माला / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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वे दोनों कई बरसों से एक साथ थे। एक-दूजे से प्रेम का दावा भी करते थे। स्त्री उस पुरुष की वाकपटुता पर मोहित होती और उसके ज्ञान पर अचम्भित होती। पुरुष उसकी मधुर आवाज़ और उसके सरल स्वभाव पर रीझ-रीझ जाता था। दोनों एक-दूजे की मन ही मन प्रशंसा करते रहते, कई बरसों के परिचय के बाद उनके बीच एक दिन प्रेम का अंकुर पनपा। अब वे एक-दूजे के बिना एक पल भी नहीं रह पाते थे। कई बरसों तक वे एक-दूजे से बातें करते रहे। संसार की बातों से मन भर जाता तो ईश्वर की बातें करने लगते। ईश्वर की बातों से उकता जाते तो किताबों की बातें करते, प्रेम की बातें, रूह की बातें और फिर देह की बातें। बातें करते-करते वे कई बार झगड़ पड़ते, फिर एक हो जाते। ज्यादातर वे एक-दूसरे से असहमत ही नज़र आते थे।

एक दिन बातों-बातों में वे दोनों ही नज़दीक आ गए। दोनों ने एक-दूजे से कहा "जब रूह एक हो गयी तो देह को भी आपस में मिल जाना चाहिए।" वे दोनों ही सहमत थे पहली बार इस एक बात पर। पुरुष ने स्त्री से कहा, "उतार क्यों नहीं देती ये वस्त्र, ये भारी गहने।"

स्त्री बोली, "हाँ और ये देह भी उतार देते हैं हम।" वे दोनों फिर एक बार सहमत हो गए इस बात पर। दोनों ने ही अपनी-अपनी देह उतारकर खूंटी पर टांग दी और उनकी रूहें एकमेक हो आपस में मिलने लगी, तभी उस स्त्री ने देखा उस पुरुष का मन बार-बार उस खूंटी की तरफ़ जा रहा है।

"क्या हुआ? क्या देख रहे हो उधर?"

"कुछ नहीं, वह मेरी माला उस देह के साथ वहीं उस खूंटी पर रह गयी है।"

स्त्री ने देखा वहाँ उस खूंटी पर टंगी पुरुष देह के गले में कांच के रंगीन मनकों की एक माला थी, जिसमें छल, प्रपंच, झूठ, स्वार्थ और वासना के सुन्दर मनके पिरोये हुए थे, लेकिन उन सभी मनकों को एक सचाई के धागे में पिरोया हुआ था। पुरुष का ध्यान बार-बार उस माला में अटक रहा था। वह सुन्दर माला उनके मिलन में बाधा डाल रही थी। उस स्त्री का मन हुआ कि अभी जाकर एक झटके में उस देह के गले में पड़ी उस सुन्दर चमकती माला को खींचकर तोड़ दे। लेकिन वह कुछ सोचकर रुक गयी और तड़पकर रह गयी। वह जानती थी माला टूट जाने पर सचाई का वह धागा भी तो टूट सकता है और ये सुन्दर रिश्ता भी। वह सच जानने के लिए उसकी माला को कैसे नष्ट कर दे...सच का धागा कितना कुरूप दिखाई देगा, जिस दिन ये झूठ, छल-फरेब के मोती उसमें नहीं होंगे, लेकिन वह ये भी समझ रही थी पुरुष संग मिलन में ये माला हमेशा बाधक बनेगी।

उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह उस पुरुष के गले देर तक कैसे लगी रहे गले लगते समय माला के मनके उसके वक्ष में चुभते थे।

स्त्री सोचने लगी जब मिलन के समय उसने अपनी देह तक उतार के कोने में रख दी है और रूह लेकर इसके पास चली आई, उस समय भी ये पुरुष अपनी माला का मोह क्यों नहीं, छोड़ पा रहा है। उन दोनों की रूह एकमेक हो रही थी, लेकिन झूठे मनकों की माला का मोह इससे क्यों नहीं छूट रहा। यही सोच में पड़ी स्त्री ने फिर भी आगे बढ़कर उस पुरुष को गले लगा लिया, जबकि माला कि चमक से उसकी आंखें चौंधिया रही थी।

