मास्टरनी / मनीषा कुलश्रेष्ठ
वह आज भी भुनभुना कर रह गई। क्या करती? और है क्या भुनभुनाने के सिवा? पर उसके कान पर मक्खी तक नहीं रेंगी, वह वैसे ही उसकी हेयर पिन लेकर कान खुजाता रहा सुबह से उसे समझाने की कोशिश कर रही है कि
“ ट्रान्सफर करवाना है मेरा यहां तो जरा दो दिन की छुट्टी लेकर चलो जयपुर।”
“ एंऽ मेरे पास कहां हैं छुट्टी? तुम्हारी नौकरी, बच्चों की बीमारी में सब तो निकल गईं। वैसे बडी तुर्रम खां बनती हो, जयपुर जाने में क्या है? जब दूसरे गांव में अकेले रह कर नौकरी कर रही हो तो जयपुर भी चली जाओ।”
“ बस एक दिन की बात है, मई - जून की इन छुट्टियों में कोशिश कर लेते हैं डाइरेक्ट्रेट के चक्कर काट कर। एक बार चले चलो मैं पहले कभी गई नहीं हूं। थोडा जान लूंगी तो फिर अकेले जाने में दिक्कत नहीं होगी। उस पर शिक्षा मंत्री का पी ए अपनी जमुना बहनजी के रिश्तेदार का दोस्त है। कुछ तो काम बन ही जायेगा।”
“ क्या बेपढों की सी बातें करती हो अच्छा चलो - चलो अब दिमाग मत चाटो कह दिया न मेरे पास छुट्टी नहीं है। इस शिक्षा विभाग के ट्रान्सफरों की भी भली चलाई, आज तुम करवा लोगी रिश्वत से तो दूसरी जाकर स्टे ले आयेगी, फिर वो जुट जायेगी तुम्हें उखाडने में, बेकार की एनर्जी, पैसा और वक्त वेस्ट करते रहो हर साल छुट्टियों में। गनीमत समझो कि इतना तो पास हो कि हर शनिवार - इतवार आ जाती हो।”
“ तुम तो हो ही आलसी, कोशिश तक नहीं करना चाहते अब नहीं होता मुझसे कि हर शनिवार को आओ और इतवार को शाम को चल दो। मैं थक गई हूं “ वह लगभग चीख पडी थी।
“ चोऽपचुप होती है कि नहीं? सुबह से पका रखा है। छुट्टियों में आई है महारानी यूं नहीं कि ठीक से खाना वाना बना कर खिलाये, साल भर तो खुद ही ठेपते हैं अपनी और तेरे लाडले की रोटी। अभी आई है, आते ही साली ट्रान्सफर के चक्कर में पड ग़यी।”
गले तक भर आई रुलाई वहीं रोक खिसिया कर रह गई। मन किया खूब लडे पर बच्चों के मगन चेहरे देख कर खामोश हो गई। बेचारे बडी मुश्किल से साथ रह पाते हैं। एक वहां पास के गांवनुमा कस्बे में मेरे साथ तो दूसरा यहां अपने पिता के साथ रहता है। साल में जब दो चार बार उसके स्कूल की दीवाली - दशहरा, सर्दियों या गर्मियों की ये छुट्टियां पडती हैं तब चारों साथ रहते हैं।पूरा साल यूं ही निकल जाता है। नौकरी, बस के धक्कों, तबादले की जद्दोजहद अकेले - अकेले अपने स्तर पर सहते।
उसे याद है, कुछ महीनों पहले जिला स्तर पर ही अपने ट्रान्सफर की कोशिश में वह अकेले शिक्षा विभाग गई थी, क्लर्क से लेकर अधिकारी तक कैसे घूर रहे थे। उसके अकेलेपन और जिस्म को तौलते। उसकी जरूरत को अपनी ताकत से तुलना करते हुए। अल्पना सही कहती है _ जब सीधे सीधे काम नहीं बने तो मुस्कुराना और सस्ता बनना पडता है यहां। यह मुस्कुराना तो छोटे मोटे पेपर्स पास करवाने, सर्विस पेपर आगे बढाने के लिये है। बडे क़ामों के लिये या तो रिश्वत हो, या सिफारिश या फिर बिछो खुद फर्श पर। वह तो अब उस तरह मुस्कुराना भी भूल गई है जिन्दगी की जद्दोजहद में। आंखों की वह तरल चमक धो डाली है, रोजमर्रा क़े संघर्षों ने।
वह सबको खाना खिला कर खीज में खुद बिना खाये कूलर के आगे दरी बिछा कर ठण्डे फर्श पर लेट गई। पास के कमरे से टी वी का शोर गूंज रहा था। कांऽऽटा लगा हां लगाऽऽ आऽजा हां राजा हांऽऽऽ साथ में उसकी आठ साल की बेटी भी चीख - चीख कर गा रही थी। पति भी वह गाना एंजॉय कर रहा था। वह सोच रही थी, “ क्या जिन्दगी बना ली है उसने भी अपनी। घर के और सदस्यों की तरह छोटे - छोटे सुख ले नहीं पाती। अब छुट्टियों में भी कुछ न कुछ कुछ नहीं तो सबको छुट्टियों के हिसाब का खास पका कर खिलाने में, अचार - बडियां, मसाले, गेहूं तैयार करने में पूरा दिन हवा हो जाता है। फिर एक बार स्कूल खुले तो गया साल का साल। फिर बाहर के काम, बैंक से शहर में अपने घर के लिये लोन पास करवाना है, इन्श्योरेन्स का प्रीमियम भरना है उस सबके ऊपर ट्रान्सफर करवाने की भागदौड। वही क्यों तंग हो ठीक है अगर यह नहीं चाहता तो न सही, उसे कौनसा दु:ख है वहां गांव में? स्कूल से घर आओ, स्कूल की पियॉन खाना बना जाती है, बच्चे सब्जियां दे जाते हैं। वह और बिटिया सुख से - सुकून से रहते हैं। हालांकि वहां भी सारा मन यहां अकेले रह रहे पति और बच्चे में लगा रहता है। यहां शहर में खाना बनाने वाली बाइयां मुश्किल से मिलती हैं, मिलती भी हैं तो एक हजार मांगती हैं सीधे। पति खाना खुद बनाते हैं, झाडू बर्तन वाली एक बार आती है बस।
यही सब सोचते - सोचते उसकी आंख लग गई।
न जाने कब के ख्याल, कब का वह माहौल सपने में वैसा का वैसा उतर आया। उसके मोहल्ले की लडक़ियां ग्रुप में खिलखिलाते हुए बस से पास के शहर में कॉलेज जाने के लिये निकल रही हैं। कहीं से मां की आवाज ग़ूंज रही है,
सुषमाऽऽ टिफिन तो ले कर जाऽऽ! “
“ मां आज एक सहेली का जन्मदिन है, कॉलेज - कैन्टीन में ट्रीट है।”
“ किस बस से लौटेगी?”
