मालकिन / राजा सिंह
बिजली नहीं आ रही थी। कमरे में गर्मी, उमस और पसीने से प्रताड़ित वह छत पर निकल आया, साथ में दो कुर्सियाँ और एक मेज थी। उसे लगा कि इस समय जाती धूप में वहाँ कोई नहीं होगा?
पर वे थीं। ममटी की दीवाल से सटी खड़ी।
“कोई ख़ास अंतर नहीं है छत और नीचे !” एक छोटे से रुमाल में अपना पसीना पोंछते हुए कहा और कुर्सी पर निढाल होकर बैठी गईं। वह विस्मय से भर गया। निहायत सम्हल कर, सिकुड़ कर बैठ गया। वह बिल्कुल उसके सामने थी। उसने उनके कहे पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
वह एक ऐसी स्त्री थीं जो अपनी रूटीनलाइफ से उदासीन बन जाती है और कुछ नयापन खोजती है।
कुछ ही क्षण बीतें थे कि वह उसे कौतूहल और अजीब निगाहों से देखने लगी। फिर अस्फुट शब्दों में बोली, “माफ कीजिएगा, आप मेरे घर में जुटे कुत्ते, जानवरों को भगा देते है और छत में रखे पक्षियों के दाना-पानी में भी व्यवधान डालते है...
क्या यह उचित है? कुछ दया ममता है आपमें?
“नहीं ऐसा नहीं है...! कुछ ग़लतफहमी है आपको। वह तो मैं घर की साफ़ सफ़ाई और आपको अनावश्यक ख़तरों से बचाने के हेतु करता हूँ।” उसने सफ़ाई दी।
उसे याद आया कि रोज़ सुबह वह ख़ुद एक बड़े कठौते में दूध-रोटी गेट पर रखती थी। गली मोहल्ले के दो चार आवारा कुत्ते आ जुटते थे, खाने के लिए. बगल में सिमेन्ट की नांद थी पानी भरी, गाय अन्य जानवरों के पीने के लिए. शाम से छत पर बड़े से फैले सकोरों पर अन्न-दाना और पानी पंछियों के लिए. छत वाले बर्तनों को कभी खाली नहीं देखा। यह उनका नित्य का कार्य था, जो कभी कभी उसकी भी नज़र में आ जाता था।
एक बार उसने लड़ते-झगड़ते, भौकते कुत्तों को भगा दिया था। लेकिन वे उस समय वे खा नहीं रहे थे। शायद प्रतीक्षारत थे। किन्तु उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने आग्नेय नेत्रों से उसे घूरा और दुष्ट-सा कुछ धीमे से कहा... गार्ड को उन्हें फिर बुलाने को भेजा था। वह खिसियाया और वह पिटा-सा चला गया। तब गोयल साहब थे।
“रहने दीजिए. यह ग़लत है, निरीह जीव-जानवरों को परेशान करना।” उन्होंने भाव भंगिमा इस तरह बना ली थी कि वह कांप गया। उसने घबराकर आँखें फेर ली।
“जी !” यह बेआवाज थी? उसे अपने पर संदेह हुआ कि उसी के भीतर से निकली आवाज़ है। जो शब्दों का रूप नहीं ले सकी है। उसने नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़ लिए. उनमें आश्वस्त का भाव उमड़ा। फिर वह शायद हंसी थीं, स्नेह से परिपूर्ण एवं सूखी हंसी बिना आवाज़ के. मॉर्निंग वाक पर हमेशा वह उन्हें देखता है,जो साधारण पहनावे पर भी, इस उम्र में भी आकर्षक दिखती हैं।
उसने साहस बटोर के सीधी आँखों से उनकी तरफ़ देखा, एक संतुष्ट निर्लिप्त सुंदर चेहरा। जैसे झिड़क कर उसे विपत्ति से बचा लिया हो। फिर वह रुकी नहीं जैसे इसी बात के लिए आई हो?
