मिट्टी का कटोरा / मोहम्मद अरशद ख़ान

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दादी को हज़ पर जाने में अभी दो महीने बाक़ी थे, पर उसकी तैयारियाँ उन्होंने अभी से शुरू कर दी थीं। एक पुरानी अटैची, जिसके कुंडों में ताला लटक जाता था, को धूप दिखाकर, अंदर अख़बार बिछाकर तैयार कर लिया था, उसमें वह रोज़ कुछ न कुछ सामान रखा करती थीं।

उनके साथ अब्बू भी हज़ को जा रहे थे। दूकानदारी की व्यस्तता में वे इतना समय न पाते थे कि इस बारे में सोच सकें। जाने से पहले वह बड़े चाचा को सारी बातें समझा जाना चाहते थे। बड़े चाचा यों तो उनके साथ दूकान पर बराबर बैठते थे, सारा हिसाब-किताब भी देखते थे, पर अब्बू की वजह से उनमें बेफिक्री थी। दोपहर को खाना खाने के बहाने घर आकर आराम भी कर जाते थे। पर अब्बू के जाने के बाद ये संभव नहीं था। अब्बू को भी उनकी आदत मालूम थी इसलिए वह उनके अंदर जिम्मेदारी का अहसास जगा देना चाहते थे।

अब्बू जब रात को घर लौटते तो दादी उन्हें अगले दिन लानेवाले सामानों की फेहरिस्त थमा देतीं--छोटे आकार की कुरान, पंजसूरा, तस्बीह, जा-नमाज और भी बहुत कुछ। एक दिन अब्बू को सामानों की लिस्ट सौंपते हुए उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, यूसुफ़, लौटना तो एक मिट्टी का कटोरा भी लेते आना।’’

‘‘मिट्टी का कटोरा...किसलिए?’’ अब्बू ने हैरत से पूछा।

‘‘पानी पीने के लिए।’’

‘‘लेकिन आप तो हमेशा ताँबे के गिलास में पानी पीती हैं?’’

‘‘हाँ, पर सुना है कि अरब में पेड़-पौधे नहीं हैं। वहाँ गर्मी बहुत पड़ती है। रेगिस्तानी लू के थपेड़े चलते रहते हैं। ऐसे में मिट्टी के कटोरे में पानी ठंडा रहेगा।’’

अब्बू हँस पड़े, ‘‘अरे अम्मा, वहाँ के इंतज़ाम बहुत पुख्ता हैं। वह लोग हाजियों को कोई परेशानी नहीं होने देते। आपको हर वक़्त ठंडा पानी मुहैया कराएँगे और तो और बताते हैं कि काबे शरीफ़ का फ़र्श कड़ी धूप में भी गर्म नहीं होता। जाने क्या इंतज़ाम कर रखा है कि तलुओं को ऐसा अहसास होता है कि संदल पर चल रहे हों।’’

‘‘कुछ भी हो पर मुझे मिट्टी का कटोरा चाहिए। न ला सको तो मैं ख़ुद ले आऊँगी।’’ दादी ने नाराजगी से कहा और मुँह घुमाकर तस्बीह फिराने लगीं।

‘‘ऐसा मैंने कब कहा। आपको चाहिए तो मैं ज़रूर ले आऊँगा।’’ अब्बू ने कहा और अपने कमरे की ओर चले गए।

तीन साल का माहताब बड़ी देर से अब्बू और दादी को बातें करते देख रहा था। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उसने दादी के पास जाकर पूछा, ‘‘दादी आप कहाँ जा रही हैं?’’

‘‘हज करने बेटा।’’

‘‘यह हज़ क्या होता है?’’ उसने अपनी तोतली आवाज़ में दूसरा सवाल पूछा।

‘‘बेटा, हज़ इस्लाम के पाँच फर्जों में से एक है। अल्लाह ने हर उस मुसलमान पर हज़ फ़र्ज़ किया है जो अपनी सारी दुनियाबी जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुका हो और जिसके पास इतनी दौलत हो कि वह हज़ का ख़र्च उठा सके।’’

माहताब को कुछ समझ नहीं आया। वह चला गया। पर दादी की बात सुन रही सबीहा ने पूछ लिया, ‘‘दादी, इस्लाम के बाक़ी चार फ़र्ज़ कौन-कौन से हैं?

