मालिक के जूते / मंजरी शुक्ला
इलज़ाम, बेवफाई और ताने ... खाने-पीने जैसा ज़रूरी हो गया हैं सरला के लिए ...लात घूँसे तो बोनस हैं, जो साल में एक बार की जगह आये दिन मिला ही करते हैं, आखिर मिले भी क्यों नहीं, उसका अमर यानी पति ही इतना उदार और बड़े दिल वाला है, जो बिना जूता फेंके उससे बात ही नहीं करता। गली हो या मोहल्ला, अड़ोसी हो या कोई पड़ोसी, नाते रिश्तेदार तो खैर इन सब बातों के आदी हो गए थे, इसलिए वह किसी के सामने भी जूता फ़ेंक कर मारना अपनी मर्दानगी समझता था और दयालु तो इतना था कि जब सड़क चलते अमर उसे जूता मारता तो आस पास की नालियों का ज़रा भी ध्यान न रखता, बस दे मारता धडाक से और बेचारा कर्ण की औलाद हमेशा एक जूते को सरकार के नालो में दान करके सरला को गालियाँ देता घर लौटता और ये सिलसिला चलता रहा दिनों, बरसों और महीनों जब तक कि अमर के पास हर जोड़ी में से एक जूते का ढेर आँगन में छत के गले नहीं लग गए. धीरे-धीरे मोहल्ले वालों की उत्सुकता जागी खासतौर से सफाई करने वाले जमादारों की, जो रोजाना नालियाँ साफ़ करते थे। उन्हें जब भी नालों की सफाई में एक जूती पड़ी मिलती तो उन्हें तुरंत पता चल जाता कि आज फिर सरला भाभी बेचारी अमर से जानवरों की तरह पिटी हैं।
जब ये दैनिक क्रियाकर्म जैसा दस्तूर उन्हें समझ में आ गया तो उनमें सबसे बेवकूफ समझे जाने वाले बन्दे ने पता नहीं एक दिन अचानक क्या सोचकर जूते इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। वह चुपचाप हर रोज नालों से जूते उठाता और अपने घर के आँगन के एक कोने में बड़े सलीके से रख देता। उधर अमर ने सरला पर ज़ुल्मों का सिलसिला बरकरार रखा हुआ था। जब कई बार सरला मार खाते-खाते थक जाती तो अमर के पैरों में गिड़गिड़ाती कि उसे वह तलाक दे दे। अमर तो कुढ़कर तैयार भी हो जाता पर शहर भर की सबसे काइयाँ और धूर्त औरत बदकिस्मती से अमर की माँ थी जो अपनी धुंधली गिद्धदृष्टि चौबीसों घंटे सरला के ऊपर रखती और वह यह बात भली-भाँति जानती थी कि सरला जैसी सुशील, आज्ञाकारी और जानवरों की तरह घर के कामों में जुटी रहने वाली फ़ोकट की नौकरानी उसे दिन में भी चिराग लेकर ढूँढने से भी नहीं मिलेगी। इसलिए जैसे ही सरला घर से जाने की बात करती तो वह उसे अपनी पोती का हवाला देकर कहती कि बिना माँ की बच्ची से कौन भला ब्याह रचाएगा और फिर वह तुरंत अपनी विषैली केंचुली उतार फेंकने का ढोंगकरती और सरला को बाहों में भर कर कहती, "अपनी माँ को क्या तू इस जन्मजात दानव के हवाले कर जायेगी मेरी चाँद—सी बच्ची। तू तो जानती ही है कि ये मुआ दिन-रात दारू पीकर छुट्टे सांड-सा इधर-उधर डोला करता है। ये क्या मुझ बुड्ढी अभागन के मुहँ में मरते समय दो बूँद गंगा जल डालेगा।
सरला कुछ कहे इससे पहले ही वह छाती पीट-पीट कर चिल्लाती-" हे भगवान, मुझे अपनी बहू के सामने ही उठा ले, मेरा पति तो पहले ही उठा लिया अब मेरी इस काया को क्या चीलों और गिद्दों के भरोसे छोड़ने के लिए मुझे साँसे दे रहा हैं। "घड़ियाली आँसुओं से कोमल ह्रदय सरला पिघल जाती और बुढ़िया के सामने ही रोने लगती और मन में सोचती कि मांजी के नहीं रहने पर वह अमर से तलाक ज़रूर ले लेगी और अपनी बच्ची को लेकर कहीं चली जायेगी। इसी तरह साल दर साल मौसम बदलते रहे, समय गुजरता, पर नहीं बदला तो अमर का व्यवहार। लेकिन था वह बहुत ही घाघ ...उसने सारे तीर-तिकड़म अपनी माँ से विरासत में हासिल किए थे। गली के पान वाले से लेकर शहर की आखिरी सीमा तक कोई ऐसा शख्स नहीं बचा था जो उसको याद नहीं करता हो और रोजाना ईश्वर से उसके ज़िन्दा रहने की दुआएँ न माँगता हो।
आखिर वे सभी बेचारे करते भी तो क्या ...उन सभी को बेवकूफ़ बनाकर अमर हज़ारों रुपए सबसे ऐंठ चुका था और सभी को आशा थी कि एक न एक दिन उनकी गृह दशा से साढ़े साती हट जायेगी और उन्हें पैसे ज़रूर वापस मिल जायेगे। तभी बेचारी एक निरीह औरत का कोसना उसकी गेंडे जैसी खाल पर सुई की तरह महसूस होता क्योंकि उसकी रक्षा के लिए तो शहर भर में उधार देने वालों की दुआओं के कवच मौजूद थे। जिनका नख से लेकर शिख तक उसको देखते ही जल भुन जाता था और उनका रोंया-रोंया सुलग उठता था पर वे अपनी कुंठा को दबाकर असफल मुस्कुराने का प्रयत्न करते। वे सभी अच्छी तरह से जानते थे कि होंठों पर झूठी मुस्कराहट चिपकाने से तो हो सकता है कि कहीं कोई छोटा मोटा चमत्कार हो जाए और उन्हें अपना पैसा वापस मिल जाए पर अमर से दुश्मनी लेकर तो अपना पैसा निकलवाना ही असंभव था।
