मार्कण्डेय के नाम पत्र / श्रीकांत वर्मा
13, जनपथ, नयी दिल्ली-1
20-1-59
प्रिय मार्कण्डेय,
पत्र मिला। प्रसन्नता हुई। नेमि जी से बात करूँगा, निर्मल से भी। हाँ, नील की वह किताब यहाँ उपलब्ध नहीं है। 'कृति' - 2 में ज़रूर कछ गड़बड़ी हुई है, पर तीसरा अंक मैंने अपने सामने डिस्पैच करवाया है। पोस्ट की ही गड़बड़ी होगी। भविष्य में सावधानी और अधिक बरती जाएगी। 'कृति'- 4 में 'भूदान' तथा कुछ अन्य पुस्तकों का विज्ञापन चला जाएगा। भूमिका की भाषा जरा ज़्यादा कड़ी हो गयी थी और कहानी की सभी उपलब्धियों को केवल लोकांचल तक सीमित कर देना सही नहीं जान पड़ा। शेष तो ठीक ही है। तुम कहानी की यह चर्चा आगे ज़रूर बढ़ाओ। 'कृति' में सहचिंतन के अंतर्गत इस पर काफी कुछ लिखा जा सकता है।
'प्रस्तावित रचना' के अंतर्गत 'जिंदगी और जोंक' की बहुत सारी आलोचना हुई, इसका मुझे भी बहुत दुख है क्योंकि अमरकांत की कहानियाँ मुझे प्रिय हैं। पर क्या किया जाए। आलोचक नामक प्राणी हिंदी में है नहीं और लेखक आलोचनाएँ लिखते नहीं। बहुतों से कहा, कोई तैयार नहीं होगा। अमरकांत से क्षमा दिला देना।
अब यह 'प्रस्तावित रचना' का स्तंभ ही हट रहा है। केवल समीक्षाएं होंगी। और अच्छी समीक्षाएँ जाएँगी।
तुम्हारी पुस्तक पर कोई समझदार आदमी ही लिखेगा। विश्वास रखो।
तुममें, तुम्हारे लेखन में और तुम्हारे व्यवसाय में - सभी में दिलचस्पी है। इतना भरोसा मुझ पर हमेशा रखो।
तुम्हारा
श्रीकांत