मार्च का महीना बरसे माताओं के नयना / जयप्रकाश चौकसे

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मार्च का महीना बरसे माताओं के नयना
प्रकाशन तिथि :14 मार्च 2016


मार्च परीक्षा का महीना है और माताएं बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करने के लिए रातभर जागती हैं, उन्हें समय-समय पर चाय-कॉफी बनाकर देती हैं। इस तरह ये माताओं के लिए दोहरे काम का महीना है। घोर-गृहस्थी के काम के साथ यह 'जागते रहो' जपने का महीना भी है। फरवरी में ही वक्त-बेवक्त नाश्ते का बंदोबस्त किया जाता है। बादाम पानी में डुबाकर रखती हैं, सुबह बच्चों को इस उम्मीद से खिलाती है कि यह दिमाग के लिए विटामिन है। यह माताओं के वजन घटने का महीना है? प्राय: कुछ मित्र किसी एक के घर ही सारी रात पढ़ते हैं, अत: माताओं की जवाबदारी बढ़ जाती है। मार्च के महीने में पिता के दायित्व माता से कम होते हैं परंतु परीक्षा फल का तनाव उन्हें भी होता है। 'राग दरबारी' में कहा गया है कि हमारी शिक्षा प्रणाली सड़क पर घूमते लावारिस कुत्ते की तरह है, जिसे हर राहगीर ठोकर मारता है परंतु उसके सुधार का प्रयास कोई नहीं करता। इस तरह का छाती-कूट हर वर्ष होता है। हमारे कुछ मातम मौसमी है, कुछ बाहरमासी हैं। इस तरह का छाती-कूट राष्ट्रीय रियाज़ है, जिसका सिलसिला कभी थमता नहीं है और हालात कभी बदलते नहीं। निर्मम शिक्षा प्रणाली अौर बेजान पाठ्यक्रम युवा ऊर्जा को लील जाते हैं।

स्वतंत्रता के बाद पहले दशक में 'जागृति' जैसी कुछ फिल्में बनी हैं। कुछ अंतराल के बाद विनोद खन्ना और तनूजा अभिनीत 'इम्तहान' भी कॉलेज शिक्षा पर अनुभूति की गहराई से बनाई फिल्म थी, जिसके एक गीत की पंक्तियां आज भी ज़ेहन में गूंजती है। राहों के दिए आंखों में लिए, ओ राही तू चलता चल।' भारतीय सिनेमा में कॉलेज परिसर प्राय: प्रेम कहानियों को प्रेरित करता रहा है। तपन सिन्हा के 'अपन जन' का हिंदी संस्करण गुलजार ने 'मेरे अपने' के नाम से मीनाकुमारी को केंद्रीय पात्र रखकर बनाया है कि किस तरह एक वृद्धा युवकों में फैली हिंसा को समाप्त करती है। छात्र संघ चुनावी हिंसा पर कुछ फिल्में राम गोपाल वर्मा ने भी बनाई। रमेश बहल की 'कस्मे वादे' में कॉलेज परिसर को केंद्र में रखा गया है। इस क्षेत्र में भी हॉलीवुड हमसे बहुत आगे रहा है। एक फिल्म में अमीरजादे के लिए रचे शिक्षा संस्थान का जागरूक शिक्षक रात के अंधेरे में पड़ोस की नीग्रो बस्ती के गरीब छात्रों को अपनी संस्था की प्रयोगशाला का उपयोग करते देता है और नौकरी से निकाले जाने पर गरीब छात्रों की शिक्षा की मुहीम में जुट जाता है। आज नेहरू विश्वविद्यालय के कन्हैया लाइम लाइट में हैं। भारतीय समाज में परिवर्तन की आशा छात्रों पर टिकी है परंतु हमारे यहां सारे आंदोलन मूल उद्‌देश्य से भटक जाते हैं। कन्हैया को शीघ्र ही बाजार की ताकतें प्रोडक्ट में बदल देंगी और इसका प्रारंभ उसे विज्ञापन फिल्म में लेकर किया जा सकता है। जयप्रकाश नारायण के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जन्मे कुछ नेताओं का हश्र हम देख चुके हैं। यह कितनी अजीब बात है कि जिसका विरोध करने के लिए आंदोलन किया गया, उसी के पालनहार हो जाते हैं वे ही नेता। यह भारतीय राजनीति की अजब-गजब रसायनशाला में गढ़ा गया अजूबा है। यह रसायनशाला काजल की कोठरी बन जाती है। यहां से सभी दागदार निकलते हैं। 'महाभारत' के लोकप्रिय संस्करणों में कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं सम्मिलित नहीं हैं और उस महान ग्रंथ की व्याख्या पूरी तरह संभव नहीं है। गुरु द्रोणाचार्य पांडवों और कौरवों को लेकर वन में जाते हैं और छात्रों के परिश्रम में अपने आश्रम की रचना करते हैं तथा शिक्षा पर्व पूरा होने पर वे उन्हें आदेश देते हैं कि आश्रम को जला दो। दुर्योधन संपत्ति नाश का विरोध करते हैं परंतु पांडव गुरु द्रोणाचार्य अपने छात्रों को संपत्ति से मोह नहीं करने का पाठ इस तरह पढ़ाना चाहते थे और इस परीक्षा में भी पांडव ही सफल हुए। संपत्ति व सिंहासन का मोह ही कौरवों को ले डूबा।

आज भारत में शिक्षा सबसे अधिक धन कमाने वाले व्यवसाय के रूप में बदल चुकी है। व्यवसाय के फैलते दायरों में शिक्षा का मूल उद्‌देश्य ही गौण हो गया है। अब ये संस्थान सफलता गढ़ते हैं और गुणवत्ता या अच्छे नागरिक बनाने के उद्‌देश्य को पूरी तरह अनदेखा कर चुके हैं। अब शिक्षा की फैक्ट्री की चिमनियों से धुआं नहीं निकलता, डिग्री का शस्त्र लेकर लुटेरे निकलते हैं।