लैंड्लाइन फ़ोन की कर्कश ध्वनि लगातार बेरहम रह-रह कर चीख रही थी, किन्तु उसकी सुध लेने वाला नदारत था। वे कहाँ है... होगी... ? एक अजीब-सी ऊहापोह में बैठा, वह उसे झेल रहा था। विचलित हो रहा था। पता नहीं कितनी देर तक वह इसी तरह चीखती रहती यदि वह उतर कर चोगा उठा ना लेता।
दूसरी तरफ़ पूना से उनका छोटा बेटा शिवा था।
‘मैडम, शिवा का फ़ोन ?’ उसने कुछ तेज आवाज़ में कहा। किन्तु उसकी आवाज़ भी प्रति- उत्तर के बगैर लौट आई. फ़ोन की घंटी के बाद उसकी गुहार सुनने वाला भी कोई नहीं था।
क्या उन्हें मालूम था? या नहीं मालूम है ? वहाँ सारे कमरों में उन्हें तलाशता है। किन्तु वह कहीं नहीं मिलती।
“यहाँ आओ... !” दूर से आती एकदम ठंडी-सी आवाज। जैसे किसी गहरे कुएँ से आ रही हो।
वह आवाज़ का पीछा करता मंत्रमुग्ध-सा चला जा रहा था। उनकी आवाज़ का पीछा करना इतना जटिल और दुरूह होगा, उसे मालूम ना था।
आँगन से परे वह हाल कमरे में थीं। दिखने से पहले उसे गंध ने खीचा... गंध, वह हर जगह थी। चारों कोनों से उसकी ओर लपकती हुई, कसैली गुनगुनी और बासी.
एक काली रंग की चौकी पर गेरुवे कपड़े के ऊपर काली, दुर्गा रूप की एक-एक पीतल की मूर्ति थी और उसके अगल बगल दो मोमबत्तियों का प्रकाश सहमता हुआ बिखर रहा था। चौकी के पीछे गोयल साहब की एक बड़ी-सी फोटो थी, कांच से जड़ी। धूप बत्ती और अगर बत्ती ढेर सारी सुलग रहीं थी और उनका धुआँ पूरे हाल कमरे में छाया हुआ था। उस धुँधलाती आलोक में उसने हाल की ऊपरी तरफ, दीवारों पर कई आदम कद तशवीरें टंगी थी, विभिन्न देवी देवताओं की। वे आरती वाले दिया से देवी माँ की आरती कर रही थी। उनकी आँखे बंद थी किन्तु होंठ हिल रहे थे जिनसे मंत्रों की बुदबुदाहट निकल रही थी। जिन्हें सुन पाना कठिन था।
फिर वह दिखी। फैलते, मॅडरातें धुएँ के बहुत ही धीमे मध्यम आलोक में, पीठ की तरफ़ से। वह गेरुवे रंग के पेटीकोट-ब्लाउज में थीं जिस पर उनके काले गहराते बाल छितराए हुए गीले थे। उसे लगा कि वह बेताब इशारे से उसे भीतर बुला रही हैं। एक बियाबान बुलावा था। उनकी आवाज़ नहीं आ रही थी बल्कि बाये हाथ उलटे पंजे के इशारे से। दाएँ हाथ से आरती अनवरत गति से चल रही थी। भीतर से छनती महीन प्रकाश की हलकी-सी आभास देती कमजोर रोशनी और आँगन में डर एवं भय के बीच, कुछ देर वह सुन्न-सा खड़ा रहा।
वह उनके पास चला आया। वह पास आया तो एक लंबा सफेद चेहरा दिखाई दिया, अटल तल्लीन समय के दुख और विषाद से सर्वथा मुक्त और मुंह से बुदबुदाते अस्पष्ट मंत्रों के स्वर। उन्होंने उसे इशारे से ही पास बैठाया।
उसमें एक अजीब तनाव खिंचाव और डर था।
उन्होंने जैसे उसके डर को भांप लिया। वह चुप बैठी रही। पहली बार उनके उदासीन निस्पंद चेहरे पर कालिमा छाई थी। सिर हिलाया और निर्लिप्त कठोर ठंडे स्वर में बोली, ”हम सुबह आठ से दस तक पूजा में रहते है। पूजा-समय हम किसी तरह का व्यवधान नहीं चाहते, करते है... यह सबकों पता है... ।भविष्य में!”
