मालवगढ़ की मालविका / भाग - 19 / संतोष श्रीवास्तव
बाबा ने अपनी बातों की तरकीब से अंग्रेज कलेक्टर के दिल में अपनी ईमानदारी का सिक्का जमा लिया। तब तक बंसीमल ने व्हिस्की, सोडे की बोतलें वगैरह टेबिल पर लाकर रख दी थीं। काफी देर तक शराब का दौर चलता रहा। आश्वस्त होकर जब कलेक्टर उठा तो उसके पैर डगमगा रहे थे।
अगस्त क्रांति पूरे देश में वन में लगी आग की तरह फैल चुकी थी। बाबा के जरिए और कोठी में आने वाले अखबारों के जरिए सभी प्रांतों की खबरें मिल रही थीं। हालाँकि अखबार वही छप रहे थे जिन्हें ब्रिटिश सरकार से ग्रीन सिग्नल मिला था। आधी सच्ची, आधी झूठी खबरों वाले अंग्रेजों के पिट्ठू अखबार मैं तो छूती तक नहीं थी। सभी जगह की क्रांति के किस्से सुने पर कलकत्ता की खबर नहीं सुनाई दी। संध्या बुआ बेचैन थीं और बाबा के आगे-पीछे घूम रही थीं। क्या बाबा को पता था कि अजय कलकत्ते में हैं? क्या जान-बूझकर वे कलकत्ते की खबरें छुपा रहे थे? नहीं... भ्रम था मेरा... खबरें शाम को मिल गईं। हम सब दादी के कमरे में दम साधे बैठे थे। बड़ा रोमांचक माहौल था... मालवगढ़ में भी मिलिट्री लॉरियाँ घूमने लगी थीं। बाबा ने बताया - "अब तक तो कलकत्ता शांत-सा था। लेकिन अचानक ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल के वक्तव्य ने भड़का दिया। बंगाली विद्यार्थी यह सुनकर भड़क गए कि बंबई के अगस्त क्रांति मैदान में नेताओं के जोशीले भाषण, नारे और गिरफ्तारियों के बाद कलकत्ते में आंदोलन शुरू हुआ। उन्होंने शंकर घोष लेन और कार्नवालिस स्ट्रीट के संगम पर ट्राम गाड़ियाँ जलाईं। सभी जगह अंग्रेजों ने गोलियाँ बरसाईं। कई लोग शहीद हो गए.
"विद्यार्थी आंदोलन में शरीक हैं तो... प्रोफेसर, लैक्चरर भी... और संध्या बुआ का चेहरा उतर गया। दादी भाँप गईं लेकिन बाबा के आगे कुछ कह न सकीं।
"जबरदस्त उपद्रव किया क्रांतिकारियों ने। रेल यातायात, डाकखाने सब ठप्प कर दिए. टेलीफोन के तार काट दिए. सबसे भयंकर तो पंद्रह अगस्त का दिन रहा जब चित्तरंजन एवेन्यू से सैनिक लॉरियों ने उत्तेजित भीड़ पर लगातार गोलियाँ बरसाईं। हाथीबगान बाज़ार की मिठाइयों की दुकानों को लूटा। बड़ा भयंकर कांड रहा लेकिन सही-सही खबरें नहीं मिल पा रही हैं क्योंकि अंग्रेज पुलिस ने संवाददाताओं, पत्रकारों को रिपोर्टिंग के लिए जाने नहीं दिया। केवल'बंगला भारत'अखबार से ही कुछ खबरें मिल पा रही हैं।" संध्या बुआ रूमाल से माथे पर झलक आए पसीने को दबा-दबाकर पोंछने लगीं।
प्रताप भवन चिंता की गिरफ्त में था। बाबा दिन-रात चिंता से घिरे रहने लगे। खाना-पीना मानो छूट-सा गया था। दादी जबरदस्ती कुछ खिला देतीं तो चुपचाप खा लेते, फिर गहन सोच में डूब जाते। इन दिनों उनका काफी सारा वक्त तलघर में बीतने लगा था। वहाँ केवल दादी जा सकती थीं... बाकियों के लिए तलघर की जानकारी नहीं के बराबर थी। बनारस की खबरें लाने का काम बाबूजी को सौंपा गया था। हालाँकि इस बात की पूरी सतर्कता रखी गई थी कि बाबूजी इस संग्राम में शामिल न हों वरना प्रताप भवन अनाथ हो जाएगा। रात दस बजे बुझे हुए चेहरे सहित बाबूजी ने बाबा को खबर दी कि बनारस में लालूराम सहित देवमड़िया के सत्रह क्रांतिकारी गिरफ्तार हो गए हैं और उन्हें हंटर मारते हुए, सड़कों पर घसीटते हुए जेल ले जाकर ठूँस दिया गया है और बाबा... मिश्रीदत्त...
