मिथ्याभिमान / अलका सैनी
जब उन दोनों ने जन सुविधा के कैम्प में प्रवेश किया तो देखा वहाँ बहुत भीड़ थी और एक स्टेज पर शहर की जानी मानी हस्तियाँ विराजमान थी। अनामिका बेशक कभी किसी को निजी तौर पर मिली नहीं थी पर उसे बचपन से ही अखबार पड़ने का शौक था इसलिए वह कुछ ख़ास लोगों को पहचानती थी।
अनामिका और नेहा टैंट के भीतर लगी हुई कुर्सियों पर जाकर बैठ गई और अपनी बारी का इन्तजार करने लगी।एक तरफ टैंट में सरकारी अधिकारियों से काम करवाने वालों की भीड़ थी तो उधर दूसरी तरफ स्टेज पर माइक में बार-बार कुछ न कुछ घोषणा की जा रही थी और कुछ स्थानीय नेता बारी-बारी से अपना भाषण दे रहे थे। अनामिका ने देखा कि स्टेज में बैठे लोगों में से सिर्फ दो ही औरतें हैं।
यह सब देख कर उसे अपने कालेज के दिन याद आ गए।। वह अपने कालेज के होनहार विद्यार्थियों में से एक थी और हर गतिविधियों में बढ़चढ़ कर भाग लेती थी।और स्टेज पर चढ़कर भाषण देने का तो उसे ख़ास शौक था। किसी भी विषय पर वह ऑन दी स्पाट ही एक भाषण तैयार कर लेती थी। उसकी बुद्धिमता के कारण अध्यापक गण उसकी शरारतों को ना सिर्फ नजर अंदाज कर देते थे बल्कि वह उनकी प्रिय शिष्या भी थी।
मगर जैसे ही कालेज की पढाई खत्म हुई वैसे ही वह जयंत के साथ विवाह बंधन में बंध गई।धीरे-धीरे वह दिन प्रतिदिन अपनी घर-गृहस्थी में उलझती गई।बच्चों की परवरिश और घर की जिम्मेवारियां संभालते-संभालते वह समय से पहले ही अपनी उम्र के हिसाब से बड़ी दिखने लगी।परिपक्वता आने की बजाय उसमे एक खालीपन सा समाने लगा।उसे ऐसा लगता कि वह केवल एक त्याग की मूर्ति बन कर रह गई है।उसका जीवन व्यर्थ बीतता जा रहा था। उसके बचपन से लेकर जवानी के सपने सब मिट्टी में मिल रहे थे। वह देश और समाज को लेकर कितनी बड़ी-बड़ी बातें किया करती थी। वह अपने जीवन को एक नया आयाम देना चाहती थी, अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहती थी, कुछ कर दिखाना चाहती थी। उसे लगने लगा था कि श्रीमति जयंत के अलावा उसकी अपनी खुद की तो कोई पहचान है ही नहीं। मगर घर के संकीर्ण माहौल और जयंत के दकियानूसी विचारों के कारण वह खुद को बहुत असहाय महसूस करती थी।वह बहुत उर्जावान और जोशीली थी मगर वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही थी। अच्छा खासा खुशहाल परिवार होने के बावजूद उसे एक कमी सी महसूस होती थी
इसी दौरान जब वह अपनी दोनों बेटियों की पढाई को लेकर बहुत व्यस्त थी कि एक दिन उसे अपनी सहेली नेहा के कहने पर एक जन सुविधा कैम्प में जाना पड़ा। नेहा को अपना पहचान पात्र बनवाना था। उसके लिए उसे क्षेत्र के विधायक महोदय से हस्ताक्षर करवाने थे। नेहा का बचपन एक छोटे से गाँव में बीता था इसीलिए वह बात करने में मन ही मन घबरा रही थी और अनामिका से कहने लगी कि तुम मेरा एक काम कर देना। मेरे लिए इस प्रार्थना पात्र पर विधायक महोदय के हस्ताक्षर करवा लाना। अनामिका उससे मजाक करते हुए कहने लगी क्यों मै कोई यहाँ पर सब को जानती हूँ और तुम तो यहाँ इस शहर में कई सालों से रह रही हो और मै तो अभी नई-नई आई हूँ किसी को ख़ास जानती भी नहीं।
