मालवगढ़ की मालविका / भाग - 33 / संतोष श्रीवास्तव

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रात मैंने ख्वाब देखा। मैंने देखा, दिल हिला देने वाले सन्नाटे में तमाम बोलते उल्लुओं, चमगादड़ों से भरे खंडहर हैं और भयानक अँधेरा है और उस अँधेरे और खंडहर में चलती हुई मैं देखती हूँ उन खंडहरों का एक-एक पत्थर अपने महल होने के सबूत दे रहा है। सबूत ही नहीं बल्कि उन धड़कनों का भी हवाला दे रहा है जो जिंदगी बनकर धड़की हैं यहाँ लेकिन अब वे धड़कनें पत्थर बनकर रह गई हैं। और अचानक मुझे ठोकर लगी - देखा, कोठी के चबूतरे पर किसी की चिता जल रही है और चिता के सिरहाने बैठे बड़े बाबा मंत्र पढ़ रहे हैं और तभी कोठी की दीवार में छिपा काला साँप निकला और उसने जलती चिता में छलाँग लगा दी... पसीने में तरबतर घबराकर मेरी नींद खुल गई. हालाँकि साँप का जल मरना इस बात का संकेत था कि प्रताप भवन की औरतों के शाप खत्म हो गए... पर कब? जब सब कुछ स्वाहा हो गया?

यह ख्वाब आड़े दूसरे आ-आकर सारी रात मेरी नींदों को जागरण में बदल देता। भय के मारे मैं सो नहीं पाती थी। महीनों लगे थे मुझे कोठी की वीरानी स्वीकार करने में और महीनों लगे थे संध्या बुआ को सम्हालने में। लेकिन गुजरता वक्त वह चंदन का लेप है जो जिंदगी से मिली चोट, घावों को आहिस्ता-आहिस्ता पूरता चलता है। मैं अपने बंगले लौटकर अध्यापन में व्यस्त हो गई और संध्या बुआ ने एक ईसाई महिला के साथ जुड़कर जानवरों के संरक्षण का कार्य शुरू कर दिया। वे सड़क के आवारा, भूखे और घायल कुत्ते, बिल्लियों की तीमारदारी करतीं... उन्हें दूध, बिस्किट, खिचड़ी आदि खिलातीं। जब वे घर से बाहर निकलतीं तो तमाम कुत्ते पूँछ हिलाते कूँ-कूँकरते उनके पैरों में लोटने लगते। उनकी इच्छा थी एक वेटरनिटी हॉस्पिटल खोलने की जिसके लिए वे और उनकी सहयोगी मिसेज लीना सरकारी अनुदान के लिए प्रयत्नशील थीं। संध्या बुआ ने अपना जीवन गुजारने की राह पा ली थी जिसमें उनका मन बहुत रमता था। अजय फूफासा ने उन्हें कभी नहीं रोका इस काम से।

अम्मा ने लिखा था कि बड़ी दादी की मृत्यु के बाद बड़े बाबा अब पक्के संन्यासी हो गए हैं और अघोरियों के बीच हरिश्चंद्र घाट पर रहते हैं। ऐसे भयंकर अघोरियों के बीच जो मुर्दे की जली खोपड़ी पर गांकड़-बाटी पकाकर खाते हैं। उनका यह हश्र तो होना ही था। मुझे तो न दुख हुआ न उनके प्रति सहानुभूति जागी। अगर यही सब उन्हें करना था तो शादी क्यों की? क्यों अपने से बाँधकर बड़ी दादी को जिंदगी भर हलाल करते रहे। बड़ी दादी जिंदगी भर उनसे मिली उपेक्षा, तिरस्कार का बदला हम सबसे लेती रहीं। भले ही उनके अंतर्मन को यह पता न हो कि हम सबके साथ क्यों करती हैं?

