मालिक-हजूर-हाकिम / नवनीत मिश्र
पल्टनराम के घर जब छः साल में तीसरी बार जच्चगी हुई तो उसने बेटे का नाम रखा -हाकिम। हाकिम से दो बड़े थे मालिक और हजूर। मालिक और उसके बाद हजूर की आमद ने पल्टनराम की हालत निराशा से उबर आए उस जुआरी जैसी बना दी थी जो लगातार हारते चले जाने के बाद हताश हो कर फड़ से उठने को ही होता है कि तभी उसकी गोटियाँ हरी होनी शुरू हो जाती हैं और लालच फिर उसको उठने नहीं देता।
शादी के दस बरस बीत जाने के बाद भी जब बीवी ने कच्चा आम खाने की इच्छा जाहिर नहीं की तो पल्टनराम ने अपने मन को पूर्वजन्म में किए गए पापों का दण्ड भोगने के लिए तैयार कर लिया। उन दस वर्षों में कोई व्रत, कोई पूजा और कोई मनौती उससे नहीं छूटी थी। दरगाहों, मंदिरों और फूँक कर पानी पिलानेवालों के दरवाजों पर माथा टेकते-टेकते पल्टनराम दोहरा हो चुका था। पिंजरे में कैद फुटपाथ के हीरामन ने उसके नाम के नहीं कुछ तो बीसेक लिफाफे तो खोले होंगे जिनमें से नौ-दस बार संतान की भविष्यवाणी लिखी हुई थी। 'गऊ से पूछ लेव भाय' वाले तिलकधारी ने भी गऊ के सामने जितनी बार पल्टनराम का सवाल रखा, गऊ के नाम पर इस्तेमाल में लाए जा रहे बैल ने भी 'हाँ' कहने के लिए सिर हिलाया था। लेकिन सारी उम्मीदों ने हर महीने नाली में बह जाने का जैसे नियम बना लिया था। पल्टनराम भीतर से एकदम बुझ चुका था।
पल्टनराम अपने उस पिता का एकलौता बेटा था जो खुद भी अपने पिता की अकेली संतान थे। एक तो वंशवृक्ष के सूख जाने की आशंका उसे ऐसे ही मथे डालती थी ऊपर से माँ भी यह चेतावनी देकर विदा हुई थीं कि 'बेटा न पैदा हुआ तो तू तरेगा नहीं।' माँ की बात याद आती तो भय के मारे उसकी नींद उड़ जाती। उधर बीवी भी 'बाँझ 'की जहरबुझी फुसफुसाहटों से लहूलुहान हो कर कटखन्नी-सी होने लगी थी। तभी मुहावरे में कहा जाए तो उस पर नेमतों की ऐसी बारिश हुई कि छः बरस में उस निपूती की झुकी रहा करनेवाली गरदन तीन-तीन बेटों वाली माँ के घमंड में तनी रहने लगी।
पल्टनराम सोचता रहता कि मालिक और हजूर के बाद एक बेटा और हो जाए फिर वह सरकारी अस्पताल जाकर नसबंदी करा लेगा। एक तो आपरेशन कराने पर हर महीने तनख्वाह में कुछ बढ़ोत्तरी हो जाएगी और फिर सारी चिंताओं से मुक्त रह कर बाकी जिन्दगी भरपूर मजा उठाएगा। जैसे फिल्मों में किसी विशालकाय तिजोरी का नंबर वाला ताला खोलने से पहले चोर को चाबीवाली जगह पर कान लगा कोई आहट-सी लेते हुए दिखाया जाता है, पल्टनराम भी अपनी बीवी के पेट पर कान सटा कर आहट लेने की कोशिश करता रहा था कि तीसरी बार भी भीतर कोई हिल ही रहा है न, कोई हिल तो नहीं रही। तीसरी बार भी उसका दाँव सही बैठा था। दाई ने जैसे ही बेटा पैदा होने की खबर सुनाई, पल्टनराम थाली पीटता हुआ अपनी कुठरिया के सामने देर तक नाचता रहा था।
