाँ काबिले तारीफ बात यह है कि हलीम दर्जी ने चौधरी को बचा लिया, वरना जिंदगी भर उनकी वह पेराई होती कि खल्ली भी नहीं बचती, कहा गया है न...वेश्या रूसी तो अच्छा हुआ. धन-धरम दोनों बचा." पी. ए. हलीम दर्जी से काफी प्रभावित नजर आ रहे थे, "काश उस जैसा दर्जी अपने यहाँ भी होता!"
"कहीँ आपका यह दर्जी भी उसी हलीम की तरह तो नहीं है?" साहब ने पूछ ही लिया
"बिल्कुल नहीं साहब¡ कहां राजा भोज, कहाँ भोजुवा तेली." पी.ए. ने तपाक-से प्रतिवाद किया, "बाकर अली और हलीम में ज़मीन-आसमान का अंतर है."
"तो फिर मेरा गाउन सिलने में वह इतनी देरी क्यों कर रहा है?.”
"यही तो मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ-" पी.ए. भी असमंजस में दिखे, "दर्जी पूछ रहा था कि यह बताओ कि ये हाकिम नए…नए अफसर बने हैं, यानी सीधी भर्ती से आए हैं या तरक्की करते-करते इस ओहदे तक पहुंचे हैं या बहुत पुराने हाकिम हैं?
`क्यों, इससे गाउन का क्या ताल्लुक?" '
'मैं कुछ समझ नहीं पा रहा, सर¡" पी. ए. का असमंजस बरकरार था, "न हो तो आज शाम चल कर हुजूर पूछ ही लें कि वह गाउन सिल पाएगा भी या नहीं?"
वे नए-नए हाकिम (अफसर) बने थे. पहली तैनाती ही एक देहाती जिले में हुई. जिले का फैलाव काफी दूर-दराज तक था. विकास का काम बहुत कम हुआ था. जिले में गांवों और ढाणियों की संख्या अधिक थी. एकमात्र शहर जिला मुख्यालय ही था. यह भी नाम का ही शहर था, प्रशासनिक केंद्र होने के नाते, वरना अपने मिजाज में, चाल-ढाल में वह एक बड़ा गाँव ही था. राजधानी से काफी दूर होने की वजह से उस जिले पर ध्यान कम ही दिया जाता था. यहीं के सीधे-सादे अनपढ़ लोग, जिन्हें नए जमाने की हवा की छुअन तक न लगी थी, अपने ढंग से जीवन जी रहे थे. जिले का एक बड़ा हिस्सा जंगलों से ढंका था. लोग कुदरत की रहमत पर ही जिंदा रहते थे. काफी बड़ा जिला होने के चलते साहब को लंबे-लंबे दौरे करने पड़ते थे. जिस इलाके में जाते, कई-कई दिन रुक जाना पड़ता. वे दिन-भर तो तहसील और महकमे की जांच में ही व्यस्त रहते, लेकिन सुबह-शाम डाक बंगले में मुलाकातियों का आना-जाना लग जाता. इलाके के मोतबर लोगों से अंतरंग मुलाकात शाम ढले ही होती. साहब दिन-भर तो 'चुस्त-दुरुस्त चाक-चौबंद पोशाक पहने रहते, लेकिन सुबह-शाम कुछ ढीला-ढाला पहनने का जी करता. हालांकि उस वक्त वे कुरते-पायजामे में भी रह सकते थे, लेकिन कुरते-पायजामे में वह रोब नमूदार न हो पाता था, जिसकी उम्मीद एक ऊंचे अफसर से की जाती है. मानना पड़ेगा विलायती हाकिमों को भी. ऐसे ही मौके पर वे गाउन का इस्तेमाल करते थे. बाज हाकिम तो दफ्तर या कचहरी में भी गाउन पहने रहते थे. एकदम ढीला-ढाला आरामदायक चोगा (गाउन), लेकिन रोब ऐसा कि एक…एक धागे से टपके..
कुछ यही सोचकर साहब ने भी अपने लिए गाउन सिलवाने की सोची. अपनी ख्वाहिश उन्होंने अपने पी. ए. के सामने जाहिर की, "यहाँ, गाउन कहाँ मिलेगा?
"गाउन¡" पी.ए. की पेशानी पर बल पड़ गए, "गाउन का चलन तो आजकल रहा नहीं, सर!...इसलिए सिला-सिलाया गाउन मिलना तनिक नामुमकिन लगता है."
"कोई दर्जी है ऐसा...जो गाउन सिल सके?"
"हाँ, है न, हुजूर!" पी.ए. को अचानक याद आया, "अपना बाकर अली...वह नई-पुरानी सब काट की पोशाक सी देता है"
"तो आज शाम चलते हैं, उस के पास...माप दे जाएंगे" साहब खुश होकर बोले थे.
