मास्टर / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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रेलवे स्टेशन से थोड़ा पहले ही मेरे जूते के पंजे वाले भाग की सिलाई खुल गई और मैं बिल्कुल असहाय हो गया। पत्नी के एक रिश्तेदार रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय में परीक्षक के तौर पर आ रहे थे। उन्हीं को घर ले जाने के लिए मेरा स्टेशन आना हुआ था। आधे घण्टे बाद उनकी ट्रेन बरेली पहुँचने वाली थी।

मैने किसी मोची की तलाश में नजरें दौड़ाईं।

पिण्डी होटल के पास ही वह बैठा दिखाई दे गया। मैं लपककर उसके नजदीक पहुँचा और फटा जूता उसके आगे कर दिया। मुझे अनदेखा कर वह अपना सामान जमाने में लगा रहा। मैंने गौर किया कि उसने बालों में केाई खुशबूदार तेल लगा रखा था, आँखों में सुरमा साफ दिखाई दे रहा था। बड़ी-बड़ी मूँछों के सिरे किसी बर्छी की तरह नुकीले थे। कुल मिलाकर वह अपने हुलिए से दबंग किस्म का आदमी लग रहा था।

अपना काम निबटाकर उसने मेरे उधड़े जूते पर निगाह डाली।

"तीस रुपये लगेंगे!" उसने बेरुखी से कहा।

"क्या!" सुनकर मैं तनाव में आ गया। मेरी जेब में कुल साठ रुपये थे। मैं जूते की मरम्मत में दस रुपए से अधिक खर्च करने की स्थिति में नहीं था। रिश्तेदार को घर तक ले जाने के लिए मुझे पचास रुपये तो चाहिए ही ।

"भाई, तीस रुपये तो बहुत ज़्यादा है, दस ले लो।" मैंने उसे मनाने की कोशिश की।

" तीस से एक पैसा कम नहीं होगा। उसने मुझे घूरकर देखा तो मेरी पीठ में झुरझुरी-सी दौड़ गई।

मुझे उसपर गुस्सा आया। जब से इनकी पार्टी की सरकार क्या बनी है, इनके दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गए हैं। गुण्डा! मवाली! ...मेरी मजबूरी का फायदा उठाकर जेब काटने पर तुला है।

पिछले आठ सालों से ये जूते मेरा साथ दे रहे थे। दो बार सोल बदलवा चुका था। किसी न किसी प्राथमिकता के चलते नए जूते खरीदना टलता रहा था। अब तो मुझे इनसे बहुत लगाव हो गया था। यह लगाव एक तरफा नहीं, बदले में वह भी मेरे पैरों को बहुत आराम देते थे।

ट्रेन के बरेली पहुँचने का टाइम करीब आता जा रहा था। कोई और विकल्प मेरे पास था नहीं। मन मसोसकर मैंने उसे जूता सिलने को कह दिया था।

मेरे हामी भरते ही उसके अभ्यस्त हाथों ने जूते को थाम लिया, उलट-पलटकर जाँचा, परखा। सिलाई के लिए जूते में हाथ डालते ही वह चैंका, पहली बार उसने गहरी नजरों से मेरी ओर देखा। सुरमा लगी आँखों में विचित्र-से भाव तैर गए थे। देखते ही देखते उसके निपुण हाथों ने जूते को सिलकर पहले जैसा कर दिया था।

जूता पहनते हुए मैंने तीस रुपए उसकी ओर बढ़ा दिए।

"सिर्फ दस रुपए!" कहकर उसन बीस रुपये मुझे लौटा दिए. मैं हैरान था, जो आदमी एक रुपया छोड़ने को तैयार नहीं था, वह पूरे बीस रुपये लौटा रहा था।

"बाबूजी!" अपनी पनीली आँखों से मेरी आँखों में झाँकते हुए उसने कहा, "चालीस साल हो गए यह काम करते हुए. जूते, चप्पल हाथ में आते ही हमसे बतियाने लगते हैं। सिलाई करते हुए आपके जूते से हमारी खूब बातें हुईं। हम बहुत कुछ जान गए हैं। विश्वास करें, हमने अपना पूरा मेहनताना आपसे ले लिया है।"