मास्टरी यानी छुट्टी / मनोहर चमोली 'मनु'
दुनिया में ऐसा कोई व्यवसाय नहीं, जो मास्टरी के सामने पानी भरता हो। वैसे मास्टरी कभी ईश्वरतुल्य कार्य का पर्याय माना जाता था। मास्टरी करने वाले ‘गुरूजी’ की उपाधि से अलंकृत होते थे। कहा भी गया था कि ‘गुरू गोविन्द दोनों खड़े ...।’ बहरहाल। यहाँ तुलनात्मक अध्ययन नहीं हो रहा। हाँ, तो आज मास्टरी यानि छुट्टी। बेहद कड़ाके की सर्दी है। क्या करें। छुट्टी। जम कर बारिश हो रही है। क्या होना है। छुट्टी। कोहरा हो गया है। तब भी छुट्टी। लू चलने वाली है। और क्या होगा। छुट्टी। होली आ गई। तो क्या? छुट्टी तय है। दीवाली-दशहरा हो या ईद-गुरूपर्व। तो भी छुट्टी होनी ही है। कोई ऊपर वाले को प्यारा हो गया तो छुट्टी निश्चित है। ये कोई में भी बहुत कुछ है। स्कूल से जुड़े हैं, बच्चे। बच्चों से जुड़े हैं अभिभावक। अभिभावक और जन प्रतिनिधि स्कूल परिक्षेत्र में कोई भी दिवंगत हो जाए तो छुट्टी। चुनाव सिर पर आ गए तो छुट्टी। चुनाव भी तो भाँति-भाँति के हो गए हैं। वार्ड मेंबरी क्या प्रधानी क्या। विधायकी और सांसदी तो हैं ही। अब सरकार अपना पूरा कार्यकाल भी कर लें तो अलग बात है। नहीं तो एक चुनाव आया और फिर दूसरा। परीक्षाएं हैं तो छुट्टी। अब तो विद्यालयों में शादी-मुण्डन आदि के लिए किराया लेकर छुट्टी हो जाने का प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है। स्कूल की छत टपक रही है तो छुट्टी।
कुल मिलाकर छुट्टी और मास्टरी का चोली-दामन का साथ है। वेतन नहीं मिला तो छुट्टी। असमान है तो छुट्टी। सड़क पर आकर धरना-प्रदर्शन करना है तो छुट्टी। बुरा क्या है, अपने हक के लिए यदि लड़ना पड़े और चॉक डाउन करनी पड़े तब भी काम न चले तो छुट्टी ही तो एक उपाय है। वैसे भी बिन लड़े कौन सुनता है। वैसे भी मास्टरी उत्पादन का व्यवसाय तो है नहीं। कोई लाभ कमाकर देने वाला अनुसंधन-प्रतिष्ठान तो है नहीं। क्या पफर्क पड़ता है जो छुट्टी हो जाए। शेयर मार्केट तो है नहीं। या मुंबई जैसा महानगर तो है नहीं कि छुट्टी होने पर अरबों का नुकसान हो जाएगा। मास्टरी शोध का काम भी नहीं है। छुट्टी न होने पाए, अन्यथा शोध न होने से कई नई जानकारियां या छिपे रहस्य उजागर नहीं हो पाएंगे। क्या फ़र्क पड़ता है, जो छुट्टी हो जाए। सिर्फ़ कुछ पाठ नहीं पढ़ाए जाएंगे। चॉक नहीं घिसी जाएगी। टन-टन की आवाज ही तो नहीं सुनाई देगी। छुट्टी हो गई तो क्या हुआ, विद्यालय ही तो सुनसान हो जाएंगे। यही सब तो होगा न। और क्या अन्तर पड़ जाएगा।
ये सब बातें रज्जू पनवाड़ी की दुकान पर खड़े लोग आपस में कर रहे थे। तभी एक कबाड़ी वहां आया। कबाड़ी रज्जू पनवाड़ी की दुकान से सिगरेट की खाली डिबिया और पान-तंबाकू के पाऊचों को इकट्ठा करने रोज ही शाम को आता है। रज्जू की दुकान पर खड़े-खड़े पान-तंबाकू और सिगरेट पीने वालों का जमावड़ा जो लगा रहता है। कबाड़ी बोला-‘‘साहब लोगों। स्कूल की छुट्टी हो जाने से आप लोगों को कोई नुकसान नहीं हुआ होगा। मगर मेरे जैसे हजारों लोगों को नुकसान हुआ है। मैं अगर बारह जमात की किताबें पढ़ा होता, तो कुछ कर रहा होता। अब देखो न। आप जैसे लोग सिपर्फ बातें करते हैं। छुट्टी न होने पाए, इस बारे में कुछ नहीं करते। पूरे साल चुप रहते हैं। पिफर पास-पफेल पर जोर लगाते हैं। छुट्टी कराने में मास्टरों का जो योगदान होगा सो होगा। मगर छुट्टी होने से जो नुकसान होता है, उसमें आप जैसे लोगों का योगदान बहुत ही होता है। अब देखो न। छुट्टी पर छुट्टी होने से यही तो हुआ कि कूड़ा बीन रहा हूँ। ऐसा कूड़ा जो आप बातों ही बातों में पफैला देते हैं। ऐसा कूड़ा जो आप साहब लोगों के लिए कुछ नहीं है। मगर मेरे लिए? मेरे लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ है। स्कूल की छुट्टी हो जाने से मैं इतना तो जान पाया हूँ कि जिन किताबों में दुनिया के रहस्य हैं। जिन किताबों में दुनियादारी की समझ हैं। जिन किताबों में तरक्की के राज़ हैं। जिन किताबों में सही-गलत को पहचानने का मंत्रा है। वो किताबें बच्चे नहीं पढ़ पाते। छुट्टी पर छुट्टी हो जाने से ये किताबें खुलती नहीं। किताबों के न खुलने से मेरे जैसे हजारों-हजार लोगों की जिदंगी की किताब हमेशा के लिए बंद हो जाती है।’’ यह कह कर कबाड़ी चला गया। दुकान में खड़े लोग भी धीरे-धीरे करके इधर-उधर चले गए। पर छुट्टी? छुट्टी पर आज भी कोई कुछ नहीं कह रहा। आप क्या सोचते हैं? ज़रा सोचना।