मायावी जाल / सुधा भार्गव
जनवरी का महीना ,कड़ाके की सर्दी ,कोहरे मे हाथ को हाथ न सूझता। धुंध कुछ कम होती तब कहीं सैर शुरू होती पर उसके काम ज्यों के त्यों हर मौसम मेँ एक ही रफ्तार से चलते। चाहे जब फोन खटखटा देती ,चाहे जब हुकुम सुना देती। दानशील ऐसी कि मन से उतरी वस्तु तुरंत दूसरे के घर पहुंचा देती ,ऐसी थी रानीगंज की सेठानी।
उसका रौब था रुतबा था ,माया से भरपूर थी। माया –मायावीपन उसके साए तले सदैव गतिशील रहते। किसको कितना ,कब और क्यों देना है –खूब अच्छी तरह समझती थी। फिर उसके बदले किस्से क्या सेवा लेनी है इसका चिट्ठा भी उसे जवानी याद था। अगर बिना फल की आशा किए दान –दक्षिणा देनी पड़ती तो भी देती और दो के दस बताकर यश लूटती। जो उसकी परछाईं बन कर रहता सुविधाभोगी बना उसके आगे –पीछे चक्कर लगाता। असुविधा के ख्याल से पति पत्नी से लड़ बैठता ,बेटा बाप को छोड़ देता ,माँ –बाप बच्चों के प्रति लापरवाह हो जाते। ऐसा था सेठानी का मायावी जाल और उसकी राजनीति।
उसके जाल में मैंने कभी न फँसना चाहा। जब जब फंसी,घुटन हुई मगर बाहर निकाल आई। तालुए चाटना शायद मेरे स्वभाव में न रहा हो। वैसे दूसरों का भी क्या दोष !पैसे की खनक के सामने तो अच्छों –अच्छों की आवाज दब कर रह जाती है।
मैंने तो सेठानी को बहुत करीब से देखा ,सुना –गुना है। अंदर क्या है भगवान जाने !चेहरा पूरी तरह लिपा पुता है। फुंफकारती जीभ भी शहद में लिपटी रहती है। मेरे बात का अब विश्वास भी कौन करेगा –नई पीढ़ी इस गिरगिट को क्या जाने !
इतिहास नहीं दोहराना चाहती पर एक ही गहरी सांस में अतीत का पंछी पंख फड़फड़ाता मेरे इर्द –गिर्द मंडराने लगता है। माँ के साथ किए गए उसके बुरे व्यवहार की याद आते ही मेरे छाती पर कटीले काँटों की चुभन ताजी हो उठती है जिसकी दुखन मेरे शिराओं के मूल तक समाई हुई है। सच पूछो तो मेरे मुंह से उसके लिए बददुआएं ही निकलती है। मैं कोई भगवान या साधु –संत तो नहीं एक तुच्छ सा इंसान हूँ जो अपनी सोच पर अंकुश नहीं रख सकती।
आज के व्यस्त जीवन में किसको किसके लिए समय है। कुछ वाकई में व्यस्त हैं तो कुछ नाटक भी करते हैं। ऐसे रंगमंच से छुटकारा पाने को सोचा बाजार ही हो आऊँ। साथ पाने की लालसा से बहू को तीन चार बार फोन से संपर्क करने की कोशिश की पर फोन भी व्यस्त था। हारकर रिसीवर पटक दिया।
कुछ देर में फोन की घंटी टनटना उठी। रिसीवर उठाया, आवाज आई –
-मम्मी जी लाजपतनगर जा रही हूँ। आपको कुछ मंगाना हो तो बताएं।
-कैसे जा रही हो ?
-कार से जा रही हूँ सेठ आंटी के साथ। वे मुझे बुलाने के लिए कार भेज रही हैं।
-मैं तो खुद तुम्हारे साथ जाने की सोच रही थी। छुटपुट सामान खरीदना है। एक घंटे से तुम्हें फोन मिला रही थी। आवाज में शिकायत का पुट था।
-आंटी का मन नहीं लग रहा था। उनसे बात करते समय बीत गया। बोली –घूमने चलते है। सो अचानक बाजार जाने का प्रोग्राम बन गया। बच्चों के स्कूल से लौटने से पहले ही लौटना है इसलिए आपके साथ कल चली चलूँगी।
आवाज तीखा प्रहार करके बंद हो गई। मैंने भी गुस्से से फोन पटक दिया। बड़बड़ाने लगी –संगत अपना रंग ला ही रही है। यह वही बहू थी जिसकी जरा सी सहानुभूति से मेरा दुख दर्द कपूर की तरह उड़ जाता था। वर्षों की तपस्या के बाद एक सुखद रिश्ते का अहसास हुआ था ,वह भी बहक गया। एक बार झूठे से भी बहू ने नहीं पूछा कि आप चलेंगी।पूछ भी कैसे सकती थी –कार की मालकिन के इशारों पर ही तो उसे नाचना था।
कहने से भी क्या मैं जाती !पिछली बार मैं उन दोनों के साथ मयंक स्टोर गई थी। सारे समय वह सिठानी के साथ ही चिपकी रही।एक बार मेरी तरफ मुड़कर भी नहीं देखा। जब लगा हवा में कार्बन ज्यादा ही घुल गई है तो ताजी हवा में सांस लेने को दुकान से बाहर टहलने लगी थी। हो सकता है मेरे दिमाग ने तिल का पहाड़ बना लिया हो।