आखिर वह बेचारे भले लोग भी क्या करते, जिन्होंने बचपन में पढ़ा था कि भगवान सब जगह है और वह सब देखता है, तो बस यही बात उन्होंने अपने दिलो दिमाग में इस कदर बिठा ली कि जब उन्होंने पैसा दिया तो एकमात्र बैकुंठ नाथ को ही अपना गवाह माना। उन्हीं त्रिलोकी नाथ ने लगता है कि उन सबकी बुद्धि ऐसी फेर दी होगी इस पृथ्वी के एकमात्र प्राणी को भी उन्होंने अपना गवाह नहीं बनाया। पर बुढ़िया ये बातें बखूबी जानती थी और सदा ही दीन-हीन और लाचार बनने का ऐसा सशक्त अभिनय करती कि रंग मंच के कलाकार भी उसके आगे पानी भरते नज़र आते बाहर से तो सूखा भी पत्ता मुफ्त में उड़कर आ जाये तो उसके कलेजे को बड़ी ठंडक मिलती थी, लेकिन जब कभी घर से एक फूटी कौड़ी भी बाहर जाने की बात हो तो वह अंधी, अभागन, विधवा और पता नहीं क्या-क्या कहकर अपने आपको इतना धिक्कारती कि सामने वाला आदमी पसीना पोंछते हुए उल्टा पैर भाग खड़ा होता कि कहीं इस बुढ़िया को दिल का दौरा पड़ गया तो फांसी पर उसे ही झूलना पड़ेगा।
साँवली सलोनी और बेहद खूबसूरत चेहरे की उदास स्वामिनी सरला से सभी को सहानभूति होती। आसपड़ोस की महिलाओं में तो कीर्तन वाले दिन हनुमानजी का कीर्तन छोड़कर अभागन सरला का ही कीर्तन होता रहता। औरतों का ध्यान भजनों में कम और अमर की गालियों और सरला के रोने पीटने की आवाजों में ज़्यादा लगता। बीच-बीच में बुढ़िया की आवाज़ ज़रूर सुनाई देती जो चाणक्य नीति खेलकर दोनों और मिली हुई होती। हनुमान जी की प्रतिमा तो उनके आगे धूमिल हो उठती और सभी भक्तिनों के कान दीवाल से जा चिपकते। उस वक़्त उनको परमात्मा से केवल एक शिकायत रहती थी कि उन्हें सिर्फ़ दो कान ही क्यों दिए. एक कान ऐसे मौकों के लिए अलग से देना था जिसे जब चाहते मौका पड़ने पर जोड़ लेते और हटा लेते। आखिर ये सब कहीं रोज-रोज सुनने को मिलता है क्याा? वे सब भी गाहे-बगाहे पिटती ही रहती थीं, अपने पति परमेश्वरों से लेकिन मजाल है कि कभी किसी को इसकी भनक भी लगी हो। खैर, सब अपना-अपना दर्द याद करके वापस सरला पुराण की तरफ मुखातिब हो उठतीं।
आखिर इसी पुराण के भरोसे तो अगला मंगलवार बड़े लम्बे इंतज़ार के बाद आता है। कई सोचती कि पति का तो धर्म ही हैं पत्नी को पीटना ... इतना पीटना कि जब तक वह सुधर कर सती सावित्री की तरह ना बन जाए. आधी सोचती कि चलो जब उनके हनुमान जी के मित्र तुलसीदास ही कह गए हैं कि" ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, ये सब ताडन के अधिकारी" तो सरला को अगर ताड़ना मिल ही रही है तो वे क्या कर सकती हैं। इन्हीं के बीच में कुछ औरतों में इंसानियत अभी भी ज़िन्दा थी। वे दबे स्वर में जब तब कहतीं, 'अरे, कितने निष्ठुर माँ बाप होंगे, जिन्होंने अपनी फूल-सी बेटी इस दानव के हाथों में सौप दी।' तभी दूसरी जो माथे से लेकर आधे सिर तक सिन्दूर की मोटी परत लगाती थी, मंजीरे बजाते हुए बोल उठती, 'मेरा तो मन करता है कि इसकी माँ को चुपके से यहाँ बुला लें, अपनी लड़की का ऐसा हाल देखेगी तो खुद ही इसको लेकर यहाँ से चली जायेगी।'
मगर उनकी ये बात खुसुर पुसुर के साथ ही शुरू होती और वही बंद हो जाती, आखिर वे सभी जानती थीं कि सरला के घर के अन्दर वे जा नहीं सकती थी और वह बुढ़िया अपनी बहू को सिवा छत पर कपड़े सुखाने के अलावा कहीं जाने नहीं देती थी। उनमें से किसी को यह नहीं पता था कि बदकिस्मती तो सरला अपने जन्म के साथ ही लिखवाकर लाई थी। जैसे ही पैदा हुई माँ चल बसी. बस मोहल्ले भर की जितनी बुढ़ियाएँ थी और जिनके अस्तित्व का किसी को जरा-सा भी भान नहीं था और ना जाने कब से वह अपनी ज़िन्दगी से हारे बैठी थी, उन्होंने सरला को कुलच्छनी का तमगा पहना दिया। घर में तो उनकी कोई सुनता नहीं था, आधी से ज़्यादा विधवा थी तो समाज के तानों से आत्मसात हो चुकी थी और आज तक उन्हें कोई इतनी आसानी से अपना बदला निकलने के लिए मिला नहीं था, तो उन्होंने अपनी सारी हताशा और कुंठा एक मासूम दुधमुही बच्ची पर निकालने की ठानी और एकजुट होकर उसे दाई से मरवाने की कोशिश भी की।
