मायावी / प्रियंवद
मेरे सीने पर सर रखकर, उसने मेरी कम मांस वाली हड्डियों में उसे धँसा दिया । वह हमेशा ऐसा करती थी । मुझे हर बार लगता था मेरी हड्डियाँ उसे चुभती होंगी । उसके गाल की खाल मुलायम थी । ज़रा सी धूप या रगड़ से लाल हो जाती थी, बावजूद इसके, उसने कभी मेरी हड्डियों के चुभने को ज़ाहिर नहीं किया । शायद इसलिए, कि उस समय उसके पास सर रखने के लिए दूसरी कोई जगह नहीं होती थी, या फिर इसलिए, कि उसके अन्दर चुपचाप, बहुत ज़्यादा और बहुत कुछ बर्दाश्त करने की ताक़त थी । उसकी बर्दाश्त करने की इस ताक़त और हिम्मत के लिए, मेरी हड्डियों का चुभना बहुत मामूली बात थी ।
हमेशा की तरह, उसके घने और रूखे बाल मेरे चेहरे पर फैले थे । हमेशा की तरह उनसे एक गंध उठ रही थी । यह उसके कसे और जवान जिस्म से उठने वाली सामान्य गंध से अलग थी । यह पसीने की नहीं थी । बालों के रूखेपन और चेहरे में घुले नमक की नहीं थी । यह बारिश की गीली मिट्टी और पके हुए अन्न के बीच डोलती गंध थी । हर बार की तरह, उस गंध को, एक बार फिर कविता की किसी कठिन पंक्ति को समझने की ईमानदार कोशिश की तरह, मैंने पहचानने की कोशिश की । इस कोशिश में मैंने कुछ गहरी साँसें लीं. मेरी इस कोशिश के साथ बालों में छिपा उसका चेहरा काँपने लगा । मैं इस काँपने की प्रतीक्षा कर रहा था । हमारे प्रेम के बाद का यह एक अनिवार्य क्रम था, जो मेरे सीने पर उसके सर रखने के बाद शुरू होता था ।
वह रोना शुरू कर चुकी थी । मेरी हड्डियों पर कुछ बूँदें गिरीं । इन्हें रोकने की कोशिश में उसका बदन सिहरने लगा । बूँदें रोकने में नाकाम रहने पर, उसने मेरे सीने के एक ओर पड़े कपड़े को उँगलियों में पकड़कर ऐंठना शुरू कर दिया । वह उसे उसी तरह पकड़े थी, जैसे नदी में डूबने से पहले कोई आखिरी सहारे को पूरी ताक़त से पकड़ लेता है ।
कुछ देर तक कपड़ा इसी तरह ऐंठने के बाद, उसने उसे छोड़ दिया । अब उसने अपनी ख़ाली हो चुकी उँगलियों की मुट्ठी बना कर मेरे सीने पर धीरे-धीरे पटकना शुरू कर दिया । मैं जानता था, वह ऐसा मुझसे किसी शिकायत के कारण नहीं कर रही थी । मुझे किसी बात के लिए धिक्कार या दुत्कार भी नहीं रही थी । यह उसका अपना कोई निजी पश्चाताप या निहत्था क्रोध भी नहीं था । यह सिर्फ़ आँसुओं को रोकने की उसकी कोशिश का एक असफल और बेबस हिस्सा था । मेरे सीने पर मुट्ठी पटककर वह रोने की अपनी कमज़ोरी की भर्त्सना कर रही थी । ख़ुद को ही धिक्कार रही थी । लांछित कर रही थी। उस अधनंगी स्थिति में, जिसमें हम उस समय थे, और जिस तरह उसके पास सर रखने के लिए मेरे सीने के अलावा दूसरी कोई जगह नहीं थी, उसी तरह मुट्ठी पटकने के लिए भी, मेरे सीने के अलावा उसके पास दूसरी जगह नहीं थी । मैं जानता था इन निर्दयी पलों में आत्मग्लानि की जीभ उसकी आत्मा को चाट रही है ।
कुछ देर बाद उसने मुट्ठी पटकना छोड़ दिया । अब उसकी उँगलियाँ मेरे सीने पर रुक-रुक कर घूम रही थीं । वे कुछ तलाश कर रही थीं, या शायद कुछ लिख रही थीं । मैं जानता था वह मुझे लिखे किसी ऐसे पुराने और अधूरे पत्र को पूरा कर रही है, जो लिखने के बाद वह मुझे कभी नहीं भेजेगी, या फिर वह मेरे लिए, नींद में जा चुके ईश्वर से किसी ऐसी बात के लिए प्रार्थना कर रही है जो किसी से नहीं कह सकती, या फिर उसे उम्मीद थी कि वह जो कुछ भी मेरे सीने पर लिख रही है, छन कर मेरी आत्मा तक पहुँचेगा और मैं उसे पढ़ लूँगा, या फिर कोई ऐसा मंत्र लिख रही थी जो पूरा जीवन, हर बद्दुआ से मेरी रक्षा करेगा ।
कुछ देर हड्डियों पर उसके इसी तरह उँगली घूमने के बाद, मैंने हड्डियों पर पानी महसूस किया । मैं इसका भी इन्तज़ार कर रहा था । उसकी गीली आँखें मुझे हमेशा सुन्दर लगती थीं । बहुत सुन्दर । मैंने उसके बालों को उँगलियों में जकड़कर उसका सर उठाना चाहा । वह मेरी नीयत और इरादा समझ गई । उसने पूरी ताक़त से अपना सर मेरी हड्डियों में धँसा दिया। वह नहीं चाहती थी मैं उसकी आँखें देखूँ और फिर उन्हें चूमूँ । कुछ देर कोशिश करने के बाद मैंने उसके बालों को खींचना छोड़ दिया ।
