मिथ के अंधाधुंध में तर्क अनदेखा / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मिथ के अंधाधुंध में तर्क अनदेखा
प्रकाशन तिथि : 15 अप्रैल 2019


आनंद पटवर्धन के तीन घंटे के वृत्तचित्र ‘रीजन’ (तर्क) के कुछ अंश उनकी इजाजत के बिना ही यूट्यूब पर देखे गए हैं। 2018 में टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में यह वृत्तचित्र दिखाया गया और खूब प्रशंसित हुआ। इसके बाद इसी तरह के अन्य उत्सवों में इस वृतचित्र को आमंत्रित किया गया है। ज्ञातव्य है कि विदेशों में कथा फिल्में लगभग 100 मिनट की होती हैं। इस तरह की कथा फिल्मों को देखने के अभ्यस्त दर्शक आनंद पटवर्धन के 3 घंटे के वृत्तचित्र को मंत्रमुग्ध होकर देखते रहे। यह वृत्तचित्र अभिव्यक्त करता है कि कबीर की चदरिया की तरह बुने भारतीय समाज में विविधता के बीच एकता मौजूद रही है, उसे कुछ समय से कैसे तोड़ा जा रहा है और चदरिया को तार-तार किया जा रहा है। इसे देखने वाले दर्शक कहते हैं कि आनंद पटवर्धन ने वर्तमान को इतिहासकार की दृष्टि से देखा है और कालांतर में वृत्तचित्र के आधार पर वर्तमान समय का आकलन किया जाएगा।

कथा फिल्मों में आधी हकीकत आधे फसाना का दौर आज भी कायम है परंतु वृत्तचित्र प्रचार के माध्यम बनाए गए हैं। 2008 से 1919 तक कुछ विलक्षण कथा फिल्में बनी हैं। जैसे 'अ वेडनेसडे’, 'पान सिंह तोमर’. 'विकी डोनर’, 'पिंक’, 'नाम शबाना’, 'पीकू’, 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा’, 'जोर लगा के हईशा’, 'बजरंगी भाईजान’, 'तनु वेड्स मनु’, 'हैप्पी भाग जाएगी’ इत्यादि कथा फिल्मों के प्रदर्शन के साथ वृत्तचित्र दिखाए जाते हैं परंतु उनमें समाज का यथार्थ नहीं प्रस्तुत किया जाता। प्रचार युग के अंधाधुंध में सत्य प्रस्तुत करना अत्यंत कठिन काम है।

स्क्रॉल पोर्टल पर राकेश शर्मा का एक साक्षात्कार दिखाया गया, जिसके बाद उनसे अनेक लोगों ने निवेदन किया कि वे अपना वृत्तचित्र 'फाइनल सॉल्यूशन’ यूट्यूब पर जारी कर दें। ज्ञातव्य है कि इस न्याय मंच के लिए कथा फिल्में भी बनाई जा रही हैं। जिन्हें सेंसर के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता नहीं होती। इसी तरह एक दबाव और तनाव भरे कालखंड में मनुष्य कई तरह से अभिव्यक्त हो रहा है। यह मामला रबर की गेंद की तरह है। इसे जितनी शक्ति से दीवार पर फेंकों वह उतनी ही जल्दी लौट आती है। विज्ञान सम्मत तर्क प्रधान विचार शैली पर कई तरह की बंदिशें लगाई गई हैं। मायथोलॉजी की धुंध में किसी को कुछ नज़र नहीं आए ऐसे जतन किए गए हैं। 'पिंक’ फिल्म का गीत इस तरह है- कारी कारी रैना सारी/सौ अंधेरे क्यूं लाई क्यूं लाई/रोशनी के पांवों में/ ये बेड़िया सी क्यूं आई क्यूं आई/उजियारे कैसे अंगारे जैसे/छाओ छैलि धूप मैली क्यू है री।

मुंबई के फिल्म्स डिवीजन ने वृत्तचित्रों का निर्माण एक सदी पहले ही प्रारंभ कर दिया था। ब्रिटिश सरकार के अधीन संचालित इस विभाग ने महात्मा गांधी के आंदोलन पर अनेक वृत्तचित्र बनाएं हैं, जिन्हें सिलसिलेवार देखने पर उस संघर्ष का महत्व हम समझ पाते हैं। एरिक एरिक्सन की किताब 'गांधीज ट्रुथ’ में इसका वर्णन इस तरह किया गया है कि 1857 से ही स्वतंत्रता प्राप्त करने के महान प्रयास किए गए। भगत सिंह और उनके साथियों ने अपने प्राणों को होम कर दिया। महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन के द्वारा ब्रिटिश शासन तंत्र को ही तोड़ दिया। अंग्रेजों ने भारत पर भारतीय लोगों की सहायता से ही शासन किया था। 30 हजार से अधिक अंग्रेज भारत में कभी नहीं रहे परंतु उन्होंने एक व्यवस्था रची जिसका संचालन भारतीय लोग करते थे। यह महात्मा गांधी का जादू था कि छोटे से छोटे गांव तक उनका संदेश पहुंच गया था आज की तरह संचार माध्यम नहीं थे फिर भी महात्मा गांधी का संदेश भारत के कोने कोने में पहुंचा। यह सब बिन चिट्ठी बिन तार हुआ। आज माध्यम की विपुलता है परंतु सच कहीं नहीं पहुंच रहा है। प्रचार के शोर ने सब कुछ लील लिया है। आज मनुष्य स्वयं अपने से ही सबसे दूर खड़ा है। देश की संरचना मायथोलॉजी की तरह की जा चुकी है।

आनंद पटवर्धन का तीन घंटे का वृतचित्र 'रीज़न’ मिथ तोड़ने का प्रयास करते हुए 'एज ऑफ रीजन' लाना चाहता है। ज्ञातव्य है कि जां पॉल सात्र की किताब का नाम था 'एज ऑफ रीजन’। यह कहा जा सकता है कि तर्क का रास्ता भी सभी परेशानियों का अंत नहीं कर पाता परंतु तर्कहीनता का उत्सव मनाया जाए यह भी तो उचित नहीं है। सदियों के हमारे सामूहिक अपराध बोध से ही जन्मा है मौजूदा शासन तंत्र। आस्था और तर्क का संतुलन बनाना अत्यंत कठिन है।

यह संभव है कि आनंद पटवर्धन और राकेश शर्मा के वृत्तचित्र कई लोकप्रिय चैनल पर दिखाएं जा सके। इनका घर-घर पहुंचना आवश्यक है। रवीश कुमार जैसे पत्रकार के माध्यम से यह प्रयास किया जा सकता है। केवल एक शंका यह है कि अब अवाम सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहना चाहता है। सिनेमा दर्शक की तरह आवाम ने 'विलिंग सस्पेंशन ऑफ डिसबिलीफ’ कर लिया है। उन्होंने देश के विराट परदे पर प्रस्तुत फूहड़ता में रमे रहना पसंद कर लिया है।