मामुलिया / निधि अग्रवाल

Gadya Kosh से
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चबूतरे पर छोटी-बड़ी लड़कियों का जमघट लगा था। कोई सुर में थी, तो कोई सुर में सुर मिलाने का असफल प्रयास करती हुई, लेकिन सभी पूरे जोश में गा रहीं थीं,

" मामुलिया के आये लिवौआ

भमक चली मेरी मामुलिया

लाओ लाओ चंपा चमेली के फूल

सजाओ मेरी मामुलिया! "

बबूल की टहनी लगा दी गई थी और सजी-धजी, अकारण ही खिलखिलाती, अविवाहित लड़कियाँ चारों तरफ़ घेरा बनाए थीं।

"बहु, लाला को देर हो रई। भेजो मन्नो को!" दादाजी ने बैठक का पर्दा हटा अंदर झाँकते हुए कहा। उनका स्वर हमेशा की तरह निर्णायक था।

"माँ, हमें बचाई लो। राक्सस रहत उते सब।" बिलखते हुए मन्नो जीजी बिमला ताई से चिपक गई।

ताई ने उसे जबरन हटा कर कुर्सी पर बिठाया और बोली-"ब्याह पीछे पति ही परमेस्वर होय मन्नो। इस्वर से डर, बैठ, हम अबहई आ रए।" कहती हुई वे कमरे से बाहर निकल गईं।

मन्नो जीजी शीशे के सामने गठरी-सी बैठी थी। कुछ माह की नई-नवेली ब्याहता-सी चमक उसके चेहरे पर कहीं नहीं दिखती थी। आँखों में लगाया काजल आँसुओं के साथ बह कर पूरे चेहरे को कालिमा की छाप देने को बेताब था... मानो उसके भविष्य की छाप ही बिमला ताई को दिखा देना चाह रहा हो। बाहर लड़कियाँ गा रहीं थीं,

" ल्याइयो-ल्याइयो रतन जड़े फूल, सजइयो मोरी मामुलिया

ल्याइयो गेंदा हजारी के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।

ल्याइयो चम्पा चमेली के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।

त्ल्याइयो घिया तुरैया के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।

ल्याइयो सदा सुहागन के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया। "

बिमला ताई ने आकर सोने का, गले से चिपका हार उसके गले में डाल दिया। मन्नो जीजी के गले पर पड़ा बड़ा नीला धब्बा पीले टुकड़ों के नीचे छिप गया। काँपती उँगलियों से मन्नो जीजी ने हार के नीचे धब्बे को सहलाया और हिचकी ले-ले रोने लगी। मैं दूर खड़ी उसके काँपते बदन को देख रही थी।

"माँ..." , भर्राए स्वर में जीजी बोली और ताई के हाथ पकड़ लिए। ताई ने कलाई पर पड़ी खरोंचों को हल्के से सहलाया और अपने हाथ के जड़ाऊ कड़े उतार जीजी को पहना दिए। बाहर लड़कियाँ दूने उत्साह से गा रहीं थीं-

" चीकनी मामुलिया के चीकने पतौआ

बरा तरें लागली अथैया

कै बारी भौजी, बरा तरें लागी अथैया

मीठी कचरिया के मीठे जो बीजा

मीठे ससुर जू के बोल

कै बारी भौजी, मीठे ससुर जी के बोल

करई कचरिया के करए जो बीजा

करये सासू के बोल

कै बारी भौजी, करये सासू के बोल। "

कड़वे-मीठे बोलों की छाप तो उसके मन पर पड़ी होगी, मैं देख न सकी लेकिन सिर पर रखा पल्लू फिसलने पर उघड़ी पीठ पर पड़ें नीले निशान ज़रूर उजागर हो गए।

ताई ने फुर्ती से पल्ला सिर पर रख दिया। मुझसे मुख़ातिब हो बोली,

"बहन को लिवा ले जा राधा" , फिर पल्लू के कोर से कभी आँखें तो कभी नाक पोंछने लगीं।

बाहर जीजी के 'परमेस्वर' के रूप में विराजमान अधेड़ उम्र की उस भीमकाय आकृति को देख मेरे पैर वहीं जड़ हो गए। जीजी जो लाजवश या भयवश अब चुप हो चुकी थी पुनः रोने लगीं। उसके रुदन को भेदते शब्द हवा में तैर रहे थे-