जैसे ही नेहा के नाम की घोषणा हुई तो वह उठ खड़ी हुई और अनामिका से भी अपने साथ चलने को कहने लगी, “अनामिका, तुम चलो न मेरे साथ, मै तो वहाँ जाकर कुछ बोल भी नहीं पाउंगी समझाना तो बहुत दूर की बात है।
अनामिका उसका आग्रह टाल नहीं सकी। यूँ तो वह बचपन से ही आत्मविश्वास से भरी थी।और अपनी बात कहने में तो उसे अजब सी महारथ हासिल थी। उसने नेहा से उसके कागज़ लेकर खुद पकड़ लिए और स्टेज पर जाकर विधायक महोदय को औपचारिकता वश अभिवादन कर पहचान पत्र बनाने में आने वाली कठनाइयां समझाने लगी।, ”सर, आप तो जानते हैं कि आम आदमी को अपना कोई भी काम करवाने में कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, ये सरकारी मुलाजिम कहाँ किसी की बात इतनी आसानी से सुनते हैं। कितने-कितने चक्कर काटने पड़ते है एक मामूली से काम के लिए फिर ऊपर से इन सरकारी मुलाजिमों की जब तक जेब गर्म न करो तो कोई काम नहीं बनता। अगर कोई बेचारा इन लोगों को पैसे देने की हैसियत ना रखता हो तो उसकी तो इन चक्करों में चप्पले भी टूट जाती है और काम फिर भी नहीं बनता। सर अगर आप इन कागजों पर अपने हस्ताक्षर कर देते तो मेरी सहेली का काम आसानी से हो जाता। "
विधायक महोदय उसकी वाक् कुशलता से इतने प्रभावित हुए कि एक मिनट की देरी किए बिना उन कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए। अनामिका ख़ुशी से फूली नहीं समा रही थी। बस फिर तो उसका आत्मविश्वास और भी बढ गया और विधायक महोदय को लोगों को पेश आने वाली अन्य समस्याओं से अवगत करवाने लगी। उसकी बात सुनकर विधायक महोदय बोले, “मैडम, मै आपकी सभी बातों से शत प्रतिशत सहमत हूँ परन्तु बेहतर होता यदि आप अपने विचार वहाँ माइक पर जा कर व्यक्त करती जिससे सभी अफसर गण भी इन बातों को जान पाते। हमे आप जैसे लोगों की ही तो जरूरत है जो समाज और देश के लिए इतनी चिंता करते है और कुछ कर दिखाने की क़ाबलियत भी रखते हैं। "
विधायक महोदय की बातें सुनकर एक बार तो वह कुछ देर के लिए हिचकिचाई कि कहीं कुछ गलत न हो जाए। मन ही मन सोचने लगी कि इतने जाने माने लोग इस सभा में बैठे है कहीं उसका मजाक ही न बन जाए। उसकी सहेली नेहा जो उसके साथ खड़ी सब बातें सुन रही थी उसने भी उसका हौंसला बढाया और कहने लगी,”जा अनामिका बोल दे अपने मन की बातें। अरे तूँ तो कालेज के समय से ही भाषण देना जानती है। फिर अनामिका ने मन ही मन अपने को तैयार कर लिया। क्योंकि विधायक महोदय की बात को वह टालना भी नहीं चाहती थी।”
मंच पर जाकर सबसे पहले उसने विधायक महोदय का धन्यवाद किया और फिर अपनी हिचकिचाहट को दूर करते हुए लोगों को रोज मर्रा पेश आने वाली समस्याओं का खुलासा करने लगी।जिस आत्मविश्वास के साथ उसने अपनी बात रखी उससे सभी लोगों ने तालियाँ बजा कर उसका हौंसला बढाया। यह सब देखकर मंच पर विधायक महोदय के साथ मौजूद महिलाएँ मन ही मन कुछ विचलित सी नजर आ रही थी क्यूंकि शायद उनमे से कोई भी इतनी पढ़ी लिखी नहीं लग रही थी।जब अनामिका ने अपना भाषण ख़त्म किया तो विधायक महोदय ने उसे अपने पास बुलाया और उसका संक्षिप्त परिचय लेते हुए उसका उत्साह बढ़ाते हुए कहने लगे, “बेटे तुम तो बहुत अच्छी वक्ता हो ये सब तुम्हारे पढ़े लिखे होने का संकेत है, अब मेरी इच्छा है कि तुम अपनी प्रतिभा घर बैठ कर व्यर्थ मत गवाओं। भगवान् तुम्हे खूब कामयाबी दे।"
