मास्टर स्ट्रोक / सुकेश साहनी
मास्टर स्ट्रोक : अपनी बात
लगभग चालीस वर्ष पहले विषयों के आधार पर सशक्त लघुकथाओं को संकलित कर प्रकाशित करवाने की योजना ने जन्म लिया था।लघुकथाओं का चयन करते हुए इस बात को बलमिला था कि अन्य विधाओं की भाँति लघुकथा में भी उत्कृष्टलेखन हुआ है।इसी से उत्साहित होकर 'स्त्री-पुरुष संबंधों की लघुकथाएँ'(1992),'महानगर की लघुकथाएँ'(1993),'देह-व्यापार की लघुकथाएँ'(1997) का प्रकाशन हुआ,जिसे पाठकों ने खूब सराहा। सन्1999 में 'जनसुलभ पेपरबैक्स' प्रकाशन शुरू करने का विचार मन में आया,जिसमें लागत मूल्य पर पाठकों तक चुनिंदा साहित्य पहुँचाने की योजना थी। वर्ष 2000 में ही 'अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच' के बैनर तले लघुकथा लेखकसम्मेलन बरेली में आयोजित किया जाना था।इस अवसर पर 'जनसुलभ पेपरबैक्स' के शुभारम्भ की योजना बनी और पहली पुस्तक के रूप में 'बीसवीं सदी : प्रतिनिधि लघुकथाएँ ' काप्रकाशन हुआ, जिसका विमोचन सम्मलेन क़े पहले सत्र में प्रसिद्धआलोचक मधुरेश जी क़े कर कमलों से हुआ।इस पुस्तक में लघुकथा जगत की चुनिंदा और चर्चित लघुकथाओं को संकलित करने का प्रयास किया गया था। सम्मेलन क़े अवसर पर इस पुस्तक को सभी द्वारा सराहा गया और विभिन्न प्रदेशों से आए कई साथियों ने इस पुस्तक की दस -दस प्रतियाँ खरीदीं।कहना न होगा कि इस संकलन को पाठकों का बहुत प्यार मिला। 'जनसुलभ पेपरबैक्स' से इसके तीन संस्करण प्रकाशित हुए औ रअयन प्रकाशन ने दो सजिल्द संस्करण प्रकाशित किए।पाठकों की माँग को देखते हुए इसे पुनः प्रकाशित करने की योजना है। लघुकथा जगत में इस कार्य को अलग से रेखांकित करते हुए खूब सराहा गया। प्रसिद्ध कथाकार बलराम ने पुस्तक की समीक्षा करते हुए लिखा -
आधुनिक हिन्दी लघुकथा को गति प्रदान करने के लिए 1974 में भगीरथ और रमेश जैन ने सम्पादित संचयन ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ से जो पहल की थी ,लगभग वैसी ही पहल ‘बीसवीं सदी: प्रतिनिधि लघुकथाएँ संचयन निकालकर सुकेश साहनी ने बीसवी सदी के पूरे फलक पर की है ।“ बीसवीं सदी: प्रतिनिधि लघुकथाएँ” में 130 नए-पुराने प्रतिष्ठित कथाकारों की लघुकथाएँ पढ़ने से बीसवीं सदी में प्रवहमान लघुकथा कीविधा के रूप में एक मुकम्मल पहचान बनती है ।ख़ाकसार के लघुकथा-प्रयत्नों को छोड़ दें, तो इस किताब में ऐसा पहली बार हुआ है कि पूरे देश के इतने सारे महत्त्वपूर्ण नाम एक संचयन में एकत्र हुए हैं , जिससे लघुकथा के प्रति सम्पादक की निष्ठा,समर्पण ,न्याय-बुद्धि ,निष्पक्षता और गम्भीरता का पता चलता है । प्रसिद्ध कथाकार और समीक्षक रवि बुले, अमर उजाला क़े रविवासरीय में लिखते हैं -
