मार्कण्डेय के नाम पत्र / ओमप्रकाश ग्रेवाल
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
प्रिय भाई,
आपका पत्र मिला। दरअसल इलाहाबाद से आने के बाद मुझे पत्र लिखना चाहिए था। आपसे मिलकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई थी और आपसे तथा भैरवजी से बातचीत कर पाना मेरे लिये एक बहुत ही सार्थक अनुभव रहा। इधर कछ व्यस्त रहा हूँ। पिता जी की बीमारी की खबर मिली तो घर जाना पड़ा। कल ही लौटा हूँ। मुझे यह जानकर बहुत दुःख हुआ कि आपके घर में भी परिवार के सदस्यों को बीमारी का सामना करना पड़ा है। उम्मीद है, अब सब स्वस्थ होंगे।
जैसा कि आप जानते हैं, आपके आग्रह को टालना मेरे लिये संभव नहीं है। किन्तु आपसे इतना निवेदन अवश्य है कि मुझे कुछ अतिरिक्त समय दीजिए। आपको मेरी दिक्कतों और सीमाओं का कुछ अनुमान तो है ही। पिछले त़क़ाज़े भी पूरे नहीं कर पा रहा हूँ। पता नहीं क्यों, इधर कुछ लिखने को बन ही नहीं पा रहा। कुछ व्यस्तताएँ भी रही हैं। 'कथा' की नवलेखन पर बहस के मुख्य बिन्दुओं को समेटते हुए कुछ लिखूँगा अवश्य, क्योंकि आपका आदेश है। पर कुछ समय और दीजिए।
इतनी परेशानियों के बावजूद आप 'कथा' को निकालते रहने का दृढ़ निश्चय बनाये हुए हैं, इससे हमें बड़ी प्रेरणा मिलती है। क्योंकि यहाँ पत्रिकाओं के पढ़ने वाले कम हैं, अतः आप जब भी 'कथा' का अगला अंक छापें, उसकी कुछ प्रतियां भेज दें, उन्हें पढ़ने वालों में बांट दिया जायेगा। स्थायी रूप से पाठक संभवतः नहीं मिलेंगे। हां, आप हरियाणा सरकार के लोकसंपर्क विभाग के निदेशक के पास 'कथा' को 'advertisement' देने के लिए पत्र अवश्य भेजें और उसमें यह भी लिख दें कि पंजाब यूनिवर्सिटी के पब्लिकेशन ब्यूरो के 'advertisement' भी इसमें नियमित रूप से छपते हैं। मैं भी किसी परिचित व्यक्ति के माध्यम से कोशिश करूंगा कि हमें 'कथा' के लिए कुछ 'advertisement' मिल जाये।
भैरव जी को भी पत्र नहीं लिखा है। उनसे कहें कि जल्दी ही पत्र लिखूंगा। आप परिवार सहित स्वस्थ और प्रसन्न होंगे।
आपका
ओम प्रकाश ग्रेवाल