वह दिन ना सिर्फ उसकी प्रेरणा का दिन था बल्कि उस दिन से उसके जीवन में एक नया मोड़ आ गया।उस दिन के बाद उसने कभी मुड कर पीछे नहीं देखा। अपनी मेहनत और काबलियत के बलबूते पर वह दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करती गई। धीरे-धीरे कर उसने राजनीति में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया। अपने एरिया के विकास को लेकर उसने कई कार्यक्रम आयोजित करवाए। जिसमे उसने ना सिर्फ शहर के गण्यमान्य व्यक्तियों को बल्कि विधायक महोदय को ख़ास तौर पर आमंत्रित किया। अनामिका में एक नेता होने के सारे गुण विद्यमान थे। इस तरह विधायक महोदय के आशीर्वाद से शहर में उसका नाम जाने पहचाने लोगों में आने लगा।
एक औरत होने के बावजूद भी उसमे पुरुष प्रधान समाज में अपनी काबलियत के बलबूते पर पुरुषों के साथ कंधे के साथ कन्धा मिलाकर चलने की अद्वितीय क्षमता थी। जयंत अनामिका की क्षमता से प्रभावित अवश्य थे पर कहीं न कहीं काम्प्लेक्स के शिकार भी थे। अनामिका कदम-कदम पर उम्मीद करती थी कि उसके पति उसका भरपूर साथ दे। उसका मानना था कि जितना सत्य ये है कि हर कामयाब पुरुष के पीछे एक औरत का हाथ होता है उससे भी बड़ा सच है कि एक औरत को कामयाब होने के लिए भी अपने पति के साथ और विश्वास की जरूरत होती है।एक दिन बातों-बातों में अनामिका ने अपने मन की बात जयंत के सामने रख दी, ' जयंत तुम्हे तो पता है कि विधायक महोदय मेरी प्रतिभा से कितने प्रभावित है इसलिए मै राजनीति को अपना लक्ष्य बनाना चाहती हूँ "
जयंत ने उसकी पूरी बात सुने बिना ही बीच में बोलना शुरू कर दिया, ' तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है, क्या तुमने देखा नहीं कि इस क्षेत्र के लोग कितने गंदे, भ्रष्ट और मतलबी होते है।कितनी औरते है जो घर से बाहर निकलती है। सब कार्यक्रमों में आदमी ही ज्यादा होते है "
अनामिका से भी रहा न गया, “चाहे हमारा समाज कितनी भी तरक्की कर ले पर तुम मर्द लोग दोहरा जीवन जीते हो। बाहर काम करने वाली महिलाएँ वैसे तो तुम्हे बहुत लुभाती है और अपनी पत्नी के पैरों में बेड़िया डाल कर रखना चाहते हो"
हमारे समाज में तबदीली कैसे आएगी, “देख नहीं रहे हो आज कल तो हर क्षेत्र में महिलाएँ काफ़ी उच्च पदों पर आसीन है"
मगर जयंत कहाँ मानने वाला था? अनामिका की किसी भी दलील का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था।कदम-कदम पर जयंत के शक्की स्वभाव और सकीर्ण विचारधारा ने अनामिका की जिन्दगी में कुछ कर दिखाने की इच्छा को पूर्णविराम लगा दिया था।जब वह नौकरी करना चाहती थी तो जयंत ने उसे अपनी इच्छा अनुसार नौकरी नहीं करने दी थी। जयंत की हर बात पर टोकने की आदत से अनामिका बहुत दुखी होती थी कि ये मत करो, ये कपडे मत पहनो। जबकि अनामिका अपनी घर गृहस्थी की जिम्मेवारियों में भी कोई कमी नहीं आने देती थी। पूरे तन-मन से हर काम वह भली-भांति निबटाना जानती थी।घर के काम-काज को लेकर अनामिका ने जयंत को कभी भी कोई शिकायत का मौका नहीं दिया था। बावजूद।