मार्क्सवाद और साम्यवादी सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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मार्क्सवाद और साम्यवादी सिनेमा
प्रकाशन तिथि : 18 जून 2018


महाभारत के लेखक वेदव्यास अपनी ही रचना के केंद्रीय पात्र भी रहे हैं और उन्हें अपनी इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। अगर ऐसा ही कोई वरदान महान विचारक कार्ल मार्क्स को प्राप्त होता तो वे आज दो सौ वर्ष के होते परंतु आज मानव इतने भाग्यवान नहीं हैं कि उन्हें कार्ल मार्क्स का मार्गदर्शन लंबे समय तक प्राप्त होता। कार्ल मार्क्स के आदर्श को सबसे बड़ा आघात स्टालिन और माओ ने पहुंचाया। उन्होंने कार्ल मार्क्स के महान विचारों को अपनी कट्‌टरता और विचारहीनता से बदनाम कर दिया। इतिहास का रथ उसमें जुते हुए घोड़ों से भी तेज गति से गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी में था, जिसके परिणाम स्वरूप पूंजीवाद पनपा और बचपन के कुटेव की तरह हमेशा के लिए मानवता पर काबिज हो गया।

कार्ल मार्क्स के दर्शन के व्याख्याकार फ्रेडरिक एंगेल्स ने चेतावनी दी थी कि गणतंत्र व्यवस्था में चुनाव द्वारा सत्ता प्राप्त होगी, अत: अन्य किस्म के संघर्ष का मार्ग नहीं अपनाते हुए मार्क्स के आदर्श को गणतंत्र व्यवस्था के तहत निर्वाह करना होगा। उस समय किसी भी राजनैतिक विचारक को भारतीय चुनाव की कल्पना नहीं थी। वे कैसे जान पाते कि धर्म के रथ पर चुनाव को लादा जाएगा और जातियों में बंटे हुए लोग मतदान करेंगे। जातिवाद और कुप्रथाएं सारे आदर्श को लील जाती हैं। पूंजीवादी भी गंडा ताबीज पहनते हैं। अंधविश्वास को कोई सरहद बांध नहीं पाती। धर्म और व्यवस्थाओं के उजले, हवादार महलों के नीचे तलघर बने हैं जहां अंधविश्वास के जाले लगे हैं और कुरीतियों के चमगादड़ लटके रहते हैं तथा रात होते ही उन उजले हवादार महलों में घुसपैठ करते हैं।

यह इत्तेफाक भी गौरतलब है कि एगेंल्स की मार्क्स व्याख्या 1896 में प्रकाशित हुई और 1895 में लुमियर बंधुओं ने फिल्म का पहला प्रदर्शन किया। इस तरह से हम यह मान सकते हैं कि फिल्म माध्यम और एगेंल्स द्वारा की गई व्याख्याएं कमोबेश एक ही वक्त में सामने आई। कार्ल मार्क्स की आयु तीस वर्ष थी जब उन्होंने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो लिखा। यह इत्तेफाक भी देखिए कि विश्व के अनेक फिल्मकारों ने अपनी श्रेष्ठ फिल्में भी तीस वर्ष का होने के पूर्व ही रची हैं। राज कपूर ने 'आवारा' अपने जीवन के पच्चीसवें वर्ष में बनाई और वह उनकी तीसरी फिल्म थी। अपनी पहली फिल्म 'आग' बनाते समय वे महज बाइस वर्ष के थे। राज कपूर पच्चीस की वय में ही एक स्टूडियो की स्थापना भी कर चुके थे। कुछ समय पूर्व आग लगने के कारण उनका प्रिय स्टूडियो जल गया। अभी तक वहां कोई निर्माण कार्य नहीं हुआ है। राज कपूर भी वामपंथी रहे हैं। दरअसल तमाम साहित्य और सिनेमा वामपंथियों ने ही रचे हैं।

मेहबूब खान की फिल्म निर्माण संस्था का प्रतीक चिह्न 'हसिया और हथौड़ा' ही था। अजीज़ मिर्ज़ा साम्यवादी फिल्मकार हुए हैं और शाहरुख खान को उन्होंने न केवल पहला अवसर दिया वरन् उसे संघर्ष के समय अपने घर में एक पारिवारिक सदस्य की तरह रखा था। क्या आज शाहरुख अपनी शानदार हवेली 'मन्नत' में अजीज़ मिर्ज़ा को चंद दिन बिताने के लिए आमंत्रित करेंगे? अगर वे निमंत्रित कर भी दें तो साम्यवादी अजीज़ मिर्ज़ा वहां दो पल भी चैन से नहीं गुजार पाएंगे।