" मामुल दाई मामुल दाई

दूध भात ने खायें

बतुरी के धोखे

बिनौरा चबायें। "

"और देरी न करो। दूर का सफ़र है।" यह पिताजी का स्वर था। उन्होंने बढ़कर जीजी को मेरे हाथों से अपने हाथों के घेरे में ले लिया और जीजाजी के पास बिठा दिया। दादी ने बढ़कर दोनों को शुभ का टीका लगा नारियल और शगुन दिया। जीजी अब मंद स्वर में सिसक रही थीं।

पाहुन के उठने के साथ ही पिताजी, ताऊजी और दादाजी सहित सभी हाथ जोड़ उठ खड़े हुए। भीतर से ताई और माँ का और बाहर जीजी का रुदन तेज हो गया। सभी बैठक के दरवाज़े से बाहर चबूतरे पर आ गए।

"मनोहर स्टेसन तक बिठा कर आ!" दादाजी ने पिताजी को आज्ञा दी और साथ ही कुछ नोट दिए।

अधिक रोने से जीजी ने चबूतरे पर ही वमन कर दिया। इस कारण कुछ देरी हुई। फिर ट्रेन छूटने के भय से रिक्शों को चलने का आदेश जारी कर दिया गया। एक रिक्शे में जीजी और जीजाजी बैठे। दूसरे में पिताजी और मैं। रिक्शा आगे बढ़ चला। लक्ष्मी ताल के पास लड़कियों के समूह गा रहे थे,

" जरै ई छाबी तला कौ पानी रे

मोरी मामुलिया उजर गई। "

मैं ताल के जल में मामुलिया को डूबते-उतराते देख रही थी जब अचानक से मन्नो जीजी को लक्ष्मी ताल में छलांग लगाते देखा। लड़कियों का मामुलिया ताल में विसर्जित करना, जीजी का चलते रिक्शे से उतर ताल में कूदना और पिता जी का मन... नो... चिल्लाते हुए जीजी के पीछे ताल में कूदना, सब कुछ क्षणांश में ही घटित हो गया। कुछ मशक़्क़त के पश्चात जब पिताजी जीजी को ले सतह पर आए तब जीजी के बदन पर पड़े पूर्व के नीले निशान सल्फास के विष के नीले निशानों से एकरूप हो चुके थे।

रिक्शे वापस घर की ओर मोड़ दिए गए। एक रिक्शे में जीजी के पार्थिव शरीर को लिए पिताजी बैठे और दूसरे में जीजी के बताए राक्सस के साथ भयाक्रांत मैं। घर पहुँचे तो लड़कियाँ गा रही थीं,

" चूँ-चूँ चिरइयाँ, बन की बिलैया

ताते ताते माड़े, सीरे-सीरे घैला

सो जाओ री चिरैंया

उठो उठो री चिरैंया

तुमाये दद्दा लड़ुआ ल्याये। "

जीजी को ज़मीन पर लिटाया तो वह सब चुप हो गईं। अचानक छाई शांति की थाह पाने दादी बाहर आई और 'हाय मोरी मैया' कहती पछाड़ खा गिर पड़ी। बुरी ख़बर जिस तेजी से फैलती है उससे दुगनी तेज़ी से फैली। पूरा गाँव एकत्रित हो गया।

जीजी का सिर गोद में रख ताई बोली,

"उठ जा री मोरी चिरैंया।" और फिर सबकी ओर देखती हुई चिल्लाई, "अरे कोई तो भलमानस इसे उठाओ। क्या अब कभी न उठेगी।"

इसी बीच वह राक्सस सबकी नजरें बचा गायब हो चुका था। मेरी निगाहों ने पूरी भीड़ छान डाली लेकिन न वह था न जीजी के गले में हार और न ही कलाई पर कंगन।

अचानक दादी उठीं और गाने लगी,

"बीन-बीन फुलवा लगाई बड़ी रास

उड़ गये फुलवा रै गई बास।"

(विशेष: मामुलिया बुन्देलखण्ड का प्रसिद्ध त्यौहार है जिसमे बबुल की एक डाली की पूजा कर उसके काँटो को फूलों से सुसज्जित कर पूजा अर्चना के बाद उसे जल में प्रवाहित कर दिया जाता है।)