मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के विकास की दिशा / नामवर सिंह
मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र डॉ. रमेश कुंतल मेघ का पांडित्यपूर्ण लेख सुनने के बाद सोचना पड़ रहा है कि सौंदर्य की चर्चा इतनी असुन्दॉर क्यों होती है। एक तो सौंदर्यशास्त्र जैसा गंभीर विषय, फिर उस पर कुंतल मेघ जी की गुरु-गंभीर भाषा। जिक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना। राजदाँ भी रकीब होने के लिए लाचार है, बेशक किसी और अन्दाउज में। कुंतल मेघ जी की यही भाषा सुनकर अज्ञेय ने कभी कहा था कि कुंतल तो कभी-कभी छँट भी जाते हैं, मेघ कभी नहीं छँटते।
सौंदर्यशास्त्र कुछ शास्त्र् ही ऐसा है कि इसके आसमान में बारहों महीने मेघ छाए रहते हैं। सौंदर्यशास्त्र की जन्मशकुंडली को ध्याकन में रखें तो मार्क्सवाद की जमीन पर कोई सौंदर्यशास्त्र रचने में खतरे ही खतरे हैं। कविताएँ पहले भी लिखी जाती थीं, नाटक भी खेले जाते थे और चित्र भी बनाए जाते थे। सब तरह-तरह से। लेकिन एक समय ऐसा आया कि विविध प्रकार की इन सभी क्रियाओं को एक ही रहस्यनमय शक्ति के अन्द र अंतर्भुक्ति करके उसे 'सौंदर्य' और 'कला' का नाम दे दिया गया और फिर उसका एक शास्त्रे भी तैयार हो गया जो 'सौंदर्यशास्त्र' कहलाया। यह सब अठराहवीं सदी में घटित हुआ। जर्मनी में 'जर्मन विचारप्रणाली' के रूप में मार्क्सद ने जिस मानसिकता का विवेचन किया है, यह सौंदर्यशास्त्र उसी का एक अंग है। इस प्रकार सौंदर्यशास्त्र कोई निष्प क्ष और निरामिष शास्त्रस-मात्र नहीं, बल्कि एक 'विचारप्रणाली' के रूप में उदित हुआ। 'सौंदर्यानुभूति' अथवा 'कलानुभूति' इस विचारप्रणाली का ब्रह्मास्त्रा है जिसके द्वारा जीवन की समस्तं समस्यादओं से सहज ही त्राण संभव है। आकस्मिक नहीं कि सौंदर्यशास्त्र में सब से अधिक चिंतन-मनन इस सौंदर्यानुभूति के स्वसरूप को लेकर ही हुआ है; इसके बाद अगर किसी चीज पर विचार हुआ है तो वह 'सौंदर्य' है और यह सौंदर्य भी सौंदर्यशास्त्रीय ऊहापोह की प्रक्रिया में इतना 'निर्गुण' बन गया कि अंतत: आई.ए. रिचर्ड्स को 'दैट पैरलाइजि़ग ऐपरिशन ब्यूीटी' के रूप में इसे याद करना पड़ा। अकबर इलाहाबादी के शब्दोंक में :
बाहम शबेविसाल ग़लतफ़हमियाँ हुईं
था उनको वहम भूत का , मुझको था परी का
सौंदर्य जब भूत या चुड़ैल की दशा को प्राप्ती हो जाए तो उस दिशा में कदम रखते समय विशेष सावधानी की आवश्यदकता है - खास तौर से एक मार्क्सवादी को। यह शास्त्र आसमान में इतनी ऊँचाई तक पहुँच गया है कि उससे अपनी यात्रा शुरू करे तो धरती तक पहुँच पाना मुश्किल ही है। और कुंतल मेघ के मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की पहली मुश्किल यही है।
