मामूली लोग / श्रवण कुमार उर्मलिया

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जाने किस बात के सिलसिले में मुझे वे सब बातें एकाएक याद आने लगी थीं। वही गली-मुहल्ले, वही पड़ोसी, वही लोग। फिर लाशें-ही-लाशें। एक लाश मैंने एक सुबह उस खेत में देखी थी। बिलकुल नंगी। गोरी-चिट्टी। दूर से ही दिख रही थी। किसी औरत की थी। ऐसे फूल रही थी जैसे उसमें हवा भर दी गयी हो। ऐसे ही एक सुबह मैंने कुछ लाशें शुगर मिल के पास देखी थीं। कुछ तड़प रही थीं, कुछ बिलकुल मुर्दा थीं। लेकिन एक अन्धी बुढ़िया को किसी ने नहीं मारा था। वह ऐसे ही हाथ पसारती हुई इधर-उधर डोल रही थी और कोई भी 'थाह' न मिलने के कारण बार-बार बुदबुदाये जा रही थी-”वे पत्तरों, मैनूँ अन्नी नू किस वास्ते ज्यूँदा छड़िया ए! वे पुत्तरों, मेरी वो कोई गरदन लाह दयो।” लेकिन ताज्जुब कि उस बुढ़िया की गरदन उतारने को कोई तैयार न था। कुछ ने मजाक किया, “यारो, लाह्दयो बुड्डी दा वी बेडा पार।” लेकिन 'बुड्डी' को बेड़ा पार लगाने को कोई तैयार न था। उससे किसी को कुछ लेना-देना नहीं था। जिनसे लेना-देना था, उनसे हिसाब तुरन्त कर लिया गया था। मसलन, उस काफिले में जितनी जवान लड़कियाँ थीं, उन्हें खींच-खींचकर अलग कर लिया गया था और एक ओर हाँक दिया गया था। बाकी सब पर किरपानें-तलवारें इस तरह बरसीं थी जैसे कल-कारखानों में बटन दबा देने पर चीजें खुद-ब-खुद कटने लगती हैं। उस मार-काट में केवल वह 'बुड्डी' ही बची थी। या जितने ढोर-डंगर थे, उन्हें भी लोग लड़कियों के साथ हाँककर ले गये थे। लेकिन मुझे ताज्जुब इस बात का था कि ऐसी सामूहिक विपत्ति में भी व्यक्ति इतना निरीह कैसे बना रह जाता है, कि मरने से पहले वह एक बार 'हाँ-हूँ' भी नहीं करता!

अजब यादें हैं ये सब! इनसे जुड़ी और भी ऐसी कई यादें हैं। जाने ये दिमाग की किस गंफा में छिपी पड़ी रहती हैं! एक निकली तो सब निकल पड़ीं। जैसे पानी के दबाव के सामने चींजें रिस-रिसकर अपने-आप सामने आने लगती हैं। या किसी को अगर आप एकदम उर्रियाँ करना चाहें हों तो वहाँ खूब हाई पावर के बल्ब लगा दो। मेरे दिमाग में भी जैसे किसी ने हाई पावर के बल्ब लगा दिये हैं और सब कुछ उर्रियाँ हो उठा है।

उन दिनों मुझमें जाने कहाँ की दिलेरी भर गयी थी।

एक पतला-दुबला उठंग-सा लड़का, और हाथ में किरपान लिए घूमता फिरे! पहले मेरे हाथ में हॉकी थी। लेकिन मुझे लगा की हॉकी से वार करारा नहीं पड़ेगा। ज्यादा-से-ज्यादा आदमी बेहोश गिर पड़ेगा। लेकिन किरपान का वार खाली नहीं जाता। यदि ठीक से पड़ गयी तो गरदन साफ। गरदन सांफ करने का भी शायद एक सुख होता है। मैं उसी सुख की तलाश में था। मेरे साथ दो-तीन और साथी भी थे। मुझे 'सू' मिली थी। कि हमारे महल्ले में मुसलमान आये हैं। हम उन्हीं को इधर-उधर ढूँढ़ रहे थे। फिर एकाएक हमारा-उनका सामना हो गया और मेरे मुँह से सहसा निकला, “रुक जाओ वहीं।”

ताज्जुब, वे वहीं रुक गये। उन्होंने मेरा हु€म माना। मैं जो शरीर और कद में उनके किसी तरह भी बराबर नहीं था। उनके चेहरे का पानी एकदम गायब था और वे बिलकुल वैसे ही निरीह हो रहे थे जैसे उस कांफिले के लोग दिखे थे। फिर उनमें से एक बोला था। “लेकिन इन्हें मारने से पहले हमें मारना होगा!”