“ चार बजे वाली। पांच बज जायेंगे घर आते आते।”
न जाने कितनी देर उन भूली बिसरी गलियों में भटकती रही वह डेली अप एण्ड डाउन करता उसके कस्बे के लडक़े - लडक़ियों का समूह। सपने में उस एक उत्सुक चेहरे, जीवन में आए एकमात्र आकर्षण को ढूंढती, सहेलियों की छेड छाड क़ा पात्र बनती वह।
' सुषी, देख उधर ड्रायवर की सीट के पास “
“ कहां? कौन “
“ वो नीले - हरे चैक की शर्ट।”
“ धत्”
“ रहने दे याद है उस दिन कॉलेज में सुषमा जी, एनुअल डे के लिये आपका एक गानाऽऽऽऽऽ या उस दिन कॉलेज के चुनावों में कैसे सीधे तेरे पास लाइब्रेरी चला आया था, सुषमा जी,आपका और आपकी सहेलियों का वोट तो हमारा ही होगा न! आखिर एक ही गांव के हैं हम। “
“ पागल हो तुम लोग बेवजह उससे जोड रही हो, वह क्यों मुझे घास डालेगा? इतना सीनियर है। मैं ने एक बार उसकी तारीफ क्या कर दी तुम तो पीछे ही पड ग़ईं।”
“ आग यूं एक तरफ नहीं लगती सुषी, वह भी बिला नागा तेरे घर के पास उस चौराहे पर कैसेट की दुकान पर हर शाम जमा रहता है।”
“ हां, एक वह दस बार फेल होने वाला, कॉलेज का दादा वह निठल्ला ही तो बचा है हमारी सलोनी सी सुषी जीजी के लिये। छोटी जात का। तुम लोग बिना बात ही एक ब्राह्मण लडक़ी को मीणा लडक़े से कैसे जोड रही हो? इसकी तो एक डॉक्टर से बात चल रही है!” उसकी ममेरी बहन ऊषा उसकी सहेलियों से चिढ क़र बोली।
करवट दर करवट कस्बे की वे गलियां रह रह कर याद आ रही हैं।
वही गलियांजो एक दूसरे में से निकलती, एक दूसरे को काटतीं, कस्बे की धमनियों और शिराओं सी, जिन्दगी को बहाती थीं। एकाएक उसकी आधी अधूरी नींद पूरी खुल गई बच्चों के तेज झगडे से। उनींदी सी वर्तमान को पहचानती सी वह पडे - पडे सोचने लगी _ वह गाती भी थी? हां - हां,सीखती थी शास्त्रीय संगीत, बल्कि बी ए में म्यूजिक़ ही था उसके पास। अब गुनगुनाती भी नहीं।उसे भी कभी क्षीण ही सा सही आर्कषण हुआ था? उसके ब्याह की बात डॉक्टर से चली थी ? पर जवानी जो चाहे वह हो जाये तो जिन्दगी को जिन्दगी कौन कहे? डॉक्टर जितना दहेज कहां जुटा पाए थे पापा, इसी सदमे में चल बसे।
तब झरने सी पुलक कर बहा करती थी जिन्दगी।अब जिन्दगी बहती कहां है, रुक गई है बन्द नाली की तरह, किसी तरह बहानी होती है सडान्ध साफ कर - करके।
“ क्या है क्यों लड रहे हो जरा आंख लगी थी।”
“ मम्मी, तुमने तनु को बिगाड क़र रख दिया है। देखो कैसा बुरा नोचा है मेरे हाथ पर। तुम कुछ कहती ही नहीं।”
बेटा पापा की भाषा बोलने लगा है। खाने में मीन - मेख, उबला - उबला सा खाना मन किया कहदे कि तुम्हें क्या कम बिगाडा है पापा ने। पर फिर वही बहस नहीं छेडना चाहती। इतना कहते ही वह सिगरेट की राख झाडते हुए चले आएंगे और जम जायेंगे मैदान में_ “ क्या कहा मैंने
फिर वही बच्चे जिनकी वजह से झगडा शुरु हुआ है सहम कर कोने में बैठ जायेंगे। बच्चों के बिगडने से शुरु हुई बात माता - पिता के बिगडे चरित्र तक निकल आयेगी फिर छिछालेदर बच्चों के सामने ही।
“ तू स्साली तुझे तो शौक है अकेले घूमने का..”
“ तुम रहने दो सब जानती हूं कोई बाई टिकती क्यों नहीं इस घर में..”
उसे सोच कर ही उबकाई आ गई। वह डर गई एक बारगी। कहीं फिर से पिछली बार की तरह कुल्ला करके , मुंह धोकर चाय बनाने लगी। कितने एबॉर्शन्स करायेगी? नौकरी के साथ यह सब झेलना कितना मुश्किल हो जाता है। मम्मी पास के शहर में रहते हुए भी अब बार - बार आ नहीं पाती। बस यही कहती है अब नहीं आया जाता बसों में बैठ कर। सच पूछो तो अब वे भाई - भाभी की गृहस्थी में रम गई हैं। इनसे कितना कहा है करवा लो ऑपरेशन पर कान पर जूं नहीं रैंगती। “ मैं नहीं करवाता यह सब “ पिछली अगस्त से अभी एक साल भी नहीं बीता है।ऑपरेशन नहीं करवा सकते पर लाइट बन्द होते ही सबसे पहले वही सब याद आता है।आनाकानी करो तो अपने अगले तीन दिन कलेश में निकालो। फिर भी चैन कहां है?
“ क्या एक दो महीने बाद मिलती हो फिर भी लाश की तरह पड ज़ाती हो।” और कभी प्यार से पहल करो तो, “ ये सब लटके - झटके कहां सीखे?”
फिर जी मिचलाया एक खौफ सा बैठ गया मन में। पिछली बार ब्लीडिंग तीन महीने तक बन्द ही नहीं हुई। इनसे कहो तो पहला उत्तर “ तुम्हें हर महीने एक दिन ज्यादा होते ही यही लगने लगता है।”
“ नहीं-नहीं, सच कुछ गडबड है। “
“ फिर मेरा नहीं है।”
“ क्या मतलब?”