ये वही औरतें थीं जो नौ दिन दुर्गा माँ के नाम पर भूखी प्यासी रहती और कुँवारी कन्या को मीलों दूर से ढूंढ-ढूंढ कर लाती और उसकी आलता कुमकुम लगाकर पूजा करती। पर कहते हैं ना जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय, तो यही सरला के साथ भी हुआ, क्यों हुआ ...इसका जवाब शायद यही होगा कि उसका निर्दय भविष्य उसको तिल-तिल कर मारने की योजना बना रहा था ऐसे में भला विधाता इतनी आसान मौत उसे कैसे दे देता। दाई धर्म कर्म वाली महिला थी जिसके ह्रदय में भगवान का नाम सदैव चलता रहता था। इसलिए उसने ये पाप काम करने से मना कर दिया और सरला के बाबूजी को जाकर सारी बातें बता दी। वे बेचारे एक तो वह वैसे ही पत्नी की मौत के ग़म में रो-रोकर पागल हुए जा रहे थे और दूसरी तरफ अपनी नवजात कन्या के ऊपर मौत का खतरा देख आतंकित हो उठे और आनन् फानन में जितना थोड़ा बहुत नगदी और जेवर समेट सके उसे लेकर गाँव छोड़कर कलकत्ता चल दिए. रात-रात भर जाग कर बस सरला का ही चेहरा निहारते रहते और उसे गले से लगाकर अपनी बदकिस्मती पर फूट-फूट कर रोते।
उनका बस चलता तो एक पल के लिए भी उसे अपनी आँखों से ओझल न होने देते। पर प्यार को मन में रखकर पेट की आग शान्त करने के लिए बाहर निकलना ही पड़ता है। जब पास के पैसे ख़त्म होने लगे तो उन्हें काम पर जाने की सुध आई लेकिन सरला की जिम्मेदारी किसे दें, यही सोचते हुए वह एक दिन घर के बाहर खड़े थे कि पड़ोस की ही एक महिला जो उनसे रोजाना नमस्ते करती थी दिखी। उन्होंने उससे बच्ची को थोड़ी देर सँभालने की गुज़ारिश की और उसे इसके बदले में कुछ मेहनतानादेना चाहा। लेकिन उस औरत ने एक भी रुपया लेने से मना कर दिया और बच्ची को देवी का रूप कहकर उसे पालने को सहर्ष तैयार हो गई. यह दुनिया में सबसे बड़ा सत्य हैं कि जब किसी भी स्त्री या पुरुष को अपने बस में करना हो तो उसकी औलाद को प्यार करना शुरू कर दो, वह बिना पैसे का तुम्हारा गुलाम हो जाएगा और यही बात यहाँ भी सौ फीसदी सच साबित हुई. पर बाबूजी ने विषकन्या के विषय में केवल किस्से कहानियोँ में ही सुना था या फिर उनके पसंदीदा उपन्यास "चंद्रकान्ता" में पढ़ा था।
उन्होंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि जिस चरित्र को वह बरसों से पढ़ते और सुनते चले आ रहे थे, उसका दबे पाँव आगमन उनके जीवन में जहर घोलने के लिए हो चुका था और वह उसकी आहट तक को महसूस तक नहीं कर पा रहे थे। जब रोजाना मिलना जुलना शुरू हो गया तो एक दुसरे का सुख दुःख भी साझा होने लगा। बाबूजी के पास तो सुख की कल्पना ही दूर थी। दिन भर बैल की तरह खटते और जो भी पैसा मिलता वह दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा देते। आखिर इतने बड़े महानगर में किसके पास इतनी फुर्सत थी कि किसी गरीब आदमी का दुखड़ा सुने, हाँ, उनकी जगह अगर कोई दौलतमंद व्यक्ति होता तो सैंकड़ो मुलाज़िम हाथ जोड़े खड़े रहते और घर-बाहर का सारा काम त्याग मातमपुर्सी में लग जाते। पर यहाँ तो मामला ही दूसरा था। बाबूजी तो शुरू से ही मितभाषी थे। उनके घर परिवार में ये बात सब जानते थे, इसलिए उनकी पत्नी भी बड़ी चुन कर सात गाँवों से खोजकर बहुत ही कम बोलने वाली लाई गई थी, ताकि खूब बकर-बकर करके वह बाबूजी का जीना हराम न कर दे। पर जैसे सूत और कपास का साथ होता है, वैसे ही दोनों बिना कुछ कहे सुने एक दूजे में रम गए थे। बिना शब्दों के आदान प्रदान के ही एक दूसरे की भावनओं को पढ़ लेना और समझ लेने का गुण तो जैसे विधाता ने उन्हें विवाह के तोहफ़े के रूप में दे दिया था। ना तो बाबूजी को कभी चीखना पड़ा और ना कभी सरला की माँ को छत्तीस कलाएं दिखाकर अपनी
