मार्क्स की वापसी / राजकिशोर
जैसे मुन्नाभाई को गांधी जी दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही मुझे कभी-कभी मार्क्स दिख जाते हैं। जिस दिन बराक ओबामा जीते, उसी शाम यह घटना हुई। मैं एक मित्र के बार-बार कहने पर टहल रहा था, तभी देखा, मार्क्स सामने से चले आ रहे हैं। बहुत परेशान दिखाई पड़ रहे थे। मैंने सोचा कि कॉमरेड से पूछूँ कि नया क्या हुआ है जो आपको तंग कर रहा है, तभी वे रुक गए और मेरी आँखों में आँख डालकर बोले, 'क्या तुम भी मेरी वापसी से बहुत खुश हो?'
मैंने पहले मन ही मन उन्हें प्रणाम किया और फिर जवाब दिया, 'वापसी? क्या किसी चीज की वापसी होती है? आपने ही लिखा है कि कोई घटना दूसरी बार घटती है, तब वह कॉमेडी हो जाती है।'
मार्क्स के चेहरे पर थोड़ा-सा सन्तोष उभरा। फिर वे अपने मूड में आ गए, 'अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन की सरकारों ने अपने कुछ पूँजीवादी संस्थानों को बचाने के लिए थोड़ा-सा सरकारी रुपया लगा दिया, तो तुम पत्रकारों ने लिखना शुरू कर दिया कि यह तो मार्क्स की वापसी है। तुमने शायद ऐसा नहीं लिखा है, पर जो पत्रकार तुमसे अधिक मशहूर हैं, उनका तो यही कहना है! मैंने भी पत्रकारिता की है, अमेरिकी अखबार में की है। उन दिनों के पत्रकार तो इतने जाहिल नहीं हुआ करते थे। अब जैसे-जैसे साधन बढ़ रहे हैं, पत्रकारों को ज्यादा पैसा मिलने लगा है, वे सिर्फ साक्षर भर दिखाई देते हैं। मार्क्स की वापसी! हुँह! क्या सिर्फ सरकारीकरण से ही समाजवाद की ओर बढ़ा जा सकता है? मैं कम्युनिस्ट हूँ, न कि सरकारवादी। मेरी नजर में तो जहाँ भी सरकार है, वहाँ विषमता और अन्याय है। मेरे रास्ते पर चले होते, तो अभी तक सभी सरकारें खत्म हो जातीं और समाज सक्रिय हो जाता। समाज को कमजोर कर जब सरकार मजबूत होती है, तो वह और बड़ी डायन हो जाती है।'
मैंने अपनी बात करना जरूरी समझा, 'कॉमरेड, मेरे लिए तो आपकी वापसी का कोई अर्थ ही नहीं है, क्योंकि मेरा मानना है कि आप तो पहली बार भी नहीं आए थे। जो आया था, वह मार्क्स नहीं, उसके नाम पर कोई बहुरुपिया था।'
मार्क्स ने अपनी दाढ़ी खुजलाई, 'तुम ठीक कहते हो। मैं जिन्दा होता, तो कम्युनिस्ट कहे जाने वाले सोवियत संघ और लाल चीन की धज्जियाँ उड़ा देता। याद नहीं आ रहा कि मैंने कहीं लिखा है या नहीं, पर तुम मेरे नाम से नोट कर सकते हो कि शिष्य लोग ही अपने गुरु का नाम डुबोने में आगे रहते हैं। तुम्हारे गांधी के साथ क्या हुआ? मुझे उसके किसी ऐसे अनुयायी का नाम बता सकते हो जिसे देख कर उस विचित्र आदमी की याद आती हो? मेरे साथ भी यही हुआ। यही होना ही था। इसीलिए मैंने बहुत जोर दे कर कहा था, डाउट एव्रीथिंग (हर चीज पर शक करो)। मेरा नाम लेनेवालों ने यह तो किया नहीं, मेरे विचार को ही उलट दिया। उनका सिद्धान्त यह था, डाउट एव्रीबॉडी (हर आदमी पर शक करो)। खाली शक करने से कहीं इतिहास आगे बढ़ता है?'
मैं चुप रहा। अब इतनी नम्रता तो आ गई है कि बड़ों के सामने ज्यादा मुँह नहीं खोलना चाहिए। मार्क्स भी कुछ क्षणों तक खामोश रहे। फिर धीमे से बोले, 'और यह ओबामा! पता नहीं सारी दुनिया इस पर क्यों फिदा है! ठीक है, एक अर्ध-काले को अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया गया है। हाँ, उसे अर्ध-काला ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि उसकी माँ श्वेत थी। अगर उसके माँ-बाप दोनों ही काले होते, तो मुझे शक है कि वह चुना जाता। फिर वह ब्लैक राजनीति में भी कभी नहीं रहा। काला है, पर गोरों जैसी बातें करता है। कोई यह भी पूछना नहीं चाहता कि उसके विचार क्या हैं, वह अमेरिका को कैसे ठीक करेगा, अमेरिका को सभ्य राष्ट्र बनाने का उसका कार्यक्रम क्या है आदि-आदि। सब इसी बात से इतने खुश हैं कि ओबामा राष्ट्रपति बन गए। मैं निराशावादी तो नहीं हूँ, पर आशा के कारण भी दिखाई नहीं देते।'
मैं बोला, 'शायद आपने ही लिखा है कि पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार पूँजीवादियों की कार्य समिति होती है। इस लिहाज से रिपब्लिकन पार्टी को उसका उच्च सदन और डेमोक्रेटिक पार्टी को निम्न सदन कहना चाहिए। काफी दिनों के बाद हेरफेर हुआ है, तो खुशी क्यों न मनाई जाए?'
मार्क्स की आँखें धीरे-धीरे लाल हो रही थीं। वे बोले, 'मैं मनहूस आदमी नहीं हूँ कि कोई खुशी मनाए, तो मेरे पेट में दर्द शुरू हो जाए। जरूर खुशी मनाओ, पर जहाँ दस-बीस फुलझड़ियाँ ही काफी हों, वहाँ दिवाली मनाने का क्या तुक है? अनुपात का कुछ तो बोध होना चाहिए।'
तभी हमारे बगल में एक कार रुकी। उसके चालक की सीट से मेरे एक परिचित ने मुँह बाहर निकाला और पूछा, 'सर अकेले-अकेले किससे बात कर रहे हैं?' परिचय कराने के लिए मैंने मार्क्स की ओर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। मार्क्स हवा में विलीन हो चुके थे।