“ मतलब क्या मैं ने तो एक भी दिन अनसेफ नहीं किया है।”
मन ही मन वह खून का घूंट पीकर रह जाती है। इस बार कुछ हुआ तो वह एबॉर्शन के साथ के साथ अपना ऑपरेशन भी करवा लेगी। कुछ दिन मां को बुला लेगी नहीं तो दुर्गा चली आयेगी,उसके गांव वाले उच्च प्राथमिक कन्या पाठशाला की चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। वहां की हेडमिस्ट्रेस होने की वजह से, दुर्गा उसे खूब मानती है। दुर्गा बाल विधवा है।
आज वह खुश है हालांकि देह टूट रही हैपर चलो जान छूटी कम से कम दुर्गा या मां को नहीं बुलाना पडेग़ा। कल गांव से जमुना बहन जी का फोन भी आया था, जयपुर पहुंचने के लिये,उन्होंने शिक्षा मंत्री के पी ए से बात कर ली है। पर पति का वही अडियल रवैय्या! ठीक है,संभालो बच्चे वह अकेली ही चली जायेगी। कोई बच्ची तो नहीं वह, सैंतीस साल की अनुभवी स्त्री है। न कि कोई लड्डू है कि मुंह में रखा और गपक लिया।
दर्द निवारक दवा खाकर उसने घर का काम जस - तस निपटाया। सुबह की बस से जयपुर जाने का निर्णय वह कर चुकी थी। अब उन दोनों का साथ रहना बहुत जरूरी है। बेटा बडा हो रहा है,उसे मां की जरूरत है, बेटी को पिता के साये की, वह खुद भी थक गई है अकेले - अकेले, स्त्री - पुरुष दोनों की भूमिका निभाते। कभी कभी दिल करता है पति के ऊपर पूरी तरह निर्भर हो जाये एक कमपढी औरत की तरह नहीं करने उसे ये मर्दाने काम बैंक, लोन, इन्श्योरेन्स, इनकम टैक्स अकेले घूमना खुद अटैची उठाए - उठाए। उसके अन्दर की औरत मरने लगी है। श्रृंगार - पटार से जी उचटने लगा है। कभी - कभी तो बिना प्रेस की हुई साडी पहन कर चल देती है या वही साडी सप्ताह में दो बार पहन जाती है, जबकि जूनियर ग्रेड की टीचरें भी बदल बदल कर साडियां पहनती हैं। देह की भूख मरने लगी है। यन्त्रवत - सा मिलन उसे भाता नहीं है। प्रेम, नखरे,छेडछाड तो कभी थी नहीं उनके रिश्ते में पर एक नयापन सा था स्पर्शों में लहरंइ थी जिस्म में।अब ठहरी - ठहरी, जलकुम्भी से अटी झील है वह। कभी कभी टी वी पर कोई रूमानी गीत देखकर उसे कितना खोखला लगता है रोमान्स! कभी लगता है शायद वह ही अछूती रह गई इस सब से। खर्राटे लेते पति की बगल में लेटे - लेटे, खुद ही से उसे इतनी ज्यादा ऊब हुई कि मन हुआ या तो कुछ खा कर सो रहे या भाग जाये इन जंजालों से। खुद पर कोफ्त हो रही थी किसलिये कर लिये पैदा ये बच्चे झटाझट? दाम्पत्य क्या है यह समझ पाती तब तक तो ये अनचाहे मेहमान चले आये।
उसे याद है अच्छी तरह उसने कभी नौकरी नहीं करना चाही थी। ब्याह कर आते ही पहला वाक्य सास से यही सुना था, “ बहू, हमारे यहां सब बहुएं - बेटियां नौकरीशुदा हैं। इसीलिये तुम्हें भी पसन्द किया था कि तुम बी एड हो। “ सब तो सब पति की भी यही मंशा थी कि वह नौकरी करे। सुहागरात के ही दिन उसने कह दिया था, “ यह सितार - वितार क्यों उठा लाई मायके से?फालतू जगह घेरेगा। वैसे भी हमारे घर में किसी को पसन्द नहीं गाना - बजाना। “
“ आपको?”
“ मुझे भी कुछ खास नहीं। फिल्मी तो ठीक है पर शास्त्रीय तो बिलकुल भी नहीं।” उसे कभी सितार तो दूर हारमोनियम तक नहीं बजाने दिया गया। उसके गाने बैठते ही पति के सर में दर्द होने लगता। उसने विशारद की परीक्षा अधूरी छोड दी। पापा होते तो नाराज होते उन्हें कितना चाव था उनकी बेटी संगीत में पारंगत हो, शुरु में तो पापा से ही सीखा था सुषमा का मन भर आया पापा ही होते तो क्या आनन - फानन में उसे विवाह करना पडता? उनकी मृत्यु के बाद मां और मामा जी ने जो आस - पास के शहर में पहला रिश्ता मिला उसी से जोड दिया। उससे न कुछ पूछा गया न बताया गया। उसे आपत्ति विवाह से नहीं थी पर जो उसने विवाह की कल्पना की थी उससे यह दाम्पत्य जरा भी मेल नहीं खाता था।
शादी के अगले महीने से ही रोजग़ार समाचार पत्र आने लगा था, जब तक कि उसे सरकारी नौकरी नहीं मिल गई। पहली नियुक्ति तो ऐसे गांव के प्राईमरी स्कूल में हुई जहां सडक़ें नहीं थी,रेतीले रास्तों पर जीपें चलती थीं। वह भी ठसाठस भरी हुई। महीने दो महीने में घर आ पाती थी।ऐसे हालातों में भी बच्चों के आने पर रोकटोक नहीं लगी बल्कि शादी के एक साल ही के भीतर मोन्टू आ गया फिर दो साल बाद तनु। वो तो बीच में दो और होते अगर यूं गिनने बैठे तो पूरे छ: बच्चे हो जाते शादी के बारह सालों में।
अब उसकी नौकरी को यही सास कोसती हैं, यही पति उसे लापरवाह, फूहड साबित करते हैं।
“ अरे आग लगे ऐसी नौकरी को, जिसमें बच्चा अस्पताल में है और मां के पास छुट्टी नहीं।”
“ पडौस की दीपा को देख लो क्या तो चकाचक घर रखती है, क्या खाना खिलाती है उंगलियां चाटते रह जाओ, क्या स्मार्ट बच्चे हैं। पति को हमेशा खुश रखती है। उस पर घर पर रह कर लडक़ियों को सिलाई सिखा कर पैसा भी कमाती है। एक तुम हो “
दीपा और इनकी आंख मिचौनी के किस्से वह न केवल एक पडौसन से सुन चुकी है बल्कि एक दिन रात को पास सोते हुए मोन्टू ने भी कुछ इसी सन्दर्भ में कहा था
“मम्मी वो दीपा आन्टी जब तब शाम का खाना लेकर आ जाती है या हम वहीं खा लेते हैं। बहुत टाइम वेस्ट होता है मेरा। पापा से ज्यादा लपड – चपड।”
“ मोन्टू! सुरेश जी पापा के दोस्त हैं इसलिये वो लोग ध्यान रखते हैं।”
“ नहीं मां सुरेश अंकल तो थे नहीं तब भी”
“ अच्छा तू मत बोल बडों के मामले में। चुपचाप सो जा।”
“ मम्मी मैं बच्चा नहीं कि...
