मिट्टी का योगदान / हरि फ़ैज़ाबादी / सत्यम भारती
भाषा किसी धर्म या जाति के परिचय की मोहताज नहीं होती, वह तो व्यक्ति की जुबान की उपज है। अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने का भाषा वह सुंदरतम रूप है जिसमें हमखुद को सहज महसूस करने लगते हैं तथा वही हमारे मानस की भाषा भी बन जाती है। हिन्दी साहित्य का बीच में जो शुद्धतावादी रूप चला था वह कहीं न कहीं अभी भी साहित्यकारों के मन मस्तिष्क में बैठा है; लोग उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी तथा अन्य विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करने से परहेज करते हैं। उर्दू और फारसी को मजहब के साथ जोड़ दिया जाता है जिससे भाषायी उन्माद पैदा होता है। वह भाषा उतनी ही सजीव एवं समृद्ध होगी, जिसमें ग्रहण करने की अपार क्षमता हो, आज अंग्रेज़ी इसलिए "ग्लोबल लैंग्वेज" है क्योंकि उसने सभी भाषाओं के शब्दों को आत्मसात किया है। हमें भी अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाने से परहेज नहीं करना चाहिए तथा किसी भी भाषा को मजहब या जाति से जोड़कर नहीं देखना चाहिए, उसकी मिठास को अपनाना चाहिए। हिन्दी और उर्दू के लफ्जों का सुंदर समन्वय कर न केवल भाषायी एकता स्थापित की जा सकती है, बल्कि भावों में प्रखरता भी लायी जा सकती है। मुनव्वर राणा भाषी एकता पर लिखते हैं-
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है,
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है।
कुछ ऐसा ही भाव आधुनिक ग़ज़लकार डॉ.हरी फैजाबादी की गजलों में भी मिलता है
जब से उर्दू से मोहब्बत हो गई,
मेरी हिन्दी खूबसूरत हो गई।
आज जब सारी पढ़ाई-लिखाई डिजिटल और ऑनलाइन हो रही है ऐसे में गुरु-शिष्य की जो स्वर्णिम एवं पुरातन परंपरा थी, उस पर खतरा मंडराता नजर आ रहा है; लेकिन भविष्य में कभी गुरु और उस्ताद की महत्ता कम नहीं होगी। जब व्यक्ति खुद में मशगूल रहता है तब वह खुद को ही परिपूर्ण समझने लगता है, लेकिन गुरु हमारे अवगुणों से हमें अवगत कराते हैं तथा निदान का मार्ग भी बताते हैं। बचपन में गुरु के कहे उपदेश आज भी मानस में उमड़ पड़ते है जब हम मुश्किलों में होते हैं। पुस्तक "मिट्टी का योगदान" उसी पुरानी परंपरा को जीवंत रखकर, मानवों को मानवीय गुणों से परिपूर्ण करना चाहती है। गजलकार हरि फैजाबादी ने इस संग्रह के जरिये पुरानी विरासत को संजोने, गुरु को महत्त्व देने, उस्तादों के शागिर्द बनने तथा पुरखों की दुआओं की तरफ इशारा करते हैं-
आदमी यूँ बड़ा नहीं होता,
होता है ये बड़ों की सोहबत से।
आदमी की नियत का साफगोई से चित्रण करती है यह पुस्तक, जिसका उद्देश्य आम आदमी की पीड़ा है। आदमी आजकल स्वार्थ में इतना तल्लीन हो गया है कि लोगों के चरित्र गिरगिट की तरह हो गए हैं, रिश्तों में बिखराव होने लगा है, अपने ही अपनों के जानी दुश्मन बन गए हैं, आज का मानव प्रतिस्पर्धी हो गया है उसे बाज़ार ने कृत्रिम और कपटी बना दिया है। नजीर अकबराबादी ने कभी "आदमीनामा" नामक नज्म लिखकर मानवों के गिरते स्तर से पाठकों को पहली बार वाकिफ कराया था; कवि फैजाबादी भी ग़ज़लों के माध्यम से आदमी की स्वास्थ्यपूर्ण नीति, सबको साधने की कला, मीठी बात बोल कर छुरी चलाने का फन, छल कपट और ईर्ष्या आदि आधुनिक मानवीय गुणों से हमें वाकिफ कराते हैं-
आदमी को है डर आदमी का,
कैसे होगा गुजर आदमी का,
अस्ल में वह किसी का नहीं है,
आदमी जो है हर आदमी का।