‘‘क्या हुआ’’ ? किसी भी उत्तर की नाउम्मीदी के बावजूद मैंने फुसफुसाते हुए पूछा । अब ज़रूरी था हमारे बीच कुछ शब्द आ जाएँ । कुछ बात शुरू हो सके । लेकिन वह ऐसे सवालों के उत्तर नहीं देती थी जिसके दोनों सिरे जीवन से जुड़े नहीं होते थे, या जो सिर्फ़ रस्म अदायगी की बेहूदगी या ख़ाली समय को भरने की फूहड़ता में पूछे गए होते थे । वह कुछ नहीं बोली । उसका रोना तेज़ हो गया । इतना कि वह विलाप की शक्ल में बदल गया । यह विलाप मेरे सवाल का उत्तर समझा जा सकता था, लेकिन मैं अनुभव से जानता था, ऐसा नहीं है । वह मकड़ी के जाले के एक सिरे की तरह स्वतन्त्र, निरपेक्ष और कुछ देर का है । मैंने सोचा उसे जी भरकर रो लेने देना चाहिए । कोई नदी अगर अपने तटबंध तोड़कर उफनना चाहती है, तो उसे तटबंध तोड़ लेने देना चाहिए । कुछ दूर जा जाने के बाद विस्तार मिलने पर उसका उफान और आवेग ख़ुद ही थम जाएगा ।
यही हुआ । कुछ देर बाद उसका सिहरता बदन शान्त हो गया । एक बार फिर मैंने उसके बालों को पकड़कर उसका चेहरा उठाने की कोशिश की । इस बार उसने प्रतिरोध नहीं किया। मैंने उसका चेहरा उठाकर अपनी आँखों के सामने रख लिया। अब उसकी गीली आँखें मेरी आँखों के सामने थीं । खुले बालों के बीच उसका गीला चेहरा मेरा सामने था । पलकें, पपोटे, भौंहें भीगी थीं ।
हमेशा की तरह उसका चेहरा पूरी तरह बदल चुका था. यह वैसा नहीं था जैसा वह रहता था, या जब वह आती तब जैसा होता था. उसके इस बदले हुए चेहरे पर कोमलता का माधुर्य और ओज की दीप्ति थी. निष्ठा की पवित्रता और संकल्प की दृढ़ता थी. उसके चेहरे पर जब यह सब होता था, जो प्रेम के बाद इस तय क्रम में हमेशा होता था, तब वह बेहद मजबूत दिखने लगती थी. उसकी यह मजबूती उसके अंदर से फूटती थी. वह उस तरह मामूली नहीं रह जाती थी, जैसी अक्सर दिखती थी. उसका यह बदला चेहरा, उसके असली चेहरे से सुंदर होता था. दुर्भाग्यपूर्ण था कि वह अपने इस बदले हुए सुंदर चेहरे के बारे में स्वयं नहीं जानती थी, इसलिए कि उसने खुद को कभी प्रेम करने के बाद की इस स्थिति में नहीं देखा था और मैंने उसे कभी इस बारे में बताया नहीं था.
मैं चाहता था वह हमेशा इसी तरह, इस बदले चेहरे के साथ दिखे. इसी तरह दृढ़ता, प्रेम, आत्मविश्वास, ओज से भरी हुयी, बेहद मजबूत और सुंदर. इसलिए भी, कि उसके इस चेहरे के सामने मैं खुद को बहुत छोटा महसूस करने लगता था. उसके सामने छोटा दिखने में मुझे कोई एतराज नहीं था. मैं एक ऐसा तुच्छ और क्षुद्र मनुष्य हो जाता था जिसके पास उन पलों में, कुछ भी वास्तविक या चमकदार नहीं होता था. वैसे भी, अपनी असलियत में ही, मैं एक निरुद्देश्य, भटकता, सूखा पत्ता भर था जो यह भी नहीं जानता जाना कहाँ है ? इसलिए उसकी दी हुयी यह तुच्छता, मेरे अंदर कोई नयी हीन भावना या ग्लानि या किसी तरह की छटपटाहट पैदा नहीं करती थी. शायद इसलिए कि उन पलों और उसके उस चेहरे तक पहुँचते हुए, मैं पूरी तरह व्यक्तित्वहीन, अकिंचन और विगलित होकर बह चुका होता था. अपने न रह जाने का यह बोध मुझे सुख देता था. मुझे पूरी तरह खत्म कर देने वाली उसकी यह अपराजेयता, उसके अंदर अचानक जन्मी किसी अतिरिक्त शक्ति या अचानक पैदा हुए दर्प से नहीं आती थी. यह उसकी उस निष्ठा और संकल्प से जन्मती थी, जो मैं कभी नहीं जान पाया किसके प्रति थी ? मैं यह भी नहीं जान पाया कि मैं उसमें कहीं हूँ या नहीं, पर चाहता ज़रूर था, मैं उसमें रहूँ. शायद यह भी, कि उसका यह सब, पूरी तरह मेरे प्रति हो. उस पर सिर्फ़ मेरा अधिकार हो.
दो बिल्कुल शुरू के दिनों में, जब वह दैहिक प्रेम के बाद विलाप करती थी, मुझे लगता था इसका कारण मेरे फूहड़ या क्रूर तरीके से प्रेम करना होता था या फिर मेरे पुरुषत्व की असफलता से जन्मी उसकी अतृप्ति होती थी. ऐसा अक्सर होता था जब मैं उसे संतुष्ट करने में असफल रहता था. हर पुरुष की तरह मैं अपनी इस असफलता को उसी पल समझ जाता था, जब उसका चेहरा दीप्ति की चौखट तक पहुँचने से पहले राख हो जाता था. धिक्कारती ग्लानि और निरर्थकता बोध के जबड़ों में कुतरा जाता हुआ मैं, अपनी इस ग्लानि और असफलता को छिपाने के लिए, प्रेम के अतिरिक्त शब्दों और निर्जीव चुम्बनों के हरबों का इस्तेमाल करता था. यही क्षण उसके विलाप शुरू करने, फिर उसके बाद अधिक सुंदर और अपराजेय दिखने के होते थे. लेकिन कुछ दिनों बाद मेरा यह भ्रम टूट गया कि उसका विलाप मेरे पुरुषत्व की असफलता से जन्मी अतृप्ति से फूटता है. कई बार वह काम सुख की गहन तृप्ति के बाद भी इसी तरह विलाप करती थी.