समय-समय पर अनामिका जयंत की विचारधारा में परिवर्तन लाने का भरसक प्रयास करती थी। कभी जब जयंत अच्छे मूड में होता तो वह फिर से कोशिश करने लगती, “जयंत तुम तो इस बात को अच्छी तरह से जानते हो कि आज कल औरतें अपने घर से दूर जाकर यहाँ तक कि विदेश में जाकर भी नौकरी करती हैं, बड़े-बड़े उद्योग धंधे संभालती है। पता नहीं तुम किस मिट्टी के बने हो जो आज भी बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो तुम्हे तो ५० वर्ष पहले पैदा होना चाहिए था। मेरा घर में खाली बैठे-बैठे दम घुटने लगता है।"
जयंत अनामिका की बातें एक कान से सुनता था और दूसरे कान से निकाल देता था।
अनामिका दिन पर दिन राजनैतिक गतिविधियों में उलझती जा रही थी।हर दिन उसे किसी न किसी कार्यक्रम में जाना पड़ता था। कभी कभार अनामिका मना कर जयंत को भी साथ ले जाती थी।पर वहाँ मीटिंग में ज्यादा तर आदमी ही होते थे यह देख कर जयंत मन ही मन घुटता रहता था। वह हर किसी को शक की निगाहों से देखता कि उनकी कू-दृष्टि अनामिका पर पड़ रही है।
इस तरह जयंत अपने सकीर्ण विचारों के कारण अपनी बेचैनी से अनामिका को भी बहुत असहज सा बना देता था जिससे वह भी मन ही मन कोई कमी सी अनुभव करती और किसी मुद्दे पर भी किसी से खुल कर बात ना कर पाती।अनामिका इतने बड़े शहर के विश्विद्यालय में पड़ी लिखी थी जहां पर लड़के लडकियां साथ उठते बैठते थे साथ साथ घूमने भी जाते थे, इसलिए इस तरह का जयंत का व्यवहार उसे बहुत ही अटपटा सा लगता था। वह जयंत को समझाते हुए कहते थी, “आज कल दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई है और औरते तो आजकल हर क्षेत्र में आगे हैं, और जब तक वह अपने विचारों में दृढ़ है किसकी हिम्मत है जो वह उससे किसी प्रकार की कोई बेफजूल बात कर सके। बस आप शांत रहे और अपने दिमाग में उत पतंग बातें मत लेकर आया करें “अनामिका के इतना समझाने के बावजूद भी जयंत खुद को परिपक्व नहीं बना पता था और कहना लगता, “चलो बस अब बहुत हो गया और यहाँ से अब चलते हैं "
अनामिका मन ही मन जयंत के व्यवहार से बहुत दुखी होती और उसके साथ उसे मजबूरी वश कार्य क्रम बीच में ही छोड़कर वापिस आना पड़ता।
कभी-कभी तो ऐसा होता था कि यदि जयंत अपने काम की वजह से अनामिका के साथ किसी कार्यक्रम में नहीं जा पाता था तो काम पर भी उसके दिमाग में शक के बीज पनपते रहते थे।और यदि वह उसके साथ जाता भी तो वह उसे बहुत ही असहज अवस्था में डाल देता था।अनामिका को जयंत के साथ होने पर यही लगता था कि जयंत का ध्यान उस पर ही होगा कि वह किससे बातें कर रही है और मन में यही सोच रहा होगा कि आस-पास के लोगों की क्या प्रतिक्रिया है। इस कारण अनामिका बिलकुल भी सहज होकर किसी के साथ स्वतंत्रता से बात नहीं कर पाती थी।वह जयंत के वहाँ होने से बहुत घुटन महसूस करती थी, एक तरफ तो उसके पास जीवन में कुछ कर दिखाने का एक स्वर्णिम अवसर था तो दूसरी और जयंत के स्वभाव में अप्राकृतिक सा परिवर्तन उसकी राह में रोड़ा बन रहा था। कभी-कभी तो वह हताश होकर बैठ जाती थी, पर वह बहुत ही समर्पित कार्यकर्ता थी और अपनी काबलियत पर प्रश्न चिन्ह लगना भी उसे गवारा नहीं था।वह अपनी घर गृहस्थी की जिम्मेवारियों में भी कोई कमी नहीं आने देती थी। पूरे तन-मन से हर काम वह भली-भांति निबटाना जानती थी।घर के काम-काज को लेकर अनामिका ने जयंत को कभी भी कोई शिकायत का मौका नहीं दिया था।