पल्टनराम को वह दिन अच्छी तरह याद है जिस दिन बीवी ने पहली बार अपने उम्मीद से होने की खबर उसे सुनाई थी। उसी दिन चपरासी की उसकी टैंपरेरी नौकरी पक्की हुई थी। उस दिन उसने राहत की साँस ली थी कि अब वह गरीब की जोरू जैसा नहीं रह गया था कि कैजुअल चपरासी को जो चाहे सारा दिन रगेदे रखे। परमानेंट होने के बाद उसे, आफिस के सबसे बड़े साहब के साथ लगाया गया जिनका काम करनेवाला चपरासी छुट्टी पर चल रहा था। बाद में उसके छुट्टी से लौटने के बाद भी साहब ने पल्टनराम को अपने पास से हटाया नहीं था। परमानेंट होने के कुछ दिनों बाद एक दिन पल्टनराम आफिस से रोज की तरह नंगे सिर नहीं लौटा। अचानक सामने आकर खड़े हो गए पल्टनराम को पहचानने में उसकी बीवी को भी कुछ क्षण लग गए। लगा जैसे चारजामा कसे सिर पर मौर रखे वो सामने आ गए हों। उसके सिर पर झब्बेदार पगड़ी थी जिसके बीचोंबीच चमचमाती पीतल की कलगी थी, कन्धे पर चपरास की चौड़ी लाल पट्टी यज्ञोपवीत की तरह पड़ी थी जो उसकी सफेद वर्दी पर खूब फब रही थी। दाहिने कन्धे से कमर की बायीं तरफ जाने वाली चपरास की लाल पट्टी में ऊपर कन्धे के जरा सा नीचे पीतल का ही एक अण्डाकार बैज लगा हुआ था जिसमें नये होने की चमचमाहट थी। पल्टनराम ने अपनी पगड़ी उतार पर बीवी को सौंप दी जिसे वह अपनी गोद में रखे देर तक सहलाती रही थी।
पल्टनराम के लिए उस दिन से जुड़ी हर चीज महत्वपूर्ण और यादगार बन गई थी। उसकी नौकरी का पक्का होना, उसके बाप बनने की सूख चुकी उम्मीद का हरिया उठना, उसको हँसमुख और अपने से लगनेवाले बड़े साहब श्रीवास्तवजी की सेवा में लगाया जाना और सारी बातों के ऊपर याद रह जाने वाला साहब का वह जुमला कि 'अच्छा मेरे साथ आपको लगाया गया है?' पल्टनराम को, बड़े साहब का यह वाक्य और खासतौर पर 'आपको' भीतर तक भिगो गया।
ये वो खराब दिन थे, जब अच्छी खबर न सुनाने और पास आते ही बर्फ की सिल जैसी हो जाने की वजह से पल्टनराम का जी अपनी बीवी की तरफ से उचाट-सा रहने लगा था। उन दिनों में समय से बहुत पहले उसका आफिस पहुँचना घर से आफिस के बहाने किसी तरह भाग निकलने का एक बहाना हुआ करता था लेकिन बड़े साहब श्रीवास्तवजी की सेवा में लगने के बाद स्थितियाँ बड़ी तेजी से एकदम बदल गईं थीं। उसे लगता कि यह श्रीवास्तवजी के ग्रह-नक्षत्रों का ही प्रभाव है कि उनके सम्पर्क में आते ही पल्टनराम की बीवी की दस साल तक धूल के बगूले उड़ाती रही रेगिस्तान जैसी कोख में सोता फूट पड़ने को है। उसका घर में अपनी बीवी के पास भी खूब मन लगने लगा और सबसे ज्यादा सुख उसे अपने श्रीवास्तवजी की सेवा में मिलता।
समय से पहले वह अब भी आफिस पहुँचता मगर अब उसमें श्रीवास्तवजी से मिलने, उनको देखने और उनकी सेवा करने का उछाह छलछलाता रहता। बड़े साहब के आने से पहले वह उनकी मेज की एक-एक चीज को चमका देता, टेबिल डायरी के पिछली तारीख के पन्ने को पलट कर उस दिन की तारीख का पन्ना सामने कर देता, पेन की रीफिल की रोशनाई का प्रवाह जाँचने के लिए गदेली पर लकीरें खींच कर देख लेता और बास्केट से पिछले दिन के फाड़ कर फेंके गए कागज वहाँ से हटा कर बास्केट एकदम साफ कर देता। गिलास में ताजा पानी भर कर क्रोशिया से बने जालीदार कोस्टर से ढँक देता और बाहर स्टूल पर बैठ कर प्रतीक्षा करने के लिए जाने से पहले एक निगाह फिर दौड़ाता कि कोई चीज छूट तो नहीं गई है। ऐसे तमाम काम पल्टनराम श्रीवास्तवजी के आने से पहले पूरे कर लेता। यों जो काम पल्टनराम करता था वह सब उसकी ड्यूटी में आते थे जिन्हें उसे करना ही था लेकिन नियमावली में कहीं यह तो लिखा नहीं होता कि कामों को करते हुए कोई उनमें अपनी प्यार भरी छुअन भी मिलाएगा।