“यह कौन है?” मैंने अपने साथियों की तरफ देखा था।

“यह हिन्दू है और यहीं का रहनेवाला है।”

इसपर भी मेरी हिम्मत कमजोर नहीं पड़ी थी। मेरी वेश-भूषा भी अजब थी। मुँह पर शायद दाढ़ी के थोड़े-बहुत रोयें हों, सर के बाल भी शायद बिखरे हुए हों, पर पैंट-कमींज न पहनकर मैं लुंगी और एक पुरानी-सी कमीज पहने हुए था, और पाँव में स्लिपर थे। “पाकिस्तान में हमने मुसलमानों का €या बिगाड़ा जो उन्होंने हमें इस तरह बेघर कर दिया!” मैं कभी-कभी अपने से सवाल करता और फिर सोचता कि वहाँ नहीं तो यहाँ, इनसे बदला जरूर लेंगे, अब तो हम अपनी जमीन पर हैं।

और आज वह मौका एकाएक हमारे सामने आ खड़ा हुआ था।

“नहीं, नहीं, मत मारो। पुराना महल्लेदार था। अपना मकान देखने आया होगा। इसने हमारा €या बिगाड़ा है?” मेरा साथी फुसफुसा रहा था।

हमने नहीं मारा। मेरा तनाव एकदम जाता रहा था। मुझे कुछ शर्म भी आयी थी। मैं वहाँ से एकदम सबकी नंजर बचाकर खिसक लिया था और फिर कई दिनों तक अपने घर में खोया-खोया-सा घूमता रहा था।

लेकिन उस दिन हमारे मुहल्ले में वाकई कोहराम मच गया था। सब लोग 'मोये रफ्यूजिओं' को गाली दे रहे थे। इन्हीं के कारण चींजों के दाम बढ़ रहे हैं, इन्हीं के कारण शहर में इतनी गन्दगी भर गयी है। “मोए गन्दे! जहाँ देखो, टट्टी ही टट्टी। खेतों में, सड़कों पर, सब जगह! कहते हैं कि 'लुट-पुट के आये हैं।' इनकी औरतों के फैशन देखो ! इन्होंने अपनी तरह की गन्दगी फैला रखी है!”

गनीमत थी कि हम उतने 'रफ्यूजी' नहीं थे। हमारा यहाँ नानी का मकान था। हम उसी में आ गये थे। कुछ लोग हमें 'पुराने शहरदार' मानते थे।

लेकिन उस दिन वाकई बड़ा कोहराम मचा। हमारे एक रिश्ते के मामा ने एक मुसलमान सिपाही को धराशायी कर दिया था और फिर वहीं मुहल्ले के चौक में लकड़ियाँ चिनकर उसको आग भी लगा दी थी। आग की लपटें खूब तेजी थीं, यहाँ तक कि कुछ लोग अपनी छतों पर चढ़कर उन्हें अनुभव कर रहे थे। तरह-तरह की चेमेगोइयाँ हो रही थीं। कोई कहता, सिपाही मामा के वार से नहीं मरा, मामा तो शराब के नशे में उल्टे-सीधे वार किये जा रहा था और सिपाही अपनी लाठी से उन्हें झेलेजा रहा था। दूसरे, वह सिपाही अकेला भी न था-उसके साथ तीन और थे। लेकिन वे भाग गये थे। शायद वे हिन्दू थे। कोई कहता, नहीं यह भी हिन्दू ही था। मामा को चाहिए था कि पहले वह देख लेता, €योंकि इसी गलतफ़हमी में कई मासूम लोग मारे गयेहैं।

