माला / परंतप मिश्र
जीवन के मोती की माला को सहेजता अग्रसर हूँ। अपने पूर्व जन्मों के प्रारब्ध को भोगता, वर्तमान के कर्म-पथ पर आनेवाले भविष्य का निर्माण करता क़दम हर क़दम।
समय की दहलीज़ पर खड़े होकर ज़िया है, न जाने कितने ग्रीष्म, शरद और वसंत को। मौसम की खिडकियों से दस्तक देती न जाने कितने शीत, तपिश और वर्षा कि फुहार को आत्मसात किया है। महसूस किया है मन के आँगन में न जाने कितने स्पर्श, अनुभूति, प्यार, दिखावा, घृणा और छलावे का व्यापार। भोली भावनाओं की अस्मिता के साथ होते खिलवाड़ और मूर्ख बनाते सम्बंधों ने झिंझोड़ कर रख दिया है।
आदर्शों पर पलते भविष्य के डॉड़-मेंड़ पर बड़े काले चट्टानों ने घर कर लिया है आने वाली सूर्य की रश्मियों को तो ऐसा प्रतीत होता है कि शायद अंधियारे में अंधे की तरह चलना ही उसकी नियति हो।
न जाने कितनी बार रूठते और मनाते टूट चुकी है ये मोतियों की सुंदर माला। एक-दूसरे से बहुत दूर जाकर ठहरी हैं, ये मोतियाँ जब-जब धागे के ह्रदय को छलनी कर उसे जार-जार किया है। पर उतनी ही बार पुनः अपने सफल प्रयासों के माध्यम से उन्हें बटोर कर संगठन की मर्यादा का पाठ पढ़ाया है। अपनी संचित शक्तियों और शेष सामर्थ्य को बटोरकर फिर से पिरो लिया है अपने ह्रदय के बिखरते मोतियों को। पर इन टूटते और बिखरते मोतियों ने अपने आपसी कलह से मज़बूत धागे के अस्तित्व को हिलाकर एक कमजोर कड़ी बना दिया है। अलगाव की असह्य वेदना से मर्माहत किया है हर एक कपास के बलिदान का।
कोई भी जनक अपने नौनिहालों को अपने सामने नष्ट होते नहीं देख सकता है। यही कारण है कि छलनी हुए कलेजे को सम्भालते और तार-तार हुए सपनों को जोड़ लिया है। एकीकृत किया है अपने टूटते सपनों की डोर को। स्वयं ही फिर एक बार संयोजन का प्रयास करते हुए गाँठ की पीड़ा को सहन किया है।
साथ-साथ रहते थे, तो उनकी एक पहचान हुआ करती थी जिसे लोग माला कहा करते थे, धागे और मोती का अभिन्न सम्बन्ध और अटूट नाता था। अपनी अस्मिता को बचाता धागा न जाने कितनी बार टूट चूका और हर बार जुड़ने पर एक गाँठ को अपने हृदय पर लगा लेता। उसके कच्चे धागे, बिखरी हुई मोतियों का पता हर राहगीर से पूँछा किया करते हैं। मुमकिन है कि अब सब साथ न पा सके एक-दूसरे का, पर उनके कुशल-क्षेम की कामना मद्धम होती साँसों की आवाजाही में सहेजा है।
अब पहले जैसी मजबूती नहीं रही इन रिश्तों में, बहुत कुछ बदल गया है। समय के साथ, कमजोर हो चला है और अब तो टूटने-जुड़ने के उपक्रम को भी न कर सकेगा। कोमल सुदृढ़ सपाट देह पर गॅाठों की लड़ी-सी बन गयी है। अब वह पुराना पौरुष और सामर्थ्य भी क्षीण होता गया है। ज़्यादा शक्ति तो शेष न रही। इस टूटने और जुड़ने में वेदना कि गॉठों ने ह्रदय को तार-तार जो कर दिया है। पर अपनी परवाह किये बगैर सीने को सिल कर गाँठ पर गाँठ बनाता गया है। पुनः उन मोतियों को पिरोने के लिए। अपने संसार-परिवार को बचाने के लिए। इसी चिंता में फिरता रहा है स्वयं को दिए-दिए। अपना सर्वस्व निछावर करके भी, मुस्कुराकर हारी हुई बाजी को जीतने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी है।