पल्टनराम का सवेरा इस खुशी के साथ शुरू होता कि जल्दी ही वह श्रीवास्तवजी से मिलेगा, सारा दिन तो उनकी सेवा करते बीतता ही, शाम को पत्नी से बातचीत करने में भी मुख्य विषय श्रीवास्तवजी ही रहते और रात में उन्हीं को याद करते-करते सो जाने वाले पल्टनराम के लिए श्रीवास्तवजी किसी भगवान से कम नहीं थे। बल्कि भगवान कहना उसे श्रीवास्तवजी से कुछ दूर करने जैसा होगा। पल्टनराम के लिए श्रीवास्तवजी किसी उस बच्चे जैसे थे जिसे अभी अभिभावक की सतर्क देखरेख की जरूरत थी और अपने आप को अभिभावक के रूप में देख रहे पल्टनराम को अपनी जिम्मेदारी लगती कि वह श्रीवास्तवजी की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखे। वह ध्यान रखता कि लम्बी-चौड़ी मेज पर कोई चीज ऐसी जगह पर न रखी हो जिसको उठाने के लिए श्रीवास्तवजी को अतिरिक्त श्रम करना पड़े। टेबिल लैम्प जला कर वह उसे ऐसे कोण पर रखता कि रोशनी मेज पर गिरे न कि बल्ब की चौंध श्रीवास्तवजी की आँखों को तकलीफ पहुँचाए। लेफ्ट हैंडर श्रीवास्तवजी के लिए उसने उनकी घूमनेवाली कुर्सी की बायीं तरफ टेलीफोन की ट्राली को इतनी दूरी पर रखा था कि चारों में से कोई भी फोन उठाने के लिए श्रीवास्तवजी को हाथ बढ़ाने के अलावा और कोई प्रयास न करना पड़े।
पल्टनराम को श्रीवास्तवजी के आफिस पहुँचने की आहट उनकी कार के इंजन की आवाज से मिल जाती थी। आफिस परिसर में कार के प्रवेश करने से पहले ही पल्टनराम पार्टिको में खड़ा पाया जाता। कार के रुकते ही वह न जाने कितनी तेज गति से काम करता कि श्रीवास्तव जी की 'आइये हजूर' कहते हुए कार से बाहर अगवानी भी कर लेता, उनका ब्रीफकेस भी उठा लेता और श्रीवास्तवजी के कमरे तक पहुँचने से पहले ही 'मालिक' के अस्फुट अभिवादन के साथ उनके लिए चिक भी उठा देता। श्रीवास्तवजी के आफिस में आने के बाद पल्टनराम उन्हें, 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' की तरह अपनी हथेलियों के घेरे में ले लेता। जब कभी वह श्रीवास्तवजी को अँगूठे और तर्जनी से आँखें दबा कर आराम पाने की कोशिश करते देखता तो एक अधिकार भाव के साथ टेबिल लैम्प बुझा देता, 'बस मालक, अब दस मिनट तक कोई काम नहीं।' लेकिन श्रीवास्तवजी तुरन्त टेबिल लैम्प को जला लेते, 'आफिस में ऐसा थोड़ी होता है पल्टनराम जी। आप इस बात को क्यों नहीं समझते?' पल्टनराम, श्रीवास्तवजी की थकान से व्यथित और कर्तव्यनिष्ठा से अभिभूत वापस वराण्डे में पड़े अपने स्टूल पर जाकर बैठ जाता। श्रीवास्तवजी का चपरासी तैनात हुए पल्टनराम को सात साल हो रहे हैं और समय जाने का उसे पता भी नहीं चला। जैसे कोई अपनी प्रेमिका का दुलार करने के लिए उसे कई-कई नामों से बुलाता है, पल्टनराम भी श्रीवास्तवजी को कभी मालक और कभी हजूर कहता। किसी बाहरी आदमी के कमरे में बैठे होने पर वह श्रीवास्तवजी को 'सर' कह कर संबोधित करता। अवसर के अनुसार उसके 'सर' कहने पर श्रीवास्तवजी मुस्करा देते जिसको देख कर पल्टनराम निहाल हो जाता।
'पल्टनराम जी, जरा मेरा एक काम करके आइये', श्रीवास्तवजी ने एक दिन पल्टनराम को बुला कर कहा।
'बोलिए हाकम।' पल्टनराम के मुँह से अचानक निकला। उसी दिन उसके मन में आया कि अगर उसकी बीवी को तीसरी बार भी बेटा हुआ तो वह उसका नाम हाकिम रखेगा। मालक और हजूर के बाद हाकम...