एक दिन स्टेशन पर भी ऐसे ही हुआ था। कुछ लोग कह रहे थे कि वह पागल है, कुछ कहते कि नहीं, जासूस है। फिर उसे एक तरफ ले जाएा गया और उससे कहा गया कि वह अपना पाजामा खोले। उसके पाजामा खोलने पर साबित हो गया कि वह मुसलमान ही है, और आनन-फानन उसे छुरे के एक ही वार से अल्लाह ताला के पास भेज दिया गया।

पर मामा ने तो आव देखा न ताव, उसपर धावा बोल दिया। वह घबरा तो गया था, पर उसने फिर भी मुकाबला किया और फिर जमीन पर गिर पड़ा। उस समय तक मामा के और भी हिमायती वहाँ आ गये थे। उन सबने वहीं उसके लिए चिता तैयार की और उसे उसपर लिटा दिया। पर ताज्जुब कि वह जलती लकड़ियों में से भी उठ बैठा और हाथ जोड़कर अपनी जान की खैर माँगने लगा। तभी उधर से एक और किरपानधारी आया और उसने एक ही वार में उसका सर धड़ से अलग करदिया।

चिता जल रही थी। मामा एकदम डर गया था। वह डरकर अपने घर में जा छिपा और वहाँ जोर-जोर से रोने लगा। बड़े अजब ढंग से रो रहा था। काफी लोग उसके इर्द-गिर्द जमा थे और उसे दिलासा दे रहे थे। पर मामा रोये जा रहा था। बीच-बीच में वह काँप भी जाता। अजब तरह से रो रहा था! बच्चों की तरह! बिलकुल निरीह-सा ! वैसे ही जैसे उस दिन उस काफिले के लोग रो रहे थे, जो समर्पण में अपनी गरदनें खुद आगे बढ़ाये हुए थे।

मां ने उस दिन मुझसे खास कहा, “अभी तुम बहुत छोटे हो। यह तुम €या करते-फिरते हो?” लेकिन मैं घर में कोई तेज हथियार ढूँढ़ रहा था। हमारे घर में कोई हथियार नहीं था, यहाँ तक कि कोई ढंग की लाठी भी न थी। दरअसल, जब रेडियो-अंखबारों में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बनने की खबर आयी, तब किसी ने ऐसा कभी सोचा भी न था कि हमें घर-बार छोड़कर इस तरह भागना पड़ेगा। काफी लोगों ने तो यही सोचा था कि हम पाकिस्तान में ही रहेंगे। मेरे पिता भी पाकिस्तान में ही रहना चाहते थे। उन्होंने तो शायद कहीं लिखकर भी दे दिया था कि हम पाकिस्तान में ही रहेंगे। पर फिर धीरे-धीरे परिवर्तन दिखने लगे। हमारे पड़ोस में जो दो मुसलमान परिवार रहते थे, वे अपने-अपने घर बेचकर किसी मुसलमानी महल्ले में चले गये, और उनकी जगह हिन्दू परिवार आ गये। फिर हिन्दू-सिख परिवार भी अपनी सम्पत्ति बेचकर हिन्दुस्तान जाने लगे। लेकिन हमने अपना मकान नहीं बेचा था। हमारे आस-पड़ोस में भी किसीने अपने मकान नहीं बेचा। सबका खयाल था कि हमारा महल्ला सबसे अधिक सुरक्षित है। हमारे महल्ले के लोग थे भी बड़े मजबूत। मेहनती लोग थे। शहर में उनकी धाक थी। उनसे अगर कोई टक्कर ले सकता था तो केवल कश्मीरी मुसलमान ही थे। पर कश्मीरी मुसलमान उनसे टक्कर क्यों लेते? वे तो उनके दोस्त थे। हमारे पड़ोस में भी जो मुसलमान परिवार थे, वे भी शायद कश्मीरी मुसलमान ही थे। हमारे मकान से लगा मकान तो कश्मीरी मुसलमानों का ही था। उससे लगा मकान शायद कश्मीरी मुसलमानों का नहीं था। ये दो मकान थे हमारी गली में। पहला मकान हमारा था और बाकी दोनों मकान मुसलमानों के थे। उसके बादा एक खुला 'खोला' था, और फिर बन्द। बाकी मुहल्ला मेहनतकश लोगों का था जो दिन-भर हथौड़े चलाते रहते। उनसे मेरी ज्यादा दोस्ती भी न थी। मेरी दोस्ती थी तो सलामतउल्ला, यानी शौंकी से, जिनका मकान आंखिरी था। लगभग मेरी हमउम्र ही था वह। बचपन में वह और मैं दोनों शहर की सड़कों पर घूमा करते थे और सिगरेट की खाली डिबियाँ बटोरते थे। कभी-कभी मेरे साथ हमीद यानी म्हीदा भी आ जाता। वह मेरा पहला पड़ोसी था। लेकिन उम्र में वह छोटा था। मैं भी तब उतना बड़ा नहीं था। तभी मैं उसकी मां के पास दुबककर बैठ जाएा करता। काफी गोरी थी उसकी मां। स्वस्थ भी। “चाची,” एक दिन मैंने उनसे कहा था, “मैं इस छुरी से मुसलमानों को मारूँगा।” और वह हैरत से मेरी तरफ देखने लगी थी। “नहीं, नहीं” फिर मैंने सफाई दी थी “मैं तुम लोगों को नहीं मारूँगा, उनको मारूँगा, उनको।” मेरा इशारा शायद बेलचियों की तरफ था जो शहर में कभी-कभी कवायद करते दिख जाते। कैसा आतंक छा जाता था उन्हें देखकर मुझपर ! यह तो काफी बाद में पता चला कि वे लालकुर्ती वाले बेलचिए हिन्दुओं के मित्र थे।

