मिलन / अज्ञेय
संसार में कितनी ही विचित्र घटनाएँ होती हैं, जिन्हें देख-सुनकर हम सोचने लगते हैं, यह क्यों हुई? इसका क्या अभिप्राय था? यदि यह किसी की आन्तरिक प्रेरणा से हुई, तो उस प्रेरणा की जड़ कहाँ थी, यदि किसी बाह्य प्रेरणा से, तो उस प्रेरणा का आधार कौन था? और अगर इस घटना में दैव का हाथ है, तो इस घटना के ऐसे स्थान पर ऐसे समय में, इस प्रकार होने में क्या अभिप्राय था, क्या गूढ़ तत्त्व था?
जब हमारे मन में ऐसे प्रश्न उठने लगते हैं, तब पहले-पहले हमें इस बात का आभास होता है कि संसार में एक ऐसी महती शक्ति है, जिसका परिमाण, जिसका तत्त्व हम नहीं जान पाते, जिसमें लचक है, पर साथ ही कठोरता भी; जिसमें दया है, पर साथ ही एक घोर परिहास भी। इस शक्ति को कोई आत्म कहता है, कोई भावी; कोई इसे आन्तरिक प्रेरणा समझता है और कोई बाह्य; कोई इसे ऐहिक समझता है और कोई नैसर्गिक। किसी की राय में इस शक्ति का प्रवाह उन्मत्त, पथहीन, अनवरुद्ध है; किसी की राय में इसका संचालन संयमित है।
सभी को इसके प्रवाह में एक अनियन्त्रित उन्माद दीखता है, और इसके उन्माद में एक नियन्त्रित प्रवाह। और इस प्रवाह को, इस उन्माद को, इस विचित्र असंयमित नियन्त्रण को कोई नहीं समझ पाता, सभी अन्वेषण मानो एक दीवार से टकराकर रुक जाते हैं।
मैं बहुत दिनों से इस शक्ति का प्रभाव देख रहा हूँ। कभी-कभी उसे समझने की चेष्टा भी कर लेता हूँ, पर प्रायः उसके विचित्र विन्यास को देखने में ही मेरा समय बीत जाता है...
सन 1905 में यहाँ जो विस्फोट हुआ - उसे उत्पात कहना चाहिए, जो दंगा या विप्लव या क्रान्ति, इसका निर्णय नहीं कर सका, इसलिए विस्फोट ही कहता हूँ-उसमें भी मैंने इसी शक्ति का आभास पाया था। लोग जब उसकी अवश्यम्भाविता की बात करते, तो मैं सोचा करता, यह अवश्यम्भाविता और शक्ति के प्रवाह का नामान्तर नहीं तो क्या है? फिर इसी बड़ी क्रान्ति में, जिसमें एक साथ ही सारा रूस धधक उठा, और उस प्रज्वलन की लपेट में सदियों से पूजित राजवंश और रास्पुतिन-जैसे शक्तिशाली व्यक्ति भस्म हो गये, इसमें भी क्या था? जिस पीड़ा, व्यथा, अशान्ति में, जिस अमित दैन्य और अमित भूख में, इस घोर क्रान्ति का अंकुर था, वे भी क्या थीं? उसी शक्ति का घोरतम प्रमत्त अट्ठहास!
पर जिस घटना में मैंने इस शक्ति की झलक सबसे स्पष्ट देखी थी, वह न सन 1905 का विस्फोट था, न सन 1917 की क्रान्ति; वह थी एक बहुत छोटी-सी घटना, बहुत ही साधारण, जिसका इन दोनों से थोड़ा-थोड़ा सम्बन्ध था। वह था दो मित्रों का विच्छेद और पुनर्मिलन।
उन दोनों को पहले-पहले मैंने सन 1903 में स्कूल में देखा था। मैं जब नार्मल स्कूल से अध्यापक-श्रेणी में पढ़ता था, तब वे दोनों आठवीं में आकर दाखिल हुए थे। उन दिनों भी उनमें आपस में काफी घनिष्ठता थी। वे अपने गाँव से एक साथ ही आते, स्कूल में सबसे अलग एक साथ बैठते, बोलते, खाते; फिर एक साथ ही स्कूल में वापस चले जाते। उनके गाँव से और भी लड़के उस स्कूल में आते थे; पर उनका एक समूह अलग लौटता था, और वे दोनों अलग।