'आप जाइए और बच्चे की फीस जमा कर आइये', श्रीवास्तवजी ने सौ-सौ के नोटों की गड्डी और स्लिप-बुक ब्रीफ-केस से निकाल कर उसकी ओर बढ़ाई।
पल्टनराम ने इससे पहले सौ रूपये की समूची गड्डी कभी अपने हाथ में पकड़ी नहीं थी। सौ-सौ के सौ कलफ लगे नोट उसके द्वारा कहीं दिए जाएँगे यह सोच कर उसे रोमांच हो आया। इतनी बड़ी रकम सौंप कर श्रीवास्तवजी ने जो उस पर जो विश्वास दिखाया था उसके लिए वह उनके प्रति कृतज्ञता से भर उठा।
श्रीवास्तवजी के बच्चे के स्कूल जाने पर पल्टनराम को अपने स्कूल जाने लायक हो रहे बच्चों का ध्यान हो आया। सौ-सौ के सौ पिन लगे नोट बगैर गिने जमा करने पर जो एक अव्यक्त-सी पुलक का अनुभव हो रहा था वह गहरी निराशा में बदल गई। साहब के बेटे की एक महीने की जितनी फीस है उससे आधी से कुछ कम तो उसकी कुल तनख्वाह है। पल्टनराम के मन में यह कठोर सच्चाई खुब कर रह गई थी कि ऐसे स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चों के भाग ही कुछ और होते हैं। वह कल्पना में जितना ही अपने बच्चों को यूनीफार्म पहने देखना चाहता, यूनीफार्म और उसके बच्चे छिटक कर एक-दूसरे से दूर जा पड़ते। उसको अपने सिलबिल्ले से दिन भर गली में मारपीट करके खेलनेवाले बच्चों पर तरस आता। जब तक वह श्रीवास्तवजी के बच्चे के स्कूल नहीं गया था तब तक उसे पता ही नहीं था कि दो मिनट में तैयार हो जाने वाले सफेद केचुए खानेवाले बच्चे सचमुच इस धरती पर रहते हैं।
एक दिन पल्टनराम बीवी और तीनों बच्चों को लेकर 'गोपी' फिल्म दिखाने ले गया। फिल्म में जब दिलीप कुमार नाच-नाच कर गाने लगा कि 'बड़ा होके बनेगा साहब का चपरासी' तो उसे अपने बेटे कमरे के बाहर चिक के पास स्टूल पर बैठे दीख पड़ने लगे। उसने भीतर तक एक तड़प महसूस की और गोद में बैठे छोटे हाकिम को अपने से इतनी जोर से भींचा कि वह चीख पड़ा।
'पगला गए हो का जी?' बीवी ने हाकिम को उसकी पकड़ से छुड़ाते हुए घुड़का।
पल्टनराम हमेशा सोच में डूबा और खोया-खोया सा रहने लगा। वह हमेशा सोचता रहता कि वह क्या करे कि अपने मालिक, हाकिम और हजूर को पढ़ा-लिखा कर श्रीवास्तवजी जैसा बड़ा आदमी बना सके। श्रीवास्तवजी नाम की एक रामधुन थी जो पल्टनराम के भीतर लगातार बजती रहती थी। उस दिन स्कूल जाकर पल्टनराम को पता लगा कि वह कौन सी चीज है जिसको पा कर कोई बच्चा श्रीवास्तवजी के बच्चे की तरह फूल सा खिल उठता है और एक उस एक चीज के न मिलने पर पल्टनराम के बच्चों जैसा रह जाता है।