वह वही फ़ोन के विषय में कुछ कहने के लिए उनकी तरफ़ झुक ही रहा था कि उसे अपने पर हल्का-सा स्पर्श महसूस हुआ। उन्होंने अपना हाथ उसके सिर पर रख दिया था। वह दम रोके बैठा रहा। उनका हाथ उनके सिर पर हिचकता, सिहरता, सहलाता थमा-शांत और ठंडा, एकदम मृत्यु की तरह। उसकी छूँवन से भयभीत दिल उछल कर गिर पड़ने को आतुर था।
एक अजीब-सी अकुलाहट में फुसफुसाहट में ही सही, कुछ कहना चाह रहा था किन्तु उनकी अटल तल्लीन समय के सुख दुख से परे और विषाद से सर्वथा मुक्त चेहरे को देख कर हताश-सा सिर्फ़ यह कह सका, ”जी हाँ...!” उसने सिर हिलाया।
वह समझने की कोशिश करता है कि वह पहले भी ऐसी थी कि अब गोयल साहब के जाने के बाद? वे अभी यहाँ है। कौन कह सकता है कि अगले पल वह कहाँ होगी... शायद उन्हें भी नहीं...? वे बूढ़ी है कहना मुश्किल है? विगत कई सालों से उन्होंने कद काठी एवं चेहरे मोहरे को बाँध कर रखा था। वे सिर्फ़ होती थी अपनी सपाट मुद्रा में...स्नेह, अपनापा, क्रूरता, डर ये सब उनके चेहरे पर नदारत रहते थे।
वह वैसे ही शांत निश्चल अपने कृत्य में संलग्न दिखी जैसे वह पहले थीं। जबरन मुंह से निकलते शब्द जो कुएँ की अतल गहराई से निकल रहे थे। शायद यह वह क्षण था जब उसे चले जाना चाहिए था। शायद वह भी यही चाहती थीं, किन्तु वह कहना नहीं चाहती थीं। वह उस समय और बाद में भी यह निर्णय नहीं कर पाया की वह तांत्रिक है या अकेली, ऐकांतिक निरुपाय स्त्री, जो असमय पति की मृत्यु से उबरना चाहती है। उन्हें यह भ्रम सदैव घेरे रहता था कि गोयल साहब यही कहीं है!
नवम्बर की लौटती धूप घास पर छितराई पड़ी थी। छोटे छोटे नीबू, अमरूद, अशोक के पेड़ और फेन्स की झड़ियाँ उदासी से सराबोर थे। गेट से लेकर घर के प्रवेश द्वार तक छै फुट बजरी की सड़क पर बेतरतीब फूल-पत्तियाँ बिखरे पड़े थे।
घर के बाहर भीतर एक अजीब-सा सन्नाटा व्याप्त था। वह कंपनी के उत्पाद बेचने गया था। दूसरे शहर से, अभी घर में दाखिल हुआ था। सहसा उसे अपने भीतर एक गहरी थकान महसूस हुई.
जब गोयल साहब थे, वहाँ घास पर लोहे के चार कुर्सियाँ और एक मेज विद्यमान थीं, अब कहाँ खो गई है उसे पता नहीं था। वह वही ज़मीन पर बैठ गया। फिर घास की ज़मीन पर लेट गया। वह अपने एकाकी उदासीन जीवन से बेहद बोर एवं थका था। उसकी आँखें मुँदी थी किन्तु दिमाग़ खुला था...!
दुपहर कि धूप सिमटने लगी थी। स्मृति के झरोखे खुल गए. एक बार विश्वास नहीं हुआ कि वह अपने शहर में नहीं है। यह सिर्फ़ संयोग ही रहा होगा कि उसे घर याद आया... पिता का गुस्सा चरम पर होते हुए धीरे धीरे संताप में घुलने लगा था, “देख लेना! इसका कुछ नहीं होगा। ज़िन्दगी भर कुँवारा बैठा रहेगा। अभी तो हम है लेकिन बाद में यह निपट अकेला रह जायेगा, अकेला ही झेलना पड़ेगा। उम्र कितनी होती जा रही है होश है नहीं और नखरे हैं कि सिमटते ही नहीं... उसके सामने बीती ज़िन्दगी के पन्ने उलटने लगे थे, जब वह भावी वधुओं को किसी ना किसी कारणों से मैच नहीं है, कहकर अस्वीकार करता रहता था।
अपने दिनों में हम कितना अलग सोचते है। यह हमारी दुनिया है और हम इसे अलग तरीके से बनाएँगे। इसमें समझौता नहीं। किन्तु समय की ठोकर लगते ही जब अपनी बनाई दुनिया भरभराकर गिर पड़ती है, तब अनजाने डर से थरथराने लगते है। लुटे हुए किले पराजय की कहानी कहते है... कुछ समय के उपरांत उसने सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। किन्तु अब भाग्य उससे रूठ गया था। किसी से जुडने की बात टल जाती। अजीब बात यह थी कि डर के साथ एक राहत भी मिलती। विवाह की बला टलते ही किसी अप्रत्याशित ख़तरे से छुटकारा मिल गया हो !... जब वह तैयार हुआ तो अस्वीकृति का दंश बार बार चुभने लगा... ज़िन्दगी की सायं सायं के अलावा कुछ सुनाई नहीं देता। मन अपशकुन के अलावा कुछ ना सोचता। लगता था कि वह अब विवाह योग्य नहीं रहा। उसे महसूस होने लगा कि किसी को आकर्षित करने की क्षमता ही नहीं है। अब वे बहाने बे मानी लगने लगे थे, उन लड़कियों को छोड़ने के. लगता किसी लड़की, औरत के स्पर्श को अपने में महसूस करना जीवन का सबसे बड़ा और दुर्भेद्य सुख हो, जिसे हासिल करना संशय में दिखता। फिर वह सोचता ...क्या दुनिया में लोग अकेले नहीं रहते ?