इनकी मैत्री सबको स्वाभाविक जँचती हो, सो बात नहीं थी। उनके शरीर के गठन में, बोलचाल में, रुचि में स्वभाव में बहुत अन्तर था। देखने वाला उनमें साम्य की अपेक्षा वैषम्य ही अधिक देख पाता था। सर्जियस क़द में लम्बा-चौड़ा और गौर वर्ण का था, उसके बाल फीके सुनहरे और आँखें नीले रंग की थीं। उसके ओठ पतले थे और प्रायः दबे हुए रहते थे। जब वह चलता, तो उसकी चाल में लापरवाही झलकती थी। दिमीत्री क़द में छोटा था, पर उसका शरीर खूब गठा हुआ था। जब वह चलता था, तो मालूम होता था कि फ़ौजी क़वायद करता रहा है। उसके बाल गाढ़े भूरे रंग के थे और उसकी आँखें छोटी परन्तु काली और खूब चमकती हुई थीं। मुँह पर उसके प्रायः एक हल्की-सी हँसी रहती थी। उसकी आयु सर्जियस से साल-भर कम थी, और वह सर्जियस, की अपेक्षा अधिक मिलनसार था, अपने सहपाठियों से हँस-बोल लेता था। सर्जियस जब कुछ कहता, तो इस ढंग से, मानो उसे इस बात की आशा नहीं है कि कोई उसका विरोध करेगा; दिमीत्री बात करता तो पहले विरोध के लिए चौकन्ना होकर पढ़ने में सर्जियस की रुचि साहित्य की ओर थी, दिमीत्री की इतिहास की ओर। सर्जियस स्कूल के ड्रामेटिक क्लब में भाग लेता था, दिमीत्री प्रायः डिबेटिंग सोसाइटियों में बोला करता था।
फिर भी न जाने क्यों, उनमें इतनी घनिष्ठता थी, न जाने कौन-सी प्रेरणा उन्हें एक-दूसरे की ओर आकर्षित करती थी। कुछ दिनों में मैं उनसे मिलने लगा, पर आयु के भेद के कारण वे दोनों ही मुझसे कुछ झेंपते थे। दो वर्ष उनसे मिलते रहने पर भी मैं उस घनिष्ठता में भागी नहीं हुआ, केवल उनकी इस विचित्र मैत्री का निकट-दर्शक ही हो पाया।
जब सन 1905 का विस्फोट हुआ, तब मैंने नार्मल की परीक्षा पास ही की थी। सर्जियस की आयु उस समय शायद अठारह वर्ष की थी और दिमीत्री की सत्रह। वे दोनों स्कूल की अन्तिम परीक्षा पास करने वाले थे। हमें आशा थी कि वे भी नार्मल में अध्यापक-श्रेणी में दाखिल होंगे, क्योंकि दोनों ही तीक्ष्ण बुद्धि थे। पर जिस दिन ज़ार की घोषणा वहाँ पहुँची कि रूस में प्रजा-प्रतिनिधियों की व्यवस्थापिका सभा ड्यूमा बनाई जाएगी और उसके उपलक्ष्य में हमारे स्कूल में भी उत्सव के लिए छुट्टी हुई, उस दिन वे दोनों स्कूल नहीं आए, उत्सव में भी नहीं आए। न जानें क्यों, उनके न आने से मेरा मन नहीं लगा। शाम को उत्सव समाप्त होने से पहले ही मैंने अपना ओरवकोट पहना और उनके गाँव की ओर चल दिया। वहाँ पहुँचकर मुझे उनका पता पूछना नहीं पड़ा। गाँव के बाहर ही एक गिरे हुए पेड़ के तने पर दोनों बैठे बातें कर रहे थे। मैंने पुकारा, “दिमी!” तो दोनों उठ खड़े हुए।
मैंने पूछा, “दिमी, तुम दोनों आज उत्सव में क्यों नहीं आए?”
उसने उत्तर दिया, “अब हम स्कूल नहीं जाएँगे।”
मुझे दुख भी हुआ और विस्मय भी। मैंने पूछा, “क्यों?”
वह बोला, “हम लोग अब गुलामी से छूट गये, अब हमें इस गाँव में बँधे रहना नहीं पड़ेगा। हम दोनों पीटर्सबर्ग जाकर नौकरी ढूँढ़ेंगे और कुछ कमा कर घर भेजेंगे।”
मैं थोड़ी देर चुप रहा-सोचता रहा कि अगर गाँवों की प्रतिभा शहरों में जाने लगेगी, तो फिर हमें नये स्वातन्त्र्य का फायदा ही क्या हुआ!
“अच्छा दिमी, तुम पीटर्सबर्ग में करेागे क्या!”
“यह तो अभी नहीं सोचा-अभी तो इतना ही निर्णय किया है कि कुछ करूँगा जरूर।”
“और तुम, सर्जी?”
“मैं तो ज़ार की सेना में कर्नल होऊँगा।”
मैं कुछ हँसा। फिर मैंने पूछा, “ज़ार की घोषणा से तुम्हें व्यक्तिगत लाभ तो हुआ है, पर देश पर क्या असर होगा, कभी सोचा है?”
