मार्ली साहबके नाम / बालमुकुंद गुप्त
"निश्चित विषय।”
विज्ञवरेषु, साधुवरेषु!
बहुत काल पश्चात आपसा पुरुष भाग्यका विधाता हुआ है। एक पंडित, विचारवान और आडम्बररहित सज्जनको अपना अफसर होते देखकर अपने भाग्यको अचल अटल और कभी टससे मस न होनेवाला, वरंच आपके कथनानुसार 'Settled fact' समझनेपर भी आडम्बर शून्य भोलेभाले भारतवासी हर्षित हुए थे। वह इसलिये हर्षित नहीं हुए कि आप उनके भाग्यकी कुछ मरम्मत कर सकते हैं। ऐसी आशाको वह कभीके जलांजलि, दे चुके हैं। उनका हर्ष केवल इसलिये था कि एक सज्जनको, एक साधुको, यह पद मिलता है। भलेका पड़ोस भी भला, उसकी हवा भी भली। "जो गन्धी कछु दै नहीं, तौहू बास सुबास।”
आप उपाधिशून्य हैं। आपको माई लार्ड कहके सम्बोधन करनेकी जरूरत नहीं है। अथच आप इस देशके माई लार्डके भी माई लार्ड हैं। यहां के निवासी सदासे ऋषि मुनियों और साधु महात्माओंको पूजते आये हैं और यहांके देशपति नरपति लोग सदा उन साधु महात्माओंके सामने सिर झुकाते और उनसे अनुशासन पाते रहे हैं। उसी विचारसे यहांके लोग आपके नियोगसे प्रसन्न हुए थे। एक विचारशील पुरुषका सिद्धान्त है कि किसी देशका उत्तम शासन होनेके लिये दो बातोंमेंसे किसी एकका होना अति आवश्यक है - या तो शासक साधु बन जाय या साधु शासक नियत किया जाय। हाकिम हकीम हो जाय या हकीम हाकिम बनाया जाय। इसीसे आपको भारतका देशमन्त्री देखकर यहांकी प्रजाको हर्ष हुआ था कि अहा! बहुत दिन पीछे एक साधु पुरुष - एक विद्वान सज्जन भारतका सर्व प्रधान शासक होता है। भारतवासी समझते थे कि मिस्टर मार्ली विद्वान हैं। विद्या पढ़ने और दर्शन-शास्त्रका मनन करनेमें समय बिताकर वह बूढ़े हुए हैं। वह तत्काल जान सकते हैं कि बुराई क्या है और भलाई क्या, नेकी क्या है और बदी क्या? उनको बुराई और भलाईके समझनेमें दूसरेकी सहायताकी आवश्यकता नहीं। वरंच वह स्वयं इतने योग्य हैं कि अपनीही बुद्धिसे ऐसी बातोंकी यथार्थ जांच कर सकते हैं। दूसरोंके चरित्रको झट जान सकते हैं। वह दोषीको धमकायेंगे और उसे सुमार्गमें चलानेका उपदेश देंगे। भारतवासियोंका विचार था कि आप बड़े न्यायप्रिय हैं। किसीसे जरा भी किसी विषयमें अन्याय करना पसन्द न करेंगे और खुशीको नेकीसे बढ़कर न समझेंगे। उचित कामोंके करनेमें कभी कदम पीछे न हटावेंगे और कोई लालच, कोई इनाम और कोई भारीसे भारी पद वा राजनीतिक दांवपेच आपको सत्य और सन्मार्गसे न डिगा सकेगा। आपके मुंहसे जो शब्द निकलेंगे, वह तुले हुए सत्य होंगे। यही कारण है कि भारतवासी आपके नियोगकी खबर सुनकर खुश हुए थे। पार्लीमेंटके चुनावके समय जिस प्रकार भारतवासी आपके चुनावकी ओर टकटकी लगाये हुए थे, आपके भारत सचिव हो जानेपर उसी प्रकार वह आपके मुंहकी वाणी सुननेको उत्सुक हुए। पर आपके मुंहसे जो कुछ सुना उसे सुनकर वह लोग जैसे हक्का बक्का हुए ऐसे कभी न हुए थे। आपने कहा कि बंग भंग होना बहुत खराब काम है, क्योंकि यह अधिकांश प्रजावर्गकी इच्छाके विरुद्ध हुआ। पर जो हो गया उसे Settled fact, निश्चित विषय समझना चाहिए। एक विद्वान पुरुष दार्शनिक सज्जनकी यह उक्ति कि यह काम यद्यपि खराब हुआ, तथापि अब यही अटल रहेगा। इसकी खराबी अब दूर न होगी। किमाश्चर्यमतः परम।