इन लोगों के मकान बेचकर चले जाने के बाद जो परिवार इस मकान में आया, वह एक तरह से हमारा पूर्वपरिचित ही था, बल्कि उसी पूर्वपरिचय के बल पर मैं आसानी से उनके यहाँ आ-जा सका। दरअसल, मैंने सुन रखा था, कि वह औरत बड़ी चालू है, और मैं देखना चाहता था कि 'चालू' 'औरत' कैसी होती है। दूसरे वह थी भी बहुत खूबसूरत एकदम स्वस्थ पहली पड़ोसिन से भी ज्यादा। इसीलिए मैं कभी-कभी बिना खटका किये, मुंडेर फलांग कर, उनकी छत पर उतर जाता और फिर सीढ़ियों की राह उनके कमरे में पहुँच जाता। एक दिन वहाँ गया तो वह अकेली थी और Žलाउज के साथ काफी तंग जाँघिया पहने हुए थी। दूसरी बार गया तो वह अपने पति के साथ लेटी थी और उसका बच्चा उसकी छातियों से खेल रहा था। मुझे ताज्जुब हुआ कि जब कि मैं सब कुछ समझता था, उसे मुझसे कतई संकोच नहीं हो रहा था।

पाकिस्तान बना तो वह भी उसी शहर में आ गयी जहाँ हम पहुँचे थे। वहाँ भी एक प्रकार से हमारे पड़ोसी में थी। पर उस मकान वहाँ भी वह एक प्रकार से हमारे पड़ोसी में थी। पर उस मकान में हम ज्यादा दिन नहीं टिके और अपनी नानी वाले मकान में चले आये। फिर कुछ ही समय बाद सुना कि उसके पति की तबीयत ठीक नहीं रहती थी, इसीलिए वह उसे 'गुरुओं' के पास ले गयी, जहाँ उसके 'जिन्न' छुड़वाने के लिए उन्होंने उसे लोहे की सांकलों से पीटा और जिन्न उसे छोड़ते-छोड़ते उसके प्राण भी अपने साथ ले गये। वह बाद में शायद मुझे तभी मिली जब वह अपने रुग्ण पति से मुि€त पा चुकी थी। बड़ी चमकीली आँखें थीं उसकी बड़ी-बड़ी। बाद में किसी विशेष का नाम उसके नाम के साथ जोड़ा जाने लगा और फिर यह भी सुना कि वह कोठे पर बैठने लगी है। आंखिर यह सुनने में आया कि वह उस व्यि€तविशेष की रखैल बनकर किसी दूसरे शहर में रहने लगी है।