वह कितनी देर तक वहाँ लेटा रहा-पिछले अतीत को खंगालते हुए, नींद-अधि नींद के बीच अनुमान लगाना मुश्किल था। शाम घिर कर वापस जा चुकी थी। अब रात थी। यकायक उसे आभास हुआ कि कोई है?
वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसके सिरहाने मैडम खड़ी थी। उसकी तरफ़ उत्सुक चिंतित निगाहों से निहारती।
“मैं कई दिनों से देख रही हूँ कि आप यहाँ नहीं रहते, रह कर भी नहीं रहते?” कहते हुए वह हिचकिचाई किन्तु लहजा शिकायत भरा था।
“नहीं... ! ऐसा नहीं है। असल में काम बिक्री करने का होता है, उसकी उलझने सुलझे, इसलिए टिक नहीं पाता हूँ।”
“जानती हूँ, साहब ने एक बार शुरू में बताया था।”
“किन्तु...!”
वह सशंकित-सी करीब ही खड़ी थीं। हमारे बीच डर नहीं था, किन्तु वह अचानक छा गया।
“हमारे रहते आपको डर कैसा ?” मैडम की यह आत्मीयता कहीं मेरे हृदय में गहरे उतरते चली गई.
ठीक है ऊपर चलो। चाय मेरे साथ पीना।” फिर बिना उसके चलने का इंतज़ार किए वह मुड़ गई. धीमे कदमों से बरामदे की तरफ़ जाने लगी। वह नीचे-ऊपर के लिए बाहर वाले जीने का प्रयोग नहीं करती थी।
चाय पीते समय उन्होंने बताया कि देवी माँ उन्हें पहले ही ख़तरों से आगाह कर देतीं है। अभी कुछ समय पहले मुझे लगा था कि तुम मुसीबत में हो। बालकनी से देखा की तुम घास में बेसुध पड़े हो। तभी मैं आई थी तुम्हें लेने। उसे आश्चर्य होता है कि उस बेहद सामान्य बात को इतनी अधिकार- पूर्ण दुर्घटनाओं की भविष्यवाणियों को करना ठीक नहीं है।
उसने प्रतिवाद किया। उन्होंने उसे दरकिनार करते हुए कहा कि ‘मुझे आद्य शक्ति देवी ने साहब के अंत का समय पूर्व सूचित किया था, किन्तु वे मेरी सुनते कहाँ थे?’
यह विचित्र है। उसने चुप लगा ली।
उसे याद आया। जब वह कलकत्ता टूर पर था तब ‘करोना’ ने साहब को लील लिया था। साहब के अंतिम कार्यक्रम के दौरान ही उसने इस घर से कही और रहने की मंशा जाहिर की थी। तब दोनों बेटों ने स्पष्ट मना कर दिया था। रमा ने कहा था कि ‘मैं भी अब बंगलोर जा रहा हूँ और शिवा तो पहले से ही पूना में है। हम दोनों के साथ वे रहना नहीं चाहती...
‘अंकल ! वे बिल्कुल अकेली पड़ जायेगी। आपके रहने से हम लोग आश्वस्त रहेंगे। कोई तो है !’...