दूसरी मुश्किल मुश्किल नहीं, बल्कि प्रलोभन है। प्रलोभन 'शास्त्रत' रचने का। एक अरसे से अपने लोग 'मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र' की माँग कर रहे हैं - ऐसा शास्त्रे जिसमें कला और साहित्यर के बारे में मार्क्सवादी दृष्टि से सभी आवश्यहक बातें सूत्रबद्ध कर दी गई हों। प्रत्येशक प्रश्नस पर सुनिश्चित मत सुलभ हों तो जीवन-यात्रा सुगम रहती है और जीवन-संघर्ष सुरक्षित। स्ता्लिन ने ऐसी ही आवश्य कता की पूर्ति के लिए 'द्वन्द्वा त्मीक और ऐतिहासिक भौतिकवाद' शीर्षक निबंध को सूत्रबद्ध किया था और 'सोवियत संघ की कम्युीनिस्ट् पार्टी का संक्षिप्तह इतिहास' में उसे समाविष्टध करके सभी पार्टी-सदस्योंि के लिए सुलभ बनाया था। स्ताषलिन से पहले कुछ ऐसा ही प्रयास बुखारिन ने भी किया था जिसे उसने मार्क्सवादी समाजशास्त्र् का सुगम गुटका अथवा 'पाप्युनलर मैनुअल' की संज्ञा दी थी।
बुखारिन के इस 'गुटका' पर ग्राम्शी ने उस समय जो टिप्पेणी की थी वह आज भी उपयोगी है - मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्रियों के लिए भी। दुर्भाग्य से स्ताजलिन की पुस्त क को देखने के लिए ग्राम्शी् जीवित न रहे, वरना उस पर लिखी हुई समीक्षा का प्रभाव और भी व्याोपक हुआ होता और शायद विश्वे-मार्क्सवादी चिंतन कुछ भयंकर भूलों से बच भी जाता । बहरहाल, ग्राम्शीय ने सबसे पहले तो यह सवाल उठाया कि जो सिद्धांत अभी वाद-विवाद, खंडन-मंडन और विस्तापर की अवस्थाल में है, उसके बारे में क्यां एक सरल सुगम सुबोध गुटका लिखना संभव है? यह सवाल उठाना इसलिए जरूरी है कि सरल गुटका रूपत: जड़सूत्रवादी, शैली की दृष्टि से संयत और वैज्ञानिक दृष्टि से किसी विषय की सन्तु:लित व्यारख्याम के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। इसलिए जब तक कोई सिद्धांत विकास की पूर्ण परिपक्वािवस्था तक नहीं पहुँच जाता, उसे गुटकाबद्ध करने का कोई भी प्रयास असफल होने के लिए बाध्यव है। ग्राम्शी की दृष्टि में मार्क्सवादी दर्शन जिस अनुभव पर आधारित है उसे कुछ खाँचों में खतियाया नहीं जा सकता, क्योंवकि वह अपनी विपुल विविधताओं से सम्पँन्नि इतिहास है। ऐसी स्थिति में मार्क्सवाद की परिकल्पटना खंडन-मंडन और एक सतत संघर्ष के रूप में ही की जा सकती है। इसलिए सही सैद्धांतिक और ऐतिहासिक शब्दानवली में प्रश्नए ही क्योंू न प्रस्तुीत किए जाएँ?