दादी ख़ुश हो गई। आजकल वह यही चाहती थीं कि घर पर सिर्फ़ दीन की बातें हो। वह चहककर बताने लगीं, ‘‘पहजा फ़र्ज़ है तौहीद, यानी कि अल्लाह एक है। सिर्फ़ वही इबादत के लायक है और मुहम्मद उसके रसूल हैं। दूसरा पाँच वक़्त की नमाज पढ़ना, तीसरा रमजान के रोजे रखना और चौथा जकात यानी साल भर के ख़र्चे पूरे करने के बाद जो पैसा बच रहे उसका ढाई फीसदी गरीबों-मिसकीनों में दान करना।’’

दादी की बातें सुनकर अब्बू भी बाहर आ गए और बोले, ‘‘बेटा, तुम जो अपनी किताबों में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ पढ़ती हो हज़ का ताल्लुक उससे भी है।’’

‘‘अच्छा...!’’ सबीहा हैरत से बोली।

‘‘देखो बेटा, जब आदमी अपने करीब की मस्जिद में पाँच वक़्त की नमाज पढ़ने जाता है तो मुहल्ले के लोगों से उसका मिलना-जुलना होता है। उसे पड़ोसियों के दुख-सुख की जानकारी होती है। इसी तरह हफ्ते में एक दिन जुमे की नमाज में वह कई मुहल्ले के लोगों से मिलता-जुलता है। फिर जब ईद की नमाज होती है तो सारे शहर के लोगों से मुलाकात होती है। उसी तरह हज़ के दौरान वह पूरी दुनिया के लोगों से मिलता-जुलता है और उसके अंदर यह अहसास जगता है कि अल्लाह के दरबार में छोटा-बड़ा, गोरा-काला, अमीर-गरीब नहीं होता, सब बराबर हैं।’’

फिर तो बैठक जम गई। अम्मी, बड़े चाचा, छोटे चाचा सब आकर बैठ गए। देर तक बातें होती रहीं।

एक दिन हज्जिन दादी मिलने आईं। वह मुहल्ले की सबसे बुज़ुर्ग महिला थीं। दादी उन्हें बजिया कहती थीं। बजिया यानी बाजी, मतलब बड़ी बहन। उनकी सुना-सुनी हम सब भी उन्हें बजिया कहने लगे थे। वह हज़ कर चुकी थीं। 70-75 की उम्र में भी उनकी चुस्ती-फुर्ती लोगों को हैरत में डालती थी। दुबली-पतली काठी, पूरी बत्तीसी सलामत, बालों पर सफेदी ज़रूर आ गई थी, पर अब भी वैसे ही घने थे। कमर थोड़ी झुक गई थी, पर चाल ऐसी कि 5 मिनट में किलोमीटर तय कर लें। कहीं जाना हो तो बिना किसी का सहारा लिए अकेली जातीं। पुराना मटमैला नकाब ओढ़े, एक हाथ में पान का बटुआ दबाए जब घर से निकलतीं तो हर कोई उन्हें सलाम बजाता।

आते ही वह दादी से बोलीं, ‘‘देखो बिलकीस, कपड़े-लत्ते जो भी ले जा रही हो, ले जाओ, पर छोटी-मोटी चीजें रखना मत भूलना। दोपट्टे की चप्पलें, वजू का लोटा, जा-नमाज, नहाने-धोने का साबुन, तौलिया, मिसवाक, खाने-पीने की सूखी चीजें। ये चीजें, बहुत काम आएँगी। ले जाने वाले सामानों की एक फेहरिस्त तैयार कर लो। एक-एक सामान रखती जाओ और उस पर निशान लगाती जाओ।’’