उसने गहरे प्रेम में भरकर उस पुरुष के तनिक पास सरककर कहा, "सुनो...अब तो हमारे बीच से हवा भी नहीं गुजर सकती, हम इतने पास आ गए हैं कि हमारी सांसें आपस में गड्डमड्ड होने लगी हैं। धड़कनें आपस में ऐसे गूंथ गयी हैं कि ये कहना मुश्किल है कि तुम्हारा दिल धड़क रहा है या मेरा। दूर से देखने पर हम दोनों एक ही नज़र आते हैं।"

"तो कहना क्या चाहती हो?"

"मैं कुछ कहना नहीं चाह रही, बस पूछ रही हूँ कि ये जो तुम घड़ी-घड़ी उस खूंटी पर टंगी अपनी उस माला कि तरफ़ क्यों देखते हो? जबकि तुम्हारे हाथों में मेरा चेहरा है, तुम मुझे चूम भी रहो हो न जाने कितनी देर से, फिर ये तुम्हारा ध्यान बार-बार विचलित क्यों होता है? क्या वह मनकों की माला तुम्हें बहुत प्यारी है? वह निर्जीव कांच के मोती क्या हमारे प्रेम से भी कीमती हैं?"

" अरे...ऐसा क्यों सोचना, मेरा पूरा ध्यान इस वक़्त तुम्हें प्रेम करने में ही है। अगर तुम्हें लगता है कि मेरा ध्यान बार-बार उस खूंटी पर टंगी माला पर जा रहा है और हमारे प्रेम में बाधा पहुँच रही है तो रुको, मैं उसे वहाँ से हटा ही देता हूँ। ऐसा कहकर पुरुष खूंटी पर टंगी अपनी देह को उतार लाया और उसने उस देह को पहन लिया। अब माला उसके गले में चमक रही थी।

"अब खुश?"

स्त्री मौन थी।

वह फिर दोगुनी गति से उस स्त्री को प्रेम करने लगा। उनकी देह, उनकी रूह फिर एकमेक होने लगी, तभी स्त्री की आँख में आंसू आ गए।

"अब क्या हुआ?" पुरुष लगभग चिल्लाते हुए बोला।

"कुछ नहीं प्रिये, ये तुम्हारी माला के मनके मेरे वक्षों पर चुभते हैं। देखो न एक झूठ का मनका टूटकर मेरे दायें वक्ष में चुभ गया है। तुम इस माला को हमारे बीच से हटा क्यों नहीं देते।"

"कभी नहीं, ये माला मुझे तुमसे भी अधिक प्रिय है। इसे मैंने अपनी पूरी उम्र के ज्ञान, तप और साधना से सिद्ध किया है। इसे कोई ऐसी-वैसी माला मत समझना तुम। इसमें पिरोया हुआ हर मनका अपने आपमें विलक्षण है। इसे पहनने से मेरी शोभा बढ़ती है, मेरा मान बढ़ता है।"

"लेकिन प्रिये...प्रेम के क्षणों में जब तुमने मेरी देह से समस्त वस्त्र और गहने तक उतारकर फेंक दिए हैं, तब तुम इस माला को क्यों नहीं उतार फेंकते?" स्त्री रुआंसी होकर बोली।

"तुम भी क्या बच्चों जैसी ज़िद करती हो, तुम्हें परिपक्व होना चाहिए। ये देखो मैं तुम्हें कितना प्रेम करता हूँ।"

और पुरुष फिर से उस स्त्री को बेतहाशा चूमने लगा। जितना पुरुष उस स्त्री को अपनी बांहों में कसता, वह कांच के मनके उतनी ही तेजी से उस स्त्री के वक्षों में चुभते और चीरते। प्रेम बहुत गहराई से किया जा रहा था और उस पुरुष ने अपने आलिंगन में स्त्री को इतनी ज़ोर से भींच लिया कि उस स्त्री की चीख निकल गयी। उसकी कोमल देह पर भी हूबहू वैसी ही एक माला उभर आई और उसकी रूह रक्त के आंसू रो पड़ी।