“ हां हां बारह साल में ही तू तो दादा बन गया न! चल मैं तेरे पापा से बात करुंगी कि यारी दोस्ती में तेरी पढाई का ध्यान रखें।”
थक गई है वह कुछ नकारात्मक नहीं सोचना चाहती है, पर आंखों से लगातार, बेवजह पानी के रेले बहे जा रहे हैं। वह यह भी भूल गई है कि सुबह सात बजे की बस पकडनी है।
सुबह वह एक तटस्थता के तहत बस में जा बैठी है। पति से कोई बात करने का मन नहीं है,पर बच्चों को लेकर वह हिदायतें जरूर देती है। उसका कितना मन था कि ये भी साथ चलते। उसे महसूस होता कि उसकी पीडा में उसका हमसफर साथ है। क्या था बच्चों को भी ले लेते पर वही दलील “ फालतू पैसा खर्च होगा।” होटल में ठहरने बाहर खाने - पीने, घूमने में उसके पति को कोई रुचि नहीं है। ठीक है यही जिन्दगी है तो यही सही। उसने ठण्डी सांस लेकर हाथ हिला दिया।पति ने स्कूटर मोडा और बस के जाने से पहले ही यह जा - वह जा।
बस में चाह कर भी वह सो न सकी। रात भर जाने क्या - क्या सोचती रही। किसके लिये करती है वह हाड - तोड मेहनत? घर, पति - बच्चों में उसका अपना हिस्सा कहां है जिसे वह जरा सा भी पोषित कर पाती। पति की ओर से दो बोल प्रेम के तो दूर सांत्वना या तसल्ली तक के नहीं मिल पाते। हर वक्त उससे खीजा - सा ही रहता है। आरोप ही आरोप जिनका न सिर न पैर।एक घनेरी ऊब और असंतुष्टी उसके व्यवहार से झलकती ही रहती है। साथ वह चलता नहीं, शको - शुबहों का अन्त नहीं! क्या फिर भी वह उसके साथ रहने के लिये अपना ट्रान्सफर करवाना चाहती है?? एक बहुत बडा प्रश्नचिन्ह उसके आगे खडा हो गया।
सुबह सुबह छ: बजे वह जयपुर सिन्धी कैम्प बस स्टैण्ड पर उतरी। वह सोच रही थी कौन है जयपुर में जिनके घर जाया जा सके अल्लसुबह। दूर के दो रिश्तेदार हैं पर उनका पता ठीक से याद नहीं। एक सहेली का ससुराल है, पता भी है पर कैसे जाये? चलो फिलहाल यहीं ठीक है।यहां खासी चहल - पहल है। सुलभ के साफ सुथरे शौचालय आदि का भी इंतजाम है। नौ बजे तक की तो बात है। नित्यकर्म से निपट, हाथ मुंह धोकर चाय पी, चाय की दुकान ही से एक ताजा सैण्डविच लेकर खाया, दिन भर होने वाली रगडाई का अन्दाज लगा कर।उसने अखबार खरीदा और देर तक पढती रही। पूरा अखबार तीन किश्तों में चाट डाला पर घडी क़ी सुई का कांटा साढे सात तक ही खिसका था। फिर पास के एस टी डी बूथ से पति को फोन किया कि पहुंच गई है, यही बसस्टैण्ड पर इंतजार कर लेगी। फिर नौ बजे डायरेक्ट्रेट जायेगी। आज काम हो गया तो रात ही की बस से वापस अन्यथा सहेली के ससुराल में रुक जायेगी।
वह ठीक साढे नौ बजे डायरेक्ट्रेट के गेट पर ऑटो से उतरी। वहां भले ही झाडू लग रही थी,गाडिया अनुपस्थित थीं, कार्यालय खुले नहीं थे। किन्तु एक भीड समय से पहले मौजूद थी यह भीड उन मास्टर - मास्टरनियों, बाबुओं की थी जिनके शिक्षा विभाग के कोई न कोई काम अटके पडे थे, या फिर बैन लगने से पहले ट्रान्सफरों की जुगाड बिठानी थी।
डायरेक्ट्रेट की चहल - पहल में वह खोकर रह गई है। बहुत देर से जमुना बहनजी के तथाकथित रिश्तेदार का विवरण लिये उनका पता पूछते घूम रही है वह कोई पी ए नहीं है किसी मंत्री का,डायरेक्ट्रेट का अदना सा बाबू है। यह बाबू जिसे जानता है वह शिक्षा मंत्री के पी ए का खास दोस्त है। यह सब विवरण बताती तो इतनी क्षीण सी उम्मीद पर उसका पति उसे आने देता? पर अब उसे हर कीमत पर ट्रान्सफर करवाना ही है। गृहस्थी में उसने संभावित दरारें सूंघ लीं हैं। अब साथ रहे बिना काम नहीं चलेगा।
सामान वह कुछ खास लाई नहीं है एक बैग है जिसमें फाइल्स, एक साडी, पेटिकोट ब्लाउज है,एक स्टेफ्री का पैकेट, कंघा - क्रीम - बिन्दी, थोडी सी रात की पूडियां, दो सेब, एक बिस्किट का पैकेट है। यही बैग उसके कन्धे पर टंगा है और वह फटर - फटर चप्पलें फटरकारती सचिवालय के गलियारों में घूम रही है एक अजनबी नाम और पते का मुचडा हुआ कागज हाथ में लेकर।
“ ओह तो आप हैं सुषमा जी, हां - हां मासी ने फोन किया था आपके बारे में। आप कल आ जातीं तो ठीक था। डायरेक्टर साहब अब तो दौरे पर निकल गये।” वह पहले ही थकी थी शायद मायूसी भी उसके चेहरे से टपक पडी। वह रुंआसू हो आई थी।
“ परेशानी की कोई बात नहीं मैडम, हम शिक्षामंत्री जी के निवास पर चलेंगे। उनके एक खास आदमी से मेरी मित्रता है। आप पहले ऐसा करो एक एप्लीकेशन लिख लो ट्रान्सफर की फिर उसे टायप करवा लेते हैं।” शिक्षा मंत्री के निवास पर जाने की ही बात से ही उसका दिमाग कुन्द हो गया। इतनी बडी एप्रोच एक जरा से कस्बे की हेडमिस्ट्रेस के ट्रान्सफर लिये? यहीं डायरेक्टर या डिप्टीडायरेक्ट्रेस से मुलाकात हो जाती। चलो शायद बात बन जाये। यहां राजधानी में तो हर छोटे - बडे सरकारी काम के लिये मंत्रियों की सिफारिशों का चलन है। विभागों में अफसरों की नहीं चलती क्या? उनकी अपनी सोच, अपनी प्राथमिकता नहीं होती क्या?