ग्राम्शीस के ये विचार स्वपयं मार्क्सी के चिंतन और लेखन की मूलधारा में हैं। मार्क्सि की प्राय: सभी रचनाएँ 'क्रिटीक' अथवा 'समीक्षा' की संज्ञा से अभिहित हैं। वस्तुात: मार्क्सवाद का जन्मक ही एक आलोचनात्मँक दर्शन के रूप में हुआ, जिसकी प्रकृति खंडन-मंडन की है। इसे सर्वजन-सुलभ बनाने के लिए सूत्रबद्ध करने का काम एंगेल्से ने अन्तिम दिनों में शुरू किया। इससे मार्क्सवाद के प्रचार-प्रसार में मदद तो जरूर मिली,लेकिन जैसा कि लक्षित किया गया है, कहीं-कहीं सरलीकरण का खतरा भी पैदा हुआ, यथापि यह उतना बड़ा सरलीकरण नहीं था।
मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र आज विकास की जिस अवस्था में है, उसमें तो शास्त्र निर्माण का प्रयास और भी घातक होगा। सबक लेने के लिए दो उदाहरण पर्याप्तस होंगे। पहला उदाहरण है सोवियत संघ में 'समाजवादी यथार्थवाद' का शास्त्र्-निर्माण। शास्त्र बनते ही सामाजिक यथार्थ भी सूत्रबद्ध हो गया और उस यथार्थ को अभिव्यवक्ता करने की शैली भी। देखते-देखते एक नया रीतिवाद चल पड़ा। रचना में भी। आलोचना में भी। जिस देश ने समाजवादी क्रांति की, वह साहित्यर और कला के क्षेत्र में कोई क्रांति करने से ठिठक गया। यथार्थ का ऐसा और इतना अपमान तो क्रांति के पहले के साहित्यण में भी नहीं हुआ था और उन्नीसवीं सदी के यूरोप के साहित्यत में भी नहीं जब बूर्ज्वा क्रांति ने यथार्थवाद को जन्मे दिया था। हालत बहुत कुछ हिंदी की रीतिवादी कही जानेवाली साहित्यं-प्रवृत्ति की-सी हो गई, जब अलंकारशास्त्र के लक्षण ग्रंथों को सामने रखकर कविताएँ लिखी जा रही थीं। वैसे न यथार्थवाद बुरा है, न समाजवाद ही। मार्क्स् ने एक समय इन्हींँ दोनों अवधारणाओं का साहित्यब-समीक्षा में, फुटकल ही सही, कितने क्रांतिकारी और लचीले ढंग से इस्तेएमाल किया था। लेकिन शास्त्र बद्ध होते ही वही क्रांतिकारी अवधारणाएँ जड़ सूत्रवाद में बदल गईं।
दूसरा उदाहरण जार्ज लुकाच का 'सौंदर्यशास्त्र' नामक विशाल ग्रन्थत है। लगभग साठ वर्षों के दीर्घ साहित्यद-चिंतन को अंतत: एक व्यरवस्थित शास्त्रश में बाँधने का विराट प्रयास। हजारों पृष्ठोंि का यह विशाल ग्रन्थय अभी तक जर्मन भाषा में ही उपलब्धक है और जो जर्मन अच्छीर तरह जानते होंगे, वही इसके बारे में कुछ विश्वारसपूर्वक कह सकने में सक्षम होंगे। अंग्रेजी में अभी तक उसके बारे में जो कुछ कहा गया है और उसके छिटपुट अंशों से जो आभास मिला है उसके आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसमें समस्तप कलाओं को 'अनुकरण' में निश्शे ष करने की असफल चेष्टा की गई है। इस प्रकार मार्क्सवादी लुकाच जब सभी कलाओं को एक शास्त्र में बाँधने चलते हैं तो अंतत: अरस्तूा की शरण जाने को बाध्या होते हैं। किसी अंग्रेजी साप्तातहिक ने इस ग्रन्थ की समीक्षा के साथ एक ऐसा कार्टून छापा था, जिसमें लुकाच मार्क्सत की दाढ़ी के साथ अरस्तू की शक्लर-सूरत और पोशाक में पेश आते हैं। हजारों साल के वैविध्यापूर्ण कला-इतिहास को एक अनुकरण की अवधारणा में समेटने का प्रयास कितना उपहासास्पेद है! यह कैसा ऐतिहासिक भौतिकवाद है जो एक जड़ शास्त्रस की वेदी पर समूचे इतिहास की बलि चढ़ाने में भी नहीं हिचकता! आश्चर्य नहीं जो अभी तक यह ग्रन्थत बहुत कुछ अनपढ़ा ही रह गया। इससे तो कहीं अधिक जीवंत अपेक्षाकृत वे छोटी रचनाएँ हैं जिन्हें लुकाच ने खंडन-मंडन के रूप में लिखा है।