लड़कपनमें एक देहातीकी कहानी पढ़ी थी जिसका गधा खोया गया था और वह एक दूसरेकी गधीको अपना गधा बताकर पकड़ ले जाना चाहता था। पर जब उसे लोगोंने कहा कि यार! तू तो अपना गधा बताता है, देख यह गधी है; तो उसने घबराकर कहा था कि मेरा गधा कुछ ऐसा गधा भी न था। गंवारका गधा गधी हो सकता है, पर भारतसचिव दार्शनिकप्रवर मार्ली साहब जिस कामको बुरा बताते हैं, वही 'निश्चित विषय' भी हो सकता है, यह बात भारतवासियोंने कभी स्वप्नमें भी नहीं विचारीथी। जिस कामको आप खराब बताते हैं, उसे वैसेका वैसा बना रखना चाहते हैं, यह नये तरीकेका न्याय है। अब तक लोग यही समझते थे कि विचारवान विवेकी पुरुष जहां जायेंगे वहीं विचार और विवेकी मर्यादाकी रक्षा करेंगे। वह यदि राजनीतिमें हाथ डालेंगे तो उसकी जटिलताको भी दूर कर देंगे। पर बात उल्टी देखनेमें आती है। राजनीति बड़े-बड़े सत्यवादी साहसी विद्वानोंको भी गधा गधी एक बतलानेवालोंके बराबर कर देती है। विज्ञवर! आप समझते हैं और आप जैसे विद्वानोंको समझना चाहिये कि सत्य सत्य है और मिथ्या मिथ्या। मिथ्या और सत्य गड़प शड़प होकर एक हो सकते हैं, यह आप जैसे साधु पुरुषोंके कहनेकी बात नहीं है। विज्ञ पुरुषोंके कहनेकी बात नहीं है। विज्ञ पुरुषोंकी बातोंको आपसमें टकराना न चाहिये। पर गत बजटकी स्पीचमें आपने बातोंके मेढ़े लड़ा डाले हैं। आपने कहा है - "जहां तक मेरी कल्पना जा सकती है, भारत शासन यथेच्छ ढंगका रहेगा।” पर यह भी कहा है - "भारतमें किसी प्रकारकी बुरी चाल चलना हमें उससे भी अधिक खराबीमें डालेगा,जितना दक्षिण अफ्रीकामें चार साल पहले एक बुरी चाल चलकर खराबीमें पड़ चुके है।”
आपने कहा है - "हिन्दुस्थानी कांग्रेसकी कामनाओं को सुनकर मैं घबराता नहीं।” पर यह भी कहा - "जो बातें विलायतको प्राप्त हैं, वह भारतको सब नहीं प्राप्त हो सकतीं।” आपकी इन दोरंगी बातोंसे भारतवासी बड़े घबराहटमें पड़े हैं। घबराकर उन्हें आपके देशकी दो कहावतोंका आश्रय लेना पड़ता है कि - राजनीतिज्ञ पुरुष युक्ति या न्यायके पाबन्द नहीं होते अथवा राजनीतिका कुछ ठिकाना नहीं।
आपको अपनेही एक वाक्यकी ओर ध्यान देना चाहिये - "अपनी साधारण योग्यताके परिणामसेही कोई आदमी प्रसिद्ध या बड़ा नहीं हो सकता। वरंच उचित समयपर उचित काम करनाही उसे बड़ा बनाता है।” जिस पदपर आप हैं - उसकी जो कुछ इज्जत है, वह आपकी नहीं, उस पदकी है। लार्ड जार्ज हमिल्टन और मिस्टर ब्राडरिक भी इसी पदपर थे। पर इस पदसे उनकी इतनीही इज्जत थी कि वह इस पदपर थे। बाकी उनके कामोंके अनुसारही उनकी इज्जत है। आपका गौरव इस पदसे नहीं बढ़ना चाहिए। वरंच आपके कामोंसे इस पदकी कुछ मर्यादा बढ़नी चाहिये।