प्रेम और विलाप के इन क्षणों में वह आश्चर्यजनक रूप से एक शब्द नहीं बोलती थी. इसके दो कारण थे. पहला, अभिव्यक्ति के मामले में शब्दों की सामर्थ्य पर उसकी अनास्था, दूसरा, शब्दों के वास्तविक अर्थ समझने के मामले में शुरू से कमज़ोर रहा उसका आत्मविश्वास. जब भी वह निश्छल भावना के आवेग में बह कर कुछ कहना चाहती, उसकी ज़बान लड़खड़ा जाती, क्योंकि भाषा में ही उस पारदर्शी निश्छलता के लिए शब्द नहीं होते थे. नतीजे में वह जो कहना चाहती, उससे अलग कुछ ऐसा कह देती, जो कहना नहीं चाहती थी. कम से कम उस तरह तो बिल्कुल नहीं, जिस तरह उसने कह दिया होता था. उसके शब्द व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध और क्रम से नहीं होते थे. उनके आशय और अर्थ भी प्रचलित तरीके से अलग होते थे. उसने अपने ये अर्थ कैसे गढ़े, किससे सीखे, कब बोलने शुरू किए, मैं नहीं जानता था. पर इतना ज़रूर था, उसके बोले शब्दों की व्याकरण की अशुद्धता और अधकचरे वाक्य विन्यास में वैसी ही सम्मोहक लय थी, जो किसी भी कच्चेपन की सच्चाई के मूल में होती है. उसे अगर किसी बात से दुख होता तो कहती मुझे दुख मच रहा है. कुछ बुरा लगता तो कहती मज़ा नहीं आ रहा है. क्रोध आता तो कहती मेरी बुद्धि चढ़ गयी है. अगर कहना चाहती मैं झूठ बोल रहा हूँ, तो कहती तुम्हारे मन में छल हो गया है. जब कहना चाहती मुझे पता नहीं, तो कहती, मुझे यह पता नहीं पड़ पा रहा है. भगवान् के साथ ‘जी’ लगा कर जब चाहे उसे पास बैठा लेती.
उसने अपने प्रेम को स्पष्ट और पारदर्शी तरीके से दो हिस्सों में बाँट रखा था. एक आत्मिक, जो उसका सर्वस्व था और जिसमें मेरी कतई कोई दिलचस्पी नहीं थी. दूसरा दैहिक, जो मेरे लिए आवश्यक, पर उसके लिए पूरी तरह अनावश्यक, भद्दा और गंदा था. हमारे बीच यह द्वन्द्व उस समय तक चला, जब तक कि मैंने खुद इसे खत्म करने की पहल नहीं की. इसके लिए मैंने उसे अध्यात्म की शब्दावली में समझाया कि दैहिक संसर्ग बुरा या अपवित्र नहीं है. पाप नहीं है, क्योंकि सारे देवता यह करते हैं. उसे यह भी समझाया कि बिना शरीर के आत्मा कुछ नहीं कर सकती. शरीर तो उसका घर है जहाँ वह रहती है. यह भी, कि सच्चा और पूरा प्रेम तब होता है, जब आत्मा, मन, देह सब मिलकर प्रेम करें. मेरी इस पूरी बात में उसे एक शब्द युग्म समझ में आ गया और उसने उसे पकड़ लिया. ‘पूरा प्रेम’. इसके बाद वह पूरी तरह आश्वस्त हो गयी थी कि मेरे साथ दैहिक संसर्ग करते हुए वास्तव में वह ‘पूरा प्रेम’ कर रही है. मैंने ध्यान दिया इस तरह समझ लेने और स्वीकार कर लेने के बाद, वह काम क्रीड़ा में किसी पाप बोध से मुक्त रहने लगी. नतीजे में उस समय उसके चेहरे पर अलग तरह की लाली रहने लगी जो कामोत्तेजना में बढ़ी खून की रफ्तार की नहीं, बल्कि अपने प्रेम को सम्पूर्णता में पा लेने के अबोध सुख से जन्मती थी. किसी भी वक्त मेरी ‘पूरा प्रेम’ करने की इच्छा को वह ख़ुशी से पूरा करने लगी थी.
सच तो यह था कि अपने प्रेम पर उसकी यह निष्ठा और दृढ़ता मुझे अंदर तक डराती थी. इसलिए, कि मैंने उससे कभी इस तरह प्रेम नहीं किया था. इस पर गम्भीरता से कभी सोचा तक नहीं था. अगर कभी सोचा भी, तो कुछ भी निश्चितता और स्पष्टता के साथ तय नहीं कर पाया. यह तक भी नहीं, कि मैं उससे प्रेम करता भी हूँ या नहीं. इस सिलसिले में केवल एक सच था, जिसको लेकर मैं निर्द्वन्द्व और निश्चित था, कि अक्सर और बेवजह मुझे उसकी याद आती है. अपने गहरे एकान्त, मर्मान्तक पीड़ा या मृत्यु की आशंका से भरे निर्बलता के पलों में मैं चाहता था कि वह मेरे पास हो. यह भी सच था, कि उसके जाने के बाद देर तक मेरे चारों ओर एक शून्य बना रहता था, जिसमें कुछ भी नहीं होता था, सिवाय उस खाली उदासी के, जो अक्सर खंडहरों में घूमते हुए मुझे ढक लेती थी. सिवाय उस बेचैनी के, जो गलियों के किनारे पड़ी छायाओं पर चलने हुए अचानक पाँव पड़ जाने पर मुझे होती थी. मैं अगर कभी सुबह बहुत जल्दी उठ जाता और चाँद को डूबने के लिए गुम्बद के पीछे जाते देखता, तो उसकी पीली रोशनी, मेरे अंदर रुलाने की हद तक पहुँचने वाला वैराग्य पैदा कर देती थी. मैं नहीं जानता था, इन सबका ताल्लुक प्रेम से है या नहीं, लेकिन इतना ज़रूर जानता था कि मैं उसे हर संभव सुख देना चाहता हूँ, और अपने लिए उससे कुछ भी नहीं चाहता.