इन दो विराट असफलताओं को देखते हुए भी आज यदि कोई विचारक हिंदी में मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का व्यववस्थित शास्त्रीभय ग्रन्थर लिखने का प्रयास करता है तो वह धन्य है! (और - आचार्य शुक्ल जोड़ते - धिक्कावर है)
जार्ज लुकाच के दृष्टांत से मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की इस लम्बीन परंपरा का एक कमजोर पहलू सामने आता है। अक्सकर वह स्वरयं 'कला' नामक संस्थाप को चुनौती देने में चूक गया और कला की क्लाेसिकी परिभाषा को स्वीदकार कर लेने में उसे कोई हानि नहीं दिखाई पड़ी। बुनियादी रूप में एक बार इन परिभाषाओं को स्वीषकार कर लेने के बाद तो फिर थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ इस-उस कवि या कृति के मूल्यांओकन का कार्य ही शेष रहता है; और कहने की आवश्य कता नहीं कि मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्रियों ने इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का जौहर बखूबी दिखाया है - ऊँची संस्कृीति के बड़े-से-बड़े विचारकों से होड़ लेते हुए। व्या ख्याा और मूल्यांाकन की भाषा निश्चसय ही भौतिकवादी भी है और ऐतिहासिक भी, लेकिन कुल मिलाकर वह प्रभुत्वखशाली परंपरा से बहुत अलग नहीं है। जार्ज लुकाच तो उन्नीसवीं सदी के यथार्थवादी उपन्याभसों की परंपरा के हिमायती हैं ही, रूस के समाजवादी यथार्थवाद के तहत लिखे उपन्यावसों का यथार्थवाद भी उस परंपरा में कुछ विशेष नहीं जोड़ता। मार्क्सवादी
मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को यदि परंपरावाद के इस लकीर के फकीर से मुक्तम होना है तो फिर उन लेखकों के पास जाना होगा जिन्होंदने इस परंपरावाद को चुनौती देने का साहस किया। ऐसे ही लेखकों में अपने यहाँ प्रेमचंद हैं, जिन्होंसने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थाअपना के समय में ही ऐलान किया था कि हमें सौंदर्य की परिभाषा बदलनी होगी। मूल उर्दू में उनके शब्दक थे - हमें हुस्नअ का मेयार तब्दीथल करना होगा क्योंाकि 'अभी तक उसका मेयार अमीराना, ऐशपरवराना था।' अजीब बात है कि प्रेमचंद का यह वाक्य सौंदर्यशास्त्र पर चिंतन करते समय किसी मार्क्सवादी को याद नहीं आता। इस कथन की प्रासंगिकता प्रेमचंद जयंती तक ही सीमित रहती है - न उसके बाद और न उसके पहले। प्रेमचंद के इस कथन की ताकत यह है कि उन्होंमने अपनी कहानियों और उपन्यादसों के जरिए सौंदर्य का एक नया 'मेयार' कायम किया था, जहाँ स्वयं उन्हींन के शब्दोंद में : 'कशमकशे-हयात में हुस्नत का मेराज़' है। दूसरे शब्दों में : 'जीवन-संग्राम में सौंदर्य का परमोत्कसर्ष' है।