वह उस बाबू के स्कूटर पर बैठ कर आठ किलोमीटर की दूरी तय करती शिक्षा मंत्री के निवास तक पहुंची।
मंत्री जी के निवास पर भीड हो चली थी। यहां भी उसके ही जैसे शिक्षा विभाग के कर्मचारी,मास्टर, मास्टरनियों का एक पूरा मेला लगा था। सामने बंगले के बाहर लॉन पर बिछी घास पर खडे, बैठे, अधलेटे ऐसे ही कई लोग जमा थे। वह भी अन्यमनस्क सी एक कोने में खडी हो गई।वह जमुना बहन जी का रिश्तेदार दुबला - पतला धनजंय, डायरेक्ट्रेट का एक छोटा बाबू अलग कोने में जाकर अपने परिचित व्यक्ति से मोबाइल पर सम्पर्क कर रहा था।
“ मैडम, मंत्री के खास आदमी मेहता जी तो मिल गये, दोपहर एक बजे तक यहीं पहुंच भी जायेंगे। थोडे स्पष्टवादी हैं, कह रहे थे काम तो हो जायेगा पर रिवार्ड चाहिये। यानि पैसा।”
“ कितना धनजंय जी?”
“ आपसे रियायत भी की तो तीस हजार तो हैं ही।”
“ पर मैं तो इंतजाम के साथ नहीं आई।”
“ कोई बात नहीं उनसे बात तो करते हैं।”
मेहता एक बजे नहीं तीन बजे आया, तब तक वह वहीं भूखी प्यासी खडी रही, मंत्री जी के निवास के बाहर लॉन में। उसके - से कई और भी पहले से खडे थे। बाद तक खडे रहे। बेदम,उबासियां लेते, जबरन पलकें खोले मायूस दिलों में उम्मीदें लिये।उसके पास ही एक और टीचर खडी थी, उसकी ही सी सादा सिन्थेटिक साडी में, मुंह उतारे। बातों बातों में पता चला उसका पति हार्ट पेशेन्ट है, और वह उससे मीलों दूर पडी है। आर्थिक हालत ऐसी है कि नौकरी छोड नहीं सकती । उसने स्वयं को टटोला _ क्या वह छोड सकती है? हां शायद बस महज इतना ही बदलाव आयेगा कि बच्चों को अच्छे महंगे अंग्रेजी स्कूलों से निकालना होगा, पति को सिगरेट छोडनी होगी। किराये का छोटा घर लेना होगा। अपने फ्लैट की किश्तें नहीं चुकीं तो बेचना ही होगा न! और जो नौकरी पर चार सुकून के पल मिलते हैं, वे घर के कामों की भेंट चढ ज़ायेंगे और इज्ज़त मिलती है, वह जाती रहेगी। एक एक रूपए के लिये पति के आगे हाथ फैलाना होगा।
मेहता से बात हुई, पर बिना पैसों के बात कैसे जमती।
“ ठीक है जब पैसे ले आयें तो मेरे इस मोबाइल नम्बर पर सम्पर्क करें। उससे पहले व्यर्थ है मंत्री जी से बात करना। वे भडक़ जाते हैं ट्रान्सफर की बात पर। आप पैसों का इंतजाम जल्द ही करें, अब ट्रान्सफरों पर बैन भी लगने वाला है।”
“ जी इतने पैसों का इंतजाम करने में सप्ताह तो लगेगा ही।” हालांकि उसके मन में जरा भी उम्मीद नहीं थी कि अचानक वह तीस हजार कहीं से इकट्ठा कर लेगी या पहले से ही दस तरह के लोन्स चुकाते वह और उसके पति एक और लोन का भार उठा पाएंगे।
वह मायूस सी थैला लटकाये धनंजय के पास खडी रही। धनजंय भी पार्किंग से अपना स्कूटर ले आया, वह सुबह से उसीके साथ था सो स्कूटर लेकर खिसकने के मूड में था।
“ आप को कहां छोड दूं? मुझे सीधे दफ्तर जाना था, एक जरूरी मीटींग है, साढे तीन बजे।”
उसे खुद नहीं पता था कि उसे अब कहां जाना चाहिये।
“ आप जायें धनजंय जी, मैं ऑटो कर लूंगी।”
“ ठीऽक तो फिर मैडम मैं चलूं? मुझसे जितना बन पडा किया, अब आप अगली बार आकर मेहता जी से सीधा सम्पर्क कर सकती हैं।”
“ धन्यवाद धनंजय जी।”
सही अर्थों में उसका मुंह सूख गया था, एक सूखा सा धन्यवाद देकर वह मंत्री निवास के बडे से गेट से बाहर थोडा चलकर एक फुटपाथ पर अन्यमनस्क सी खडी हो गयी।
सस्ती और कई बार जुडवाई गई चप्प्ल की कील उखड आई थी और सुबह से बार - बार पैरों में चुभ रही थी। लडख़डा कर थोडा और आगे निकल आई मंत्री निवास से। सूरज बुरी तरह तप रहा था। पास ही गुलमोहर के पेड था और एक बेन्च भी। साथ में एक छोटा सा बूथ था जहां कोल्ड ड्रिंक और चिप्स के अलावा मिनरल वॉटर की बॉटल्स भी रखी थीं। गुलमोहर के पेड के नीचे उसे शान्ति मिली।बूथ से उसने मिनरल वॉटर की एक बॉटल खरीदी और गट - गट एक सांस में पी गई। राहत मिली। फिर समय देखा साढे तीन बजे थे। चार बजे एक बस जाती है उसके शहर को।लौट जाये अपना सा मुंह लेकर? पति के ताने सुन ले चुपचाप। सच ही तो है ट्रान्सफर करवाना टेढी ख़ीर है।
दो ऑटो एक के बाद एक करके निकल गये वह निर्णय ही नहीं कर सकी कि कहां जाये?बसस्टैण्ड? सहेली के ससुराल मालवीय नगर? एम एल ए के निवास पर फोन न और पता तो रखा है। यह अल्पना ने दिया था यह कह कर “ कभी मिली है अपने क्षेत्र के एम एल ए से?एस टी कैण्डिेडेट है, पर बडा बांका रसिया है। जरा मुस्कुरा दो तो काम बनवा देता है। महिलाओं में बडा पॉपुलर है। तेरे ही मायके का है तू तो जानती होगी। तू कोशिश तो करना उससे मिलने की, चुनाव पास हैं शायद करवा ही दे।” खाक जानती होगी! वह ब्याह करके जबसे इस पास के शहर आई है तब से मायके जाना ही कितना हुआ? गये तो हमेशा अपने जापे में, किसी की शादी में, या हारी - बीमारी में। सुना तो था वहीं का है एम एल ए। उसका कस्बा तो है ही मीणा बहुल क्षेत्र होगा कोई। उसका राजनीति से क्या वास्ता? जिन्दगी की जद्दोजहद में कभी वोट तक तो दिया नहीं।