स्थानीय राजनैतिक स्तर पर उसकी गहरी पैठ होती जा रही थी।विरोधी पक्ष के लोगों को भी उसमे खामियां ढूँढने पर भी नहीं मिलती थी और वह भी उसकी तारीफ़ किए बिना न रहते।इस तरह समाज के लिए कुछ करने में उसे एक अलग तरह की आत्म संतुष्टि मिलती और उसे लगता कि उसका जीवन व्यर्थ नहीं जा रहा है। पर मन का एक कोना अभी भी रिक्त सा रहता। उसे इस बात की पीड़ा हर समय मन ही मन खाती रहती कि वह चाहे कितनी ही अच्छी तरह कोई भी काम क्यूँ न कर ले चाहे घर का हो या राजनैतिक क्षेत्र का पर जयंत ने कभी अपना मुँह खोल कर उसकी तारीफ़ नहीं की। बाहर वाले लोग उसके काम की तारीफ़ करते नहीं थकते थे और उसके साथ-साथ हर कार्यक्रम में जयंत को पूरा मान सम्मान मिलता, पर सबके बावजूद जयंत हर समय गम सुम सा ही रहता। वह हर समय जयंत की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देखती रहती कि वह कभी अपना प्यार भरा हाथ उसके सर पर रखे और उसकी हिम्मत बढाये, आखिर वह थी तो एक औरत ही, जो बाहर से बेशक जितनी भी सशक्त नजर आए पर अपने पति के प्यार भरे स्पर्श के लिए मन ही मन तरसती रहती। वह दिन पर दिन लोगो में लोक प्रिय होती जा रही थी। क्षेत्र के विधायक महोदय की तो वह बहुत चहेती बन गई थी क्योंकि जब भी कोई कार्य भार उन्होंने उसे सौंपा था तो पूरे तन-मन से वह उनकी उम्मीदों पर खरा उतरती थी। उस दिन तो अनामिका के पाँव जमीन पर नहीं लग रहे थे। उसे लग रहा था जिस सपने को वह बचपन से देखती आई है वह उसके बहुत करीब आ गया है। वह तो मानो आसमान में उड़ रही थी। विधायक महोदय ने खुद उसे यह खुशखबरी सुनाई थी कि अगले माह दिल्ली में होने वाली पार्टी की मीटिंग में उसे भी शामिल होना है, पार्टी ने उसे ख़ास तौर पर महिला विंग के प्रधान का कार्य भार सौंपा था। वह मन ही मन सोच रही थी कि उसकी बरसो की मेहनत और तपस्या का फल मिलने वाला है। परिजनों में अब उसकी धाक मच जाएगी। जो परिजन उस पर तरस खाया करते थे और मन ही मन उसका मजाक उड़ाया करते थे वह उनको दिखा देगी की आखिर उसकी काबलियत का मौल पड़ ही गया। वह बड़ी बेसब्री से जयंत के आने का इन्तजार करने लगी, वह उसे खुश खबरी सुनाने के लिए बहुत बेताब हो रही थी।
जैसे ही वह खबर अनामिका ने जयंत को सुनाई तो उसके चेहरे पर एक भाव आ रहा था तो एक भाव जा रहा था फिर कुछ क्षण पश्चात वह एकदम से उग्र हो गया और तमतमाते हुए बोलने लगा, “तुम्हारा दिमाग खराब तो नहीं हो गया, अगर तुम्हे स्थानीय प्रोग्रामों में आने जाने की इजाजत दे दी तो इसका मतलब तुम्हे कुछ भी करने की आजादी मिल गई। अब तुम इतनी बड़ी नेता बन गई हो जो शहर से बाहर जाने का भी सोचने लगी। तुम्हे फिर भी जाना हो तो जाओ पर यह उम्मीद न करना कि मै तुम्हारा बाडीगार्ड बन कर तुम्हारे साथ चलूँगा और एक बार कदम दहलीज के बाहर निकालने के बाद फिर दोबारा इस घर की तरफ मुड कर मत देखना “यह कहकर जयंत पैर पटकते हुए घर से बाहर चला गया।
अनामिका उसकी बातें सुनकर मानो आसमान में उड़ते-उड़ते जमीन पर आ गिरी हो।