हज्जिन दादी की बातें सुनने के लिए सब घेरकर बैठे हुए थे। बातें करने का उनका अंदाज़ ऐसा मजेदार होता था कि वह जब भी आतीं, सारा घर उनकी बातें सुनने बैठ जाता था। छोटा माहताब तक उनकी गोद में सवार हो जाता।

हज्जिन दादी ने बटुए से पान निकाला और मुँह में डालते हुए बोलीं, ‘‘और हाँ, ले जानेवाले बक्से में थोड़ी जगह ज़रूर बचाकर रखना। उधर से बहुत कुछ लाना होता है--खजूरें, आबे-जमजम, जा-नमाजें, तस्बीह। हज्जिन बनकर लौटोगी तो लोगों को वहाँ का तबर्रुक भी तो बाँटना होगा। हाँ, नहीं तो यहाँ से सामान ठूँसकर ले गए और वहाँ से कुछ लाने की जगह ही न बची।’’ यह कहकर वह हँसने लगीं। उन्हें हँसता देख माहताब भी हँसने लगा।

धीरे-धीरे हज़ पर जाने की तारीख भी आ गई। अब्बू ने सारा सामान अंतिम रूप से पैक करते हुए कहा, ‘‘अम्मा, आपने पानी का कटोरा रख तो लिया है, पर लाने-ले जाने में यह सलामत रह पाएगा, मुझे नहीं लगता।’’ वह चाह रहे थे कि दादी मिट्टी का कटोरा अपने साथ न ले जाएँ।

‘‘तुम उसकी फ़िक्र मत करो,’’ दादी ने कहा, ‘‘मैंने उसे थैले में रख लिया है। थैला मेरे ही पास रहेगा। मैं पूरा ध्यान रखूँगी।’’

अब्बू चुप हो गए।

जिस दिन घर से निकलना था, रिश्तेदार और मुहल्ले के लोग मिलने आए। सबने उन्हें फूलों की माला पहनाई, मिठाइयाँ भेंट की और अपने लिए दुआ करने की दरख्वास्त की।

दादी जब घर से निकलीं तो अम्मी उनसे लिपटकर रोने लगीं। दादी भी अपने को नहीं सँभाल सकीं। भरे गले से बोलीं, ‘‘बेटा, ज़िन्दगी सलामत रही तो 40 दिन बाद लौटना होगा। मेरी जो भूल-गलतियाँ हों, अनजाने में कभी दिल दुखाया हो, तो तो माफ़ करना।’’

‘‘अम्मा, आप...’’ अम्मी बस इतना ही कह सकीं और फफक पड़ीं। जब उनकी गाड़ी लखनऊ एयरपोर्ट की ओर रवाना हुई तो वह ओझल होने तक उसे देखती रहीं।

हज हाउस की तमाम प्रक्रियाओं से गुजरकर दादी और अब्बू एयरपोर्ट पहुँचे। उनकी अटैचियाँ पैक होकर जहाज़ पर लदने भेज दी गईं। कंधे पर पड़ा थैला ही उनके साथ रह गया। जब वे जहाज़ पर सवार होने के लिए गेट पर पहुँचे तो उनके थैलों की जाँच की गई। दादी के थैले में मिट्टी का कटोरा देखकर जाँच करनेवाला अधिकारी व्यंग्य से मुस्करा दिया। अब्बू शर्म से पानी-पानी हो गए, लेकिन दादी पर कोई असर नहीं हुआ। वह बोलीं, ‘‘पानी पीने के लिए ले जा रही हूँ।’’ पर अधिकारी ने उनकी बात पर ध्यान न देते हुए थैला उन्हें वापस पकड़ा दिया।