एक घनी बेचारगी के साथ उसने सोचा - पति साथ होता तो इस वक्त राहत होती। पहले चप्पल ठीक करवाती फिर किसी रेस्तरां में न सही ढाबे में सही बैठ कर चैन से खाना खाती और उसके साथ ही सुरक्षित महसूस करती हुई एम एल एसे मिल आती। भूख लगी थी पर घबराहट और बेचैनी इतनी थी इस बडे और अजनबी शहर के अजनबी सायों की वजह से कि भूख पेट में मरोड बन कर तो उठ रही थी पर इच्छाएं जैसे मर गईं थी फिर भी उसने फुटपाथ की बैंच पर बैठ कर एक सेब खा लिया। सेब चबाते चबाते उसके दिमाग की ठस्स पडी शिराएं जैसे खुलीं और उसने निर्णय लिया कि जिस काम के लिये वह आई है, हजार रूपए बिगाड रही है उसके लिये अन्तिम प्रयास करना ही जायज है। उसने ऑटो वाले को आवाज दी ।
घूमघाम कर सही पते पर तो वह पहुंच गई लेकिन ऑटो का मीटर सत्तर रूपए दिखा रहा था। वह एम एल ए श्याम सुन्दर मीणा के बंगले के बाहर खडी थी। लस्त - पस्त आखिरी उम्मीद का तिनका पकडे। उसने इधर उधर देखा। गरमी की ऊंघती दुपहर के सन्नाटों में आस पास कोई न दिखा। एक लाल बत्ती वाली गाडी बंगले के गैराज में थी। यानि विधायक जी घर पर ही हैं। माना वह व्यक्तिगत तौर पर तो उन्हें नहीं जानती पर, क्षेत्र के विधायक हैं तो यदा - कदा विभाग के आयोजनों - टूर्नामेन्ट्स वगैरह में दूर से भीड में उन्हें देखा है। पिछली बार मायके गई थी तो बस में से चौराहे पर होर्डिंग भी देखे हैं बडे - बडे। उसने ध्यान ही कहां दिया? सफेद धोती कुर्ता, खादी की जैकेट में टोपी लगाये बडी मूंछों वाले इस नेता की छवि आम नेता ही सी लगी। कितनी बार उनके घोटालों की खबर, अक्खड व रंगीन मिजाज क़ी खबर अखबारों में आती रही पर उसे ऐसी खबरों में कम ही रुचि थी।
अल्पना की बात याद आई, “ _ स्वयं तो बी ए भी ठीक से पास नहीं हैउसके घर की औरतें तो सात परदों में रहती हैं पर अन्य पढी लिखी आधुनिक औरतों से बहुत तहज़ीब से बात करता है,उनमें रुचि लेता है। झुक - झुक जाता है। लोग कुछ भी कहें उसके बारे में पर तुझे क्या तू तो काम के लिये मिल लेना। वह अपने गांव के या भीलवाडा के घर में कम ही रहता है। अपने क्षेत्र में तो बस चुनावों में ही झांकता है, बाकि अपना क्षेत्र उसने चमका के रख दिया है। अब जब तू जयपुर जा ही रही है तो मिल आइयो। मैं भी जयपुर जाकर ही मिली थी। मास्टरनियां बातें करती हैं कि उससे काम करवाना हो तो अकेले में मिलो। पति के बिना पर भई मैं ने रिस्क नहीं ली तो पति के साथ मिली थी और लौटते ही हाथ में ट्रान्सफर लैटर था।”
उसने स्वयं को समझाया, कैसा भी हो, एक बार बात करने में क्या हर्ज है? बाहर से ही एप्लीकेशन भिजवा देगी। मिला भी तो मुस्कुराने तक तो ठीक है, ज्यादा कुछ हुआ तो भाग आएगी। उसने झट से पर्स निकाला थैले से, उसमें से कंघा निकाल कर बिखरे - उलझे बाल ऊपर - ऊपर से संवार लिये। संवरने की जगह वे और अजीब हो गये थे।दिन भर के धूल भरे पसीने को सोखकर मटमैला हो आया रूमाल थोडा मिनरल वॉटर से भिगो कर चेहरा रगड लिया। टेढी बिन्दी उखाड क़र सही जगह पर चिपकाई और हल्की सी लिपस्टिक सूखे पपडाए ओठों पर फेर ली। साडी ठीक ठाक की और लॉन का गेट खोल करके पोर्च में आकर सीढयों के नीचे आकर फिर अन्यमनस्क हो गयी। यह भी कोई वक्त है किसी से मिलने का? पर गनीमत है यहां मिलने वालों की भीड नहीं। क्या कहेगी? कैसे कहेगी? गलत वक्त पर आने के लिये डांट दिया तो?
लॉन सजा संवरा था, दीवारों पर चढी बेलें तरतीब से तराशी हुई थीं। जीनिया के फूल गर्मी में भी सुर्ख रंगों में मुस्कुरा रहे थे। बाहर की सज्जा बहुत सौन्दर्यबोध के साथ की गई थी। ऐसा नहीं है कि उसे यह सब छूकर नहीं गुजरता या उसका सौन्दर्यबोध मर गया है, छूता है, उसे भी यह सब भाता है उसका मन भी करता है वह घर सजाये, पौधे लगाये घर की आन्तरिक सज्जा खूब मन से करेपर दो कमरे के छोटे से फ्लैट में, जिसमें न छत अपनी न जमीन क्या कर ले? सामान किसी तरह अंट जाये वही बहुत है। अचानक उसे अपना आप इस माहौल में अनुपयुक्त लगने लगा। उसी अन्यमनस्कता में उसने सीढी चढ क़र डोर बेल बजा दी। बाहर एक सेवक किस्म का व्यक्ति आया।
“ साहब हैं?”
“ कुण साब?”
“ एम एल ए साहब, श्याम सुन्दर मीणा जी। म्हैं वणा के ई गांव री हां।”
“ कठा सूं पधारया आप?”
“ भीलवाडा सूं।”
“ कई काम वास्ते?”
“ पैले थां बताव साब है कि कोनी?”
“ हुकुम तो है, पण आराम फरमा रिया है। “
“ सोई रिया है कई?”
