मार्च के महीने की सरकारी होली / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 30 मार्च 2013
इस वर्ष होली मार्च के अंतिम दिनों में आई, परंतु मार्च के अंतिम दिन सरकारी होली के दिन इस मायने में हैं कि किसी मद में स्वीकृत धनराशि 31 मार्च तक उपयोग में नहीं लाई जाती है, तो उसे 'फंड लेप्स' होना कहते हैं। अत: इन अंतिम दिनों में बहुत-सी धनराशि खर्च के लिए स्वीकृत की जाती है और यह काम युद्ध स्तर पर ताबड़तोड़ किया जाता है। इन दिनों बैंक की छुट्टियां भी रद्द की जाती हैं, क्योंकि यह वित्तीय दृष्टि से वर्षांत माना जाता है। एक अप्रैल से 31 मार्च वित्तीय वर्ष माना जाता है। इन दिनों सरकारी दफ्तरों में बड़ी सरगर्मी रहती है। गलियारों में चपरासी और मिडिल मैन दौड़-भाग करते नजर आते हैं। इतनी सक्रियता आपको वर्षभर देखने को नहीं मिलती। प्राइवेट दफ्तर और कॉर्पोरेट दफ्तरों में भी यह खूब सक्रियता का समय है। आयकर के कागज जमा करने की सरगर्मी भी रहती है और बैंकों में एकाउंट साफ करने के लिए अनेक ट्रांसफर होते हैं।
अगर फंड लेप्स हो जाने की सूची जारी हो तो हम देख सकते हैं कि सरकारी दफ्तरों में कैसे काम होता है। मंत्रियों की सुस्ती भी इससे उजागर होती है। कुंभकर्णी सरकारी तंत्र के जागने की बेला है मार्च के अंतिम दिन। अप्रैल कुछ उमस के कारण और कुछ मार्च महीने में किए गए परिश्रम के कारण ऊंघने का अवसर है। थकान मिटाने और गम गलत करने का मौसम है। जाने क्या सोचकर टी.एस. इलियट ने लिखा था कि अप्रैल क्रूरतम मास है, जब लिली लहूलुहान होती है। बच्चों के लिए मार्च और अप्रैल इम्तिहान के महीने हैं। सालभर की मस्ती चकनाचूर होने का समय है। आजकल के स्कूल और पाठ्यक्रम कुछ ऐसे हैं कि बच्चों से अधिक मां-बाप के परिश्रम का समय है। इन्हीं दिनों बच्चों को अपनी पढ़ी-लिखी दादी बहुत याद आती है और मुश्किल सवालों के हल खोजने के लिए दादी-दादी कहते वे नहीं अघाते और दादी को भी अपने स्कूल के दिनों का स्मरण हो आता है। नानी याद आना तो यूं भी कष्ट के समय के वर्णन के लिए कहा जाता है।
आजकल स्कूलों में बच्चे जन्मदिन मनाने के लिए प्राय: अपने मित्रों को मॉल में निमंत्रित करते हैं और माता-पिता का काम और खर्च बढ़ जाता है। इस प्रथा के कारण हर वर्ष कम से कम चालीस दिन जंक फूड अधिकृत रूप से खाया जाता है। जिस जंक फूड को खाने से शरीर में व्याधियां हो सकती हैं, उनके उपभोग को एक प्रथा का हिस्सा बना दिया गया है और इन फैशनेबल स्कूलों में कुछ ऐसा वातावरण है कि गरीब बालक ही जन्मदिन की दावत में घर का खाना खिलाता है अर्थात पौष्टिकता को स्टेटस के नाम पर शहीद कर दिया जाता है। इन्हीं महंगी फीस वाले स्कूलों के बालक बड़ी ललक से पूछते हैं कि तेरा 'हैप्पी बर्थ डे' कब है। महानगरों में बच्चों के जन्मदिन को धूमधाम से आयोजित करने में कुछ संस्थाएं महारत हासिल कर लेती हैं और अच्छा व्यवसाय विकसित हो जाता है। कोई बीस वर्ष पूर्व हमने 'वेडिंग प्लानर' नाम नहीं सुना था, परंतु अब तो इस फलते-फूलते व्यवसाय पर आदित्य चोपड़ा ने हबीब फैजल की लिखी मजेदार 'बैंड, बाजा, बारात' नामक फिल्म भी बनाई थी और उसकी नायिका अनुष्का शर्मा पर उस भूमिका का ऐसा रंग जमा है कि हर फिल्म में वह अपनी अदाओं को दोहराने लगी हैं। प्राय: सफल सितारे चंद बरस की कामयाबी के बाद अपनी अदाओं के दोहराव के शिकार होते हैं और कैरेक्टर से कैरीकेचर बनने में समय लगता है, परंतु फास्ट फूड के दौर में अनुष्का ने यह काम जल्दी कर दिया और 'कॅरिअर के ओवन' से निकलते-निकलते ही अदाएं बासी हो गईं।
यह दौर पकने से पहले बिकने का दौर है और आई.आई.टी. संस्थाओं में डिग्री मिलने के पहले नौकरी पक्की हो जाती है। अगर सरकारी योजनाओं की स्वीकृति और उन पर खर्च पैसे के रिकॉर्ड को यथार्थ में हुए कामों से मिलाकर देखें तो बहुत बड़ा झोल नजर आता है। कागज पर विकसित क्षेत्र में चंद महीनों में करीब डेढ़ सौ किसान आत्महत्या करते हैं और कुपोषण से हुई मौतों के आंकड़े मालूम ही नहीं पड़ते। जिस विकास के मॉडल में ही समानता की अवहेलना की गई हो, उसमें आप न्याय देखने की उम्मीदकैसे कर सकते हैं? हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना में नए कलेक्टर को सारा ब्योरा देते हुए ट्रांसफर हुआ कलेक्टर समझाता है कि जिस तालाब की खुदाई की रकम वह खा गया है, उसी तालाब के पानी के जहरीले होने और मवेशियों के मर जाने का हवाला देकर उसे पाटने का आवेदन स्वीकृत हो चुका है और मार्च के अंत में धन आते ही तुम उस अदृश्य तालाब को पाट सकते हो। उस शहर के अधिकारी अपने आपको कोसते हैं, जो नदी के किनारे नहीं बसा है वरन् हर वर्ष बाढ़ की हानि से लाखों के वारे-न्यारे हो जाते। ग्रामीण क्षेत्र में जितने नलकूप खोदे गए हैं, उनकी संख्या तारों के बराबर है, परंतु क्षेत्र के लोग प्यास से मर रहे हैं। इन क्षेत्रों में तो हम 'गदर' के नायक को भी नहीं भेज सकते, वह क्या उखाड़कर दुश्मन को मारेगा और यह संभव है कि 'गदर' फिल्म का हैंडपंप दिखाकर पाकिस्तान का कोई कलेक्टर इस्लामाबाद से फंड पा जाए। दोनों ही मुल्कों में अंदाजे भ्रष्टाचार एक-सा है।