दिमीत्री बोली, “मैं तो समझता हूँ, इतना लड़ाई-झगड़ा करने पर भी हमें कुछ नहीं मिला। यह तो सीमित स्वातन्त्र्य हमें मिला है, आज से कहीं पहले मिलना चाहिए था। बल्कि मुझे अचम्भा होता है कि हम इतने दिन बँधे कैसे रहे! जब हम सब बराबर हैं-”
सर्जियस बीच में बात काटकर बोला, “यह धारणा गलत है। आदमी कभी बराबर नहीं होते। जिसको हम स्वातन्त्र्य कहते हैं, वह होता ही नहीं। एक का ज़ार और दूसरे का मजदूर होना स्वाभाविक है। यह भी स्वाभाविक है कि शासक थोड़े हों और शासित बहुत; क्योंकि धन की तरह शक्ति का स्वभाव है कि एक ही केन्द्र पर संचित होती रही है। शक्ति एक केन्द्र में बिखर कर नष्ट होती रहे, यह प्रकृति के विरुद्ध बात है।”
दिमीत्री ने उत्तर दिया, “और जिधर प्रकृति हमें घसीटे, उधर ही हम लद्दू घोड़े की तरह दुम दबाए चलते जाएँ, यह मानवता के विरुद्ध है। हम मनुष्य तभी हैं, जब हम प्रकृति की प्रेरणाओं को दबाकर अपने आदर्श को ऊपर रखें। जब हम आदर्श स्थापित करते हैं, तब यह सोचकर नहीं करते कि प्रकृति हमें उसका अनुसरण करने देगी या नहीं। पहले आदर्श स्थापित होता है, फिर यदि प्रकृति उसमें रुकावट डाले, तो उससे भी लड़ना पड़ता है। क्यों, मास्टर निकोलाई?”
मैं उत्तर दिए बिना सर्जियस की ओर देखने लगा। वह बोला, “यह खोखला आदर्शवाद है। वास्तव में ऐसा कहाँ होता है? हम आदर्श सामने रखते हैं, और बड़ी ऐेंठ से उसका अनुसरण करते हैं; पर जब प्रकृति सामने आती है, तो कौन उससे लड़ता है? लोग दुबककर आदर्श बदल लेते हैं। माल्थुस ने जब अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया तब लोग चिल्लाने लगे, आदमी बहुत बढ़ रहे हैं, इनके रोकने के लिए संयम चाहिए। प्रकृति चिल्लाई, यह नहीं होना! फिर किसने किया संयम? लेाग सन्तान-निग्रह के रासायनित तरीके ढूँढ़ने लग गये। प्रकृति के विरुद्ध हम कभी सफल नहीं हो सकते।’
दिमीत्री कुछ हँसकर बोला, “यही तो! तुम क्या समझते हो, संयम प्रकृति के प्रतिकूल है? यह जिसे तुम सन्तान-निग्रह कहते हो, यही तो प्रकृति के विरुद्ध है। संयत तो पशु भी करते हैं। अगर मान भी लें कि विषय-तृप्ति ही प्रकृति का नियम है, तो क्या हम इसका विरोध नहीं करते? जैसे-”
वह कुछ शर्मा कर रुक गया। मैंने कहा, “क्यों दिमी, रुक क्यों गये?”
वह बोला, “एक उदाहरण देने लगा था, वह कुछ भद्दा है, इसलिए रुक गया।”
मुझे कुछ कौतूहल हुआ। मैंने कहा, “अगर लागू हो तो दे दो, कोई हर्ज नहीं है।”
वह कहने लगा, “अपने ही आत्मीयों के प्रति हमारे हृदय में वासनाएँ क्यों नहीं जागतीं?” उनके प्रति क्यों हमारे मन में आदर का भाव रहता है, क्यों पवित्र विचार होते हैं? यह तो प्रकृति का नियम नहीं है? पशुओं में तो कोई ऐसा भेद-भाव नहीं होता? यह प्रकृति पर आदर्श की जीत नहीं तो और क्या है?”
सर्जियस कुछ सोच में पड़ गया। मैंने देखा, इन दोनों की विचार-शैली अभी पकी नहीं थी, परिष्कृत नहीं हुई थी। फिर भी यह मैं जान गया कि दोनों सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं का अध्ययन अच्छी तरह कर रहे हैं। यह भी समझने में देर नहीं लगी कि दोनों वृत्तियाँ उन्हें किधर-किधर प्रेरित करेंगी। मैंने दोनों के कन्धों पर हाथ रखकर हँसते हुए कहा, “तुम लोग प्रसंग से कितनी दूर निकल गये!”