सौंदर्य की परिभाषा बदलने की इस दिशा में प्रेमचंद के बाद भी प्रगति हुई है। नागार्जुन से धूमिल तक और यशपाल से ज्ञानरंजन तक कवियों और कथाकारों की एक अच्छीर-खासी परंपरा है, जिसने सौंदर्य संबंधी पुरानी सुरुचि को तोड़कर नई अभिरुचि के लिए सर्जनात्म्क आधार प्रस्तु्त किया है। यदि ये सर्जनात्मरक प्रयोग आज के मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के लिए कोई अर्थ नहीं रखते तो फिर वह निर्गुण सौंदर्यशास्त्र भी व्यआर्थ है। बर्टोल्ट् ब्रेष्ट ने ऐसे ही सौंदर्यशास्त्र को 'उत्पाददन का शत्रु' कहा था। 'उत्पा दन' के भौतिकवाद से यदि सौंदर्यशास्त्रीय 'सुरुचि' को ठेस पहुँचती है जो 'सृजन' कह लीजिए, फलश्रुति स्प'ष्टथ है। नए कला-सृजन से ही सौंदर्यशास्त्र का विकास संभव है। सिद्धांत व्य वहार से ही विकसित होता हे। फल में फल नहीं लगता। फल बीज से पैदा होता है और वह भी जब धरती के गर्भ में आता है। व्यवहार जगत की इस जानी-मानी बात का जिक्र इसलिए कि मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र बनाते समय बर्टोल्टर ब्रेष्टे कभी नहीं याद आते, जब कि जार्ज लुकाच दिमाग पर हमेशा सवार रहते हैं।
प्रेमचंद के प्रसंग से आज की एक और कमी पर नजर पड़ती है। हम जैसे भूलते जा रहे हैं कि सौंदर्य में भी वर्ग-भेद होता है और सौंदर्यबोध के निर्माण में वर्गदृष्टि की भी भूमिका होती है। प्रेमचंद ने इस सच्चा्ई को जीवन के अनुभव से समझा था और मार्क्सवाद पढ़कर भी बहुत- से लोग इस सत्यच को पकड़ने में अक्षम दिखाई पड़ रहे हैं। इधर के सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन से कुछ ऐसा आभास होने लगा है कि सौंदर्य और सौंदर्यबोध वर्गों से ऊपर कोई अतीन्द्रिय अनुभूति है। यह भी एक विडंबना ही है कि आजादी की लड़ाई के दिनों में जब भारत की सारी जनता एक साथ मिलकर लड़ रही थी तो मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों में वर्ग भेद की चेतना जरूरत से ज्यादा प्रबल थी और अब जब आजादी मिलने के बाद समाज में वर्गभेद स्प्ष्टत होकर उभरने लगा तो बुद्धिजीवियों की वह वर्गचेतना धीरे-धीरे कुंठित होने लगी है। वर्गभेद बढ़ने के साथ वर्गबोध का ह्रास - यह विरोधाभास है या विडंबना? मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र भी इस असर से अछूता नहीं है।
वर्गचेतना का ऐसा ह्रास तो आजादी के ठीक बाद के शीतयुद्धवाले दशक में भी नहीं हुआ था, जब मार्क्सवाद के असर को खत्म करने के लिए 'विचारप्रणाली के अंत' का प्रचार जोरों पर था। उस समय शीतयुद्ध की इस विचारधारा से लड़ने की भावना प्रबल थी और इसलिए एक विचारप्रणाली के रूप में मार्क्सवाद के लिए आग्रह भी था। यह भी एक विडंबना ही है कि इधर जब से विचारप्रणाली को मार्क्सवादी चिंतन के अंतर्गत प्रमुख ही नहीं बल्कि केंद्रीय स्थान प्राप्त हुआ है, स्वउयं मार्क्सवाद में आस्था् क्षीण हुई है। देखा जाए तो 'विचारप्रणाली के युग का अंत' अब हुआ है। यह तथाकथित नव-मार्क्सवाद की देन है।