बेटा हमारे घर से मुश्किल से एक किलोमीटर दूर रहता था। उसे कंपनी से फ्लैट मिला था। वैसे भी मेरे पति बहुत सुलझे हुए और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के पक्षपाती थे पर सुबह की चाय हम अक्सर उसके यहाँ ही पीते थे। सुबह घूमते –घूमते उधर ही निकल जाते और अपना सुख –दुख एक दूसरे के सामने उड़ेलकर चैन पाते।
पोती के कारण तो वनफूलों की सुगंध सी हवा दोनों घरों के बीच बहने लगी। वह मुझसे हिलमिल गई थी। उसको रोता देख बस एक ही बात दिमाग में आती –भूखी होगी ,बहू उसकी ओर से बड़ी लापरवाह है। उसके गालों को छूते ही लगता रेशम सी मुलायम रुई से मेरे हाथ टकरा गए हैं और मैं अद्भुत आनंद में डूब जाती।
उस दिन कोमल भावनाओं का अजीब सा आलोड़न था। दुआओं का खजाना लिए शीघ्र ही बेटे के घर पहुंच गई लाड़ली पोती का जन्मदिन जो था। नई गुलाबी फ्रॉक में वह शहजादी लग रही थी। चहकती हुई गाने की धुन पर सहेलियों के साथ नाच रही थी। उसी क्षण मैंने निश्चय किया कि अपनी पोती को इस कला में तो दक्ष कराना ही है।
छोटे –छोटे बच्चे जन्मदिन की दावत खाकर अपने घर चले गए। उपहारों के आदान प्रदान से सबके चेहरों पर चाँदनी छिटकी पड़ती थी।
भूख हमारी बर्दाश्त से बाहर हो रही थी पर किसी की प्रतीक्षा थी। पता चला –सेठ –सिठानी के आने की बाट जोही जा रही है। कीमती वस्त्रों को तन-मन का आवरण बनाए दोनों ने घर में प्रवेश किया। आते ही पूरे घर पर एकाधिकार करते हुए सेठ जी चिल्लाये –बच्चों ,जल्दी खाकर हम घर जाएँगे ,तुम भी चलने को तैयार हो जाओ।। मेरी पोती चुप थी। शायद उसका मन नहीं था जाने को। इस बार सेठानी पुचकारते हुए बोली –हमने बड़ा सा टी वी खरीदा है ,उसे देखना। कल तो तुम्हारी छुट्टी है। अमेरिका से तुम्हारे लिए चाकलेट भी भागी भागी आई है।
-सच में –पोती की आँखें चमक उठीं और पलक झपकते ही चमचमाती कार में जा बैठी। मैं घायल हिरनी सी उसे जाता देखती रही। जिसके लिए मैं आई ,वही न हो !मेरी वेदना की सीमा न थी। सेठानी को मालूम था कि मैं उसे पसंद नहीं करती ,शायद इसीलिए मर्मांतक पीड़ा देने को उसे ले गई। कुछ भी हो उसने अपनी शक्ति का प्रदर्शन तो कर ही दिया। वह तो चली गई पर उपहारों के रूप मे सेठ की दौलत बहुत देर तक सूने आँगन मेँ इतराती रही। बहू –बेटे मेँ भी इतना साहस न था कि अपनी बेटी को रोक पाते। नाभि –नाल के संबंध का साहूकारी भाव हो गया।
वेदना -संवेदना ने मेरा चेहरा बिगाड़ कर रख दिया। शीघ्र ही घर की ओर चल दी। सारे रास्ते मुझे एक ही प्रश्न मथता रहा –आज धन की जीत हुई या प्यार की। धनिक वर्ग प्यार करना जानता है या धन से सब हासिल कर लेता है जो उसे अच्छा लगता है। पोती के कारण जीवन के फीके रंग चटक हो गए थे ,जीवन मेँ बचपन की मधुरिमा घुल गई थी। हमारे पास न तो सुसज्जित शानदार महल था न ही बेशुमार लक्ष्मी पर सरस्वती का दामन पकड़ने से सुख शांति अवश्य थी। यही नई पीढ़ी को विरासत मेँ देना था।
आँखों से बरसती फुआरों से दो –तीन दिन मेँ ही दिल के जख्म धुल गए। मैंने नई पौध को काटने –छांटने का बीड़ा उठा लिया। अपनी आदत के अनुसार स्कूल से आकर पोती ने फोन किया –अम्मा –अम्मा --।
-अरे कुछ तो बोल !
-अम्मा बोलो मैं कौन हूँ ?
-कौन हूँ ?---मेरी प्यारी बच्ची ।
-अरे नहीं!मैं बहुत अच्छा पढ़ने वाली बच्ची हूँ। मेरी मैडम ने कहा है।
-यह तो बहुत अच्छी खबर सुनाई पर क्लास मेँ और कौन –कौन अच्छा है पढ़ने में।
-15 बच्चे हैं।
-तुम्हें तो इन सबसे आगे जाना होगा।
-कैसे जा सकती हूँ अम्मा !कुछ के तो मेरे से भी ज्यादा नंबर हैं।
-तुम्हें और ज्यादा मेहनत करनी होगी और छुट्टी के दिन भी पढ़ना होगा।
-पर छुट्टी के दिन तो मुझे सेठानी आंटी के घर जाना है पर अब नहीं जाऊँगी। आपके पास आ जाऊँगी। मैं –आप मिलमिलकर पढ़ेंगे।
मेरी नन्ही मायावी जाल से निकल आई थी।
एकाएक मुझे लगा –कंटीली झड़ियों में एक फूल उग आया है और उसकी महक से मैं महकने लगी हूँ। मेरे अंदर का लावा मोम की तरह गलगलकर बाहर आने लगा। न जाने कब मैं जर्जर उँगलियों से किसी का भविष्य बुनने में लीन हो गई।