कलकत्ता शीतलहर की चपेट में था। दो दिन से लगातार शिमला और उसके आसपास की घाटियों में भारी हिमपात हो रहा था। लेकिन बावजूद हिमपात के न जाने कैसे ये खबर हम तक पहुँची कि शिमला में जिम की मृत्यु हो चुकी है। यह बड़ी दादी की मृत्यु के डेढ़ साल बाद की घटना थी। अम्मा का पत्र संध्या बुआ के पास आया था कि वीरेंद्र कुछ दिनों के लिए मालवगढ़ गया था तो पता चला कि जिम की मृत्यु हो चुकी है और उनका शव दफनाने के लिए हवाई जहाज से मालवगढ़ लाया गया था। खबर सुनकर वीरेंद्र भी रामू के साथ कब्रिस्तान गया था। पता चला कि दादी की इच्छा को सम्मान देते हुए उनका भी शव जिम ने मालवगढ़ लाकर ही दफनाया था। दादी की कब्र के बाजू में ही जिम की कब्र भी बना दी गई थी।

उफ! प्रेम की इस परिभाषा ने मुझे आलोड़ित कर दिया। मेरा मन जिम के प्रति श्रद्धा से भर गया जिन्होंने दादी की इच्छाएँ एक-एक कर पूरी कीं और उनकी बेतहाशा कद्र की।

जिम की मृत्यु के महीने भर बाद मेरे नाम एक सरकारी लिफाफा आया जो जिम के वकील द्वारा भेजा गया था। लिफाफा खोलते ही मैं विस्फारित नेत्रों से जिम के द्वारा लिखा वसीयतनामा पढ़ने लगी। शिमला का कॉटेज, सेब के बाग, मालवगढ़ का बंगला, दादी के सारे कीमती आभूषण, बैंक में जमा धनराशि सब मेरे नाम थी। अपनी जिंदगी भर की कमाई मुझे सौंप दी थी जिम ने... शायद दादी की इच्छा से... हाँ, दादी की ही इच्छा रही होगी ऐसी. शाम को मैंने वसीयतनामा ले जाकर संध्या बुआ और फूफासा को दिखाया। हम सभी इस वसीयतनामे से आश्चर्यचकित थे... यह कैसा अनाम रिश्ता था जो जिंदगी भर निभाया जाता रहा बिना किसी अपेक्षा के, मिलन के. न हम कभी शिमला गए न वे दोनों कभी यहाँ आए फिर भी ऐसा अटूट बंधन। इतना प्रगाढ़ प्रेम। त्याग की ऐसी विशालता! मुझे पूर्वजन्म में विश्वास नहीं इसीलिए इस रिश्ते को पूर्वजन्म के रिश्तों से नहीं जोड़ा जाता मुझसे। या शायद ऐसा हुआ हो कि मैं दादी के गर्भ में से आई और किसी दैवी शक्ति ने मुझे उनके गर्भ से निकालकर अम्मा के गर्भ में रख दिया हो। जैसे स्वामी महावीर को देवआनंदा के गर्भ से निकालकर कुंडग्राम की रानी त्रिशला के गर्भ में रख दिया था। क्योंकि देवआनंदा ब्राह्मण थी और जैन धर्म के सभी तेईस तीर्थंकर क्षत्रिय के घर जन्मे थे... परंपरा का खंडन इतनी आसानी से कैसे हो सकता है?

वसीयतनामा पढ़कर फूफासा गंभीर हो गए - "पायल! तुम्हें जाना चाहिए शिमला। सब कुछ आँखों से देखभाल आओ. उनकी जायदाद को सम्हालो।"

"हाँ पायल, नहीं तो जिम और चाची की आत्मा को तकलीफ होगी।" संध्या बुआ ने भी यही कहा।

मैं सोच में पड़ गई. जितना दूर भागती हूँ जमीन जायदाद, धन ऐश्वर्य से, उतना ही पीछे पड़ी रहती है ये संपत्ति। उधर प्रताप भवन वीरेंद्र के नाम है लेकिन सोने चाँदी के बर्तन, जेवरात और बैंक के फिक्स्ड डिपाज़िट और प्रताप भवन के पिछवाड़े की जमीन मेरे नाम है। हालाँकि उस जमीन पर वह एक फॉर्म हाउस बनवा रहा है पर मेरी इच्छा है वहाँ दादी के नाम से एक बालिका विद्यालय खोला जाए पर वीरेंद्र और उर्मिला तैयार नहीं हैं कि इतनी झंझट कौन पाले। बार-बार मीटिंग करनी पड़ेगी, विद्यालय प्रबंधन की जिम्मेवारी उठानी पड़ेगी, जिंदगी चरखी बनकर रह जाएगी।