"उसकी जरूरत न पडेगी, हुजूर!” मैं ही चला जाऊंगा. वह ऐसा अकेला हुनरमंद है कि उसके सामने फकत हुलिया बयान कर दीजिए किसी ... आदमी का...अंदाज से ही वह ऐसी पोशाक सिल देता है कि फिटिंग में सूत बराबर भी झोल न आए." साहब, के खुश होते ही पी. ए. और खुश होकर बोले थे, "मेरी चौथी बेटी का ब्याह लगा था, सर! दामाद ने हठात् सूट की फरमाइश कर दी...वह भी ब्याह से केवल चार दिन पहले प्राइवेट कंपनी में नौकरी की वज़ह से न दामाद को यहीं जाकर माप दे जाने की छुट्टी थी, न मुझे फुर्सत कि जाकर माप ले आऊं. बाकर अली के सामने मैंने दामाद का सिर्फ हुलिया भर बयान कर दिया था. सुथरे ने सलेटी रंग का ऐसा सूट सिलकर दिया है कि मेरा दामाद हर खास मौके पर वही सूट पहनकर निकलता है...कहता है कि मेरी शख्सियत इसी सूट में खिल-खिल उठती है. कई बार उसने कहा भी कि एक बार दर्जी बाकर अली से मुझे मिलवा दें..." पी..ए. जरा धीरे बोले थे, "लेकिन सर! उसकी इस ख्वाहिश पर मैं ज्यादा तवज्जो नहीं देता...कि कहीं दुबारा कुछ फरमाइश न कर दे ... दामाद से ना कहते भी ना बनेगा."
साहब भी मुस्कुरा दिए थे, "ठीक कहते हो आप! अपने ससुर से नजदीकी और दामाद से दूरी बनाकर चलने में ही अक्लमंदी है."
दर्जी बाकर अली की दूकान में पहुँचते ही साहब ने कड़कदार आवाज़ में कहा, "क्यों जी! हमारे पी. ए. तो आपकी बड़ी तारीफ कर रहे थे कि आदमी को बिना देखे, फकत हुलिया के आधार पर आप कपड़े सिल देते हैं.”
"हुजूरे आला! वे कपड़े आम आदमी के होते हैं" बाकर अली मन-ही-मन गदूगद होते हुए दस्तबस्ता होकर बोला, "आम आदमी के चेहरे और लिबास में बहुत फर्क नहीं होता. अलबत्ता हाकिमों के लिबास अलहदा किस्म के होते हैं. वे उन के ओहदे और उस ओहदे पर उन के बिताए गए वक्त के हिसाब से तय होते हैं.” सीधेपन से कहकर दर्जी ने इधर उधर देखा. वहाँ कायदे की कोई कुर्सी न थी. कारीगरों के बैठने के लिए दो-चार तिपाइयां बेतरतीब पडी हुई थीं. उन्हीं में से एक तिपाई को फूँक मारकर साफ करते हुए उसने एक बिना कटे कपड़े को उस पर बिछा दिया और बोला, "तशरीफ़ रखें, हुजूर ¡ आपका गाउन तो कब का सिल चुका होता!"
साहब लेकिन तिपाई पर बैठे नहीं. शायद ऐसा शान के खिलाफ होता. उन्होंने खड़े-खड़े ही पूछा, '"...तो अब तक सिला क्यों नहीँ? गाउन का क्या! वह तो बिना माप का भी सिल सकता है...वह तो फ्री साइज होता है.'
“यही तो राज की बात है, हुजूर ! जो कपडा एक बार कैंची से कट गया, सुई से बिंध गया, धागे से नथ गया...वह कभी फ्री साइज नहीं हो सकता...उसे तो किसी-न-किसी साइज में जाना ही है. फ्री साइज़ कपडा तो बिना कटे…सिले पहना जाता है, जिसे मोटे-पतले, लंबे-ठिगने, जवान-बूढे हर किस्म के लोग पहन सकें.”
"भला ऐसा कौन सा कपडा है, जिसे बिना सिले पहना जा सके?" साहब को हँसी आ गई. उन्होंने तनिक तंज करते हुए कहा, "कहीं थान भी पहना जाता है, क्या?'