‘किन्तु अपनी माँ से पूछ लो? मेरे रहने में उनकी सहमति नहीं थी। मेरा यहाँ होना गोयल साहब की ज़िद थी।’...मेरे विषय में उन्होंने कुछ नहीं कहा। प्रति उत्तर में एक लंबी चुप्पी थी।
वह अकेली रहने की आदी थी। वह इस दुनिया में इतने धीर गंभीर भाव से अकेली रहती रही है। गोयल साहब उसकी तरह सेल्समैन से उन्नति करते मार्केटिंग हेड हुए थे। हफ्ते में वे चार या पाँच दिन अकेली रही थीं। किन्तु चेहरे पर कभी क्लेश की छाया नहीं रही। इस घर में, अकेलापन उन्हें सताता नहीं था, बल्कि मालिकाना अहसास कराता था। ऐसे ही दमदार व्यक्तित्व की धनी थी, मैडम।
शाम के सात बज चुके थे और सारे घर में अँधेरा पूरी तरह पसर चुका था। उसने अपने कमरे की लाइट जलायी। नीचे जीने के रास्ते में देखा, सब कुछ काला था। उसने उसे भी प्रकाश के आलोक में करना चाहा। बड़े ही आहिस्ता से टटोलते हुए उतरा कि जीने में लुढ़क ना पड़े।
नीचे आँगन के स्विच पर पहुँच कर उसने हाथ आन करने के लिए उठाया ही था कि वह हकबकाकर रुक गया। ऊपर स्विच आन करने वाला हाथ ठिठका रहा।
वे थीं... वह सकपका गया।
वे भाग कर उसके पास आई और अपनी फटी फटी आँखों से उसे देखने लगी, ’तुम यहाँ?’
वह चीख रही थी जैसे मृत व्यक्ति को देख लिया हो? वह उसकी देह को टटोलती, प्यासी कातर अंगुलियों से मसोस रही थी जैसे यह सुनिश्चित कर लेने को आतुर हो कि वास्तव में, वे ज़िंदा है ?
वह पागलों की तरह उसके हाथों और चेहरे को चूम रही थी जैसे कि वह खून से सने हो... ‘‘क्या हुआ...कैसे हुआ...?... देखो... देखो...हाय: हाय:... मैं जानती थी कि ऐसा ही कुछ होने वाला है... मुझे तुम्हें आगाह करना चाहिए था... मैं चूक गई... ’’ वह हतप्रभ... !
वे निढाल-सी जार-बेजार रो रही थीं। उसका सिर उनके हाथों की गिरफ्त में सीने से सटा,संकुचित-सा बेहाल था। उसने हड़बड़ घबराहट में स्विच ऑन कर दिया।
अंधेरे छटते ही वह रात के डरे हुए पक्षी की तरह उड़ ली।
मैं हतप्रभ ! दीवाल से चिपक कर खड़ा हो गया था, मेरा दिल अब ज़ोर जोर से धडक रहा था। हम दोनों के बीच पसरे सन्नाटे को अपनी धड़कनों की आवाज़ ही तोड़ रही थी। शायद, हम दोनों इस अप्रत्याशित को लेकर पशोपेश में दिखाई पड़ रहे थे।
उसका झुका सिर उठा और देखा कि यह वे वहीं थीं। उसने कुछ दुविधा में उन्हें देखा। वे अपने कमरे के दरवाज़े पर खड़ी, उसे अब अविश्वसनीय नजरों से निहार रही थीं। वह असमंजस में थीं... कुछ देर तक ताकने के बाद सहसा वह पीछे मुड़ी और अपने बेडरूम में चली गई और बिस्तर पर लेट गई.
जब वह अपने कमरे की ओर लौटने लगा तो ऐसा लगा कि वे उसे बुला रही हैं। उसके पाँव ठिठक गए. उसे यक़ीन करना मुश्किल था। किन्तु वास्तव में वे उसे बुला रही थी। उसे उसके नाम ‘विश्वास’ से- जैसे हाँफती, काँपती, कमजोर आवाज- हल्की, धीमी, मध्यम।
हैरत में वह उस कमरे की तरफ़ देखने लगा जो बंद हो चुका था। उसे लगा कि वह कष्ट में हैं? उसने आहिस्ता से धकेला। बाहर का प्रकाश बहुत कम भीतर था, सिर्फ़ एक धुँधलका था। जिसमें वह नहीं दिखी।
उसने सोचा कि वह अशक्त लेटी होंगी? इसलिए निश्चित होकर बत्ती जलायी। उन्हें देखकर वह डर-सा गया, क्योंकि वह कुर्सी पर बैठी और दरवाज़े की ही तरफ़ देख रही थी। रोशनी की चकाचौंध से वह हकबका-सी गई.