उसको और उससे प्रेम करने को लेकर मेरी यह दुविधा और अनिर्णय इसलिए था, कि देह के परे का कोई भी प्रेम मुझे ईश्वर की तरह अमूर्त, अविश्वसनीय और आत्मरति लगता था, जो अपने होने की सच्चाई और अपनी दुर्धर्ष शक्ति के लिए मेरे अंदर कभी कोई विश्वास पैदा नहीं कर पाया था. उसके साथ सब कुछ इसका उलट था. वह अपने प्रेम को ईश्वर की तरह अपना अंतिम सत्य मानती थी. उस पर किसी तरह की शंका या प्रश्न करना भर उसके अंदर पाप बोध भर देता था. इसीलिए ‘पूरा प्रेम’ करने के बाद वह विलाप करती थी, जैसे लोग ईश्वर के आगे समर्पण करते हुए बिलख-बिलख कर रोने लगते हैं.
उसके बारे में इतना सब जानने और समझने के बाद भी, मेरे लिए उसका चेहरा बदलने की गुत्थी अभी तक उलझी हुयी थी. कोई मनोविज्ञान, कोई कविता, कोई इतिहास मेरी मदद नहीं कर रहा था. कई बार ऐसा होने और उसके जाने के बाद, एकांत और उसके छोड़े हुए शून्य में, गहन चिन्तन और मनन के बाद, मैंने फिर खुद ही एक अधकचरा और अवैज्ञानिकत निष्कर्ष निकाल लिया, कि, ऐसा इसलिए होता था कि प्रेम और विलाप की स्थितियों में उसकी आत्मा, जो तब तक कई सांसारिक आवरणों और कई संचित विषमताओं के दबावों से दम तोड़ती हुयी पीली हो चुकी थी, निर्वसन और निर्भय होकर उसकी आँखों में अपनी सत्ता के गर्व से ऊँचा मस्तक लिए बैठ जाती थी. यह बदला हुआ रूप उसकी इस आत्मा से फूटती आलोकित नंगी धूप का होता था, जो उसके चेहरे को ढक लेती थी. उन पलों में यही उसे सुन्दर, दृढ़, और सर्वोच्च बनाती थी.
उसने जीवन में याचना या इच्छा की तरह भी कभी किसी से कुछ नहीं माँगा था. न मुझसे प्रेम, न ईश्वर से कृपा, न दुख से मृत्यु. जो वह चाहती या तो उसके पास होता था फिर वह उसे नहीं चाहती थी. जो उसके पास सम्पूर्णता में नहीं होता, जो उसकी मुट्ठी में पूरी तरह बंद नहीं होता, वह उसकी इच्छा नहीं करती थी. किसी चीज का न होना उसे कभी आकुल नहीं करता था. असंतोष नहीं देता था. उसका जीवन इच्छाविहीन था. यही इच्छाविहीनता उसे अविश्वसनीय दृढ़ता देती थी. उसकी यह दृढ़ता और उसकी सरहदों को छूती हुयी उसकी निर्लिप्तता, प्रेम में के पलों में बेहद चमकदार तरीके से दिखती थी. वास्तव में उसकी कोई भावना उसके अंदर जितनी गहरी होती, उसे वह ऊपर उतना ही कम आने देती. ज्वालामुखी के लावे की तरह उसे जब तक चाहे दबा कर रख सकती थी. बचपन की अधूरी इच्छाएं, शोषण, डर और गरीबी ने उसे इस तरह बिना इच्छा के जीना और कुछ भी आखिरी सिरे तक बर्दाश्त करना सिखा दिया था. इसीलिए, प्रेम भी उसके अंदर हमेशा बे-चाहत, बे-आवाज़, लालसा-रहित रहा था.
मैं बहुत बार उसके साथ शहर की उमस भरी शामों, सूने घाटों और मसालों की गंध भरी संकरी गलियों में घूमा हूँ. इस लम्बे समय में उसने कभी अपने प्रेम के बारे में एक शब्द नहीं बोला. वह अपनी इस अविचलित निर्लिप्तता के साथ जीना जानती थी. कई बार बारिश में किसी पेड़ के नीचे, धूप में खंडहर के कोने में बनी कब्र के पास और कई बार किसी जीने के घुमावदार अँधेरे में मैंने उसके होंठों को चूमा भी, तो उसने कभी फुसफुसाते हुए भी एक शब्द नहीं कहा. वह क्षण जितनी देर के लिए भी होता था, वह चुपचाप उसकी सम्पूर्णता के साथ उसे जीती रहती थी. कभी पूरा घूँट भर कर पीने की तरह और कभी किसी आलाप के अंतिम छोर तक पहुँचती सम्पूर्णता के साथ.