बात कहाँ-से-कहाँ तक पहुँच गयी।...दरअसल, पाकिस्तान बनने की घोषणा होने से काफी पहले वहाँ के मुसलमानों को वह पता चल गया था कि हिन्दू-सिखों को वहाँ से खदेड़ा जाएगा। वरना क्या कारण था कि वे हमारी गली वाली अपनी सम्पत्ति बेचकर कहीं और रहने चले जाते? खैर, उससे उन्हें दुहरा फायदा हुआ। मकान बेचकर जो नकद कमाई की, वह अलग, और बाद में फिर अपने उन्हीं मकानों पर जो कब्जा किया, सो अलग। दरअसल, जिन दिनों मारकाट शुरू हुई थी, उन दिनों लोग मिट्टी के भाव चीजें बेच रहे थे और उन्हें कोई खरीदनेवाला नहीं था। मुझे याद है, अपना मकान और दूसरी चीजों के साथ-साथ हमें अपनी गाय भी वैसे ही वहाँ छोड़नी पड़ी थी। कुछ लोगों ने तो अपने ढोरों के गले की रस्सियाँ एकदम खोल दी थीं। ताकि वे जहाँ चाहें, चले जाएं। पर ढोर घूम-घामकर वापस नहीं आते। मेरी मां को काफी अर्से तक इसी बात का गम रहा कि इस तरह बेसहारा छोड़ दिये जाने पर जरूर हमारी गाय ने हमें 'श्राप' दिया होगा।

इनसानी दिमाग की यही खराबी है-वह बहकता बहुत है। अब मैंने ही कहना कुछ चाहा था, वह कुछ गया। लेकिन मुझे एक खास कमंजोरी है-मैं चौंकता बहुत हूं। बचपन में तो और भी चौंकता था। पर अँधेरे में मुझे ज्यादा डर लगता था। पाकिस्तान बनने से तीन-चार वर्ष पहले की बात होगी। तब मेरी जवान बहन एकाएक मर गयी। एकाएक नहीं, ज्वर आने के तीसरे दिन। लोगों ने कहा कि यह गरदन तोड़ बुखार है।

हमारा मकान चाहे गली की नुक्कड़ पर था, लेकिन खासा बड़ा था, यहाँ तक कि उसका निचला हिस्सा प्राय: खाली पड़ा रहता। उन दिनों किरायेदार रखने का भी रिवाज नहीं था। किरायेदार मिलता भी तो चार-पाँच रुपए माहवार पर। बहन मरी तो उसे निचले हिस्से में सहन में ही लिटाया गया। मां खूब छाती पीट-पीटकर 'कुरलाती' रही। पिता जी को गश आ गया। पर मैं पत्थर बना चुप बैठा रहा। इसीलिए शायद मां ने एक दिन उलाहना दिया, “कैसा पत्थरदिल है!” मैं मा के उलाहना देने पर भी नहीं रोया। खुद ही एक दिन रोया और खूब रोया।

पर जिस बहन के लिए मैं उस दिन रोया, उसी बहन का विचार मुझे भयभीत किये रहता, यहाँ तक कि अब कभी मुझे निचले तल्ले के पास से गुजरना पड़ता, मैं आँखें बन्द किये भागकर वहाँ से निकल जाता। इसी प्रकार बहन के बाद जब मेरे एक छोटे भाई की मृत्यु हुई तो मैंने डर के मारे सामने वाले, सदा बन्द पड़े, मकान के जाली लगे रोशनदान की ओर देखना ही छोड़ दिया। मुझे लगता जैसे तुरन्त वहाँ से कोई भुतवा-सी चीज झाँकेगी और मेरी ओर लपकेगी।

पर निचले तल्ले पर न जाने का एक और कारण भी था, कि सहन में अगर बहन के एकाएक उठ खड़े होने का डर था तो भीतर के कमरे में 'बावे' के प्रकट होने का। मां ने तो शायद पहले वहाँ कभी दीया भी जलाया था। 'बावे' के बारे में मैंने बहुत कुछ सुना रखा था...वह कभी सफेद चोगा पहने प्रकट होता है तो कभी रेंगते हुए बच्चे के रूप में। पर वह डरावना रूप धारण नहीं करता था बहरहाल, उसके एकाएक प्रकट हो जाने का खयाल मुझे बहुत भयभीत करता था।'

पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से पूर्व हम अपने मकान में ताला डालकर 'अपने' देश में पहुँच गये थे। पिता जी भी हमारे साथ थे। पर उन्हें वापस (पाकिस्तान में) डयूटी पर जाना था। मां ने मुझे भी उनके साथ भेज दिया ताकि मैं कुछ और सामान ला सकूं। वहाँ हमारे परिचित लोग अब भी रह रहे थे। पिता जी मुझे वहीं उनके भरोसे छोड़कर खुद दूर के एक शहर में डयूटी पर चले गये और मैं पीछे सामान वगैरह तैयार करता रहा। ताज्जुब कि अब मुझमें कितना साहस भर गया था। उतने बड़े मकान में मैं एकदम अकेला होता, यहाँ तक कि पास-पड़ोस से भी किसी की आवांज सुन न पड़ती। वैसे जब-जब मैं सामान तैयार करने अपने मकान में जाता, मुझे, एक बार कंपकंपी जरूर होती, विशेष कर तब मैं ताला खोलने के लिए उसमें चाबी लगाता। पर फिर धीरे-धीरे मैं उस कंपकंपी पर काबू पा जाता।

सब महल्ले अब प्राय: खाली थे और वहाँ 'अल्लाह-हू-अकबर', 'हर हर महादेव' या 'सतसिरी अकाल' के नारे बेमानी हो गये थे। नारे अब लगाये भी किसके लिए जाते? हर गली-मुहल्ले के मुहाने पर रातों-रात खड़े किये गये लोहे के फाटक भी अब बेमानी हो गये थे। लेकिन जब तक शहर खाली नहीं हुआ, तब तक काफी उत्पात मचता रहा। पहले दिन कहीं बम का धमाका हुआ और उसके साथ ही 'अल्लाह-हू-अकबर' के नारे से टकराते 'सतसिरी अकाल' और 'हर-हर-महादेव' के नारे लगने लगे। फिर तड़-तड़-तड़-तड़ गोलियाँ चलीं, बल्कि कुछ गोलियाँ हमारे सिर के ऊपर से सरसराती निकल गयीं। उस दिन मैंने चारा काटने वाला टोका ढूंढ़ निकाला था और तमाम दिन एक सिल पर उसकी धार बनाता रहा था। पर धार बना लेने पर भी वह धार कहीं काम नहीं आयी, बल्कि नारों के बीच ही कहीं खो गयी।

पिता जी और मैं जब कुछ सामान लेकर लौटे तो पिता जी के दायें हाथ की उँगली पर 'उठाव' उठ आया था। इससे पहले भी उनकी उँगलियों पर 'उठाव उठते रहे और चीरा देने से ठीक हो जाते। पर इन दिनों उसे चीरा देने वाला कोई नहीं था। इसलिए पिता जी के कहने पर मैंने ही उनकी उँगली पर चीरा लगा दिया और खूब दब-दबाकर पीप निकाली। पिता जी को काफी दर्द था। खैर किसी तरह मैंने उन्हें पट्टी भी कर दी। पिता जी ने अपना वह पट्टी वाला हाथ एक और बड़ी पट्टी के सहारे गले से लटका लिया था जिससे उन्हें कुछ राहत मिली थी।'

हालांकि अफवाहें थीं कि गाड़ियाँ रास्ते में ही रोककर एक-एक सवारी को साफ कर दिया जाता है, पर हमारी गाड़ी को किसीने नहीं रोका था। मुझे इधर पहुँचाकर पिता जी फिर अपनी डयूटी पर लौट गये थे। उन्हें सबसे मना भी किया, पर वह माने नहीं । अब मारकाट की खबरें और गहरी होने लगी थीं और हम दिन-रात चिन्ता में डूबे रहने लगे। आंखिर, एक दिन पिता जी आ गये। वह बिलकुल भूत हो रहे थे। उनके कपड़े एकदम गन्दे थे और दाढ़ी भी काफी बड़ी हुई थी। पिता जी ने बताया कि कैसे उनके कुछ मुसलमान मित्रों ने जबरदस्ती गाड़ी में बैठाया और वापस हिन्दुस्तान भेजा। रास्ते में पिताजी को खाने को भी कुछ नहीं मिला। जो थोड़े-बहुत बिस्कुट, डबल रोटी वह अपने साथ हमेशा रखते थे, उसीसे उन्होंने कुछ दिन काम चलाया और जब वह भी खत्म हो गये तो पानी पी-पी कर गुजारा किया। उन्होंने बताया कि उनकी गाड़ी से पहले जो गाड़ी रवाना हुई थी, उसे रोककर उसके एक-एक आदमी को चुन-चुनकर काटा गया और फिर लाशों से भरी और खून से लथपथ गाड़ी को 'हिन्दुस्तान' के लोगों को भेंटस्वरूप भेजा गया। बाद में सुना कि ऐसी ही एक गाडी पाकिस्तान को भी हिन्दुस्तान की ओर से भेंट की गयी, और इस भेंट का आदान-प्रदान काफी दिनों तक चलता रहा।