उन्हें उम्मीद नहीं थी कि वह कमरे के भीतर तक आ जायेगा और रोशनी कर देगा?
“आपने मुझे पुकारा ?”
“नहीं... !” वह इधर उधर ताकने लगी, जैसे किसी चीज को तलाश रही हो। कुछ देर तक असमंजस में रही और उसकी प्रतिक्रिया को टटोलती रही... फिर उठ खड़ी हुई.
वह, पूरी तरह अपने में आ चुकी थीं।
वह बेशर्म की तरह खड़ा रहा। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह छुटकारा पाना चाहती है। उन्हें शक था कि वह अभी चंद सेकंड पहले हुए, उनके अविश्वसनीय कार्य की पड़ताल करने आया है। वे उस अघटित कृत्य को अपने भीतर ताकना नहीं चाहती थी। वह उसे क्या कैफियत देती जबकि उन्हें ख़ुद पता नहीं था वह ऐसा क्यों कर सकी थी।
“अब कैसी है आप?” मैंने अधीरता से पुछा।
“कुछ नहीं !” उन्होंने एक ठंडी साँस छोड़ी।
उन्होंने विरक्त निगाहों से उसकी तरफ़ देखा और उसे वही छोड़ती हुई किचेन की ओर चल दी। सहज होने की कोशिश में ।
‘थोड़ी देर रुकिए मैं कुछ अच्छा बना कर आपको खिलाती हूँ।’ उन्होंने कुछ इतनी ललक के कहा कि क्षण भर के लिए वह सांसत में पड़ गया कि उन्हें सचमुच खिलाने में दिलचस्पी है या विषय परिवर्तन हेतु उसे धोखा दे रही है।
किन्तु वह रुका रहा। क्योंकि वह जानता था कि पहले के दिनों में जब वह अपने निकटस्थ बॉस के पास आता था और गंभीर विचार विमर्श में लीन होता था। तब भी वे ऐसा ही करती थीं, जिससे पति और उसे कुछ देर के लिए इतर विषयों में अटक कर राहत मिल सके.
वे इस घर के हर कोने में छाई गोयल साहब की धुंधयाती गंध और उपस्थिति जो कि अदृश्य और सर्वव्यापी है। जिसे वह हर समय महसूस करती रहती थीं। किन्तु उसके लिए यह सब देखने और सूँघने से परे थी।किन्तु उनमें कोई विवाद नहीं था।
कुछ देर तक वह देहरी पर खड़ा रहा। उनकी तरफ़ देखता रहा फिर उनके कमरे को देखा। कमरा एक दम बेतरतीब था और बेड में सलवटें ही सलवटें थीं। जैसाकि कोई युद्ध लड़ा गया हो। वह वास्तव में उनका आशय समझने की कोशिश में था।
फिर उसने अपने को धिक्कारा, यह मनगढ़ंत बाते कैसे सूझती है ? वे अस्पष्ट थे।
वह अंदाजा लगाती दिखी कि मैं कमरे में हूँ या नहीं ? यक़ीन मानो ज़रा-सा खटका होते ही वह वापस लौट आती... उन्हें अकेले खाना ज़रा भी नहीं सुहाता था। मतलब एक तरह से असंभव। क्योंकि जब से वह आया है, वह अकेले कभी खाती नहीं दिखी थीं।
वह अनुमान लगता रहता था कि उनकी एकाकी दुनिया में उसका प्रवेश गैर ज़रूरी है। उनकी अभी तक बीती ज़िन्दगी शायद दिलचस्पी विहीन है। उनके दिल और दुनिया के बीच कोई जगह नहीं है, जिसमें किसी प्रकार का दखल मंजूर हो। वह यदा-कदा उन्हें उन जगह में खींचने की कोशिश करता जिनसे वह ख़ुद अनजान था।