बात मनवानी पड़ी। बाबूजी की माँ तो सबेरे शाम अपनी बहू की नज़र उतारती नहीं थकती थी और मोहल्ले वालों की नज़रों से उसे बचाए रखती कि कहीं दुनिया का पानी उनकी भोली भाली बहू पर भी न चढ़ जाए और घर का शान्त मधुवन-सा आँगन कुरुक्षेत्र का मैदान बन जाए. लेकिन उसे छुपाते-छुपाते वह यह भूल गई थी कि भगवान किसी जीवित व्यक्ति को हर समय दूसरे लोगों से छुपाते देखकर इतना परेशान हो गया कि उसने सरला की दादी को इन सब बातों से सदैव के लिए मुक्ति दे दी और सरला की माँ को हमेशा के लिए अपने विराट व्यक्तित्व में छुपा लिया। सरला की दादी तो मानों इस सदमे से पागल जैसी हो गई और उन्होंने अन्न जल त्याग दिया। तमाम कोशिशों के बावजूद उनको नहीं बचाया जा सका। क्या करते बाबूजी भी, जब आदमी पर ईश्वर की गाज गिरती है तो बिना पानी के ही आदमी चल बसता हैं। चौबीसों घंटे चाहे प्यार से काम करा लो या गरिया कर, चाकरी तो सरला की माँ करती ही रही रात दिन उस घर में कोल्हू के बैल की तरह, बिना थके बिना कुछ कहे अनवरत, एक मूक पशु की तरह।
पति का प्यार और अपनापन अगर नहीं होता तो वह घर किसी बंदीगृह से कम नहीं था, जहाँ की चौखट लाँघना भी उसके लिए अपराधथा। बस समझो कि उनके मरते ही घर में बाढ़ के पानी की तरह लोग प्रचंड वेग से घुसते चले आये। इतने महीनों तक जिन बातों को पेट में रखने में उन्हें हाजमे की गोलियां भी बेअसर हो रही थीं, अब उन दर्दों से मुक्ति के निवारण का समय आ गया था। सभी ने कुरेदना शुरू किया कि कहीं से बाबूजी घर के अंदरूनी हालात के बारे में बात करें या फिर उनकी दिवंगत माँ को कोसें जिसके कारण उनकी फूल जैसी बहू के दर्शनों से पूरा मोहल्ला वंचित रहा और बाहर गलियारों में ही खड़ा होकर आहें भरने पर मजबूर हुआ। पर नहीं, बाबूजी ने तो एक ऐसी चुप्पी ओढ़ ली थी जिसका ओर-छोर शायद खुद धीर गंभीर बाबूजी भी नहीं जानते थे। आखिर थक हार कर मोहल्ले की पलटन हारे हुए सैनिकों की तरह पस्त होकर वापस चल दी और आँगन में लगे हुए रात के रानी के पेड़ से खुशबुदार फूल झर उठे, मानो कह रहे हों कि घर की लाज सदा एक चुप्पी से ही ढकती है। नन्ही-सी जान को बड़े ही जतन से पालते हुए बाबूजी को कई बार अपनी आत्मा का सौदा भी करना पड़ा। क्या करते वह भी बेचारे, आत्मा से भी कहीं ज्याएदा ज़रूरी पेट की आग है, यह वह सरला को गोद में लेते ही समझ गए थे। कम बोलने वाले बाबूजी माँ की मौत के बाद अपनी उम्र से कई साल आगे निकल आये थे। उन्हें देखकर बाद में सरला को पूरी तरह भरोसा हो गया कि शाहजहाँ के बाद मुमताज की मौत के बाद एक ही रात में कैसे सफ़ेद हो गए होंगे। चिंता किस हद तक किसी व्यक्ति को बूढा बना सकती है, यह उसने अपने बाबूजी की फोटो को बाद में देखकर ही जाना। उधर कलकत्ते की पड़ोसन, जिसका नाम कला था, उसने जब से घर में आना जाना शुरू किया तो सरला को वह अपनी गोदी से ही नहीं उतारती थी।
बातों ही बातों में वह समझ गई थी कि बाबूजी सरला के लिए अपनी जान भी दे सकते थे और बस वह उसी का मुंह देखकर जिन्दा थे। उसकी घाघ नज़रें पहली नज़र में ही ताड़ गई थी कि बाबूजी को दुनियादारी की बिलकुल भी समझ नहीं हैं और वह अपनी पुश्तैज़नी हवेली और ज़मीन जायदाद छोड़कर केवल बच्ची को बचाने के लिए ही इतनी दूर चले आये थे। बस अब उस कला ने अपने नाम के अनुरूप सारी कलाएं दिखानी शुरू कर दीं। वह बच्ची को देखकर हँसती, बच्ची को देखकर ही रोती। कई बार तो बेचारे बाबूजी सोचते कि पराई होते हुए भी वह उनकी बच्ची को उनसे भी ज़्यादा प्यार करती है। लेकिन जैसा कि कहा गया है कि हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती, मगर बाबूजी का मन तो सौ प्रतिशत खरे सोने का था और पीतल की परख करना उन्हें आता नहीं था। वैसे भी मानव स्वभाव ही ऐसा है कि जो जैसा होता है उसे दुनिया वैसी ही दिखाई देती है। एक दिन जब बाबूजी घर पहुंचे तो वह चीख-चीख कर रो रही थी और अपने ग्लिसरीन लगे बनावटी आँसुओं को झूठे ही पोंछ-पोंछ कर अपनी आँखे लाल किये ले रही थी। एक औरत का सड़क के बीचों बीच रोना देखकर कई तमाशबीन भी इकठ्ठा हो गए थे और घटना का आराम से मुस्कुराते हुए मजा ले रहे थे। बाबूजी को तो मानो काठ मार गया था। वह बेचारे सीधे साधे आदमी, जिसने अपनी पत्नी की ऊँची आवाज़ भी पूरे जीवन में नहीं सुनी थी, लेकिन यहाँ तो मंजर ही दूसरा था। कला का रोना सुनकर तो सड़क के दूसरे पार जाता आदमी भी रूक जाने को मजबूर हो जाता था।