उसकी इन बातों को समझने की कोशिश में मुझे अक्सर लगता था वह चीज़ों में डूब कर जीने की बजाय, उनके अन्तराल में ज़्यादा जीती थी. इसीलिए वह हर स्थिति में तटस्थ और दृढ़ रह पाती थी. दो सपनों के बीच का अन्तराल, दो आँसुओं के बीच का अन्तराल, दुखों और सुखों बीच के अन्तराल में जीना उसको आता था. जो बीत गया उसे पूरी तरह छोड़ देना, और जो आया नहीं, किसी भी उम्मीद से परे चुपचाप उसकी प्रतीक्षा करने ने, उसे अपना एक मूक, निःशब्द जगत रचना और धैर्य के साथ उसमें जीना सिखा दिया था. उसके इस जगत में कोई नहीं था. न स्मृति, न इच्छा, न प्रार्थना, न मैं. प्रेम और विलाप के बाद के पलों में वह अपने इसी जगत में चली जाती थी, इसीलिए, जैसी होती थी, उससे पूरी तरह बदली हुयी दिखने लगती थी.
तीन) उसने आँखें खोल लीं. अब वे मेरी आँखों के सामने और मेरे बहुत पास थीं. उनमें करुणा का जल था. वह जानती थी मैं उसकी आँखों को चूमूँगा. उनमें भरा करुणा का जल पीऊँगा. निमन्त्रण देते हुए उसने आँखें बंद कर लीं. मैंने उसकी बायीं आँख को मुँह में भर लिया. एक गीलापन, एक नग्न आलोक, पलकों पर चिपका आँसुओं का नमक मेरे मुँह में भर गया. कुछ देर इसी तरह उसकी आँख मुँह में रखने के बाद मैंने उसे छोड़ कर, उसकी दायीं आँख मुँह में रख ली. कुछ देर बाद मैंने मुँह हटा लिया. उसने आँखें खोलीं. उसका सर अभी तक मेरे सीने पर था.
‘‘यहाँ से घर जाओगी.’’ ? मैंने पूछा.
‘‘नहीं’’.
‘‘फिर’’ ?
‘‘मेडिकल कॉलेज’’.
‘‘क्यों’’ ?
‘‘खून देने’’. उसने अब अपना सर सीने से हटा लिया. ‘‘आज मेरा जन्मदिन है‘‘. वह धीरे से बोली. अब वह पलंग पर बैठ गयी थी. ‘‘मुँह घुमाओ’’. उसने कहा.
मैंने मुँह घुमा लिया. कपड़े पहन कर वह पलंग से उतर गयी. मैं भी उतर गया. उसका जन्मदिन याद न होने की शर्मिन्दगी और पश्चाताप ने मुझे मलिन कर दिया. मुझे यह दिन हर हाल में याद रखना चाहिए था, जैसे उसको मेरा जन्मदिन पूरे साल याद रहता था.
‘‘मुझे याद था.’’ मैं धीरे से बड़बड़ाया. मेरे होंठों से निर्जीव शब्द उसी तरह गिरे जैसे घाव से सूखी पपड़ी गिरती है. उसने मुझे देखा. चुपचाप देखती रही. मैंने आँखें झुका लीं.
‘‘तुम कभी झूठ बोलना नहीं सीख पाओगे.’’ वह मुस्करायी और किचन में चली गयी.
मैं खिड़की पर आ गया. गली के बाहर का लैम्पपोस्ट जल गया था. लैम्पपोस्ट की पीली रोशनी में जो भी गुजरता हुआ चेहरा आ रहा था, वह सूखा, भूखा, बीमार या कम खाने के कारण डरावना हो चुका था. चिमनियों से निकलते काले धुएं की पर्त आसमान के एक हिस्से को काला कर रही थी. एक कबूतरी अंडा देने के लिए एक छज्जे के गमले की मिट्टी को खोद रही थी. सड़क के कोने में कुछ परछाइयाँ गट्ठर की तरह एक दूसरे से बँधी पड़ी थीं. उनके पास एक कुत्ता पंजों से नुची हुयी हड्डी को कुछ पाने की उम्मीद से नोच रहा था, जिसे ऊपर की खिड़की से किसी ने पूरी तरह नोचने के बाद फेंका था. एक टूटी दीवार पर कोयले से कुछ चित्र बने थे. इनमें उस पुरुष गुप्तांग को पहचाना जा सकता था, जिसके नीचे प्रत्येक कामिनी का मद भंजन करके विश्व विजयी होने की उदार और सात्विक कामना लिखी थी. उसी के आगे फटे बोरे, टाट के टुकड़े और कुछ गीले कपड़े रस्सी पर लटक रहे थे. उनके इर्दगिर्द मक्खियों के ढेर, फलों के छिलके और एक ताजा वमन पड़ा था.
मुझे गले में कुछ फँसता हुआ महसूस हुआ. खिड़की से बाहर सर निकाल कर मैंने उसे हवा में उछाल दिया. वह भारी था. चौखट पर गिर पड़ा. मुझे लगा जैसे उसका रंग कुछ लाल है. बेशक यह वह रोग नहीं था जो सौ साल पहले मृत्यु का सच्चा दस्तावेज होता था. इसी तरह किसी दिन कीट्स, कैथरीन मैन्सफील्ड और डी. एच. लारेन्स ने अपने थूक में लाल रंग देखा था. वे ज़्यादा दिन नहीं जिए. जब मैंने यह पढ़ा कई दिन तक सोचता रहा, मौत की इतनी तय आहट सुनने के बाद, इन्होंने अपना बचा हुआ जीवन कैसे जिया होगा? इनके शब्दों की चमक बढ़ी या मुरझा गयी होगी ? क्या इन्होंने कोई नया प्रेम किया होगा? इनके अंदर कोई इच्छा, कोई भावना बची होगी? किसी लालसा, किसी स्वप्न, किसी देह सुख ने इनके अंदर हलचल मचायी होगी ? नहीं …….. बेशक नहीं ….लेकिन यह तय था, जब भी उनकी मौत आयी होगी, अन्ततः एक मुक्ति, एक सुख की तरह आयी होगी. अब लाल थूक मौत की दस्तक नहीं होता था. फेफड़ों की टी. बी. से लोग जल्दी नहीं मरते थे.
