मायावाद / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
जो लोग ज्यादा समझदार हैं वह वेदांत के उक्त जगत-मिथ्यात्व के सिद्धांत पर जिसे अध्यासवाद और मायावाद भी कहते हैं, दूसरे प्रकार से आक्षेप करते हैं। उनका कहना है कि यदि यह जगत भ्रममूलक है और इसीलिए यदि इसे भगवान की माया का ही पसारा मानते हैं, क्योंकि माया कहिए, भूल या भ्रम कहिए, बात तो एक ही है, तो वह माया रहती है कहाँ? वह भ्रम होता है किसे? जिस प्रकार हमें नींद आने से सपने में भ्रम होता है और उलटी बातें देख पाते हैं, उसी तरह यहाँ नींद की जगह यह माया किसे सुला के या भ्रम में डाल के जगत का दृश्य खड़ा करती है और किसके सामने? वहाँ तो सोनेवाले हमीं लोग हैं। मगर यहाँ? यहाँ यह माया की नींद किस पर सवार है? यहाँ कौन सपना देख रहा है? आखिर सोनेवाले को ही तो सपने नजर आते हैं। निर्विकार ब्रह्म या आत्मा में ही माया का मानना तो ऐसा ही है जैसा यह कहना कि समुद्र में आग लगी है या सूर्य पूर्व से पच्छिम निकलता है। यह तो उलटी बात है, असंभव चीज है। ब्रह्म या आत्मा और उसी में माया? निर्विकार में विकार? यदि ऐसा मानें भी तो सवाल है कि ऐसा हुआ क्यों?
उनका दूसरा सवाल यह है कि माना कि यह दृश्य जगत मिथ्या है, कल्पित है। मगर इसकी बुनियाद तो कहीं होगी ही। तभी तो ब्रह्म में या आत्मा में यह नजर आता है, आरोपित है, अध्यस्त है, ऐसा माना जाएगा। जब कहीं असली साँप पड़ा है तभी तो रस्सी में उसका आरोप होता है, कल्पना होती है। जब हमारा सिर सही साबित है तभी तो सपने में कटता नजर आता है। जब कोई भूखा-नंगा दर-दर सचमुच घूमता रहता है तभी तो हम अपने आपको सपने में वैसा देखते हैं। ऐसा तो कभी नहीं होता कि जो वस्तु कहीं हो ही न, उसी की कल्पना की जाए, उसी का आरोप किया जाए कल्पित वस्तु की भी कहीं तो वस्तु सत्ता होती ही है। नहीं तो कल्पना या भ्रम हो ही नहीं सकता। इसलिए इस संसार को कल्पित या मिथ्या मान लेने पर भी कहीं न कहीं इसे वस्तुगत्या मानना ही होगा, कहीं न कहीं इसकी वस्तुस्थिति स्वीकार करनी ही होगी। ऐसी दशा में मायावाद बेकार हो जाता है। क्योंकि आखिर सच्चा संसार भी तो मानना ही पड़ जाता है। फिर अध्यासवाद की क्या जरूरत है?
लेकिन यदि हम इनकी तह में घुसें तो ये दोनों शंकाएँ भी कुछ ज्यादा कीमत नहीं रखती हैं, ऐसा मालूम हो जाता है। यह ठीक है कि यह नींद, यह माया निर्विकार आत्मा या ब्रह्म में ही है और उसी के चलते यह सारी खुराफात है। दृश्य जगत का सपना वही निर्लेप ब्रह्म ही तो देखता है। खूबी तो यह है कि यह सब कुछ देखने पर भी, यह खुराफात होने पर भी वह निर्लेप का निर्लेप ही है। मरुस्थल में सूर्य की किरणों में पानी का भ्रम या कल्पना हो जाने पर भी जैसे मरुभूमि उससे भीग नहीं जाती, या साँप की कल्पना होने पर भी रस्सी में जहर नहीं आ जाता, ठीक यही बात यहाँ है। सपने में सिर कटने पर भी गरदन तो हमारी ज्यों की त्यों ही रहती है - वह निर्विकार ही रहती है। यही तो माया की महिमा है। इसलिए तो गीता ने उसे 'दैवी' (7। 14) कहा है। इसका तो मतलब ही कि इसमें निराली करामातें हैं। यह ऐसा काम करती है कि अचंभा होता है। ब्रह्म या आत्मा में ही सारे जगत की रचना यह कर डालती है जरूर। मगर आत्मा का दरअसल कुछ बनता-बिगड़ता नहीं।
हाँ यह सवाल हो सकता है कि आखिर उसमें यह माया पिशाची लगी कब और कैसे? हमें नींद आने या भ्रम होने की तो हजार वजहें हैं। हमारा ज्ञान संकुचित है, हम भूलें करते हैं, चीजों से लिपटते हैं, खराबियाँ रखते हैं। मगर वह तो ऐसा है नहीं। वह तो ज्ञान रूप ही माना जाता है, सो भी अखंड ज्ञानरूप, जो कभी जरा भी इधर-उधर न हो। वह निर्लेप और निर्विकार है। वह भूलें तो इसीलिए कर सकता ही नहीं। फिर उसी में यह छछूँदर माया? यह अनहोनी कैसे हुई? यह बात तो दिमाग में आती नहीं कि वह क्यों हुई, कैसे हुई, कब हुई? कोई वजह तो इसकी नजर आती ही नहीं।