भारतवासियोंने बहुत कुछ देखा और देख रहे हैं। इस देशके ऋषि-मुनि जब बनोंमें जाकर तप करते थे और यहांके नरेश उनकी आज्ञासे प्रजापालन करते थे, वह समय भी देखा। फिर मुसलमान इस देशके राजा हुए और पुराना क्रम मिट गया, वह भी देखा। अब देख रहे हैं, सात समुद्र पारसे आई हुई एक जातिके लोग जो पहले बिसातीके रूपमें इस देशमें आये थे और छल बल और कौशलसे यहांके प्रभु बन गये। यह देश और यहांकी स्वाधीनता उनकी मुठ्ठीकी चिड़िया बन गई। और भी न जाने क्या क्या देखना पड़ेगा। पर संसारकी कोई बात निश्चित है, यह बात यहांके लोगोंकी समझमें नहीं आती। निश्चित ही होती तो लार्ड जार्ज हमिल्टन और ब्राडरिककी गद्दी साधुवर मार्ली तक कैसे पहुंचती। न बंगभंग ही निश्चित विषय है और न भारतका यथेच्छ शासन। स्थिरता न प्रभातको है और न सन्ध्याको। सदा न वसन्त रहता है, न ग्रीष्म। हां, एक बात अब भारतवासियोंके जीमें भली भांति पक्की होती जाती है कि उनका भला न कन्सरवेटिवही कर सकते हैं और न लिबरलही। यदि उनका कुछ भला होना है तो उन्हींके हाथसे। इसे यदि विज्ञवर मार्ली "निश्चित-विषय" मान लें तो विशेष हानि नहीं। अत: भारतवासियों का भला या बुरा जो होना है सो होगा, इसकी उन्हें कुछ परवा नहीं है। उन्हें ईश्वरपर विश्वास है और काल अनन्त है, कभी न कभी भलेका भी समय आजायगा। भारतवासियोंको चिन्ता केवल यही है कि उनके देशसचिव साधुवर मार्ली साहबको अपनी चिरकालसे एकत्र की हुई कीर्ति और सुयशको अपने वर्तमान पदपर कुरबान न करना पड़े। इस देशका एक बहुतही साधारण कवि कहता है -
झूठा है वह हकीम जो लालचसे मालके,
अच्छा कहे मरीजके हाले तबाहको।
अपने लालच के लिये यदि रोगी की बुरी दशाको अच्छा बतावे तो वह हकीम नहीं कहला सकता। भारतवासी आप को दार्शनिक और हकीम समझते हैं। उनको कभी यह विश्वास नहीं कि आप अपने पदके लोभसे न्यायनीति की मर्यादा भंग कर सकते हैं या अपने दलकी बुराई भलाई और कमजोरी मजबूतीके खयालसे भारतके शासन रूपी रोगीकी बिगड़ी दशाको अच्छी बता सकते हैं। आपहीके देशका एक साधु पुरुष कह गया है - "आयर्लेण्ड की स्वाधीनता मेरे जीवनका व्रत है, पर इस स्वाधीनता पानेके लोभसे भी मैं दक्षिण अफरीकावालोंकी स्वाधीनता छिनवानेका समर्थन कभी न करूंगा।" अतः आपसे बार बार यही विनय है कि अपने साधु पदकी मर्यादाका खूब विचार रखिये। भारतवासियों को अपनी दशाकी परवा नहीं। पर आपकी इज्जतका उन्हें बड़ा खयाल है। कहीं आप राजनीतिक पदके लोभसे अपने साधुपदको उस देहाती का गधा न बना बैठें।
अपने सिर का तो हमें कुछ गम नहीं,
खम न पड़ जाये तेरी तलवार में।
['भारतमित्र', 16 फरवरी, 1907 ई.]