उसे अच्छी तरह याद है जब वह स्थानांतरित होकर इस शहर में आया था और गोयल साहेब ने अपने साथ रहने को कहा था तो मैडम ने साफ़ मना कर दिया था। उन्हें किसी अन्य की उपस्थिति नामंजूर थी। उन्हें उसका आंटी या भाभी कहना भी ना भाया था। उन्हें घर से इतर सम्बंधों से परहेज था। इसी शहर में उनका बड़ा बेटा रमा, बहू और पोता रहता है कभी वह साथ रहा था। किन्तु उनके अनावश्यक हस्तक्षेप से उसका रहना दूभर था और वह अलग था। हालाँकि वह आता रहता था। पूना में छोटा बेटा, बहू रहते थे उनके पास सिर्फ़ एक दो बार ही गई होंगी और वहाँ से असन्तुष्ट होकर लौट आई थी। उन दोनों को भी उनके साथ रखना नापसंद था।
उनका मानना था कि ‘यहाँ की मैं मालकिन हूँ। बेटों के घर मालकिन नहीं रहूँगी। यदि बेटे बहू भी यहाँ साथ होते तो उन्हें अटपटा-सा लगता रहता और उनके अनधिकार हस्तक्षेप से वे सहज नहीं हो पाते थे। उन्हें भी बहुत दिन अकेले रहते आधुनिक रहन-सहन पसंद थी जो मालकिन के कारण संभव नहीं हो पाया था। उन्हें किसी भी प्रकार अन्य की दखल एवं अधिकारिता नापसंद थी।
उपेक्षा का यह चक्र रुकता नहीं है, जीवन पर्यंत गतिशील रहता है। हाँ रूप बदलते रहते हैं।
गोयल साहब उन्हें मालकिन कहा करते थे। जो उनकी प्रसन्नता का कारक था। वह किसी प्रकार से इस पदवी से महरूम नहीं होना चाहती थीं। वह उन्हें मैडम कहने लगा था, जिसका उन्होंने कोई संज्ञान नहीं लिया। वह लंब-तड़ंग, दबंग आकर्षक गोरी महिला थी। उनके दिल और दुनिया के बीच कोई जगह रही होगी, जिसके विषय में उसे कुछ मालूम नहीं था। वह लगातार कोशिश करता कि उन खाली जगह को भरें किन्तु असफल रहता।
उनका घर बहुत बड़े प्लॉट एरिया में था। जिसमें सब कुछ था- गेट, गार्डन, कमरे, पोर्च, गैराज, ड्राइवर, चौकीदार एवं नौकर वाला सफेद मकान। किन्तु रहने वाले निहायत कम थे, सिर्फ़ दो। जब गोयल साहेब रिटायर हो गए तो ‘विश्वास’ को जबरन अपने साथ रहने को ले आए थे, जो उन्हें बेहद नागवार गुजरा था। उन्होंने प्रतिरोध निहायत ही शालीन तरीके से किया था, जिसे साहब ने हँसते हुए दरकिनार कर दिया था। परंतु मैडम ने उसके आगमन को संभ्रांत तरीके से उपेक्षित किया था।
कभी कभी उसे अपने पर बहुत गुस्सा आता कि वह क्यों टिका है एक जीती जागती ज़िंदा लाश के इर्दगिर्द। अकेले में...? उसे खीझ होती, शर्म आती और अंत में एक अजीब-सी बेबसी पकड़ लेती। मुझे मालूम है कि वह सदमे में है।
लेकिन दारुण जीवन में भी दिल भेदी चमत्कार होते है। वह साधारण स्त्री नहीं थीं।
किन्तु उसकी इच्छाओं से परे थीं।
दिसम्बर के दिनों में शाम कब आती है और कब सिमिट कर रात में बदल जाती है, पता ही नहीं चलता। वह अपने कमरे की दलहीज में बैठा यह करतब देख ही रहा था कि आकाश बादलों से भर गया। हल्की-सी बूँदाबाँदी प्रारंभ हुए कुछ ही पल बीते थे बिजली भी चली गई.