किसी भी तरह के गैरइंसानी जज्बे के खिलाफ जो आक्रामकता लघुकथाओं में देखने को मिलती है, वह हिंदी की कहानियों में यदा-कदा ही दिखाई पड़ती है, वह भी लंबी पड़ताल के बाद।‘बींसवी सदी की प्रतिनिधि लघुकथाएं सुकेश साहनी द्वारा संपादित लघुकथाओं का संग्रह है। ऐसे में, जबकि रचना-फलक बड़ा विस्तृत है, शताब्दी या किसी एक दशक की प्रतिनिधि लघुकथाओं का संकलन एक मुश्किल काम है। इस संकलन में वरिष्ठ और स्थापित कहानीकारों के साथ-साथ कुछ कमजाने पहचाने रचनाकारों को भी शामिल किया गया है। यह काम निश्चित रूप से ईमानदारी भरा है कि स्थापित लोगों के बराबर या उनसे ऊपर भी उसे चुना जाए, जिसने अच्छा काम किया है।इन लघुकथाओं का रास्ता जीवन के बहुत जटिल और बीहड़ हिस्सों से होकर नहीं गुजरता, लेकिन इनमें जिंदगी की तल्ख सच्चाइयों की ऐसी धारदार चमक है जो आँखों में चुभती है। आकार में छोटी होने के बावजूद इन कथाओं के सरोकार बड़े हैं।
'बीसवीं सदी : प्रतिनिधि लघुकथाएँ ' को प्रकाशित हुए दो दशक बीत चुके हैं।इस बीच बहुत सी नयी प्रतिभाओं ने लघुकथा लेखनमें अपनी पहचान बनायी है।कुछ पुराने साथी अपनी लघुकथा-लेखन की विकास-यात्रा में आगे बढ़ें हैं, 'बीसवीं सदी : प्रतिनिधि लघुकथाएँ ' में संकलित रचनाओं से इतर उनकी नई रचनाएँ उनकी पहचान बन रही हैं। अनेक नए रचनाकार अपनी अद्भुत लघुकथाओं क़े साथ उपस्थित हैं।
'बीसवीं सदी : प्रतिनिधि लघुकथाएँ ' की अगली कड़ी क़े रूपमें एक संचयन की जरूरत महसूस हो रही थी,जिसमें पुरानेलेखकों के साथ -साथ इक्कीसवीं सदी के दो दशकों की चुनिंदालघुकथाओं को भी शामिल किया जा सके।
'मास्टर स्ट्रोक' (लघुकथा-संग्रह) आपके सम्मुख प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता हो रही है।इसमें नए-पुराने उन सभी लेखकों की रचनाएँ शामिल हैं, जिनकी सशक्त लघुकथाओं तक मैं पहुँच सका। मुझे ज्ञात है की अन्य बहुत से महत्त्वपूर्ण रचनाकार इसमें शामिल होनेसे रह गए हैं, जिसका प्रमुख कारण इस संग्रह की सीमा है। इसमें जो रचनाएँ ली गई हैं, मुझे लगता है कि सम्बंधित रचनाकारों कीप्रतिनिधि लघुकथाएँ हैं (या प्रतिनिधि लघुकथाओं में से एक हैं )। मुझे विश्वास है कि इस संकलन की लघुकथाएँ 'लघुकथा की विकास-यात्रा' की पड़ताल में सहायक होंगी।
'लघुकथा विधा' के प्रति जो अतिरिक्त समर्पण-भाव है,उसी के कारण इस संग्रह का नामकरण 'मास्टर स्ट्रोक' के रूप में हुआ है। इसके पीछे कोई और दावा नहीं है, (यानी यह न समझा जाए कि इसमें शामिल सभी लेखक लघुकथा के 'उस्ताद' हैं और उनकी 'मास्टर स्ट्रोक' रचना इसमें शामिल है)।
'डरे हुए लोग'(1991) से लेकर आजतक जो भी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं,उनमें रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी का सहयोग और मार्ग-दर्शन मिलता रहा है। टंकण से लेकर पांडुलिपि तैयार करने का श्रेय पत्नी रीता को जाता है।आशा है 'बीसवीं सदी: प्रतिनिधि लघुकथाएँ' की तरह यह संग्रह भी आपके ह्रदय में स्थान पाने में सफल होगा।
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