अब की बार जो टूटा तो शायद फिर न जुड़ पाए क्योंकि अब तो एक और गाँठ भी लग सके, उसकी गुंजाइश भी न रही। पर आज भी वह जर्जर और लाचार धागा अनन्त पीड़ा को सहता हुआ, अपनी अंतिम साँसों के पूर्ण होने तक, मोतियों को एक सूत्र में पिरोकर संसार से विदा लेगा। क्योंकि जीवित रहते नहीं देख सकता अपने बिखरते हुए सपनों के संसार को। सींचा है जिसे अपने लहू की एक-एक बूंदों से। जिन्हें लेकर आजीवन चला भला उन्हें छिन्न-भिन्न होते, अपने प्रयासों को कैसे छोड़ पायेगा, कौन जाने कल इनका क्या होगा? कहीं भटक ही न जायें, कहीं खों न जायें। इसी उधेड़बुन में पथराई आँखों की नमीं सूखती जा रही है। माना कि अब इन आँखों में इतनी रौशनी बाक़ी नहीं पोग कि सब कुछ साफ-साफ़ देख सके। पर समस्त शक्ति को केन्द्रित करते हुए धुंध से भरे इस कुहासे की प्राचीर को अपने दृढ़ इच्छाशक्ति से ध्वस्त करने में सफल हो सकेगा।
हर मोती के ह्रदय की धड़कनों को सुनता है उन सबके बीच से गुजरता हुआ पर अब और उर्जा बची नहीं की सभी को फिर से बाँध सके, उनके व्यर्थ के अहंकारों का भार ढो सके। आसक्ति की दहलीज़ पर अलविदा कि बेला से पूर्व मोतियों के भविष्य की अनंत शुभमंगल कामनायें। पर अफ़सोस बस इतना ही रहा कि तुम इतना ना बिखरते तो शायद और भी संग रहता हमारा और तुम्हारा। कुछ पल और साथ चलते तो संतुष्टि से निहार पाता, अपने तय किये हुए सफ़र को।
पर हताश नहीं हूँ मैं अपनी हार से, क्योंकि मैंने तय किये हैं सभी कठिन रास्ते मुस्कुराते हुए। नंगे पैर को सींचा है झरते स्वेद-बिन्दुयों के जल से तपते रेगिस्तान में। जूझा है हर मुसीबतों को अपने हौसले की बुलंदियों से। पर कभी हार नहीं मानी किसी के भी समक्ष। हमेशा पूर्ण निष्ठा से अपने दायित्व का निर्वहन किया है। अपने उद्देश्य पर अडिग रहा हूँ। दिये जलाये हैं अपने इरादों के तूफानों को ललकारा है। अपनी उम्मीदों की जुगनुओ से टोली के अंधेरों का खात्मा किया है। जिसे तुम अपनी जीत समझने की भूल कर रहे हो वह तो मेरी हार से भी अधिक हारी हुई है और मेरी हार तुम्हारी जीत से कब की जीत चुकी है।
तुम्हारी जीत की खुशियाँ मुझे भी हैं क्योंकि सबकुछ सदा नहीं रहता फिर वह चाहे किसी की सोच हो अथवा जीवन। समय के अनुसार सब बदलता रहता है। परिवर्तन के रथ पर ही समय का चक्र चलता है और बदलाव की बयार में पुरातन बह जाता है। कल की सोच पुरानी हो जाती है क्योंकि नई सोच उसका स्थान लेती है। ठीक उसी तरह जीवन भी है।
पेड़ पर लगे हुए पीले पत्तों में अब वह जान बाक़ी न रही जो हवा के झोकों को गति दे सकें बल्कि वह तो टूट कर गिर जाता है। जो कभी स्वयं हरा हुआ करता था और मदमस्त हवाओं के साथ झूमना उसका शौक हुआ करता था। पर अब उनका स्थान को नये चमकदार हरे मज़बूत पत्तों ने ले लिया है। यही तो यह संसार है और यही सृष्टि का नियम भी।