आर्थिक विषमता तथा सिस्टम की भ्रष्ट नीति आज समाज से सामाजिक समरसता छीन रही है, लोग एक दूसरे के जानी दुश्मन बने बैठे हैं, कोई किसी की तरक्की नहीं देखना चाहता; अगर कोई आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो उसे गिराने के लिए पूरी जमात शामिल हो जाती है, यही सच्चाई है समाज की। मतलब की इस दुनिया में सब अपना स्वार्थ चाहते है इसलिए समाज में जो गरीब है वह गरीब ही रह जाता और जो अमीर हैं वह अमीर ही; कागज पर भले गरीबी उन्मूलन के बरसों से कानून बन रहे हों लेकिन आज तक उसकी स्थिति दयनीय ही है-
एक ही पीड़ा हर लब की है,
सारी दुनिया मतलब की है,
आज खुदा बस रोटी दे दे,
दाल बची कुछ कल शब की है।
कहते हैं जब जुगनू में भी चेतना आ जाए तो वह सूरज से सवाल करने लगती है, अब गरीब मजदूर तथा निम्न वर्ग के लोग भी पढ़ लिखकर चेतनाशील हो रहे हैं जो उन पूंजीपतियों तथा सत्ताधीशों से सवाल पूछने लगे हैं, जो बरसों से उन्हें छलते आए हैं-
सब सुधरेगा लेकिन कब तक,
युग बदलेगा लेकिन कब तक,
माना मुफलिस के बच्चों का
मन कर देगा लेकिन कब तक।
एक शेर और देखें-
भूख वह लोग कैसे समझेंगे,
पेट जिनका जला नहीं होगा।
सपने देखने का हक भी उसी को है जिसका पेट भरा हों, तन पर कपड़ा हो, पास में पैसा हो, बाकी गरीबों के सपने तो कांच के घर जैसे होते हैंं, कभी उस पर पूंजीपति पत्थर चला देता है तो कभी घर की जिम्मेदारियाँ। पैसे के अभाव में बहुत सारी प्रतिभाएँ ढाबों और सड़कों पर ही दफ्न हो जा रही है जो देश के भविष्य के लिए काफी घातक है। हम जो सपना देखते हैं उसे पूरा करने के लिए मानसिक और भौतिक दोनों रूप से समृद्धि की ज़रूरत होती है, कवि पाश ने कभी लिखा था-
" सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना। "
'सपनों का मरना' गरीबों की नियति है और उसे मार देना पूंजीपतियों की नियत; कवि फैजाबादी की गजलें गरीबों के सपनों के टूटन से आहत है-
हंसी खुशी के बीत रहे दिन,
किसके हरदम मीत रहे दिन,
वो क्या सपने देखे जिसके,
जैसै-तैसे बीत रहे थे दिन।
आदमी शोहरत के मद में ऐसा मगरूर हो गया है कि उसे अब आदमियत तक का ख्याल नहीं है; वह ऑफिस में काम करने वाले कर्मचारियों, नौकरों, कारखानों में काम करने वाले मजदूरों पर ऐसे भड़कने लगा है जैसे उसने जीवन में कभी गलती की ही ना हो। नौकरशाही के इस मानसिकता को उजागर करते हुए कवि लिखता है-
रात दिन आह ही कमाते हैं,
आप बच्चों को क्या खिलाते हैं,
भूल क्या आप से नहीं होती,
डांट नौकर को जो पिलाते हैं।
आज के मानवों की सबसे बड़ी कमजोरी है-आत्ममुग्ध होना, वह खुद में इतना विश्वास करता है कि उसको अपना गिरेबान नहीं दिखता, सारी कमजोरी एवं अवगुण उसे दूसरों में ही दिख जाते हैं। कवि ने मुग्धता के साथ-साथ अमीरों के स्वागत में गरीबों का जो हक मारा जा रहा है, उस पर भी ध्यान आकृष्ट कराकर फिजूलखर्ची जैसी समस्या से हमें रूबरू कराते हैं-
आप सभी पर हंसते हो,
अपना कल तुम भूल गये,
स्वागत हुआ अमीरों का,
रौंदे मुफलिस फूल गये।
आदमी का दोमुंहापन इतना प्रभावी हो गया है कि यहाँ किसी पर भरोसा करना इतना आसान नहीं है; दूसरे को तो छोड़ दें, यहाँ अपने ही खंजर लिए बैठे हैं, ऐसे में मानवीय सद्भाव की बात करना टेढ़ी खीर जान पड़ता है। आदमी की नीयत मौसम की तरह हो गई है जो हवा का रुख एवं समय की मांग के साथ-साथ बदलता रहता है। कवि दोस्त बनाने, किसी पर भरोसा करने और रिश्ते बनाते समय काफी सचेत रहने की बात करता है-
किसे चढ़ाएँ फूल आजकल,
पीपल हुए बबूल आजकल,
सोच समझकर कुछ तय करना,
निभते नहीं उसूल आजकल।
सच का साथ देना आज खतरे से खाली नहीं है, आज सारे विद्वान, विमर्शकार, कवि, बुद्धिजीवी वर्ग भले ही किताबों में बात बड़ी-बड़ी कर लें, लेकिन जब यथार्थ से टकराने की बात आती है तो सबसे पहले यही रास्ता बदल लेते हैं; जो ग़लत बात है। सच को समाज का ही साथ नहीं मिल पा रहा है, इसलिए उसका साथ देने वाले अपनों के ही शिकार हो जा रहा है-