फिर भी कुछ लोगों को शिकायत है कि हिंदी का मार्क्सवादी साहित्यक-चिंतन पश्चिम के विकसित नव-मार्क्सवाद से अपरिचित होने के कारण ही अभी तक विकास नहीं कर पा रहा है। आयात से ही विकास संभव होता तो विचारों के मामले में तो सरकार से किसी लाइसेंस की भी जरूरत नहीं है। कल जो कांट, हेगेल और क्रोचे के सहारे भारत में सौंदर्यशास्त्र का विकास कर रहे थे वे आज भी आयात में किसी तरह पीछे नहीं है। अडोर्नो, हर्बर्ट मारकूज, वाल्ट र बेन्या मिन, ग्राम्शीक, रेमंड विलियम्स्, फ्रेडरिक जेम्संन, टेरी इगलटन ही नहीं, बल्कि रोलाँ बार्थ, मिशेल फु़को, ज्याक देरीदा, ज्याक लाकाँ आदि के नाम अपने यहाँ भी समय-असमय लेखों और भाषणों-संभाषणों में टपकते ही रहते हैं। फिर भी यह तथ्यम है कि सौंदर्य की परिभाषा नहीं बदल रही है - कम-से-कम शास्त्र के धरातल पर। पश्चिमी देशों में इस बीच कहीं कोई बड़ी राजनीतिक क्रांति भले न हुई हो, विचारों की दुनिया में काफी उथल-पुथल हुई है - विशेषत: मार्क्सवादी चिंतन में। यह परिवर्तन इक्की, -दुक्कीम इकाइयों तक सीमित नहीं है, बल्कि विचार-जगत की पूरी संरचना में आया है, संरचनात्मंक परिवर्तन भी कह सकते हैं। पुराने सवालों के नए जवाब देने की जगह एकदम नए पैमाने से नए प्रश्न उठाए जा रहे हैं। 'आधार' और 'अधिरचना' के संबंधों पर ही नए सिरे से विचार नहीं हो रहा है, बल्कि स्वीयं इन संकल्प नाओं की प्रकृति को लेकर नए सवाल किए जा रहे हैं। जिस भाषा को एक समय चंद भाषावैज्ञानिकों और काव्यवभाषा को लेकर चिंतित रहनेवाले काव्यैचिंतकों के हवाले कर दिया गया था, आज वह भाषा विचारप्रणाली के केंद्र में आ गई है। बातें और भी हैं और मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के लिए सार्थक भी। किंतु इनमें से प्रत्येरक का एक निश्चित राजनीतिक संदर्भ है और अपने राजनीतिक संदर्भ को भूलकर उनमें से किसी की ओर कुतूहलवश लपकने से विशेष लाभ होनेवाला नहीं है।
इसलिए जैसा कि पहले कहा गया, असल सवाल उस सौंदर्यशास्त्र का है जो हमारे सौंदर्यबोध को बदलने में कारगर अस्त्र हो। मेरी जानकारी में इस बीच इस दिशा में एक ही कोने से संगठित स्वयर उठा है। मराठी के दलित लेखकों ने एक अलग वैकल्पिक सौंदर्यशास्त्र बनाने का नारा दिया है। अभी तक वह शास्त्रे बना भले ही न हो, लेकिन सौंदर्यशास्त्र का एक विकल्पि तो सामने आया ही, इसमें कोई संदेह नहीं। मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र अभी तक उसकी उपेक्षा ही करता आया है। दुविधा शायद वर्ग-वर्ण के द्वैत अथवा द्वन्द्वव को लेकर है। किंतु इसमें कोई शक नहीं कि अंतत: इस चुनौती को स्वी्कार करना ही पड़ेगा। प्रश्ना प्रभुत्वर का है, सत्तान का है और यह ऐसा प्रश्न है जिसकी उपेक्षा सौंदर्यशास्त्र भी नहीं कर सकता - मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र तो और भी नहीं।
(4 सितंबर, 1983 को दिल्ली में आयोजित जनवादी लेखक संघ के सम्मेलन में दिए गए भाषण का संशोधित और पुनर्लिखित रूप)