पाकिस्तान से आये काफी दिन बीत चुके थे और पिता जी अपनी नौकरी बहाल करवाने दिल्ली गये हुए थे। तब एक दिन हमारी गली में किसी औरत की आवांज सुनाई दी। वैसे तो उन दिनों मुहल्ले की औरतें खाने-पकाने से फुरसत पाकर प्राय: गली में ही अपने चबूतरों पर बैठीं रोंजमर्रा की वारदातों पर 'विचार-विनिमय' करती रहतीं, पर उस औरत की आवांज में कुछ ऐसी पीड़ा थी कि यह प्राय: सभी के कानों से टकरायी। औरत बुङ्ढी थी, जईंफ थी और डगमगा-सी रही थी। फिर वह एक चबूतरे पर बैठ गयी और हाँफने-सी लगी।

मां ने पूछा, “€या बात है?”

“कुछ नहीं, धीए” उसने मेरी मां को 'बेटी' कहकर सम्बोधित किया, “जदों किस्मत ने ही हार दे दित्ते दोष किस नूँ दाँ।”

वह अपनी बात कहते जाती थी और बीच-बीच में अपना माथा भी ठोके जाती थी। “सबनाँ ने हार दे दित्ति” उसने कहा। फिर बताया कि उसका घरवाला नहीं रहा। उसे पाकिस्तानियों ने उसकी आँखों के सामने ही मार दिया। बेटा कहीं बाहर गया था। वह लौटा ही नहीं। बेटी धोखा दे गयी और वहीं पाकिस्तान में एक 'मोये लफंगे' के साथ रह गयी। पीछे मिलिट्री उसे ढूँढ़ कर लायी थी, पर एक रात वह फिर भाग गयी।...”हुन दस्सो, मैं की कराँ।” अकेली जान, जहाँ वे सब मर-खप गये, वहाँ उसे क्यों न मौत आयी? वह सवाल कर रही थी।

“मां, जब सिर पर बनती है तो उसे सहना ही पड़ता है,” मेरी मां ने कहा, “तू सबर कर। सबर के सिवा अब चारा भी क्या है।”

“हाँ, धीए, कोई चारा नहीं। एसराँ ही सबर दा घुट पी के रह जाना पेएगा।”

बुढ़िया ने सब्र का पाठ सीख लिया था। अब वह बड़े इत्मीनान के साथ रोज हमारे महल्ले में आ जाती और किसी-न-किसी घर से कुछ-न-कुछ खाने को पाजाती।

पर जाने क्या हुआ कि बुढ़िया की हालत दिन-ब-दिन बिगडती गयी। वह अब लाठी के सहार बड़ी मुश्किल से घिसटकर हमारी गली में आ पाती। एक दिन देखा कि उसके जिस्म पर घाव उग आये हैं और उनमें से मवाद बहने लगी है। एक दिन सुना कि उस मवाद में कीड़े रेंगने लगे हैं। फिर एक दिन सुना कि कुछ बच्चों ने उसे पत्थर मारे। फिर एक दिन सुना कि वह अब उठ-बैठ नहीं सकती और अपनी झोंपड़ी में ही पड़ी रहती है। फिर एक दिन सुना कि वह मरणासन्न है। फिर एक दिन सुना कि वह मर गयी। सब क्रमिक था, लेकिन सब...

घर पर एक दिन उसका जिक्र छिड़ जाने पर मां ने कहा, “मालका, एहो जई मौत कुत्ते नूं वी न आये!”

सच, कोई मौत ऐसी भी होती है जिसे गली का कुत्ता भी नहीं चाहेगा?