मक्का में उन्हें काबे के नज़दीक ही कमरा मिला था। उसकी खिड़की से काबा दिखाई देता था। दादी हाथ फैला-फलाकर सबके लिए दुआ माँगतीं। कमरे से निकलते ही बाहर फ्रीजर लगा हुआ था। अब्बू रोज़ सुबह ठंडा-ताजा पानी लाकर कूलर में भर लेते। पर उन्होंने ध्यान दिया कि आने के बाद एक भी दिन दादी ने मिट्टी के कटोरे में पानी नहीं पिया। हाँ, यह ज़रूर था कि वह रोज़ कटोरा निकालतीं, उसे ऐसे छूतीं जैसे किसी बच्चे को गोद में दुलार रही हों और थैले में वापस रख देतीं।

हजवाले दिन, जिस दिन उन्हें काबे का तवाफ़ करना था, दादी ने कटोरे को थैले में डालकर कंधे पर लटका दिया। अब्बू चिढ़कर बोले, ‘‘अम्मा, ये सब ले जाकर क्यों बोझ बढ़ा रही हो। वहाँ वैसे भी बहुत भीड़ होगी और आज से तीन दिन कड़ी इबादत और मेहनत के हैं। किलोमीटरों चलना पड़ेगा। सफ़ा-मरवा पहाड़ियों के बीच दौड़ना होगा। शैतान को कंकरियाँ मारनी होंगी, मिना से अराफ़ात, अराफ़ात से मुज़्दल्फ़ा, फिर वापस मिना लौटना...आप नहीं समझतीं कितनी परेशानी होगी।’’

दादी कुछ न बोलीं। पर उन्होंने चेहरे से ऐसे जाहिर किया जैसे वह इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहतीं। अब्बू ख़ामोश हो रहे।

दादी यों तो घुटने के दर्द से परेशान रहती थीं, पर काबे में पहुँचकर उनमें जाने कहाँ की ताकत आ गई थी। उन्होंने हज़ के सारे अरकान किसी बच्चे की तरह उत्साह से पूरे कर लिए।

हज के बाद धीरे-धीरे हाजियों के जत्थे वापस लौटने लगे। दादी और अब्बू का जहाज़ वापस उड़ा तो उसने आठ घंटों में उन्हें लखनऊ उतार दिया। बड़े चाचा, छोटे चाचा गाड़ी लेकर पहले ही उनके इंतज़ार में खड़े थे।

घर आकर जब सारा सामान खाली किया जाने लगा तो अब्बा ने मिट्टी का कटोरा दादी को थमाते हुए कहा, ‘‘अम्मा यह रहा आपका कटोरा। हिफ़ाजत से रख लीजिए वर्ना सामान इधर-उधर करने में टूट जाएगा।’’

‘‘कोई बात नहीं। अब इसकी ज़रूरत नहीं।’’ दादी बेफिक्री से बोलीं।

अब्बू हैरत में आ गए। उनसे न रहा गया। बोले, ‘‘अम्मा, कहाँ तो इस कटोरे को आप सहेजकर ले गई थीं और अब कह रही हैं इसकी कोई ज़रूरत नहीं? जब इस्तेमाल ही नहीं करना था तो आख़िर इसे ले क्यों गई थीं?’’

दादी एक पल के लिए ख़ामोश हो गई। उनकी सूखी आँखों में आँसू छलछला आए। उन्होंने ख़ुद को काबू करते हुए कहा, ‘‘बेटा, यह मिट्टी का कटोरा दुनिया के लिए होगा। मेरे लिए यह अपने पाक वतन की मिट्टी थी। वतन से इतने दिनों दूर रहकर भी वतन का अहसास मेरे साथ था। ख़ुदा न करे, परदेस में मुझे कुछ हो भी जाता तो इस बात का सुकून रहता कि मुझे प्यारे वतन की मिट्टी नसीब हुई। बेटा मेरा बचपन, जवानी और अब बुढ़ापा इसी मिट्टी में बीता। मैं इस अहसास को अपने सीने से एक पल को जुदा नहीं कर सकती। जिस वतन की मिट्टी में खेलकर हमारी पीढ़ियाँ गुजरीं, उसे मैं ऐसे कैसे छोड़ देती?’’

दादी बोलती रहीं और सब अपनी आँखों में आँसू लिए उनके जज़्बात सुनते रहे।