मैं गलत समझ रहा था. आसमान की कालिख धुएं की नहीं बादलों की थी. वे एक ओर तेजी से उठे थे. अचानक तेज गड़गड़ाहट के साथ पानी गिरने लगा. गली और शहर भीगने लगे. भीगा शहर मुझे अच्छा लगता था. यह मुझे कुछ नया और अनोखा सोचने में मदद करता था. भीगने के बाद मुझे वह ऐसा लगता था जैसे यह निर्जीव शहर अपने इतिहास की खंदकों से कभी बाहर निकला ही नहीं. अपनी सीलन भरी गंध और पपड़ी वाली दीवारों के साथ, असंख्य घोड़ों के खुरों से रौंदा गया ऐसा दिखता था, जिसकी हर चीज़ लूटी जा चुकी थी.
आहट हुयी. मैंने घूम कर देखा. वह किचन से बाहर आ गयी थी. उसके हाथ में प्लेट थी. उसने प्लेट मेज़ पर रख दी. अपने छोटे, नीले और स्लेटी रंग के बैग से सफे़द गत्ते का छोटा सा डिब्बा निकाला. उसे एहतियात से मेज़ पर रख कर उसे खोला. उसके अंदर रखा एक बहुत छोटा केक निकाला. एक छोटी मोमबत्ती, प्लास्टिक का छोटा चाकू , माचिस की तीन तीलियाँ और फास्फोरस की पट्टी निकाली.
‘‘आओ’’. उसने मुझे बुलाया. मैं खिड़की से हटकर मेज़ पर आ गया.
मोमबत्ती केक में लगाकर उसने तीनों तीलियाँ मुझे दे दीं. दो तीलियाँ बेकार करने के बाद आखिरी तीली से मैंने मोमबत्ती जला दी. उसने कुछ देर उसकी लौ को काँपने दिया फिर फूँक मार कर उसे बुझा दिया. प्लास्टिक के चाकू से केक के चार टुकड़े करके प्लेट में रख दिए. एक टुकड़ा उठा कर मेरे मुँह की तरफ़ बढ़ाया. मैंने टुकड़ा मुँह में रख लिया. मुझे चाहिए था एक टुकड़ा मैं उसके मुँह में रखूँ. वह शायद इसका इंतजार भी कर रही थी. मैं झिझक गया. मुझे यह सब बहुत हल्का और उबाऊ लग रहा था. वह समझ गयी. उसने खुद ही केक का एक टुकड़ा उठा कर अपने मुँह में रख लिया. मैं पास रखे सोफा पर बैठ गया. वह भी आ कर साथ बैठ गयी. केक खाने के बहाने हम कुछ देर अब चुप रह सकते थे.
मेरे पास यही कुछ क्षण थे जब मैं उससे अपने संबंध के बारे में कुछ कह सकता था. मुझे लगा, इससे पहले कि कोई बेवजह उदासी या जीने की अनिच्छा मुझे दबोच ले, इससे पहले कि एक मुद्रा में बैठा हुआ मैं इस हद तक अकड़ जाऊँ कि अपने अंग हिलाना भूल जाऊँ, इससे पहले कि कोई डरावना स्वप्न मेरी कविता की प्रेरणा बने या मैं किसी विकृत आदर्श के पीछे सम्मोहित हो कर चलने लगूँ, और इससे पहले कि मैं टूटी मीनारों और काई लगे गुम्बदों पर गिरती पीली रोशनी में शहर के इतिहास को नए तरह से देखने निकल पड़ूँ, मुझे उससे अपने प्रेम को लेकर जन्मने वाले सारे संशयों के बारे में बता देना चाहिए. प्रेम को लेकर अपनी उलझन, अपने भटकाव, अनिर्णय के बारे में बता देना चाहिए. इससे पहले कि वह चली जाए, अपने उस दुचित्तेपन की तरफ इशारा कर देना चाहिए जो मेरे अंदर उसके लिए अक्सर पैदा हो जाता है. अपनी अनियंत्रित वासनाओं और उसकी देह की लालसा के लिए शब्दों से रचे अपने उन कुशल चक्रव्यूहों के बारे में भी बता देना चाहिए जिनमें वह आसानी से फँस जाती थी.
मैं उन पढ़ी हुयी पंक्तियों के बारे में भी उसे बताना चाहता था जो किसी भी स्त्री के बारे में सोचते हुए मुझे हमेषा याद आती हैं, कि किसी भी औरत के साथ सिर्फ़ तीन चीजें ही की जा सकती हैं. या तो उससे प्रेम किया जा सकता है, या उसके लिए दुखी रहा जा सकता है या फिर उसे साहित्य में बदला जा सकता है. मुझे उसे बताना था कि उसे लेकर मेरा झुकाव और विश्वास तीसरी बात की ओर ज़्यादा है. मैं उसे यह भी बताना चाहता था कि उससे प्रेम करने को लेकर मैं कभी उस तरह निश्चित नहीं हो पाया, जिस तरह वह मेरे लिए अपने प्रेम को लेकर रहती थी. उतनी ही निश्चित, जितनी मृत्यु की सम्पूर्णता और अमरता को ले कर रहती थी.
मेरे मुँह का केक खत्म हो गया था. कुछ इधर उधर की बात शुरू करने के बाद अपनी असली बात कहने के इरादे से मैंने बात शुरू कर दी.
‘‘तनख्वाह मिली’’? मैं यूँ ही अक्सर उससे यह सवाल कर लेता था. मैं जानता था अक्सर कई महीने उसे तनख्वाह नहीं मिलती थी. शुरू में मैंने ऐसी स्थिति में उसकी मदद करने की कोशिश की थी जिसे उसने पूरी दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया था. तब भी, मैं पूछता रहता था, सिर्फ़ अपनी तसल्ली के लिए कि उसे कोई दिक्कत तो नहीं है. मैं जानता था, शब्दों की तरह, उसका रुपयों का मामला भी अव्यवस्थित था. वह किसी को भी, कितने भी रुपये दे सकती थी. माँगने पर ज़रूर और कई बार बिना माँगे भी, सिर्फ़ अनुमान से, कि उसका धन उसका दुख दूर नहीं तो कम जरूर कर देगा.