घबराहट में बाबूजी के माथे पर पसीना छलछला आया और किसी अनहोनी आशंका को सोचते हुए और अपने आँसुओं को ज़ब्त करते हुए उन्होंूने कला से भर्राए गले से पूछा, "लेकिन कुछ तो बताओ कि हुआ क्या है?" अपने बालों को और जोर से झटका देते हुए वह बोली, "अरे...ये सभी मोहल्ले वाले मेरे चरित्र पर लांछन लगा रहे हैं। ये सब मुझे बदचलन और आवारा समझ रहे हैं। मैं तो इंसानियत के नाते आपकी मदद कर रही हूँ और ये लोग मुझे आपकी रखैल कह रहे हैं।" ये सुनकर बाबूजी तो मानो शर्म से गड़ गए और बेचारे मोहल्ले वाले एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। क्योंकि उनमें से तो किसी ने भी कुछ नहीं कहा था। हाँ वे सभी इतना ज़रूर समझ गए थे कि ये तिरिया चरित्र बेचारे सीधे साधे बाबूजी को फ़ंसाने के लिए रचा गया है। लेकिन सामने यह बात बोलकर कौन उस जबर औरत से दुश्मनी मोल लेता और फिर किसी के पास इतना समय भी तो नहीं था कि बेकार में ही दाल भात में मूसलचंद बनकर अपनी ऐसी तैसी करवाए. रहना तो उन्हें आखिर उसी मोहल्ले में था और वहाँ पर कला का आतंक गब्बर सिंह की तरह कई गावों में नहीं तो कम से कम आस पास के मोहल्लों तक ज़रूर फैला हुआ था। इसीलिए कला की आग्नेय दृष्टि उन सब पर पड़ते ही वे सभी बारी-बारी धीमे से खिसक लिए. रह गई धूप में बिलबिलाती बेचारी नन्ही-सी जान, बाबूजी और कला।
बाबूजी को यूँ चुपचाप सर झुकाए बैठा देखकर कला ने तुरुप का इक्का फेंकते हुए रोती हुई सरला को बाबूजी की गोद में डालने का उपक्रम किया और कहा, "अब हम समाज में खुद को और अपमानित नहीं देख सकते, इसलिए हम आज ही यह शहर छोड़कर अपने गाँव चले जायेंगे और यह कहकर वह उठ खड़ी हुई." बाबूजी की आंखें नम हो उठीं। अपने अंगोछे से पसीना पोंछने का उपक्रम करते हुए उन्होंने नमकीन आंसुओं को भी पोंछ डाला और कला का हाथ थाम लिया, अनजाने में ही अपने जीवन को भी नमकीन बनाने के लिए. बाबूजी का हाथ पकड़ कर कला ने उनके दिल से होते हुए आहिस्ता से उनकी हवेली और जमीन जायदाद के ऊपर बड़ी आसानी से कब्ज़ा कर लिया और उन्हें भनक भी नहीं लगी। सरला तो अब मानो मोम की गुडिया बन गईं थी जिधर कला मोड़ती उधर ही मुड जाती और अगर आनाकानी करती तो गर्म सरिये से कांपती और थरथराती मोम की गुड़िया को पिघला दिया जाता, जिसके हरे और नीले निशान उसकी पीठ पर दगे मिलते। बाबूजी तो पहले ही कम बोलते थे अब तो मानो गूँगे हो गए थे। एक दो बार जब बेटी को गले लगाकर बिलखने लगे तो कला ने अपने ऊपर मिटटी का तेल उड़ेल लिया और पानी मेंभीगी माचिस की तीली को बेवजह जलाने की कोशिश करते हुए और कनखियों से बाबूजी की ओर देखकर बाल बिखराकर तांडव करने लगी।
बस बाबूजी ने उस नरक को ही अपनी नियति मान लिया और सरला के सत्रह की होते ही उसके हाथ पीले करके चैन की सांस ली। दुनिया का दस्तूर है कि बेटी की विदाई के समय माँ बाप की आँखों से आँसूं नहीं थमते पर यहाँ तो मंजर ही दूसरा था। माँ तो तितली बनी उड़ रही थी और बाप के चेहरे पर असीम संतोष का भाव था। बाबूजी खुश थे कि उनकी फूल-सी लड़की को अब कोई दुःख नहीं सहना पड़ेगा और वह ससुराल जाकर राज करेगी। मगर जिसके भाग्य ही में सुख न हो तो उसे संसार के किसी भी कोने में भेज दो वह दुःख ही भोगेगा। ससुराल पहुँचने के बाद मात्र कुछ ही दिनों में सरला को यह अहसास हो गया कि बचपन के दुःख और तिरस्कार ने उसे अभी भी अकेले नहीं छोड़ा वे उसके पीछे-पीछे यहाँ भी आ गए. बचपन में बाबूजी से सुनी हुई राजा नल और दमयंती की कहानी उसे याद हो आई. लेकिन जैसे उसके बाबूजी ने एक ज्वालामुखी अपने अन्दर छिपाकर रखा और अपना जीवन तिल-तिल करके जला डाला और उसे हमेशा खुश रखने की कोशिश की, वैसे ही सरला ने हजारों बिच्छुओं के डंकों को हँसते हुए सह लिया कि कहीं बाबूजी को उन ज़ख्मों का नासूरन दिख जाए. अबोला भी कई बार बहुत महंगा पड़ जाता है। दूसरों को खुश रखने की चाह में हम कई बार स्वयं कितना दुखी होते हैं और भी घोर कष्ट देते हैं, ये हम कभी समझ नहीं पाते। अपना दर्द एक बार ज़रूर खुलकर कहना चाहिए, हो सकता हैं खुशियाँ दरवाजे पर बाहें फैलाकर हमें गले लगाने को आतुर हों और हम सूरदास जैसे साँकल चढ़ाकर मुट्ठी भींचे दूसरी ओर मुहँ करे खड़े हों।
