माया मिली न राम: ओम शांति ओम / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :20 सितम्बर 2016
फरहान अख्तर और करण जौहर फिल्म जगत में दूसरी पीढ़ी हैं। फरहान के पिता जावेद अख्तर ने सलीम खान के साथ मिलकर एक दर्जन सफल फिल्में लिखी हैं और आपसी अलगाव के बाद भी फिल्में लिखीं और उनके दो गीतों को दो फिल्मों की सफलता का अधिकांश श्रेय भी है। जेपी दत्ता की 'बॉर्डर' में ' संदेसे आते हैं' और विधु विनोद चोपड़ा की 'लव स्टोरी 1942' में 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।' करण जौहर के पिता यश जौहर ने आरके नैयर की 1960 में बनी 'लव इन शिमला' के प्रबंधन से कार्य शुरू किया और यश चौपड़ा जैसे ख्यातिनाम निर्माता तक के लिए काम किया। स्वतंत्र निर्माता के बतौर 'दोस्ताना' जैसी सफल फिल्म से निर्माण प्रारंभ किया और अनेक सफल फिल्मों का निर्माण किया। 'दोस्ताना' महज उनकी फिल्म का टाइटल नहीं वरन उनकी जीवन शैली रहा। जब अमिताभ बच्चन मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में मौत से जूझ रहे थे तब यश चौहर ने अत्यंत कम समय में विदेश से दवाएं बुलाने का महत्वपूर्ण दायित्व संभाला था और अमिताभ ने बतौर शुकराना उनकी मुकुल दत्त निर्देशित 'अग्निपथ' में काम किया था, जिसे करण जौहर ने दोबारा भी बनाया परंतु पुत्र के द्वारा बनाया गया संस्करण कमजोर साबित हुआ। दूसरी अोर फरहान के पिता जावेद ने पटकथा लेखन िवधा में नए मोड़ उत्पन्न किए। उनके पूर्वज 1857 की जंग में भी शामिल थे गोयाकि करण जौहर और फरहान अख्तर फिल्म वालों की दूसरी पीढ़ी हैं।
इन दोनों महानुभावों ने मिलकर बनाई 'बार बार देखो' जो टाइटल से ज्यादा दर्शकों से देखने की प्रार्थना करती है। इस फिल्म की कथा में मुख्य पात्र अलग-अलग अवस्था में मिलते और बिछुड़ जाते हैं। सारा घटनाक्रम अविश्वनीय होते हुए बेहूदा लगता है। पूरी फिल्म सामान्य समझदारी के अपमान की तरह गढ़ी हुई है और कैटरीना कैफ तथा सिद्धार्थ मल्होत्रा जैसे लोकप्रिय सितारों ने अभिनय किया है। करण जौहर अपनी फिल्मों की पटकथा लिखने लंदन जाते हैं और अपने कलाकारों के लिए प्रोडक्शन विभाग को निर्देश देते हैं कि कलाकारों के अंतर्वस्त्र भी अंतरराष्ट्रीय ब्रैंड के होने चाहिए। बस इसी निर्णय में उनकी शैली जाहिर होती है कि वे गैर-जरूरी चीजों को महत्व देते हैं तथा इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण चीजें हाशिये में चली जाती हैं।
अार्थिक उदारवाद के दौर में हिंदुस्तानी फिल्मों ने विदेशों में डॉलर कूटे, जिसके परिणामस्वरूप फिल्मकारों ने डॉलर सिनेमा बनाते हुए भारतीय दर्शक की पसंद को नकार दिया। वर्तमान में यह बात महसूस की जा रही है कि भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में एकल सिनेमाघरों की संख्या कम है परंतु साथ ही यह भी सत्य है कि नए सिनेमाघरों में दर्शक संख्या अत्यंत कम है। इस समस्या की जड़ में यह तथ्य है कि फिल्मकार मनोरंजक फिल्में नहीं बना रहे हैं। घटिया निर्माण पक्ष के कारण वितरण और प्रदर्शन क्षेत्र में नैराश्य छाया हुआ है।
फिल्मकार अपना काम नहीं कर रहे हैं, क्योंकि फिल्म कथा-प्रवाह में विज्ञापन डालने से उन्हें आय प्राप्त हो रही है तथा सैटेलाइट अधिकार से उन्हें अच्छी-खासी आमदनी हो रही है गोयाकि सिनेमा उद्योग फिल्म प्रदर्शन से अधिक धन अन्य माध्यम से कमा रहा है और दर्शक को सार्थक मनोरंजन नहीं परोसा जा रहा है। मीडिया ने फॉर्मूला फिल्म का जमकर विरोध किया, जबकि आजमाए हुए तौर-तरीके को फॉर्मूला कहते हैं। अगर फॉर्मूले के तहत दर्शक को भरपूर मनोरंजन दिया जाए तो वह सिनेमा से विमुख नहीं होता। अधिकतर फिल्मकार नवीनता के सैटेलाइट को पकड़ने की चेष्टा में अपने कमजोर पंखों के कारण उस तक नहीं पहुंच रहे हैं और इस प्रयास में जमीन से भी संपर्क खो चुके हैं।
इसके साथ ही देश में हुक्मरानों ने कानून-व्यवस्था को ढीला कर दिया है। समाज में असुरक्षा की भावना होने के कारण दर्शक क्यों सिनेमाघर जाने का जोखिम उठाए। दर्शक संरचना में महिला व बच्चों का वर्ग ही बॉक्स ऑफिस का मेरूदंड है। आज तो घर से बाहर निकला हुआ व्यक्ति अपनी पीठ के पीछे हवा में लहराते हुए खंजर से भयभीत है। अन्य व्यवसाय क्षेत्र के लोग भी इसी डर की बात कर रहे हैं। सुचारु प्रशासन प्रदान करने के सारे दावे खोखले सिद्ध हुए हैं। व्यवस्था चरमरा गई है और उसकी सड़ांध भी प्रदूषण का असली कारण है।