मालिक / शोभना 'श्याम'
ये एक बिलकुल आम सुबह थी और वे बिलकुल आम दिनचर्या के तहत अपने डौगी (पालतू कुत्ते) को घुमाने बाहर निकले। कहने को तो वे कुत्ते को घुमा रहे थे। पर असल में कुत्ता उन्हें घुमा रहा था। उन्होंने कुत्ते के गले में पड़े पटके से जुड़ी जंजीर अपने हाथ से पकड़ी थी या कुत्ते ने उनके हाथ में पकड़ी जंजीर को अपने गले से पकड़ा हुआ था, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल था क्योंकि कुत्ता शान से आगे-आगे चल रहा था और वे लगभग घिसटते हुए से पीछे-पीछे चल रहे थे। अचानक कुत्ता किसी झाड़ी के पास निवृत होने रुक जाता तो उनके कदम भी वहीं रुक जाते। कुत्ता फिर चल देता, तो वे भी चल दे ते। लब्बो-लुआब यह कि इस आधा घंटा वे पूरी तरह अपने डौगी की कृपा पर थे और इसमें उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं थी, हमारे देश में अपने पालतू डौगी को 'पॉटी' कराने की क्रिया को सभी मध्यमवर्गीय एवं उच्च मध्यमवर्गीय पुरुष बड़ी शान से सम्पन्न करवाते हैं। वह तो पाश्चात्य देशों की तरह अपने देश में डौगी के द्वारा निसर्जित पदार्थ को स्वयं उठाते चलने की बाध्यता नहीं है, नहीं तो ये उससे भी परहेज नहीं करते।
खैर डौगी जी का शौच निवृति कार्यक्रम सम्पन्न हुआ तो वे घर वापस आये। डौगी को दुलराया और पटके और जंजीर को डौगी से आज़ाद किया। इसके बाद अख़बार उठाने ही लगे थे कि गुसलखाने के दरवाजे की झिर्री से झाँकते हुए पत्नी ने आवाज लगाई, "सुनिए मैं अपना तौलिया बाहर भूल गयी, ज़रा पकड़ा दीजिये।"
ज़रा देर पहले मुख-मंडल पर जो एक गर्व-मिश्रित राहत का भाव था, वह एक झटके में गायब हो गया। उसकी जगह आक्रोश और झुंझलाहट के मिलेजुले भाव उग आए और उनके मुख-श्री से जोरदार गर्जना प्रारम्भ हो गयी।
"महारानी को एक तौलिया ले जाना भी याद नहीं रहता (मानों बाकि सभी कपड़े-लत्ते वे ही अपनी पत्नी के लिए रखते है, मात्र तौलिया ही उसे ले जाना होता है, सो वह भी उससे नहीं होता) , नौकर समझ रखा है मुझे, अपने बाप से कहकर फुल-टाइम नौकर जो रखवा ले ।" अभी आगे भी जाने क्या-क्या फूल उनके मुख-श्री से बरसते रहे होंगे, लेखक उन्हें बिना चुने ही वहाँ से सरक लिया।