“ सोई तो नहीं रिया है टी बी देख रिया है।
“ वनाने म्हारो संदेसो तो देई दो।”
“ आप अठै बइठो, म्हैं बाबू साब ने पूछ न आवां।”
ड्राईंगरूम के बाहर बनी एक गैलरी सी में उसने बैंच पर बिठा दिया। उसे लगा अभी उससे पूछताछ के लिये फिर कोई पी ए नुमा व्यक्ति आयेगा और वह एप्लीकेशन भिजवा देगी। पर उसके आश्चर्य को दुगुना करते हुए स्वयं श्याम सुन्दर मीणा सामने खडे थे। सोकर उठे थे शायद,आंखें लाल हो रही थीं। कसरती डील डौल वाला बदन, भरा चेहरा, उम्र चालीस के पार की तीखी मूंछें गहरा सांवला रंग।
“ नमस्कार।” उसने हिचक के साथ हाथ जोड दिये।
“ नमस्कार।”
“ सर। मैं भीलवाडा से आई हूं, आपसे अपने ट्रान्सफर की बाबत बात करनी थी।”
“ काम की बात तो हो जायेगी। आप अन्दर पधारें। केसरी बहनजी को पानी पिलाओ फिर चाय बनाओ।” कह कर वे फिर अर्न्तधान हो गये।
उसे अजीब सा लगा पर वह स्वयं को सचेत कर पाती तब तक वह एक भव्य ड्राईंगरूम में थी।मखमली कालीन, फानूस, गुदगुदे सोफे, कमरे में अंधेरे - उजाले का जादुई माहौल बनाते तरह तरह के लैम्प। सुन्दर परदे। कलाकृतियां। उसकी मध्यमवर्गीय हिचक उस अपदस्थ कर रही थी वह कार्पेट के पास चप्पल उतारने लगी फिर उसे अपने आप पर शर्म आ गई।कहां बैठे - कहां नहीं? चुपचाप से उसने कोने में पडी एक बेंत की कुरसी चुन ली। संकोच उसे धंसा रहा था। कैसे चली आई एक विधायक के घर, बिना फोन, बिना एपॉइन्टमेन्ट। क्या सोच रहा होगा ये प्रायमरी और मिडल स्कूल की मास्टरनियां भी!
जब तक चाय आई वे भी आ गये कपडे बदल कर, वैसा ही बुर्राक सफेद खादी का कुर्ता पायजामा पहन कर जैसा पहले पहने थे बस फर्क यह था कि वह थोडा मुसा हुआ था, यह कडक़ इस्त्री किया हुआ! वह ठीक से नजर उठा कर भी उनसे बात नहीं कर पा रही थी। शब्द गले में अटक रहे थे। अल्पना की बातें याद आ रही थीं।
“ मैं परसों ही तो भीलवाडा से लौटा हूं। काम के लिये आप वहीं मिल लेतीं।”
“ जी पता ही नहीं चला।”
“ हां अब बतायें क्या सेवा कर सकता हूं, मैं आपकी।” उन्होंने सोफे के बैक से टिकते हुए एक पैर दूसरे पैर के घुटने पर टिकाते हुए और अपनी नीलम की अंगूठी घुमाते हुए अतिरिक्त मिठास व विनम्रता से पूछा।
“ जी मैं पिछले दस सालों से शहर के बाहर के गांवों में नौकरी करती आ रही हूं। अपने शहर में इतने सरकारी स्कूल हैं, मुझे वहीं कहीं सैकेण्ड ग्रेड टीचर के पद पर बुलवा लें तो मेरे बच्चों की पढाई सफर कर रही है। मेरे पति वहां बैंक ऑफ राजस्थान में क्लर्क हैं।”
वे उस पर अपनी बेधक दृष्टि डाल कर कुछ सोचते हुए बोले ...
“ आप कब आईं यहां जयपुर? “
“ जी आज सुबह ही तो, शिक्षा विभाग के डायरेक्टर साहब से मिलना था पर नहीं मिल सकी। फिर शिक्षा मंत्री जी पर फिर आपसे मिलना उचित समझा।”
“ आप तो ऊंची - ऊंची जगह हो आईं फिर तो काम बन ही जाना चाहिये।” उसे लगा उसने व्यंग्य से कहा है।
“ कहां?” वह रुंआसू हो गई। कहीं उसने यह सब बता कर गलत तो नहीं किया? “ पैसा और सिफारिश के बिना।”
“ आप मांडल की हैं?”
“ जी।”
“ किस परिवार से?”
“ वैद्य जगन्नाथ व्यास जी मेरे पिता थे”
“ शास्त्री जी?”
“ जानते हैं आप?
“ हां..”
एक लम्बा पॉज दोनों के बीच लटका रहा, वह गुदगुदे कालीन पर अपनी बेमेल टूटी - धूल अंटी चप्पलें पूरी तरह टिका भी नहीं पा रही थी। विधायक साहब गहन सोच में डूबे, अपनी अंगूठियों से अब भी खेल रहे थे और सोफे पर टिके एक घुटने पर टिका दूसरा पैर हिलाये जा रहे थे। बार - बार उनका अर्थपूर्ण नजरों से उसे तौलना सुषमा को परेशान कर रहा था। पर वह सब्र साधे बैठी रही। अचानक वे बोले _
“ आपके पति डॉक्टर तो नहीं।”
“ जी नहीं, मैं ने कहा न बैंक ऑफ राजस्थान में क्लर्क हैं।”
“ ओह हां।”
“ आप बॉयज सेटअप में आना पसन्द करेंगी?”
“ जीऽ जी हां। मुझे कोई समस्या नहीं। मैं आ जाऊंगी।” वह अविलम्ब उल्लसित होकर बोली।एक हंसी सी खिल गई उसके चेहरे पर। उम्मीदों के मुलायम स्पर्श और विधायक साहब के सकारात्मक उत्तर ने एकबारगी उसे हल्का कर गया। अब वह अपनी समस्याएं विस्तार से सुनाने लगी। वे उसे गौर से देखते हुए सुनते रहे फिर बीच में ही बोल पडे _
“ सुबह से ट्रान्सफर के चक्करों में फिर आपने खाना तो खाया नहीं होगा?”
“ जी! जी काम पहले था खाना तो बाद।”
“ केसरी, बाई सा के लिये खाना परोस।”
वह अचकचा गई। हडबडा कर उठ गई। आशंका ने उसे ग्रस्त कर लिया था।
“ नहीं नहीं, आप तकलीफ न करें। आपने बहुत बडा आश्वासन दे दिया, इसके लिये ही मैं बहुत आभारी हूं। आज्ञा दें।” इस अप्रत्याशित आवभगत के लिये वह तैयार नहीं थी तो उसका गला भर गया। पर आगे जो प्रस्तुत होने वाला था उससे अधिक अप्रत्याशित क्या हो सकता था?
“ सुषमा जी ।” इस आग्रह भरे स्वर में कुछ चीन्हा सा था पर क्या? एक पल को तो वह यह भी नहीं सोच सकी कि इन्हें उसका नाम कैसे पता ?
“ आप मुझे जानते हैं? “
“ आप नहीं जानतीं मुझे?” उन्होंने हल्की सी हंसी के साथ पूछा। वह हडबडा गई।
“ जानती हूं, आप तो एम एल ए हैं। आपको शायद मेरे बारे में अल्पना माथुर ने फोन करके बताया होगा। उसी ने आपका पता और फोन नम्बर दिया था।”
“ कौन अल्पना?