‘‘नहीं’’.
‘‘कितने रुपये हैं’’ ?
‘‘तीन हजार’’.
‘‘थे तो ज़्यादा’’ ?
‘‘बारह हज़ार दे दिए’’.
‘‘किसे’’ ?
‘‘ताजिया बनाने के लिए’’.
‘‘किसे’’. ?
‘‘मैं तुम्हारे पास आने के लिए निकली, तो बाहर मुहल्ले के बुजुर्ग ताजिए के लिए चंदा कर रहे थे. मैंने भी कुछ रुपए देने चाहे तो मज़ार के बाहर सुरमा बेचने वाले बूढ़े ने पूछा ‘‘तुम हमारे मज़हब की नहीं हो तो रुपए क्यों दे रही हो ?‘‘
‘‘मैं किसी मज़हब की नहीं हूँ, इसलिए हर मज़हब की हूँ’’. मैंने कहा. ‘‘ताजिया बनाने में कितने रुपए ख़र्च होते हैं.?‘‘ मैंने पूछा, ‘‘बारह हज़ार’’ वह बोला. ‘‘चंदा मत कीजिए मैं सारे रुपए दे रही हूँ. इस बार ताजिया मेरी तरफ से होगा.‘‘ मैंने उनको बाहर हज़ार दे दिए.’’
‘‘पर तुम्हारे पास रुपये और भी थे’’ ?
‘‘हाँ …….उसमें से भी ख़र्च हो गए.‘‘
‘‘कैसे‘‘?
‘‘एक दिन मैं पार्क में बैठी थी. एक झूले वाला कोने में ऊँचा झूला लगाए था. एक छोटा बच्चा पास खड़ा हसरत से झूले को देख रहा था. उसकी आँखों में झूला झूलने की न छिपने वाली लालसा थी. मैं उसके पास गयी. मैंने पूछा ‘झूलोगे‘? वह बोला, ‘‘हाँ, लेकिन मेरे और दोस्त भी हैं’’. ‘‘कहाँ’’ ? मैंने पूछा. उसने पार्क के बाहर एक ओर इशारा किया. मैंने देखा कई छोटे लड़के-लड़कियाँ एक मंदिर के बाहर प्रसाद चढ़ाकर निकलने वालों के पीछे-पीछे प्रसाद माँगते घूम रहे थे. ‘‘कितने हैं’’? ‘‘बीस’’ उसने कहा. ‘‘बुला लो’’. वह दौड़कर उनके पास गया. मेरी तरफ़ इशारा करके कुछ बोला. उन्होंने मुझे देखा फिर भागते हुए वे सब आ गए. मैंने पूछा ‘‘क्या लोगे’’ ? ‘‘मिठाई और टाफी या झूला’’? सब एक आवाज़ में बोले ‘झूला’. जितने रुपए थे मैंने झूले वाले को दे दिए. उससे कहा, ये जब भी, जब तक, जितनी देर चाहें उन्हें झुला देना. मैं पार्क से चली आयी. मैंने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. घर आकर मैं उस दिन बहुत रोयी.‘‘
वह चुप हो गयी. कमरे के अंदर एक खालीपन भरने लगा. दबोचता और खरोंचता हुआ. इससे छूटने के लिए बात करना फिर ज़रूरी था.
‘‘तनख्वाह नहीं मिली तो’’ ? मैंने वाहियात तरीके से, वाहियात या गै़र ज़रूरी सवाल किया.
‘‘मिल जाएगी’’.
‘‘नहीं मिली तो’’?
‘‘इस तरह सोचने से ज़िंदगी नहीं चलती’’.
‘‘किस तरह सोचने से चलती है’’ ?
उसने एक क्षण मुझे देखा फिर बोली.
‘‘जिस तरह मैं आठ साल की उमर में सोचती थी, जब माँ मुझे रुपयों के लिए लाश बनाकर सड़क पर लिटा देती थी. मुझे पता होता था कि बिना हिले-डुले, लाश की तरह लेटे रहना है, जब तक कि इतने रुपए न मिल जाएं कि हम रात का खाना खा सकें. एक दिन मेरी तबीयत खराब थी. न दवा के पैसे थे न खाने के. मेरे लिए बिना हिले-डुले, बिना खाँसे या लंबी साँस के बगैर लेटना मुश्किल था. तब माँ ने पड़ोसी से माँग कर मुझे थोड़ी अफीम चटा दी. मैं लाश बन कर लेट गयी. मैंने देखा अफीम के नशे में मैं हर तकलीफ़ भूल गयी और एक दूसरी दुनिया में चली गयी. उस दुनिया में सिर्फ धुँधलका, सफेदी, सन्नाटा, और सुन्न कर देने का अहसास था. न कोई समय था, न कोई जीवन था और न कोई भाव था. ऐसी दुनिया मैंने पहले कभी नहीं देखी थी. कभी नहीं सुनी थी. मैं उस दुनिया में ही घूमती रही. नींद में चलने वाले इनसान के आत्मविश्वास और निष्चिन्तता के साथ. बाद में जब माँ ने बुरी तरह झिंझोड़ा तब वापस इस दुनिया में लौटी. उस दिन मेरी समझ में आ गया कि अगर इस दुनिया से अलग, अपनी कोई दुनिया बना कर उसमें रहना आ जाए, तो इस तरह के सवाल परेशान नहीं करते. दुख और तक़लीफ़ भी नहीं होती. कोई उम्मीद, किसी का इंतज़ार भी नहीं बचता. लोग बेमानी हो जाते हैं. लेकिन इसके लिए उस अफीम जैसे किसी नशे का होना ज़रूरी है.