दर्जी के चेहरे पर नामालूम दर्द की एक लहर-सी उभरी, मानो सिलाई करते वक्त बेखयाली में अचानक सूई चुभ गई हो, "हुजूर । अब तो चंद पहरावे ही अपने मुल्क में ऐसे बचे हैं, जिन्हें वाकई फ्री साइज कहा जा सके!" दर्जी बाकर अली ने गहरे अफसोस से कहा, '"...मसलन साडी, धोती, कुंठा वगैरह...ऐसा कि सास की साड़ी बहू पहन ले या बाप की धोती बेटा पहन ले, उसके इंतकाल करते ही अपने तमाम विरसे और जिम्मेदारियों के साथ बाप का कुंठा बेटे के सिर पर बंध जाए...अपने यहाँ बिना सिला हुआ पहरावा ही उम्दा और पाक माना जाता है...पूजा-पाठ में ऐसा ही पहनावा मुबारक और मुकद्दस माना जाता है. शायद हुजूर को इल्म हो कि देवी माँ को जो चुनरी और गंगा मैया को जो पियरी चढ़ती है वह भी बिना सिली होती है. हज को जाने वाले हुज्जाज अपने साथ जो एहराम (हाजियों का वस्त्र, वे दो बिन सिली हुई चादरें जिनमें एक बांधी और एक ओढ़ी जाती है) ले जाते हैं वह भी बिन सिला ही होता है. यह उसकी अलामत है कि इंसान अपनी जिंदगी में चाहे जितना और जैसा पहनावा ओढ़ ले, लेकिन कफ़न ही होगा आखिरी पैरहन अपना…कफ़न ही एक ऐसा पहरावा है, जिसके आड़े किसी भी मुल्क और मजहब की दीवारें नहीं जाती" इस शदीद अफसोस से निजात पाने के लिए दर्जी ने जरा-सा दम लिया, फिर बोला, आपके मामले में देर इसलिए हुई कि पहले मैं यह जानकर तसल्ली कर लेना चाहता था कि आप किस तरह के हाकिम हैं... और कितने दिनों से हाकिम हैं?"
कहाँ तो जाए थे गाउन सिलवाने और यहाँ अजीब फैलसूफ़ से पाला पड़ गया. साहब ने तो कभी कपडों के मामले में इस तरह सोचा भी न था, जबकि रोज़ देखते थे रैयतों को धोती-साडी पहनते हुए-बिना सिले कपड़े का इतना इस्तेमाल¡ साहब बुरी तरह चकरा गए, "किस तरह के हाकिम?...और कितने दिनों से हाकिम?"
"जी हां! जाप अभी-जभी हाकिम बने हैं या बहुत पुराने हाकिम हैं या तरक्की करते-करते हाकिम के इस ओहदे तक पहुंचे हैं?"
साहब की त्यौरी चढ़ गईं. ये बौड़म-सी बातें उनकी समझ में न आ रही थीं. उन्होंने हैरानी से पूछा, 'एक अदद नए गाउन की सिलाई से इन सब बकवासों का क्या लेना-देना?"
'बस, इसी बात पर तो गाउन की माप और काट तय होती है, हुजूर!' दर्जी ने निहायत मासूमियत से कहा.
साहब ने आंखें तरेरते हुए कहा, "वह कैसे?"
दर्जी ने ज़वाब दिया, "अगर आप नए-नए हाकिम बने हैं तो दफ्तर में सारे काम बड़ी तेजी से निपटाने पड़ते हैं. अपने यहाँ रिवाज है की तमाम पेचीदा और बहुत दिनों से लटके काम अपने मातहत पर डाल दो. चूंकि नए अफसर को अभी खुद को काम का साबित करने का वक्त होता है और इसी पर उसकी अगली तरक्की मबनी होती है, सो एक तरह से कहें तो उसे खड़े-खड़े सारे काम निपटाने होते हैं. इस हालत में उसके गाउन के आगे की लंबाई ज्यादा और पीछे से कम " होनी चाहिए...क्योंकि नए अफसर के बदन की लंबाई भी सामने से ज्यादा और पीछे से कम होती है. चूंकि नए अफसर को कुर्सी पर बैठते ही लगता है कि दोनों जहान उसकी मुट्ठी में आ गए हैं, सो उसकी रीढ़ की हड्डी यूं तन जाती है मानो फौलाद हो, सो नए हाकिम कुछ ज्यादा ही घमंडी और अक्खड़ हो जाते हैं, वे हर वक्त अपना सिर ऊंचा उठाए रहते हैं, नाक चढाए और छाती फुलाए रहते हैं, सो शरीर के पिछले हिस्से पर मार ज्यादा पड़ने से वह तनिक छोटा पड़ जाता है."
साहब तो काठ की मूरत की तरह दर्जी को देखते रह गए.