अगर कभी सरला और बाबूजी आपस में खुल कर बात चीत करते तो दोनों के इस मरुस्थल से जीवन पर ठंडे पानी की बौछार पड़ती और उन्हें बारिश के पानी में खुलकर रोने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन आँसू भी ईश्वर की बनाई वह अनुपम कृति हैं कि आँखों से छलकते ही वे दिल की बात बयाँ कर देते हैं। रोने वाला समझता है किसी को पता नहीं चल रहा और देखने वाला जान बूझकर अनजान बना रहता है कि दर्द शायद आँसुओं की शक्ल इख्तियार करके कुछ कम हो जाए. अब बेचारी सरला के पास कोई विकल्प नहीं बाकी रह गया था मायके वह जा नहीं सकती थी और ससुराल उसके लिए नरक से कम नहीं था। दिन रात वह मार खाती रहती थी और हर जोड़ी का एक जूता उसके घर के कोने में और दूसरा उस जमादार के घर इकठ्ठा होते चले जा रहे थे। मगर कहते हैं ना कि चौदह साल बाद तो घूरे के भी दिन बदलते हैं फिर वह तो बेचारी साँस लेती, चलती फिरती और दुनिया की नज़रों में जिंदा इंसान थी। एक दिन सुबह उस मोहल्ले में सूरज अपनी हल्की लाली का प्रकाश बिखेरते हुए बड़े ही दबे पाँव आया। चारों और बहुत ही अमन चैन था जिसकी मोहल्ले वालों को आदत नहीं थी। उनकी तो सुबह भी अमर की गालियों और सरला के रोने और दर्द से चीखने की आवाज़ों से होती थी।
पेपर वाले का मूड सुबह-सुबह ख़राब हो गया, दरवाजे के बाहर कोई चीख पुकार की आवाज़ न सुनकर उसके दिल में कसक-सी उठी कि आज तो पेपर बाँटनेका मजा भी चला गया। उसने सोचा कि अब किसके साथ सहानुभूति प्रकट करूं। मानव चरित्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यह हैं कि जब उसे अपने से कमजोर और दुखी आदमी मिलजाता है तो उसके दिल में दर्द अवश्य पैदा होता है, लेकिन जब वही दुखी आदमी सुखी हो जाता है तो यह बात उससे भी ज़्यादा कष्टकारी होती है। इस छोटी-सी समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। माएँ समय पर उठ नहीं पाई, बच्चे सुबह-सुबह गरियाये गए. पतियों की जब नींदें हराम हुईं और उन्हें सुबह का अखबार चाय के साथ नहीं मिला तो पत्नियों को भी गालियों का प्रसाद मिला। पत्नियाँ भूखी शेरनी-सी हो गईं। उन्होंंने सास ससुर से लेकर जिस नाई ने शादी कराई थी, उस तक को दांत पीस-पीस कर कोसा और जब पूरी तरह मन नहीं भरा तो सदा से दुःख में हिन्दुस्तानी नारियों का अपनी साड़ी का गन्दा पल्लू, जिससे रोज सुबह बच्चों की नाक पोंछी जाती थी, उसे ही मुहं में भरकर रोने लगी।
पति बेचारा पत्नी का रोना देखकर निरीह पशु के सामान हो जाता है और अपने पूरे कुनबे का अपमान भूलकर एक मेमने के समान उस भूखी शेरनी के आगे चिल्लाना छोड़कर वह उसे मनाने के उपाय ढूँढने लगता है। ब्रह्मास्त्र का प्रयोग भी भला कहीं आज तक कही चूका है। तो जब किसी को कुछ समझ में नहीं आया तो एक दूसरे से जी भर लड़ने के बाद दोनों पक्ष के सदस्यों को यमलोक तक बड़े ही सरल शब्दों में ससम्मान पहुँचा दिया गया। ये सब देखते हुए बच्चों में गजब की चुस्ती फुर्ती आ जाती हैं और वे फटाफट अपना सारा काम सलीके से करने लगते हैं, मसलन, अगर अलमारी ठीक करने के लिए एक साल से कहा जा रहा हो तो वह मात्र दस मिनट में सही हो जाती है। बिना गालियाँ खाए दूध भी पी लिया जाता है और सबसे बड़ी बात उस दिन तो काम वाली बाई एडवांस भी नहीं मांगती। तो बीच-बीच में ऐसा गृह युद्ध सभी सदस्यों और भूले बिसरे नाते रिश्तेदारों को याद करने के लिए परम आवश्यक है। आखिर शादी के बीस साल बाद भला आज के दौर में किसको कहाँ फुर्सत है कि कोई दो दिन पहले मिले हुए लोग भी याद रखें।