उसने ड्रिंक पर जाने का निश्चय किया। उसने दो गिलास और व्हिस्की की बोतल टेबल पर रखी और नमकीन के लिए किचेन से आकर इत्मीनान से शुरू करने की सोची। उसने बैठते ही जल्दी से दोनों गिलासों को टकराकर चीयर्स कहा और एक घूंट भर कर, बाहर देखा।
मोमबत्ती के धूमल प्रकाश की तलछट बाहर पड़ी तो परछाई दिखी थी या उसे भ्रम हुआ था। छत के एक कोने में ऊपर आकाश को निहारते हुए- वह, मानो बुँदे गिन रही हो। वह अपने में इतना व्यस्त था कि उसे उनकी उपस्थिति का अहसास नहीं हो पाया था।
वह जानता था कि वह कब छत में आती है? सुबह के समय सूर्य को अर्ध देने हेतु या शाम को पक्षियों का दाना-पानी चेक करने... फिर थोड़ी देर ठहरती भी है गेट कि तरफ़ एक टक देखती है। बैठकर हवा में ताका करती। परंतु इस बुँदे गिरती, ठंड की रात में वे होगी यह कल्पना से परे था। वह निश्चित-सा था कि उसे भरम हुआ है।
एक पैग हलक में उड़ेला ही था कि छत कि छत के कोने की परछाई हिली। वह उसकी तरफ़ ही आ रही थी। एक बीहड़ अंदेशे ने उसे धर लिया...जो उसकी समूची देह को थरथरा रही थी। अब तो खैर नहीं... शायद आज का दिन आखिरी दिन हो ?
एक लंबे पल तक वह इस दयनीय उम्मीद से था कि शायद वह नीचे चली जायेंगी, बिना उससे कुछ कहे। वह बिना उनकी तरफ़ देखे, उनसे बचता रहा लेकिन कब तक? दूसरे ही पल वह कमरे के दरवाज़े पर खड़ी दिखी।
‘क्या वह मर नहीं सकता?’ उसने सोचा। उसकी आँखों और चेहरे पर घनी भूत पीड़ा दिख रही थी और हिलते होंठों से बेचैन शब्द, अस्पष्ट थे।
वह वैसे ही दरवाज़े पर खड़ी, भीगी प्रेतनी-सी थी। एक अजीब-सा सन्नाटा घिर आया था। मन दहल-सा गया था। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। उनसे निपट अकेले में मिलने का मौका इस तरह आएगा उसके कल्पना से परे था।
हालाँकि मैडम के चेहरे पर एक अधीर-सा अधूरापन था जो उसकी तरफ़ लक्षित था। एक अजीब-सा गुस्सा उनके भीतर उमड़ने लगा था। ईर्षाजनित इच्छाएँ रौंद रही थी। वह उसकी ओर कुछ ऐसी निगाहों से देखने लगीं, जिसमें कुछ पाने का प्रलोभन कुछ खोने का आतंक घुला था।
“मुझे नहीं पूछोगे?” उन्होंने कहा। वह आश्चर्य से जम गया। इतने महीनों बाद वह भी अपने खोल से बाहर वह इस तरह मिलेगी...! कुछ हैरत से उन्हें देखा।
“आईए मैडम ...!” वह सकपकाते हुए बोला। कुछ तसल्ली भी मिली, जैसे कोई आसन्न विपदा सामने आते आते अचानक आँखों से ओझल हो गई हो।
उन्होंने उड़ती निगाह से उसे देखा, एक कुटिल मुस्कान के तहत वह साँपिन कि तरह सरसराती बगल में बैठ गईं। वह विचलित-सा हो आया। नहीं विश्वास यही आ रहा था। ये ख़्वाब है कि हकीकत...?
उसने मैडम की आँखों में कभी ना ख़त्म होने वाला इंतज़ार का सूनापन देखा था। उनकी सूनी आँखों में बहाना मौत के इंतज़ार का था, लेकिन वह जानता था कि वह मनुहार का इंतज़ार कर रही थी।
वह असमंजस में पड़ गया था। किन्तु उसे अपनी औक़ात मालूम थी... नहीं ऐसा नहीं है! मन के भीतर से आवाज़ आई, शायद वह अपने पति की याद में है!
“मेरा पैग ?” उन्होंने पूछा। फिर ख़ुद ही दूसरा गिलास उठाकर चीयर्स कहा और गटागट खाली कर दिया। वह मंत्रमुग्ध ताकता रह गया। शायद मैडम यही चाहती थी, किन्तु यह उससे कह नहीं सकती थी।
“उन्हें याद करती हो ?” आवाज़ में ठहराव था। उसने उनकी दुखती नब्ज पर अंगुली रख दी।
आश्चर्य तो यह था कि उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की और निकल ली...।
अब वे शायद कभी नहीं आएँगी। किन्तु अपने भीतर कई तरह के भावों को तौलती कब वह आ जाती थी, उसे अहसास नहीं था।