मार्गरिटा की सिनेमाई अंतरिक्ष उड़ान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 अप्रैल 2015
दशकों तक फिल्मों पर लिखने के बाद यह अहंकार हो जाता है कि किसी भी फिल्म का विवरण शब्दों में किया जा सकता है परंतु 'मार्गरिटा, विद ए स्ट्रॉ' अहंकार तोड़ देती है और आपको अपनी सीमाओं का एहसास होता है। यह फिल्म सिर्फ महसूस की जा सकती है। मार्गरिटा एक कॉकटेल है और इसे घूंट भरकर पिया जा सकता है तथा स्ट्रॉ से इसको सिप किया जा सकता है। बूंद दर बूंद इसका रस लिया जा सकता है। नायिका लैला ईश्वरी कमतरी की शिकार है और वह जिंदगी तथा प्रेम को बूंद-बूंद ही पी सकती है। बहुत कम फिल्मों के लिए इतना सार्थक नाम सोचा जा सकता है। फिल्मकार शोनाली बोस व कल्कि कोचलिन की यह प्रतिभा जुगलबंदी दिल में गूंजती रहती है। फोटोग्राफी का यह आलम है कि क्लोज अप में आप कल्कि के चेहरे के रुएं देख सकते हैं और उसकी दप-दप करती आंखें सारे अंधकार को भेद जाती है मानो हजार वाट्स के बल्ब हैं। कल्कि का अवर्णनीय अभिनय यक-ब-यक आपको जेनिफर केन्डल कपूर के '36 चौरंगी लेन' के अभिनय की याद ताजा कराती है। दोनों फिल्मों में सिर्फ इतनी समानता है कि यह अकेलेपन के गीत हैं और अगर एक महाकाव्य है तो दूसरा बेलॉड है। फिल्म के आखरी दृश्य में नायिका की मां की मृत्यु हो गई, उसका प्रेम प्रसंग टूट चुका है परंतु वह ब्यूटी पार्लर जाकर खूब सजती है तथा एक मित्र के फोन आने पर कहती है कि वह डेट पर जा रही है परंतु रेस्त्रां में वह अकेली अत्यंत प्रसन्नता से मार्गरिटा पीती है गोयाकि जीवन हर हाल में एक उत्सव है और गम का कोई बादल नहीं, जिसमें आनंद की चांदी की रेखा न हो। कमतरी की शिकार और हालात की मारी जीवन का उत्सव इस तरह मनाती है कि उसकी सकारात्मकता आपको हौसला देती है। अपनी मां से बेहद स्नेह करने वाली नायिका शोक सभा के मंत्रोच्चार में अपना संगीत सीडी बजाती है और फिल्म के प्ररांभिक दृश्यों में वह हकलाने वाली नायिका अपनी मां के आलाप के साथ सुर मिलाने की चेष्टा करती है और मां की मृत्यु के बाद वह सुर मिल जाता है मानो मां बेटी एक ही सुर से बंधे हैं। मां गंभीर चिकित्सा कक्ष में है और बेटी उसके सिरहाने बैठकर उसकी मां की भूमिका में आ जाती है। जीवन में ऐसा भी होता है कि भूमिकाओं में उलटफेर हो जाता है, बेटी मां की तरह और मां बेटी की तरह हो जाती है और ऐसे ही पिता-पुत्र की भूमिकाओं में भी अदला-बदली होती है। यह जीवन किसी तानाशाह का लौह जिरह-बख्तर नहीं है परंतु स्वतंत्र और विविध रसों और रिश्तों से भरा है। लोहे के कवच में शिकन आने पर वह टूट जाता है परंतु मनुष्य का जीवन बिस्तर पर बिछी चादर है, जिसकी हर शिकन उसके जीवन से भरे होने और रिश्तों के मिलन की दास्तां कहती है।
शारीरिक कमतरी से मन के पंछी के पर नहीं कटते, वरन् वह और ऊंची उड़ान भरने को तत्पर हो जाता है। नायिका अपनी एक चूक को अकेलेपन की सपाटता से जोड़कर उसे बेवफाई के मिथ्या आरोप से मुक्त करती है। इस फिल्म में कविता जैसे अनेक दृश्य हैं। मसलन, प्रारंभिक दृश्यों में मां अपनी जवान परंतु लाचार बेटी को स्नान कराती है और वही बेटी जब अपनी निजता की बात करती है तो मां अपनी बेटी में एक अपरिचित को पाती है और बाद में बीमार तथा लाचार मां को बेटी नहलाती है तथा इसी क्षण एक नाजुक रिश्ता वस्त्रविहीन होता है। मनुष्य के निर्वस्त्र होने पर बड़ी सामाजिक व सेंसर की बंदिशें हैं। परंतु रिश्तों के नग्न सत्य से हम अधिक भयभीत हो जाते हैं और इसी भय को जाने कैसे हमने वस्त्र से जोड़ लिया है और सांप निकल जाने पर लाठी पीटते रहते हैं - समाज के सारे टेबू और बंदिशें इसी तरह की हैं।
इस फिल्म की मां मराठी भाषी है और पिता सिख है तथा हर बार भोजन करते समय घासफूंस खाने पर एतराज जताता है जबकि सचाई यह है कि उसे अपनी पत्नी से इतना प्यार है कि वह कुछ भी पकाएं उसे स्वादिष्ट ही लगता है। प्रेम सारे स्वाद और रंग बदल देता है। हमारी सरकारों के खाने-पीने पर प्रतिबंध दरअसल प्रेम का विरोध है। प्रेम प्रकाश है, स्वतंत्रता है, निर्मल आनंद है। रेवती ने मां की भूमिका को पुन: परिभाषित किया है और बेटी की भूमिका में कल्कि कोलचिन को दिया हर पुरसकार स्वयं गौरवान्वित होगा।