इन्ही लड़ाइयों से तो खानदान भर के "स्वर्गीय" परिजन, "नारकीय" बना दिए जाते हैं। रिश्तेदारों की छोटी-छोटी गतिविधियाँ, परिधान, भोजन और उसके बाद मिठाइयों पर किसने कितना धावा बोला सब एक साथ याद आने लगते हैं। सबसे मजेदार बात तो तब होती है, जब दूल्हा या दुल्हन अपनी ही शादी में शर्म और संकोच के कारण अपना पसंदीदा व्यंजन नहीं खा पाते हैं और जीवन भर उसी बात को याद करके दुखी होते हैं। खैर जब घर परिवार की बातें करके दोनों अपने झगड़ों से थक गए और सुबह की चाय पीने की ललक जोर मारने लगी तब चाय पीते हुए उन्होंने इस बात की तह तक जाने का फैसला किया कि आखिर ऐसी क्या बात है कि आज सालों पुराना नियम टूट गया। अब समस्या यह थी कि अमर के घर कौन जाए? अकेले में तो चलो एक दो गालियाँ खा भी ले, आखिर कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना ही पड़ता है, लेकिन पत्नी के सामने तो बहुत ही बेइज्जती की बात हो जायेगी। सो सभी पडोसी एक दूसरे की राह देखते रहे कि शायद किसी के अन्दर वीर जाग जाए और वह मामले की जानकारी जुटा ले।
खैर, कोई यह हिम्मत नहीं कर सका ...जैसे तैसे मुंह में जबरदस्ती दो चार कौर ठूंसते हुए आदमियोंको ऑफिस जाना ही पड़ा और महिलाओं की हालत तो बहुत ही ख़राब होती जा रही थी। मगर उन्हें भी पेट तो भरना ही था तो हमेशा की तरह सबसे सरल विकल्प था खिचड़ी ...जिसके घर में जिसको जो दाल पसंद थी, उसी को जैसे तैसे चावल के साथ डाल दिया गया। दोपहर की नींद की जगह स्टोर रूम में पुरानी धूल पड़ी पत्रिकाओं ने ले ली, परंतु कान हर आहट पर चौंक उठते थे कि शायद सरला के घर से कोई आवाज़ आ जाए. जब एक बहुत ही बूढी औरत से रहा नहीं गया तो वह अपनी कमान की तरह झुकी हुई कमर को लेकर वह अमर के घर जा पहुँची। आखिर क्या करती वह भी ... आँखों में तो कब का मोतियाबिन्द हो गया था और बेटे बहू ने पैसे का रोना रो रोकर ऑपरेशन करवाने से मना कर दिया था। सो ले देकर कान ही बचे थे थोड़े बहुत, जिनमें मंदिर की घंटियों की तरह जब अमर की गालियों की आवाज़ पहुँचती तो अपनी हालत उसे सरला से ज़्यादा बेहतर लगती और आत्मा को संतोष मिलता कि चलो इस संसार में कोई तो उससे ज़्यादा दुखी है। लेकिन सुबह से सरला के रोने पीटने की आवाजों ने कानों में ना पड़कर आँखों की तकलीफ में कुछ ज़्यादा ही दर्द बढ़ा दिया था। अब तो अमर की गलियां भी खानी पड़ती तो उसे कोई दुःख नहीं था। बस उसे तो जानना था कि आखिर घर के अन्दर इतनी शान्ति कैसे हो गई.
दरवाजा भड़भड़ाने के लिए उसने जैसे ही दरवाजे पर जोर से धक्का दिया तो वह अपने आप ही खुल गया। बुढ़िया लाठी टेकती हुई आगे बढ़ी तो देखा कि अमर घर के जाले साफ़ कर रहा है। बुढ़िया की आँखों के जाले तो यह दृश्य देखकर बिना ऑपरेशन के ही हट गए. जो अमर अपना पानी का गिलास भी उठाकर जमीन पर रखने के लिए सरला को गालियाँ देकर नवाज़ता था, वह आज पसीने में लथपथ मिटटी से सना हुआ घर की सफाई कर रहा था। उसने किसी आशंका से ग्रस्त होकर सरला को ढूँढने की कोशिश की कि कहीं ज़्यादा मार खाने से सरला मर खप तो नहीं गई, मगर उसने देखा कि सरला आराम से बैठी अपनी सास के साथ बैठकर चाय की चुस्कियां ले रही थी और उसका कुंदन जैसा रूप ख़ुशी के मारे दमक रहा था। बुढ़िया ने सोचा, कहीं मैं ये सब जाने बिना ही नहीं मर जाऊं और यही सोचकर उसने जोर से आवाज़ लगाईं- "सरला" सरला एकदम से हड़बड़ाकर उठ बैठी और सास की तरफ देखा। मिसरी जैसी आवाज़ में सास बोली-"जा बिटिया, तोहार दादी तोहका बुला रही हैं।" बुढ़िया की आँखों के आगे तो जैसे अँधेरा छा गया। उसे अपनी पिछली मुलाकात याद हो आई. जब वह दिवाली की सुबह शुभकामनायें देने आई थी, वैसे यह बात तो पूरामोहल्ला जानता था कि वह घर की बातों का भेद लेने आई थी पर कई बातें ढकी मुंदी रहे तो और भी अच्छा। तो बुढ़िया का स्वागत ऊंटनी जैसी कमर और सूरदास के चक्षु जैसे उपमाओं से किया गया था पर आज तो बुढ़िया को अपने लिए ऐसे सम्मान सूचक शब्द सुनकर जोर का ठसका लग गया और वह बदहवास-सी खाँसने लगी।