वह अपनी रौ में कहता गया, "जो तरक्की करते-करते यानी प्रोमोशन पाकर अफसर बनते हैं, वे हर घाट का पानी पिये होते हैं, हर फटे में उनके पांव कभी न कभी दब चुके होते हैं. अपने से नीचे वालों पर वे जितनी हेकड़ी दिखाते हुए उतान होते हैं, अपने से ऊपर वालों की घुड़की के आगे वे बेचारे उतने ही निहुर भी जाते हैं. ऐसी हालत में उनके गाउन के सामने और पीछे की लंबाई एक बराबर रहनी चाहिए."
अफसरी के बारे में दर्जी के इस अकथ ज्ञान के आगे साहब तो फक पड़ गए थे. चुपचाप उसका चेहरा निहारे जा रहे थे. अब उनसे ख़ड़ा न रहा गया. धम से तिपाई पर बैठ गए.
लेकिन दर्जी अपनी ही धुन में कहता गया, "रही बात पुराने हाकिमों की...तो उनका गाउन एकदम अलग किस्म का होता है. उनको इतनी बार अपने से उँचे और आला अफसरों की डाँट खानी पड़ती है कि वे उनके सामने बराबर झुके रहते हैँ...वह रीढ़ जो कभी फौलादी हुआ करती थी अब टेबिल लैंप के स्टैंड की तरह लचकदार और हर तरफ से मुड़ जाने वाली हो जाती है. चूंकि पुराने हाकिमों के कंधे झुके रहते हैं, गर्दन सामने की ओर लटकी रहती है, ऐसी हालत में उनके गाउन के सामने की लंबाई कम और पीछे की लंबाई बेशी होती है."
दर्जी ने कैची से एक उभरा धागा काटते हुए कहा, "रही बात किसी महकमे के सबसे ऊंचे अफ़सर की...तो उनका साबका अपने मंत्री से पड़ता है. उन्हें मंत्रीजी के अगल-बगल रहना पड़ता है, क्योंकि सिर्फ आलाकमान को छोड़कर मंत्रीं अपने सामने किसी को जगह देते नहीं, उनके पीछे चापलूसों की जमात होती है, सो ऊँचे अफसर को जगह मंत्रियों के अगल-बगल ही मिल पाती है. अब मंत्रियों की सनक और जहल तो बेलगाम होती है, वे कब किसी अफसर को दाएँ झुकने को कह दें और कब किसी को बाएँ, इसका पता उन्हें खुद नहीं रहता. अब मंत्रियों के दबाव और भार को झेल पाना सबके बूते की बात नहीं...यह हाथी को नाव पर चढाकर दरिया पार कराने जैसा मुश्किल होता है. हुजूर! हाथी की रुजूआत (प्रवृत्ति, झुकाव) भी अजीब होती है, जब वह इत्मीनान में होता है तो फकत तीन टांगों पर खडा हो जाता है, इस तरह से वह बारी-बारी से अपनी एक-एक टांग को आराम देता जाता है....अब वह कौन सी टांग कब उठा ले और नाव को किस तरफ झुका दे, कहा नहीं जा सकता...ऐसे में महावत और मल्लाह दोनों की साँसें टंगी रहती हैं ...नाव के तवाजुन के लिए उन्हें भी बार-बार दाएं-बाएं झुकना पड़ता है ... और अपने यहाँ के मंत्री¡ वल्लाह…सरापा सफेद हाथी होते हैं! ऐसी हालत में आला अफ़सर के गाउन में आगे-पीछे की लंबाई पर उतना खयाल नहीं किया जाता. उनके गाउन में घेर बडा रखना होता है, क्योंकि उम्र के उस मुकाम पर पेट भी कुछ आगे निकल आया रहता है, सो आला अफसर के गाउन में दोनों बगल देर सारी चुन्नटें डालनी पड़ती हैं. चुन्नटों से गाउन – तो शानदार बनता है, लेकिन जरा भारी भी हो जाता है. खैर, हाकिमे आला का गाउन ! वह तो बदन की निसबत में भारी होगा ही.' इतना कहकर दर्जी साहब की चौंधिया-सी गई आँखों में झांकते हुए बोला, "अब बताएं, हुजूर ! कि आप इनमें से कौन-सा हाकिम हैं, ताकि मैं उसी के मुताबिक मनमाफिक गाउन सिल सकूँ?"
साहब तो जैसे मंत्रबिद्ध होकर तिपाई से उठे और दर्जी बाकर अली के पहलू में खड़े हो गए. पहले तो कुछ बोला नहीं गया, फिर जरा साहस संजोकर उसके कान में कुछ कहा. शायद अपनी अफसरी की बाबत कुछ बताया.
बाकर अली की आंखें सीप के बटन की तरह चमक उठी, "समझ गया, हुजूर ! अब आपको यहाँ आने की जरूरत नहीं! परसों शाम को ..इसी वक्त पी. ए. साहब को भेज दीजिएगा-आपका गाउन मिल जाएगा-