माले मुफ्त दिले बेरहम फलसफा / जयप्रकाश चौकसे

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माले मुफ्त दिले बेरहम फलसफा
प्रकाशन तिथि :07 जून 2016

स्विट्ज़रलैंड की आम जनता ने सरकार द्वारा दी गई सहायता राशि लेने से इनकार किया है। वे अपनी मेहनत की कमाई से अच्छा जीवन जी रहे हैं और अनर्जित धन से उन्हें नफरत है। नैसर्गिक सौंदर्य के कारण पर्यटक स्विट्ज़रलैंड जाते रहे हैं परंतु अब वहां के अवाम के नैतिक मूल्यों के कारण भी जाया जा सकता है। अगर अवाम के नैतिक मूल्य पर्यटन के लिए एकमात्र कारण हों तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश शायद ही कोई भी सैलानी जाए। हमारे यहां ऐतिहासिक स्थान है, ताजमहल, कुतुब मीनार इत्यादि सैंकड़ों धरोहरें हैं परंतु नैतिकता का अभाव इनका अवमूल्यन कर सकता है। विरोधाभास यह है कि दुनियाभर में सबसे महान पुराण एवं ग्रंथ यहां लिखे गए हैं और स्वयं ईश्वर कई अवतार ले चुके हैं तथा आज भी कल्कि अवतार की उम्मीद की जा रही है। धार्मिक स्थानों के आधार पर भी भारत का एक नक्शा बनाया जा सकता है। लगभग सभी धर्मों की उत्पत्ति एशिया में हुई। पश्चिम के क्राइस्ट भी पूर्व में ही जन्मे हैं। इसके बावजूद नैतिक मूल्यों का अभाव भी एशिया में ही सबसे अधिक है। क्या इसका यह अर्थ है कि धर्म से कर्तव्यपरायणता जन्म नहीं लेती या चरित्र निर्माण में ये असफल होते हैं? कर्तव्य परायणता ही धर्म है या होना चाहिए परंतु जाने कैसे हम निठल्लों का स्वर्ग बन गए? दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी और जापान लगभग पूरी तरह नष्ट हो गए थे परंतु दो दशकों में ही उन्होंने अपनी दशा पूरी तरह सुधार ली। कहीं ऐसा तो नहीं कि युद्ध की अग्नि से गुजरने पर चरित्र कुंदन हो जाता है और हमने कुछ छोटे युद्ध ही लड़े हैं और हमारा अवाम जानता ही नहीं कि युद्ध कि विभीषिका क्या होती है। सारे आक्रमणकर्ता खैबर से आए हैं और पंजाब ने युद्ध देखे हैं परंतु वहां का युवा आज नशे का आदि हो गया है। इस विषय पर 'उड़ता पंजाब' बनी है परंतु उसके प्रदर्शन में भी रुकावटें संभवतया ड्रग माफिया ही अपने एजेंट्स के द्वारा डाल रहा है।

हमारे यहां चुनाव में कुछ वस्तुएं मुफ्त में दिए जाने के वादे किए जाते हैं और कभी-कभी ये पूरे भी किए जाते हैं परंतु अवाम अपने आत्म सम्मान पर चोट को हंसकर सहता है और माले मुफ्त उपलब्ध कराने वालों को जिता भी देता है। हमारे यहां 'माले मुफ्त दिले बेरहम' जैसी कहावतें कैसे बनीं? हम बहलाए एवं फुसलाए जाने के लिए इतने आतुर क्यों रहते हैं? ये 'माले मुफ्त' हमारे अवचेतन में गहरे रूप में दर्ज है और इसी कमजोरी का लाभ उठाकर बाजार में 'एक पर एक मुफ्त' जैसी घोषणाएं होती रहती हैं। नादान खरीददार जानते ही नहीं कि उनसे दोगुनी कीमत वसूली जा रही है और मुफ्त कुछ नहीं है। पांचवें दशक में मेहबूब खान की फिल्म 'आवाज' में एक दफ्तर के कर्मचारी अपने-अपने घर से लाए टिफिन खोलते हैं और अनवर खान सिर्फ नींबू लेकर आए हैं और उसी सहयोग के आधार पर मुफ्त खाना खाते हैं। एक दिन सारे कर्मचारी अपने टिफिन में नींबू लेकर आते हैं तो अनवर खान भूखे रह जाते हैं। हमारे देश में भी उस पात्र की तरह अनेक लोग हैं, जो केवल नींबू लाकर सारा जीवन मुफ्त का खाते हैं। नारेबाजी भी दूसरी तरह का नींबू ही है। नया अाविष्कार यह हुआ है कि दिन-प्रतिदिन तथाकथित विकास के आंकड़े देकर अवाम को अच्छे दिनों के आने का भ्रम बेचा जा रहा है। बाजार में कोई भी चीज वाजिब दाम पर उपलब्ध नहीं है और चीजों की शुद्धता का विचार तो निरस्त ही कर दीजिए।

फिल्म उद्योग का स्विट्ज़रलैंड से गहरा रिश्ता है। राज कपूर की 'संगम' पहली फिल्म थी, जिसकी कुछ शूटिंग वहां हुई। बाद में यश चोपड़ा ने अपनी सारी फिल्मों की शूटिंग वहां की अौर इसके लिए वहां की सरकार ने यश चोपड़ा को सम्मानित भी किया था। वहां शूटिंग का एक लाभ तो यह है कि स्वाभाविक रोशनी पंद्रह घंटे उपलब्ध होती है। मौसम के कारण थकान भी नहीं होती। हमारे निर्माता अपने साथ रसोइया ले जाते हैं और यूनिट को भारतीय भोजन खिलाते हैं। केवल सितारे ही यूरोपियन खाना खाते हैं। निर्माता जानते हैं कि कश्मीर में शूटिंग से कम दाम स्विट्ज़रलैंड में लगते हैं। एक भव्य बंगला किराए पर लेते हैं और पूरी यूनिट ही वहां रहती है। वहां का अवाम शूटिंग में दखल नहीं देता। वहां भारत की तरह हर सड़क, मकान इत्यादि की शूटिंग के लिए सरकर से आज्ञा-पत्र नहीं लेना पड़ता।

हमारी सारी कार्यप्रणाली में रुकावटें पैदा की गई हैं और आज्ञा-पत्र रिश्वत देकर ही मिलता है। विगत दशकों में रुकावटें पैदा करने वाली सरकारों की अड़ंगेबाजी के बावजूद भारत ने प्रगति की है, क्योंकि हम बहुत उद्यमी हैं। सरकारें अड़ंगेबाजी करती रहेंगी और एक दिन अवाम उनको अनावश्यक करार देगा। हमारी सारी संरचनाएं हमें अराजकता की ओर ढकेल रही हैं। पूरी व्यवस्था अनाम तानाशाह के नाम निमंत्रण-पत्र बनती जा रही है।