"अब तुम तो बैरागिन हो पायल लेकिन देने वाले तो बैरागी नहीं थे। सभी चाहते हैं कि उनका कमाया गाढ़ा धन उनके बाद सही हाथों में जाए." संध्या बुआ ने मेरी उपेक्षा देख कहा तो मैं मुस्कुरा दी।

"यही तो दिक्कत है बुआ... सही हाथ कहाँ हैं मेरे? सड़ जाएगी सारी संपत्ति पड़े-पड़े।"

"तुम मार्च में छुट्टी लेकर अपनी बुआ के साथ शिमला हो आओ, देख आओ सब। मालिकाना हक जताना पड़ेगा वरना लूट लेंगे लोग।"

यही बात अजय फूफासा ने वीरेंद्र को भी लिखी कि वीरेंद्र भी साथ जाए. यह ज़रूरी है। अम्मा तो चकित थीं सब सुनकर। रात फोन पर बात हुई. बोलीं -

"इतना तो सगे भी नहीं सोचते जितना जिम ने सोचा। जिम ने अम्माजी से सच्चा प्यार किया था। प्यार की खातिर उन्होंने उनकी हर इच्छा पूरी की।"

"हाँ अम्मा ऐसे लोग बिरले होते हैं।" मेरी आवाज भावुक हो रही थी। दादी और जिम की याद से आँखें भरी जा रही थीं। संध्या बुआ ने रिसीवर मेरे हाथ से लेकर कहा -"फिर पक्का रहा भाभीसा! हम लोग इधर से शिमला पहुँचते हैं और उधर से वीरेंद्र आ जाए. चाहे तो उर्मिला को भी साथ ले आए."

"नहीं संध्या बाई, गुड्डू छोटा है अभी और उधर ठंड का मौसम तो मार्च-अप्रैल तक रहा ही आता है। वीरेंद्र आएगा, फिर उधर कॉटेज है ही, उर्मिला कभी भी घूम आएगी।"

"ठीक है।" संध्या बुआ ने एक-दो मिनिट और बात की और फोन रख चहकती-सी उठीं, "आज तो मैं अपनी लखपति बिटिया के लिए गाजर का हलवा बनाऊँगी।"

अजय फूफासा कुछ अलग ही मूड में थे - "छोड़ो हलवा-शलवा... कोई बढ़िया-सी पिक्चर देखते हैं और बाहर ही डिनर ले लेते हैं।"

ये हुई न बात।" कहती संध्या बुआ ने मेरे गाल मसल डाले और मुझे गले लगाते हुए चूम लिया।

दिल्ली में राधो बुआ के जेठ रहते हैं। वे ही हम लोगों को एयरपोर्ट से घर तक लाए, एक दिन उनके घर रुकना पड़ा क्योंकि वीरेंद्र दूसरे दिन आने वाला था। फिर कार से हम सब शिमला गए. शिमला पहुँचकर कार से उतरते ही ठंडी हवा ने बदन कँपा दिया। संध्या बुआ जल्दी-जल्दी स्वेटर, शॉल निकालकर हमें देने लगीं और खुद भी अपने को ढँकने लगीं - "कैसे रहती होंगी चाची यहाँ, मेरी तो कुल्फी जमी जा रही है।"

वीरेंद्र ऐसे ठठाकर हँसा कि चारों ओर सूनी घाटी में उसकी हँसी गूँज उठी। देवदार, ओक, चीड़ के ऊँचे-ऊँचे दरख्तों के सुई जैसे पत्तों के बीच गुजरती हवा सिसकारियाँ भर रही थी। सर्पिल पहाड़ी सड़क के एक ओर जंगली लाल, गुलाबी, सफेद गुलाब इतने अधिक खिले थे कि पत्ते तक दिखाई नहीं दे रहे थे। घाटी में दूब की तरह छिछली स्ट्रॉबेरी की लतरें दूर-दूर तक फैली थीं। उनका उलझाव जीवन के उलझाव के कितना नजदीक लगा। उलझाव में भी पुष्पित, पल्लवित, फलित होने का अपना धर्म था।