सच पर चल के ही मैंने सीखा है,
हर जगह सच कहा नहीं जाता।
लेखक कविकर्म को समझाते हुए उन कवियों पर वार करते हैं जो बस चरणवंदना में लगे हैं और यथार्थ का साथ नहीं दे पा रहें; यही हाल वर्तमान समय में मीडिया का भी हो गया है- </poem> झोपड़ी हो या महल हो हर जगह, आईने का एक ही किरदार है। </poem> आदमी की नियत पर एक शेर देखें-
कुंभ नहाकर पुण्य कमाने,
बड़ी भीड़ बेटिकट गई थी।
गरीबों पर लोग अक्सर यह तोहमत लगाते हैं कि वह किसी की मदद नहीं करता, साहब वह खुद पहले जीने लायक रहे तब तो किसी की मदद करें। फिर भी वह जहाँ तक संभव होता है, लोगों की मदद ज़रूर करता है; चाहे वह श्रम से हो या बेगार से हो, गाँव में यह दृश्य आज भी देखने को मिल जाता है-
वह मदद आपकी करें कैसे,
एक ही जिसके पास चादर हो।
आदमी के बीच नफरत फैलाने तथा उसकी एकता को छिन्न-भिन्न करने के लिए सत्ता, मजहब और जाति का सहारा लेती है और जो उसके कर्ताधर्ता होते हैं वही उन्माद के मुंशी होते हैं। ऐसे पाखंड और उन्माद फैलाने वाले मजहबी लोगों से कवि खुद को बचाने की सलाह देता है-
बहका रहा पादरी सबको,
मुल्ला भी पंडित के सम है।
कवि फैजाबादी की ग़जलों का एक मुख्य स्वर-स्त्री चेतना एवं मुक्ति भी है, वह आधुनिक स्त्रियों की यातनाएँ, कष्ट एवं संघर्षों के साथ-साथ उसके विकसित होते मानसिकता तथा आगे बढ़ने की ललक वाले प्रतिरूप को भी समाज के सामने प्रकट करते हैं। आज स्त्रियाँ खुद आगे बढ़ रही हैं वह दाने-दाने को मोहताज नहीं है; स्त्रियों का सशक्त एवं समृद्ध रूप भारतीय समाज के लिए सकारात्मक पहलू कहा जा सकता है-
भूल जाइए बात पुरानी
औरत और मजबूर नहीं है।
पुरुषवादी मानसिकता तथा सामंती सोच ने नारियों को आगे बढ़ने नहीं दिया, विडंबना यह है कि स्त्रियाँ घर में घरेलू उत्पीड़न की शिकार हो रही हैं तो बाहर दरिंदों की। जब वह न्याय मांगने के लिए न्यायालय या पुलिस स्टेशन जाती है तो उससे वहाँ भद्दे-भद्दे सवाल पूछे जाते हैं। कितनी शर्म की बात है कि दरिंदा खुले में नई घटना को अंजाम देता रहता है और सिस्टम बेगुनाह को गुनहगार साबित कर देता है-
बेचारी लुट गयी वहाँ भी,
जहाँ लिखाने रपट गई थी।
भ्रूण हत्या जैसी शर्मनाक सामाजिक रिवायत की तरफ भी वे ध्यान आकृष्ट कराते हैं तथा समाज को बताना चाहते हैं कि कौन-सा ऐसा काम है जो सिर्फ़ बेटे ही कर सकते हैं बेटियाँ नहीं। कवि स्त्रियों के प्रति लोगों को सोच बदलने की मांग करता हैं-
हर खुशी उसके बिन अधूरी है,
घर में एक बेटी भी ज़रूरी है।
इस पुस्तक की भाषा काफी सरल तथा प्रभावपूर्ण है; उर्दू, अंग्रेजी, फारसी तथा देशी भाषा के शब्दों का खूब प्रयोग मिलता है; कहीं-कहीं तो फारसी के शब्द भी मिल जाते हैं जैसे-नादानी, गैरत, जायज़, मरहला, हयात, तसल्ली आदि। कवि ने लोक में प्रचलित मुहावरों का प्रयोग कर वाक्य विन्यास तथा भावों के गठन को काफी मजबूती प्रदान की है-
नेकी कर दरिया में डाल,
इसमें बड़ी मआनी है।
प्रतीक एवं बिंब आदि के सहारे वाक्यों का गठन दूरगामी अर्थ देता है और लोगों को सोचने पर मजबूर भी करता हैं; लक्षणा का अभाव ज़रूर है, लेकिन अभिधा और व्यंजना में ज़्यादा गजलें कही गई हैं। एक व्यंजना का उदाहरण देखें-
जुर्म मिट्टी का क्यों कहा जाये,
बिक गया जब कुम्हार पैसे से।
अंततः यह कहा जा सकता है कि भाव एवं शिल्प के सुंदर संयोजन से यह पुस्तक आम आदमी की व्यथा को सजीवता के साथ प्रकट करती है; वातावरण एवं परिस्थिति के हिसाब से शिल्प का संयोजन तथा छोटी बहर में गूढ़ बातों को कह देने की क्षमता इस पुस्तक की दूसरी खासियत है। अतः कहा जा सकता है कि पुस्तक "मिट्टी का योगदान" आम आदमी की नियत एवं नियति का काव्य है।