"क्या हुआ मिश्रीदत्त को?" बाबा उतावले हो गए.
"बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के सामने..."
"हाँ-हाँ... बोलो समर... क्या हुआ उनको?"
"वे शहीद हो गए."
बाबा ने आँखें जोर से बंद कर हाथ ऊपर उठा दिए - "हे ईश्वर..."लेकिन तुरंत ही सम्हलकर जोशीले स्वर में बोले - "भारत माता की जय।"
हम सभी एक स्वर में बोल पड़े - "भारत माता की जय।"
"मिश्री, तुम अमर हो गए... शहीद... अमर शहीद... लेकिन इतनी जल्दी मुझे अकेला छोड़कर तुम चले गए कि..."
और बाबा फूट-फूटकर रो पड़े। बाबा को मैंने पहली बार रोते देखा। मेरी भी आँखें भर आईं... आँखें सभी की भर आईं थीं। दादी, बाबूजी, रजनी बुआ, संध्या बुआ... सभी सकते में थे। अचानक बाबा उठे... अपने टेबिल के पास गए. किताबों में दबी मिश्रीदत्त की तस्वीर निकाली और सामने रखकर धीरे-धीरे बुदबुदाने लगे -
नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः...उस रात बाबा ने मुँह तक नहीं जुठारा... मुँह तो प्रताप भवन में किसी ने नहीं जुठारा। यहाँ तक कि नौकरों तक ने नहीं। दादी गीता पाठ करती रहीं और बिस्तर पर लेटे बाबा सुनते रहे। बाबा बुरी तरह टूट गए से लग रहे थे। मानो महीनों से बीमार हों... दूसरे दिन उन्हें बुखार आ गया। दादी ने एक पल के लिए भी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा। वे बुदबुदाते रहते। "क्या हुआ जो मेरा सब चला गया। मेरे वीर सैनिक, हथियारों का जखीरा, लालूराम जैसा देशभक्त और मेरा यार मिश्री... लेकिन यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। भारत आजाद होगा और मालविका तब तुम घी के दीये जलाना और आतिशबाजी छोड़ना।"
"मैं ही क्यों? तुम भी। हम सब मिलकर खुशियाँ मनाएँगे।"
तभी रजनी बुआ ठुनकती हुई आईं और आकर सीधे बाबा के सामने खड़ी हो गईं -
"चाचा सा... मैं वकालत पढ़ूँगी।"
बाबा फीकी हँसी हँस दिए, दादी उनके तलवे सहला रही थीं।
"आप कुछ कहते क्यों नहीं? क्या आप नहीं चाहते कि मैं न्याय का साथ दूँ।"
बाबा ने अपना हाथ बढ़ाया और रजनी बुआ का हाथ पकड़कर अपने पास बैठा लिया - "क्यों नहीं चाहते हम? तुम्हें वकालत पढ़ना है... ज़रूर पढ़ाएँगे।" और दादी की ओर देखते हुए ठहाका लगाकर हँसते हुए बोले -
"सुना तुमने... हमारी चिरैया वकील बनेगी, काला कोट पहनेगी... अदालत में जिरह करेगी... एँऽऽऽ..."
और हँसते-हँसते उन्हें ठसकी लग गई. दादी पीठ सहलाने लगी, रजनी बुआ दौड़कर पानी ले आई... ठसकी भयंकर थी, रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। आँखें लाल हो गईं, आँसू निकल पड़े, माथे की नसें फूल गईं और सारा शरीर पसीने में नहा उठा। इधर बाबूजी घबराकर डॉक्टर लाने दौड़े... नौकर-चाकर सब भाग-दौड़ करने लगे... बिजली की गति से पूरे प्रताप भवन में खबर पहुँच गई बाबा की तबीयत खराब होने की। बाबा ने खाँसते-खाँसते खून की उल्टी की और कटे पेड़-से पलंग पर गिर गए. दादी रो पड़ीं - "हे ईश्वर... यह क्या हो गया इन्हें?"
