मिट्ठू / संजीव ठाकुर
स्कूल से आकर, खाना खाकर रोज की तरह श्रुति बालकनी में खड़ी हो गई थी। उसकी मम्मी किचन में काम कर रही थीं। तभी कहीं से आकर एक तोता रेलिंग पर बैठ गया। श्रुति उसे देख बहुत खुश हुई। उसने उसे पकडऩा चाहा मगर वह उड़ गया और दो मिनट बाद फिर आकर रेलिंग पर बैठ गया। श्रुति ने समझा, 'ज़रूर इसे भूख लगी है।' वह किचन के अंदर गई और फ्रिज से ब्रेड का टुकड़ा निकालकर ले आई। मम्मी पूछती रह गईं कि 'क्या ले जा रही हो?' लेकिन उसने नहीं बताया। मम्मी उसका पीछा करते-करते बालकनी तक आ गईं। मम्मी के आते ही तोता उड़कर चला गया।
श्रुति नाराज हो गई—"आप क्यों आ गईं? मेरा तोता उड़कर चला गया। मैं उसके लिए ब्रेड लाई थी।"
"बेटा! तोतों को ब्रेड ज़्यादा पसंद नहीं है। उन्हें तो भिगोए चने पसंद हैं और हरी मिर्चें पसंद हैं।" मम्मी ने समझाना चाहा।
"तो ठीक है, मैं हरी मिर्च ही ले आती हूँ।" श्रुति ने कहा और फ्रिज खोलकर हरी मिर्च ले आई। लेकिन तोता दुबारा नहीं आया। निराश होकर श्रुति सो गई।
अगले दिन फिर जब श्रुति स्कूल से आकर, खाना खाकर बालकनी में खड़ी थी, तोता फिर आ पहुँचा। श्रुति खुश हो गई। बोली—"आओ, तोता, आओ! मैं तुम्हारे लिए मिर्च लाती हूँ।"
वह मिर्च ले आई। तोता उसे खाने लगा। श्रुति को देखकर बहुत मजा आ रहा था। वह सोच रही थी—"अब इसे मिर्च लगेगी और यह 'आह! आह!' करने लगेगा।" लेकिन पूरी मिर्च खाने के बाद भी तोता निश्चिंत बैठा रहा।
श्रुति मम्मी को यह बात बताना चाहती थी इसलिए वह अंदर गई। तोते के मिर्च खाने की बात बताई और कहा—"मम्मी! कल थोड़े चने भिगो देना? मैं तोते को दूँगी!"
"ठीक है," कहकर मम्मी उसे सोने को ले गई। सोते समय वह तोते की ही बात करना चाहती थी। उसे लग रहा था कि तोते का भी कोई नाम होना चाहिए। पता नहीं उसके मम्मी-पापा ने उसका क्या नाम रखा होगा? उसने अपनी मम्मी से यह बात पूछी। मम्मी ने बताया—"इसका नाम मिट्ïठू है।"
"अच्छा! बड़ा प्यारा नाम है! आपको कैसे पता चला?" श्रुति ने कहा।
"बेटे! सभी तोतों के नाम मिट्ठू ही हुआ करते हैं। ... अब सो जाओ।"
श्रुति की समझ में नहीं आया कि सभी तोतों के नाम मिट्ठू ही क्यों होते हैं? लेकिन उसे यह नाम पसंद आया था।
अब वह रोज मिट्ठू की प्रतीक्षा करती। उसके लिए चना-मिर्च एक कटोरे में लेकर बाहर खड़ी रहती। एक दूसरे कटोरे में पानी भी रख लेती। मिट्ठू रोज आता। उछलता, कूदता। मिर्च खाता, पानी पीता और फुर्र हो जाता। अब वह श्रुति के कंधे पर भी चढ़कर बैठ जाता, कभी उसकी हथेली पर भी। लेकिन जैसे ही वह उसे पकडऩा चाहती, वह उड़ जाता।
मम्मी श्रुति के रोज-रोज के इस खेल से ऊबतीं। उसे जल्दी सोने को कहतीं। श्रुति को सोना अच्छा नहीं लगता—मिट्ठू के साथ खेलना अच्छा लगता था। उसने एक उपाय निकाल लिया। मम्मी के साथ वह बिस्तर पर चली जाती और आँखें मूँदकर सोने का नाटक करती। जब उसकी मम्मी सो जातीं तो उठकर बालकनी में चली जाती और मिट्ठू के साथ खेलती।
एक दिन इसी तरह मम्मी को सुलाकर जब वह बालकनी में गई तो मिट्ठू नहीं आया। वह सोने चली गई। अगले दिन भी वह नहीं आया। उसके अगले दिन भी नहीं। कई दिनों तक वह नहीं आया तो श्रुति परेशान हो गई।
एक दिन मम्मी की डाँट की परवाह न कर उसने पूछ ही लिया—"मम्मी! अब मिट्ठू क्यों नहीं आता?"
"तुम्हें कैसे पता कि नहीं आता है? तुम तो सो जाती हो? वह आता होगा।"
"नहीं मम्मा! मैं तो रोज मिट्ठू से मिलती थी। तुम्हारे सोने के बाद वह आता था।"
"तो ठीक ही है, नहीं आता है। अब कम से कम तुम ठीक से सोओगी तो?"
"मगर मम्मी, वह आता क्यों नहीं?"
" क्या पता बेटे? ...हो सकता है किसी बहेलिये ने उसे पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया हो? बाज़ार में बेच दिया हो?
"ये बहेलिया क्या होता है मम्मा?"
"बेटे! बहेलिया पक्षियों को पकडऩे वाला होता है।"
"वो तो बहुत खराब आदमी होता है मम्मा!"
आज सोते समय श्रुति सोच रही थी कि कहीं से उसके पास सचमुच की कोई बंदूक आ जाती तो वह बहेलियों को उसी तरह गोली मार देती जिस तरह सीरियल में या फ़िल्मों में कोई बदमाश को मारता है! ...पता नहीं उसका मिट्ठू कहाँ चला गया?