मिट्टी लौट आई / अन्तरा करवड़े
सुरेन्द्र की माँ किसी कलाकार से कम नहीं थी। अपने हाथों के हुनर से उन्होने कितने ही चादरें लिहाफ जीवंत किये। फुलकारी¸ जरदौजी¸ सिंधी टाँका¸ यहाँ तक कि कागज और कपड़ों के फूल¸ खिलौने¸ मिट्टी के सुंदर दीपक भी उनके हाथों से जन्म लेकर किसी भी पवित्र स्थान की शोभा बढ़ाने में समर्थ थे।
अपने घर में उन्होने दीवार के सहारे लटकती कई आकृतियाँ लगा रखी थी। उनकी सबसे सुंदर कृति¸ कमरे के कोने में रखी हुई बड़ी सी मूर्ति थी। उसके हाथ में रखे हुए घट में से सुनहरी चुनरी बाहर निकलती हुई रखी थी जो बहते हुए जल का सा आभास देती थी। एक के ऊपर एक चूड़ियाँ बैठाकर बनाया गया बेलनाकर फूलदान¸ और भी न जाने क्या क्या था उनकी कला कौशल के खजाने में।
माँ के जाने के बाद बस ये उसकी कलाकृतियाँ ही थी जो उनके इस घर में जीवंत होने का आभास देती थी।
एक दिन सुरेन्द्र घर लौटा तो उसकी पत्नी लतिका ने उसे सरप्राईज दिया। उसने ध्यान से देखा। पूरा घर नर्म गुदगुदे से¸ फर वाले खिलौनों से अटा पड़ा था।
जाने कहाँ अपनी पूँछ छोड़ आया काला कलूटा बंदर था तो "कभी साथ ना छोड़ेंगे" की तर्ज पर एक दूसरे से चिपके रंग बिरंगे लव टैड़ी। बड़ी मूर्ति के स्थान पर एक सजीव सा लगता जर्मन शेपर्ड़ तनकर खड़ा हुआ था। और तो और घर के परदों को भी कुछ नन्हे खरगोश अपने आगोश में लिये थे।
"बस यही बाकी था।" कहकर लतिका ने उसके हाथ से गाड़ी की चाबी छीनी और उसमें एक नैन मटक्का करता मछलियों का जोड़ा लगाकर उसे नियत स्थान पर टाँग दिया। सुरेन्द्र ने देखा कि वहाँ पहले से ही कुछ मुँह चिढ़ाती और आँख दिखाती आकृतियाँ मौजूद थी।
उसे लगा जैसे वह मिनू बिटिया को किंड़रगार्ड़न भर्ती करवाने ले गया था¸ वैसा ही कुछ यहाँ आ गया है।
इस सबके पीछे लतिका का आर्टिस्टिक स्टेटमेंट था कि पहले का डेकोरेशन "लाईव" नहीं था और अब इन सॉफ्ट टॉयज की नर्म देह और मासूम मुखमुद्रा एक प्रकार की वार्म फीलींग देती है।
सुरेन्द्र ने कुछ भी नहीं कहा।
फिर उसने देखा कि लगभग छ: महीने इस वार्म फीलींग के साये तले रहकर¸ उसकी बचपन से गुड़ियाओं के बीच पाली बढ़ी बेटी अचानक खुद को बड़ा समझने लगी है। माँ के नकारात्मक रूख की परवाह न करते हुए भी अपनी अभिव्यक्तियों को पॉटरीज क्लास में जाकर आकार देने लगी है।
सुरेन्द्र खुश होने लगा।
बेटी की देशज कलाकृतियाँ गुदगुदे बनी टैडी के बीच जगह पाने में सफल रही।
किसी भी तरीके से हो¸ घर में मिट्टी लौट रही थी।
घर खुश था...