कोठी में हड़कंप मच गया। मिनटों में बाबूजी डॉक्टर को ले आए. जाँच के दौरान कोठी में ऐसा सन्नाटा था कि सुई भी गिरे तो आवाज हो। दम साधे सब डॉक्टर की ओर देख रहे थे। डॉक्टर ने दवाई दी... इंजेक्शन लगाया और उनके सिरहाने कुर्सी पर बैठ गए. बैठने से पहले बाबूजी को अलग ले जाकर बता दिया कि "हार्ट अटैक है... अभी खतरा टला नहीं है। हम खतरा टलने तक यहीं बैठेंगे। अप ये दवाएँ मँगवा लें।"
तुरंत बंसीमल को दवा लाने दौड़ाया। दादी सीधी मंदिर में जा बैठीं और प्रार्थना करने लगीं। बाबूजी ने हम सबको भी सोने के लिए कहा। बेमन से हम कमरे की ओर जा ही रहे थे कि बाबा की लंबी-लंबी साँसों की आवाज फिर सुनाई देने लगी। मैं दौड़कर दादी को मंदिर से बुला लाई. लेकिन उनके आते-आते बाबा तेजी से छटपटाकर शांत हो चुके थे। डॉक्टर ने नाड़ी देखी... और अंतिम प्रयास में जुट गया लेकिन वह शांति चिर शांति थी। बाबा हमें छोड़कर जा चुके थे। दादी की लंबी चीत्कार से प्रताप भवन सहम उठा। दीवारें, फर्श, छत, दरवाजे, बरामदे, सहन... हर जगह, हर इंच धरती पर मातम छा गया। सभी स्तब्ध थे। यह क्या हुआ? कहीं यह डरावना, झूठा स्वप्न तो नहीं लेकिन स्वप्न के बाद आँख भी खुलती है और जब आँख खुलती है तो सच्चाई सामने आती है। बाबा देश की आजादी का ख्वाब लिए चल दिए. शायद वे अपने दल का बलिदान, मिश्रीदत्त का बलिदान सह नहीं पाए, शायद उन्होंने एक साथ जीने-मरने की कसमें खाई थीं। इसीलिए बिना देर किए वे भी चल दिए. पूरी कोठी मातम और रुदन में डूब गई. दादी ने अपना सिर दीवार पर दे मारा... मैं और रजनी बुआ दादी से लिपट गईं और रोने लगीं। खूब रो चुकने के बाद दादी ने आहिस्ता से अपने को हम लोगों से छुड़ाया और बाबा के शव के पास जाकर अपना चूड़ियों भरा हाथ फर्श पर पटकने को उठाया ही था कि तेजी से व्हील चेयर लुढ़काती बड़ी दादी आईं - "क्या अपशगुन करती हो दुलहिन... तुम तो सती हो सती..."
उनके मुँह से ये शब्द सुनकर सब सकते में आ गए. बाबा के देहांत के सदमे से अभी उबर भी नहीं पाए थे कि ऐसी चुभती बात!
"क्या कह रही हो माँ?" संध्या बुआ ने उनके दोनों कंधे पकड़कर झकझोर दिए -"जानती भी हो क्या कह दिया अनजाने में..."
"अनजाने में क्यों? पूरे होशोहवास में कहा है। क्या हमारे खानदान में कोई सती नहीं हुई? क्या गुलाब कुँवर मासी-सा को सब इतनी जल्दी भूल गए?"
और मेरे तलुवों के नीचे पसीना छूटने लगा... यह कैसी करुणा जताई बड़ी दादी ने? यह कैसा मरहम लगाया दादी के ताजे घाव पर कि घायल को ही मिटा डालने का बीड़ा उठा लिया। मेरी रग-रग उत्तेजित हो उठी। मेरे कलेजे में एक बवंडर-सा उठा और मैंने देखा कि मैं हाथ में तलवार लिए एक बहुतबड़े महल के प्रांगण में खड़ी हूँ। जहाँ जौहर की आकाश चूमती लपटें उठ रही हैं और राजपूत स्त्रियाँ सोलहों शृंगार किए ओम् का उच्चारण करती उसमें कूदने को तत्पर हैं और जब मुझे जौहर की अग्नि में ढकेला जाने लगा तो मैं चीख पड़ी - "खबरदार जो किसी ने भी मुझे हाथ लगाया। मैं रणभूमि में शहीद होऊँगी। मैं इस तलवार से दुश्मनों को मारकर वीरता भरी मौत को गले लगाऊँगी। तुम लोगों की तरह कायरता भरी मौत नहीं... छोड़ दो मुझे... मत जलाओ... मत जलाओ दादी को... दादीऽऽऽ"
जब होश आया तो देखा अम्मा और जसोदा मेरे कमरे में थीं। और मेरा सिर अम्मा की गोद में था। अम्मा मुझे देखती रहीं। जाने कब हम दोनों लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़े। जसोदा बिलख रही थी - "अरे मोर मैया... अरे परमेसर... ये सब क्या हो गया? कोई भूत प्रेत का साया लग गया रे..."