बलराज साहनी, कैफी आज़मी, चेतन आनंद, शैलेन्द्र इत्यादि अनेक सृजनधर्मी साम्यवादी रहे हैं। दरअसल, इन कलाकारों ने ही इप्टा अर्थात इंडियन पीपुल्स थियेटर नामक संस्था की स्थापना की थी। बलराज साहनी और चेतन आनंद मुंबई की कपड़ा मिलों में काम करने वालों के संघर्ष के साथी थे और धरने पर भी बैठे थे। बलराज साहनी को पुलिस ने गिरफ्तार किया था और उनकी अभिनीत फिल्मों के निर्माताओं ने अदालत में अर्जी दी थी कि उनकी अधूरी फिल्मों को पूरा करने में सहायता दी जाए। न्यायालय के आदेश से पुलिस उन्हें सुबह दस बजे स्टूडियो लाती और प्राय: सायंकाल वापस जेल ले जाती थी। बलराज साहनी और नूतन अभिनीत फिल्म 'सोने की चिड़िया' में नूतन सुपर सितारे की भूमिका में है और वामपंथी फिल्मकार से उसे प्रेम हो जाता है जिसकी मुखालफत उसके अपने रिश्तेदार करते हैं, क्योंकि उन सारे आलसी निकम्मों को वही पाल रही थी।

फिल्म में कामगारों को लाभ देने के उद्देश्य से एक फिल्म बनाई जाती है परंतु तिकड़मबाज लोग मुनाफा बंटने नहीं देते। दरअसल हर आदर्श पहल को इसी तरह मुट्‌ठीभर लोग असफल कर देते हैं। अवाम जाने कैसे इन मुट्‌ठीभर लोगों को अपने आंदोलन में आने देता है। इसी भाव को किसी अन्य संदर्भ में ग्वालियर की रेणु शर्मा ने इस तरह बयां किया है, 'आवाजें लेकर गूंगे हैं इस बस्ती में लोग, सबके अंदर दीमक सबको एक ही रोग'।

बलराज साहनी अभिनीत शाहिद लतीफ की 'हमलोग' भी साम्यवाद प्रेरित फिल्म थी। ख्वाजा अहमद अब्बास ने साम्यवादी फिल्मों का निर्माण किया और उनकी लिखी तथा राज कपूर द्वारा बनाई गई सारी फिल्में भी साम्यवादी रही हैं। यहां तक कि राज कपूर की 'संगम' एक प्रेम कथा थी परंतु उसमें भी एक दृश्य साधनहीन व्यक्ति के आर्तनाद का था, 'फिर वही ऊंची टेकरी पर खड़े रहकर दान देने की अदा मत दिखाइए'। दरअसल अमीर आदमी का दान केवल अपने निजाम को बनाए रखने के लिए दिया जाता है। दान एक षड्यंत्र है आश्रित व्यक्ति को पंगु बनाए रखने के लिए। यह भी गौरतलब है कि पूंजीवादी अमेरिका के हॉलीवुड ने भी अधिकांश फिल्मों का नायक एक साधनहीन आम आदमी को ही केन्द्र में रखकर किया है। सिने माध्यम आम दर्शक के सहयोग से ही सक्रिय है।

साम्यवादियों को विश्वास था कि रूस और चीन के बाद भारत भी साम्यवादी हो जाएगा परंतु उन्हें यह ज्ञान नहीं था कि धार्मिक आख्यानों की गिज़ा पर पनपा अवाम का अवचेतन यह संभव नहीं होने देगा। साम्यवादी रूस में ही सिनेमा शास्त्र का व्याकरण रचा गया है और 'बैलेड ऑफ ए सोल्जर' तथा 'क्रेन्स आर फ्लाइंग' जैसी क्लासिक्स रची गई हैं। रूस और पश्चिमी देश भी पूर्वजन्म अवधारणा पर विश्वास नहीं करते परंतु अनंत देश भारत में अवतारवाद की उपशाखा की तरह ही पुनर्जन्म पर भी विश्वास किया जाता है। अत: यह संभव है कि कार्ल मार्क्स और उनके व्याख्याकार एंगेल्स भारत में जन्म लें और मायथोलॉजी संचालित देश को एक नई दिशा दें।