मालती / मौसमी चन्द्रा

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"दीदी अपने से एकटा काम छैले..."।

माँ संतरे लेकर उठने ही वाली थी कि छोटकी के इस बात पर रुक गयी।

"हाँ बोल न" !

"एकटा छोरिया छौं ओकरा काम पर रखभैं?"

"किधर से है" ?

"हमरे गाँव से ऐलौ छै ओकरा रखि ल..., बड़ी मेहनती औरो ईमानदार छौं। हम्मे जाने छियै ओकरा दीदी..."

माँ के हामी भरते ही दूसरे दिन तड़के ही वह अपने साथ उसे ले आयी।

माथे पर साड़ी का फटा हिस्सा लपेटे। पूछने पर बताया कि उसके पति का अपनी बहू से ही सम्बन्ध है। बेटा का तो दिमागी संतुलन सही नहीं था। उसका फायदा बाप ने उठाया। जब मालती ने ऐतराज किया तो पति ने सिलबट्टे का भारी बट्टा दे मारा सर पर।

घर से निकाल दिया तो यहाँ आ गयी। साथ में करीब आठ नौ साल की बच्ची थी।

मालती! यहीं नाम बताया था उसने अपना। बेटी का गुंजा!

"कैसा निर्दय आदमी है ...! बीबी तो बीबी, बेटी को भी निकाल दिया घर से। ये भी नहीं सोचा जमाना खराब है। लड़की जात! कहीं कुछ ऊंच नीच हो गयी तो?"

माँ का बड़बड़ाना शुरू हो गया।

खैर ..., मेरी माँ का दिल इन मामलों में बहुत जल्दी पसीजता है। सो उसे झट से रख लिया। बिना ज्यादा हीलहुज्जत के।

उसने भी उसी समय झाड़ू संभाला और लंबे चौड़े अहाते को चमका दिया।

गुंजा (उसकी बेटी) चुपचाप एक कोने में बैठी रही।

हम दोनों बहनें बीच-बीच में उसे कनखियों से देखते। उसके हाव भाव, उसके नाप से बड़े कपड़े, लाल फीते से बंधी टेढ़ी चोटी ...कुलमिलाकर हँसने का फुल पैकेज! पर मम्मी से बचकर। अगर देख लेती तो कौन सुने फिर उसका आधा घण्टा भाषण।

मालती ने बड़ी ही कार्यकुशलता से हमारे घर को संभाला। ईमानदार और मेहनती तो थी ही बहुत अच्छी कुक भी थी। उन्हीं दिनों मम्मी का गॉलब्लेडर का ऑपेरशन हुआ। हम सब भाई बहन को जितने नखरे थे खाने में उसके बारे में सोच-सोच कर मम्मी परेशान थी। पर मालती के हाथ की बनी रसोई ने हमसब को कोई नुख्श निकालने का मौका ही नहीं दिया। सब काम अच्छे से निपट गया। मम्मी घर आ गयी। मालती ने देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक काम नहीं करने देती। जल्दी ही वह हमसब की चहेती बन गयी। हमारे परिवार का एक अभिन्न हिस्सा।

उसकी बेटी गुंजा को हमलोग पढ़ना लिखना सिखाते और मम्मी उसे सिलाई बुनाई। बड़ी तेज़ जेहन की बच्ची थी। इतनी जल्दी सीखती की हमलोग दंग रह जाते। धीरे-धीरे उसे अक्षरों का मात्राओं का अच्छा ज्ञान हो गया। दोनों माँ बेटी की जिंदगी अच्छे से चलने लगी।

पर एक दिन वह अचानक बिना बोले काम पर नहीं आयी। ऐसा कभी किया नहीं था। जब दो तीन दिन गुजर गए, फिर भी वह नहीं आयी तो माँ ने फलवाली छोटकी को रोककर पूछा

"क्या हो गया दोनों माँ-बेटी कहाँ है? सब ठीक तो है न?"

"तोरा कहके नैय गेलौं छौं?"

"नहीं तो! कहीं गयी है क्या?"

"ओक्कर मरदबा एलौ छौं चार रोज पहिले, जबरदस्ती ले कै चल्ली गेलौं"।

हाय रे राम! माँ का कलेजा मुंह को आ गया। सोचकर चिंता समा गयी ना जाने ले जा कर क्या करे अब?

"अरे! तो तुमलोग जाने काहे दी रोक लेती न...?"

"कइसे रोकतिय हल हम्मे सब? मारी लगलै न, के भिरते हलै ओकरा से?"