फिर मैंने तुम्हें देखा. कई बार देखा. हमारा रास्ता एक था. हम एक ही कैफे में काफी पीते थे. एक ही बस में चलते थे. एक ही लांड्री में कपड़े धुलवाते थे. मैं तुम्हारे कपड़े पहचानने लगी. दाढ़ी और बालों से तुम्हारी नींद का अंदाज़ा लगाने लगी. मैंने सोचा यह सब क्या है? समझ गयी मैं तुमसे प्रेम करने लगी हूँ. एक शाम जब मैं बस में बैठी तुम्हारे बारे में सोच रही थी, मुझे लगा अगर यह प्रेम है तो यह मेरे लिए अफीम बन सकता है. तुम्हारे इर्दगिर्द मैं अपनी वैसी ही एक दुनिया बुन सकती हूँ. उसमें उस तरह रह सकती हूँ जैसी उस दिन रही थी. इस प्रेम के लिए मुझे तुम्हारे प्रेम की ज़रूरत नहीं थी. तुम्हारी हमदर्दी, मदद या तुमसे जुड़े अपने भविष्य की भी ज़रूरत नहीं थी. तुम्हारी ज़रूरत भी मुझे तब थी, जब मैं चाहूँ. मैंने तुमसे कभी नहीं पूछा क्या तुम मुझसे प्रेम करते हो? मैं यह जानना ही नहीं चाहती थी. तुम्हारा मुझे प्रेम करना मेरे लिए निरर्थक था.
मैं तुमसे प्रेम अपनी ज़रूरत के लिए करती हूँ. अपने नशे, अपने स्वार्थ, अपने सुख, अपनी उस दुनिया में रहने के लिए करती हूँ. यहाँ तब आती हूँ, जब मुझे लगता है मुझे अफीम की लम्बी खुराक चाहिए. तुम अगर आज मर जाओ, अभी, इसी क्षण मर जाओ, मुझे कोई दुख नहीं होगा. आँख से एक भी आँसू नहीं गिरेगा. कोई विलाप नहीं करूँगी. जब तुमसे प्रेम करती हूँ, तुम मुझे नहीं, मैं तुम्हें भोगती हूँ. विलाप करती हूँ तो इसलिए नहीं कि मुझे तुमसे कुछ चाहिए था जो नहीं मिला, बल्कि इसलिए कि मैं अंदर सुख और आनन्द से इतना भर जाती हूँ, कि उसका बाहर निकलना ज़रूरी हो जाता है.
अफीम के नशे और लाश बनने के आत्मनियन्त्रण ने मुझे बचपन से ही ऐसी ज़िन्दगी जीना सिखा दिया है, जहाँ इस तरह के सवाल नहीं होते. इस तरह नहीं सोचा जाता’’. उसने एक साँस ली और उठ गयी. ‘‘मैं अब चलूँगी वरना ब्लड बैंक बंद हो जाएगा’’.
मैं हैरान था. इतना लम्बा बोलने के बावजूद, वह एक बार भी शब्दों के लिए नहीं भटकी. उनका क्रम और व्याकरण बिल्कुल तराशा हुआ था. शब्दों के वही अर्थ निकले थे, जो प्रचलित थे और जो वह चाहती थी.
मैंने खिड़की से बाहर देखा. बारिश जिस तरह अचानक शुरू हुयी थी, उसी तरह अचानक बंद हो गयी थी. गली में पानी भर गया था. अँधेरे में समझना मुश्किल था कहाँ जमीन है, और कहाँ गड्ढा है.
‘‘मैं साथ चलता हूँ.’’ मैं सोफे से उठ गया.
‘‘केवल गली के बाहर तक. फिर मैं चली जाऊँगी.’’
मैं घर के बाहर निकल आया. वह भी. मुझे पता था एक ओर गली सीमेन्ट से बनी है और ऊँचाई पर है. मैं उस हिस्से पर पैर रख कर चलने लगा. वह मेरे पीछे थी.
धीरे-धीरे हम गली के बाहर आ गए. सड़क पर पानी भरा था. उसमें गोबर के हिस्से तैर रहे थे. सिगरेट की पन्नी, पुराने काग़ज़, भूसा और खाने के टुकड़े भी तैर रहे थे. सड़क पर लोगों के चलने से कीचड़ उछल रहा था.
‘‘मैं साथ चलता हूँ.’’ मैंने ज़िद की तरह दोहराया.
‘‘नहीं.’’
‘‘टैक्सी कर देता हूँ.’’
‘‘नहीं.. वैसे भी मुझे बारिश अच्छी लगती है.’’ वह मुसकरायी.
‘‘अंधेरा है. कीचड़ भी. कपड़े गंदे होंगे. पैर फिसल सकता है.’’ मैंने भैंस के पुट्ठे से बनी उसकी सपाट और पतली चप्पल को देखा जो चलने पर पीछे कीचड़ उछालती चलती थी.
‘‘कुछ नहीं होगा.’’
‘‘अब कब आओगी?’’ कुछ पल उसे देखने के बाद मैंने भारी फुसफुसाती आवाज़ में पूछा. उसने आँख भर कर मुझे देखा.
‘‘जब कहोगे.’’ वह मुस्करायी और सड़क के एक ओर चलने लगी.
मैं उसे जाते हुए देख रहा था. गंदगी से बचने के लिए उसने अपनी साड़ी थोड़ी उठा ली थी. मुझे उसकी पूरी, उजली एड़ी दिख रही थी. अंधेरे में धीरे-धीरे दूर जाती हुयी वह एक नन्हें नक्षत्र की तरह चमक रही थी. इस कीचड़ में भी, उसकी चमक और निर्मलता को मैं हैरानी से देख रहा था, हालाँकि हैरानी की कोई बात नहीं थी.
वह ज़मीन को नहीं छू रही थी.