“ एक कलीग।”
“ नहीं मुझे याद नहीं पडता। बहुत लोग आते जाते रहते हैं भीलवाडा से। पर मैं सुषमा जी आपको जानता हूं। मांडल से हम साथ साथ भीलवाडा गवर्नमेन्ट कॉलेज में पढने के लिये डेली अप एण्ड डाउन करते थे।”
“ “
बहुत ध्यान से उसने उस व्यक्ति को देखा जो अतीत के किसी कोने में बहुत सी अस्पष्ट परछाइयों की भीड में खडा बहुत अधिकार से उसका नाम पुकार रहा था। कौन भाई राजा का कोई दोस्त? किसी सहेली का भाई? पडौसी, किसी रिश्तेदार का परिचित? कॉलेज सहपाठी ! कौन? ओह
“ श्याम जी! “ इस घुटे हुए पॉलीटिशियन में वह उस एक की छवि ढूंढ नहीं पा रही थी। जिसके आकर्षण ने बी ए करने के दौरान उसे जीवन्त रखा था। वह दोतरफा आकर्षण जातिभेद की दीवार के आर - पार अपनी मर्यादाओं में रहा तो क्या? सम्प्रेषण तो पहुंचता था। एक कैमेस्ट्री थी, दो व्यक्तियों के बिना करीब गये भी। उसी कैमिस्ट्री, उसी आकर्षण की पहचान के तहत यह व्यक्ति उसकी याददाश्त की परतें टटोल रहा है। उसकी स्थिति अजीब सी हो आई। अगर यह श्याम ही है तो अब क्या? अब क्या मतलब उस आकर्षण का वह तो उसके लिये एक टीचर है, ट्रान्सफर के लिये बिना अपॉइन्टमेन्ट लिये चली आई।
वह क्या सोच रहा होगा? कितनी भिन्न है आज की छवि उस पहले की छवि से। कहां मैच करती है वह लम्बे बालों की दो चोटियां बनाए, सलवार कुर्ता पहने, सुन्दर - सलोनी आकर्षक सुषमा।जिसकी आवाज में जादू था। आज अवशेष से बचे पतले बालों को कस के दुहरा के क्लिप में बांधे, लापरवाही से बंधी साडी, थकान व तनाव के चेहरे पर छूटे कितने कितने चिन्ह। सूखे होंठ,झुक आया पोस्चर। वह हतप्रभ खडी रही।
“ माना मुझे पन्द्रह मिनट लगे तुम्हें पहचानने में पर तुम तो पहचान ही नहीं रही थी। अच्छा बैठो तो।”
“ ..”
वह कुछ कह न सकी पर स्वगत कहने को कितना कुछ था .. कैसे पहचानती? कभी तुम्हें ढंग से देखा ही कहां था? महज तब देखा जब तुम कॉलेज के चुनावों में वोट मांगने आते थे तब या जब कॉलेज के फंक्शन्स में स्टेज के पीछे हल्के अंधेरों में तुम आकर तारीफ किया करते थे “ आपकी आवाज ग़जब की है सुषमा जी।” तब भी कभी पूरा चेहरा नहीं करीब से नहीं देखा। कोलाज सा जुड ज़ाता था स्मृतियों में वह चेहरा दो छोटी मगर लम्बी आग्रह करती आंखें, संकरा माथा - काले घुंघराले बालों से ढका, नाक, मूंछ थी नहीं तब फिर अलग से वह अर्थ से भरे मुस्कुराते होंठ तो याद रहे पर यूं सम्पूर्ण कुछ भी याद नहीं। यूं भी क्या रिश्ता था? एक दो बार तुम्हारी तारीफ क्या कर दी कि तुम अच्छे वक्ता हो, कुछ है तुममें जो औरों से अलग करता है बस लगीं सहेलियां छेडने।
“ क्या सोचने लगीं?
“ कितना समय बीत गया। पन्द्रह साल। कैसे पहचानती?” धीरे से उसने कहा और बैठ गई।
“ हां बीत तो गया। पर मैं ने पहचान लिया। पहले आपकी आवाज क़ो अन्दर ही से “ म्हैं वणा के ई गांव री हां।” मेवाडी बोलने का वह मीठा लहजा याद है वह गाना जो आपने गाया था कॉलेज में धीरे हांकों नी बैलगाडी नेम्हारा झैला - झूमर झोला खाए रे हठीला ! मैं आवाज से उत्सुक होकर बाहर आया पर फिर असमंजस में पड ग़या।”
““ न जाने कब श्याम सुन्दर मीणा जी, विधायक भीलवाडा ग्रामीण क्षेत्र आप से तुम पर उतर आये।
“ तुम्हें यूं हताश, परेशान, साडी में सचमुच नहीं पहचान सका मैं पहली बार में तुम्हें किसी गांव की टीचर ही समझा। बहुत बदल गई हो। पर फिर यहां बैठ कर पूछा और बहुत देर तक गौर से देखा तो तुम्हारी बार - बार उठती गिरती, भीगी - भीगी नजर पहचानी सी लगी।”
अब वह भीगी नजरें टपकने को ही थीं। उसे स्वयं पर ग्लानि हो रही थी। इस फटीचर हाल में ही उसे इससे मिलना था वह भी अनायास इतने सालों बाद! उसका गला भावनाओं से, तनाव से अवरूध्द था, विचार इतने घनीभूत, मन अतिसम्वेदन और दिमाग कुन्द यह अवरोध सब पिघल कर बह जाता तो राहत मिलती। वह निर्वाक् थी। मन कर रहा था उठ कर चल दे। उस पुराने क्षीण से परिचय सूत्र का क्या अर्थ।उसका क्या वह तो एक विधायक है, जिसके भ्रष्टाचार और रसिक मिजाज क़े चर्चे अखबारों में आते रहते हैं।
“ सुषमा, खाना ठण्डा हो रहा है।”
“ मुझसे नहीं खाया जाएगा श्याम जी।”
“ सुषमा। मुझे पता है तुम सुबह से बहुत परेशान रही हो अब उठो, हाथ - मुंह धोकर खाना खा लो। इसे अपना ही घर समझो।” श्याम सुन्दर मीणा का चेहरा उसने गौर से देखा, वह तीखी नाक, स्थूल डील - डौल वाले विधायक के चेहरे में से एक पुराना आत्मीय झांक रहा था, एक आश्वस्त कर देने वाली मुस्कुराहट वहां थी, जिसने उसका तमाम तनाव, संकोच, बरसों से जमा पीडा को पिघला दिया था।
ड्रॉइंगरूम से अटैच्ड और उतने ही भव्य बाथरूम में जाते ही दरवाजा बन्द करते ही वह दीवार से चेहरा टिका कर हिचकियां ले - लेकर रोने लगी। न जाने कितना - कितना पुराना अवसाद फूट कर बह निकलना चाहता था।