अब तो लगा माँ रो ही पड़ेगी। दिनभर न कुछ खाया गया न पिया गया। उदास-सी पड़ी रही। सालभर में ही वह हमारे परिवार में घुल मिल गयी थी। आत्मीय-सा रिश्ता बन गया था।

कुछ दिन बीते ही थे। हमलोग वापस से उसके बिना रहने की आदत डाल रहे थे की एक दोपहर वह अचानक ही आ धमकी।

भरा भरा देह, तेल डाल कर अच्छे से चोटी बनाई हुई। पूरे हाथ की चूड़ियाँ पहने...बहुत खुश थी।

पता चला बहू की सांप काटने से मौत हो गयी थी। तो बीबी को मनाने के अलावा कोई उपाय रहा नहीं सो लेते गया साथ।

"लेकिन नहीं जाना चाहिए था तुम्हें। उस आदमी का क्या भरोसा? कहीं फिर न कोई तमाशा करे।"

माँ की चिंता वाजिब थी।

"नाय दीदी अबे नय करते उ कुछो... एकदम्मे बदली गेलौं छौं..., आ बिसबास के की बात करियै? अबा त हम्मे छोड़ि देलिओ छै सब्बे मइया पे। कत्ता दिन रहतियो बिना मरद के.।, बास होतो हल दीदी? जबान बेटी लेकै कत्ता दिन रहितियो हल दीदी एकेलए" ?

उसकी बात भी अपने जगह ठीक थी। माँ ने आशीर्वाद देकर विदा कर दिया उसे।

फिर कई सालों तक उसकी कोई खोज खबर नहीं मिली। हमलोग भी लगभग उसे भूल ही चुके थे।

एक बार किसी काम से स्टेशन जाना हुआ तो मेरी जिद पर मम्मी एक गोलगप्पे के ठेले पर रुक गयी। मैंने जैसे ही गोलगप्पे बेचने वाली से कहा तीखा और खट्टा बनाना।

"हमरा पता छौं तोरा मरचाय आ खट्टा बड़ी पसन्द छौं"

आवाज़ जानी पहचानी-सी लगी!

पलट कर देखा मालती ।!

शरीर गिर गया था पहले से। पर एक अलग ही चमक थी चेहरे पर। सूनी कलाई, ना बिंदी, ना सिंदूर उफ़्फ़!

"कैसी हो गयी रे?"

मां की आंखें डबडबा गयी।

"क्या सब हो गया? यहाँ कैसे? ये सब क्या काम करने लगी तू?"

प्रश्नों की झड़ी देख वह हँसकर बोली।

"कौनो फिकर मति करो हमरा, सब्बे ठीक छै अब"।

"गुंजा कहाँ है?" माँ ने पूछा

" ओकरा परसाल शादी करी देलियै, सोनपुर दनै।

अच्छा घर दुआर। गुंजवा सिलाय करै छै,। दमदवा के खेत है। खुश है छोरिया। "

"और गुंजा का बाप उसका क्या हुआ? जिंदा तो है न?"

माँ की नज़र अभी भी उसकी सूनी मांग और कलाईयों पर टिकी थी।

" हाँ दीदी ...जिन्दे है ...! पर हमरा लिए मरल दाखिल...!

उसने मुँह झुका कर जवाब दिया।

पता चला, ले जाने के कुछ दिन बाद तक तो ठीक रहा। फिर जैसे ही उसके पागल बेटे ने दूसरी शादी की। वो एक रात मौका देखकर बहू के कमरे में बुरी नियत से घुस गया। पर नई बहू ने उसकी इज्जत की धज्जियाँ उड़ा दी। चप्पल से पीट-पीट कर घर के दलान तक दौड़ा दिया।

उस दिन मालती का भी स्वाभिमान जाग उठा। उसने भी बहू का साथ दिया। मंगलसूत्र फेंका, चूड़ियाँ घर के दरवाजे पर तोड़ी और बेटा, बहू और बेटी के साथ घर छोड़ दिया। बेटा बहू मिलकर सब्जी बेचते हैं और वह गोलगप्पे।

" जानौ छौं दीदी सब्बे मिली कै अच्छे कमाय लै छियै। बढ़िया सै रहै छियै। परसाल खूब बढ़िया सै करलियै बेटी कै बिआह, बुढ़वा एलौ छलौं दु बेरी ...हम्मे भगाय देलियै मारी कै। अबे नैय जैभौं।

बेटा पोतोहू बोलै छै काम नै करै ल ..., पर अब जब तक छियों कम्मा नय छोडभौं। "

उसका चेहरा स्वाभिमान की दर्प से दमक रहा था।

हमें दुख भी हुआ और गर्व भी। गांव की एक सीधी साधी अनपढ़ औरत ने अपने स्वाभिमान के लिए कितने जतन झेले।

मालती उन जैसी औरतों के लिए एक उदाहरण है-जो पढ़ी लिखी होने के बाबजूद भी घरेलू हिंसा की शिकार होती रहती है। पति के हाथों प्रताड़ित होती है पर समाज, लोक लाज की खातिर समझौते करती रहती है।

"घर आना मालती। किसी तरह की जरूरत हो तो कहना।"

माँ ने ये बात कह तो दी पर वह जानती थी कि अब उसे किसी की जरूरत नहीं। वो अकेले अपने दम पर जीना सीख चुकी है।

पीछे पलट कर माँ ने प्यार से उसे देखा।

इन सब से अनभिज्ञ मालती गोलगप्पे की प्लेट सजाने में व्यस्त थी।