पल्टनराम ने मन ही मन श्रीवास्तवजी का एक अहसान और स्वीकार किया कि उनकी वजह से ही यह मुमकिन हो सका कि वह अपने बच्चों के बारे में इतनी बेचैनी से सोचने लगा है। उसे लगता कि श्रीवास्तवजी ने उस दिन फीस जमा कराने के बहाने से उसे स्कूल इसीलिए भेजा होगा कि मैं जान सकूँ कि दुनिया सिर्फ उतनी ही नहीं है जितनी वराण्डे में पड़े स्टूल पर बैठ कर या घर की कुठरिया में लेटने पर दिखाई देती है। उसे लगता कि श्रीवास्तव जी ने उसे इशारों ही इशारों में उस रास्ते का पता बता दिया है जिस पर चल कर उसके मालिक, हजूर और हाकिम भी एक दिन श्रीवास्तवजी की तरह साहब बन कर ठंडे कमरे में बैठ सकते हैं।
पल्टनराम शाम को आफिस से घर लौटते और जब सड़क से ही मालक, हजूर और हाकम को उनके नाम से पुकारते तो लगता जैसे श्रीवास्तवजी के स्नेह की छाँव उनके साथ घर तक चली आई है।
'आपने ये देखा पल्टनराम जी? सरकार ने आप लोगों के बच्चों की पढ़ाई के लिए वजीफा देने की नयी योजना शुरू की है।', एक दिन श्रीवास्तवजी ने एक अखबार में नमूने के तौर पर छपे फार्म को दिखाते हुए कहा।
'मेरे बच्चों के भाग में पढ़ना-लिखना कहाँ रखा है हाकम।', पल्टनराम ने अपनी उस रग को दुखने से बचाने की कोशिश की जो वैसे भी कई दिनों से तड़क रही थी।
'अरे, ऐसा क्यों सोचते हैं? मेरा बच्चा पढ़ सकता है तो आपका क्यों नहीं? और फिर सरकार ने आप जैसे लोगों के बच्चों के लिए ही तो यह योजना शुरू की है। एक दिन छुट्टी ले लीजिए और फार्म भर कर बच्चों को स्कूल में दाखिल करा दीजिए।'
श्रीवास्तवजी की बात सुन कर अवाक रह गया पल्टनराम। यह सोच कर भरभरा-सा गया कि, कोई इतना भी अच्छा कैसे हो सकता है? श्रीवास्तवजी उसे अच्छे तो पहले दिन से ही लगने लगे थे लेकिन अब तो वह उन्हें प्यार करने लगा था। 'बड़ा हो के बनेगा साहब का चपरासी' का जहर भी इतने दिनों बाद एकदम से उतरता सा जान पड़ा।
पल्टनराम दौड़ते-दौड़ते थक गया था लेकिन उस सरकारी शुभेच्छा का लाभ उसके बच्चों से दूर ही बना हुआ था। सरकारी स्कूल के आफिसवाले कुछ बताते ही नहीं थे कि उसके बच्चों को सरकारी योजना के तहत स्कूल में दाखिला क्यों नहीं मिल सकता। जितनी बार वह स्कूल के आफिस गया, वहाँ के बाबू उसके फार्म निकालते और सपाट कह देते कि 'फार्म नामंजूर हो गए हैं, तुम्हारे बच्चों को दाखिला नहीं मिल सकता।' पल्टनराम को अपने बच्चों का भविष्य अंधकारमय दीख पड़ने लगा, लेकिन उसने हार नहीं मानी। अन्तिम प्रयास के रूप मे उसने श्रीवास्तवजी से अपनी व्यथा कही।
श्रीवास्तवजी ने स्कूल के प्रिंसिपल को फोन मिलाया और स्पष्ट आदेश दिया कि पल्टनराम के तीनों लड़कों का दाखिला करके उन्हें, काम हो गया, की सूचना दीजिए।
पल्टनराम अपने लड़कों के लिए इतनी बार दौड़ चुका था कि उसका सारा मामला प्रिंसिपल साहब को भी अच्छी तरह से याद था।
'लेकिन सर, प्रिंसिपल ने हकलाते हुए कहा, 'फार्म पर पल्टनराम ने अपने बेटों के नाम मालिक श्रीवास्तव, हजूर श्रीवास्तव और हाकिम श्रीवास्तव लिख रखे हैं, बताइये क्या करूँ?'