सरला ने उसे बड़े ही प्यार से ठन्डे पानी का गिलास थमाया। बुढ़िया ने गौर से सरला को देखा और सोचा कि कहीं से भी वह बीस साल की लड़की की माँ नहीं लग रही थी। उसने सरला की तरफ अपनी छोटी-छोटी आँखों को बड़ी करने के भरसक प्रयास के साथ देखा और पूछा-"इक्कीस सालों में आज पहली बार तुम्हे अमर ने मारा नहीं, ना ही गालियाँ दी और तू राज रानी की तरह चाय पी रही है और वह जो राक्षस है वह देवता बनकर जाले साफ़ कर रहा है। ये चमत्कार हुआ कैसे?" यह सुनते ही सरला की आँखों से आँसू भरभरा कर बह निकले लेकिन बुढ़िया की पकी अनुभवी आँखें ताड़ गईं कि ये ख़ुशी के आँसू हैं जो बहुत रोकने के बाद भी नहीं रुकेंगे। "सरला साड़ी का पल्लू धीमे से घुमाती हुई बोली कि" कल रात में जब इन्होने गालियाँ देते हुए मुझ पर नाले के किनारे जूता फ़ेंक कर मारा तो हमेशा की तरह जूता नाली में गिर गया। मैं कुछ करूं इससे पहले ही हमारे मोहल्ले का जो अधपगला-सा जमादार है, वह वहाँ से निकल रहा था, जैसे ही इन्हों ने जूता फ़ेंक कर मारा और वह नाली में गिरा तो जमादार तुरंत नाली में कूद गया और जूता निकाल कर ले जाने लगा। यह देखकर ये आश्चर्यचकित रह गये और उसे आँखे फाड़-फाड़ कर देखने लगे।
"इन्होंजने सोचा था कि जमादार वह जूता उसे लौटाने आ रहा है, मगर उसे जाते देखकर चिल्लाने लगे," अरे, मेरा कीचड़ से सना जूता कहाँ लेकर जा रहा है। "यह सुनकर जमादार जोर-जोर से हँसने लगा और बोला," हम तो गरीब आदमी हैं, बहुत दिनों से सोच रहे थे कि आपकी बेटी को शादी में क्या देंगे। एक दिन आपके घर के आँगन के कोने में हर जोड़ी का एक जूता देखकर हमारे मन में एक विचार आया और तभी से हमने दूसरी जोड़ी जूता इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। "हम दोनों की ही समझ में नहीं आया कि वह क्या कहना चाहता है क्योंकि हम सभी लोग तो उसको पागल ही समझते थे। सरला कुछ रुकी फिर अपने आँसूं पोंछते हुए भर्राए गले से बोली, फिर वह हँसते हुए बोला," आपकी बेटी की शादी आने वाली हैं, मैंने सोचा अपनी तरफ से हर जोड़ी का जूता उसको तोहफे में दूंगा और दूसरी जोड़ी आप लोग दे देना ताकि आपके दामाद को उसे मारने के लिए बेफिजूल में नए खरीदकर पैसे खर्च नहीं करने पड़े। "बुढ़िया का चेहरा यह सुनते ही डर और घबराहट के मारे सफ़ेद हो गया। उसने सरला की तरफ देखा जो फूट-फूट कर रो रही थी। थोडा रूककर सरला बोली," यह सुनते ही मैंने सोचा कि अब जमादार की खैर नहीं हैं क्योंकि ये अपनी बेटी को अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं। लेकिन ये थोड़ी देर तो बुत जैसे खड़े रहे, फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ कि उसी जगह पर जमादार के सामने मेरे पैरों पर लोट गये और फूट-फूट के रोने लगे। बहुत देर तक मैं कुछ समझ ही नहीं पाई. मगर फिर मेरे भी आँसू नहीं थमे।
हम दोनों ने ही एक दूसरे को रोकने की कोशिश नहीं की। जो लावा इनके और मेरे दिल में बरसों से धधक रहा था, उसे बाहर निकलने के लिए जैसे हमारे शरीर के रोएँ-रोएँ का विलाप करना ज़रूरी था। लेकिन वह जमादार पागलों की तरह हँस रहा था। उसे शायद नहीं पता था कि उसने वह चमत्कार कर दिखाया था जो शहर भर के बुद्धिजीवी, बेरिस्टर, पढ़े लिखे नातेदार और रिश्तेदार खोपड़ी के बल खड़े होकर भी नहीं कर पाए थे। "...आखिर जब अमर बेदम होने लगा तो आँसूं पोंछते हुए उठा और जमादार को अपने गले से लगा लिया और उसके हाथ से जूता लेकर जोर से वापस नाली में फ़ेंक कर बोला-" मेरे भाई, अब इसकी ज़रूरत कभी नहीं पड़ेगी ना तुझे और ना मुझे। बुढ़िया के मन के अँधेरे कोने में जैसे असंख्य नन्हे दीप टिमटिमा उठे जिनकी रौशनी में सारा संसार नहा उठा था। उसके झुर्रीदार चेहरे पर करुणा बरसने लगी और उसने पोपले मुहँ से भगवान से मन ही मन सरलाको सदा ऐसे ही सुखी रखने की दुआ माँगी और सारा घर उसके इस आशीर्वाद से जगमगा उठा। उधर सरला अपने ख़ुशी के आँसूं पोंछते हुए उस देवदूत को याद कर रही थी जिसने उसके जीवन के मरुस्थल को शीतल बौछारों से भिगो कर उसे सुख से तरबतर कर दिया था।