दिमीत्री बोला, “फायदे की बात सोचते ही सिद्धान्त सामने आ जाते हैं, क्योंकि मैं फ़ायदा उसको समझता हूँ, जिससे आदर्श का पोषण हो। सर्जी का मत मुझसे भिन्न है।” यह कहकर उसने सर्जियस की ओर देखा।
उसने कहा - “हाँ, मैं आदर्श उसको गिनता हूँ, जो लाभप्रद हो।”
मैंने दोनों की पीठ ठोककर कहा, “तुम दोनों फिलास्फर हो गये हो! चलो, जरा घूमने चलें।”
वे मेरे साथ हो लिए।
जब हम लौटे, तब अन्धेरा हो रहा था। जब हम गाँव के छोर पर पहुँचे, अलग होने का समय आया, तो मैंने पूछा, “अच्छा, तो फिर कब मिलोगे?”
दिमीत्री हँसकर बोला, “पहले का तो पता नहीं, हाँ, 1920 में आज के दिन अवश्य मिलेंगे।”
मैंने विस्मित होकर पूछा, “कैसे, दिमी?”
वह सर्जियस की ओर देखकर बोला, “हम दोनों ने एक षड्यन्त्र रचा है। आज से पूरे पन्द्रह साल बाद हम स्कूल के बड़े खंभे के नीचे मिलेंगे। चाहे कहीं हों, कितना ही काम छोड़कर आना पड़े, आएँगे अवश्य। और शायद अपने-अपने अनुभव एक-दूसरे को सुनाएँगे।”
“किस समय?”
“रात को आठ बजे।”
“अच्छा, अगर मैं आ सका, तो शायद मैं भी आ जाऊँ।”
कुछ देर तक हम चुप रहे। फिर सर्जियस बोला, “अच्छा, मास्टर निकोलाई,
अब पन्द्रह वर्ष के लिए बिदा दीजिए।” यह कहकर उसने रूसी ढंग से सिर से ऊपर हाथ उठाकर सलाम किया।
मैंने कहा, “ऐसे नहीं सर्जी!” और उससे हाथ मिलाए। फिर वह कुछ हटकर खड़ा हो गया। मैंने दिमीत्री से हाथ मिलाए। वह हँसता हुआ बोला, ‘मास्टर निकोलाई, इस षड्यन्त्र को भूलना मत।”
मैंने कहा, “मैं नहीं भूलूँगा।”
क्षण-भर में वे आँखों से ओझल हो गये। मैं भी अँधेरे में खेतों में से होकर धीरे-धीरे अपने स्कूल की ओर चल पड़ा।...
इसके बाद... मैं फिर अध्ययन और अध्यापन के फेर में पड़ गया। आँधियाँ आयी और चली गयी, उत्पात खड़े हुए और बैठ गये; विस्फोट हुए और बुझ गये। पर हमारे स्कूल के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ... हाँ, मुझमें जो कुछ भावुकता थी, धीरे-धीरे सूख गयी; जो कविता थी, वह अनुक्रम की दृढ़ शृँखाल में घुटकर मर गयी और दिमीत्री और सर्जियस भी धीरे-धीरे भूल गये; उनके षड्यन्त्र की ओर अपनी प्रतिज्ञा की स्मृति भी बुझ गयी।...
पर सन 1917 की क्रान्ति जब आयी, तब हमारा छोटा-सा शहर भी उससे बच नहीं सका। स्कूल टूट गया, सब अध्यापक और बहुत-से छात्र लाल झंडे के नीचे जा खड़े हुए। मैं भी उस क्रान्ति की लपेट में या उस अज्ञात शक्ति के प्रवाह में आ गया, और एक साधारण सिपाही की वर्दी पहनकर उस झण्डे की छाया में लड़ने लगा। फिर... फिर मैंने बहुत कुछ देखा-जीवन कितना वीभत्स हो सकता है, भूख की व्यथा कैसी होती है, सारी-सारी रात जागकर रेत की बोरियों के मोर्चे पर गिरती हुई बर्फ में बैठकर पहरा देने में क्या मज़ा है, बर्फ़ से भी शीतल बन्दूक की नली ठिठुरे हुए हाथों में पकड़कर बारह घंटे खड़े रहने पर प्राणिमात्र के प्रति कैसी जलन हृदय में होती है लहू में सनी हुई वर्दी शरीर से पाँच-पाँच दिन अलग न कर सकने में आत्मबल पर कैसा प्रभाव पड़ता है-इन सब बातों का अनुभव सन 1917 के तीन ही महीनों में हो गया... उसके बाद सुना, क्रान्ति समाप्त हो गयी। हम लौट आए। आकर देखा, जहाँ स्कूल था, वहाँ एक होटल खुला हुआ है! स्कूल वहाँ से उठकर एक नये भवन में चला गया था।
जीवन में थोड़ा-सा वैचित्र्य आ गया। पर हम धीरे-धीरे फिर शृंखलाओं में बद्ध होने लगे। हाँ, इस बार इस बन्धन की गति कुछ कम हो गयी, क्योंकि देश में अशान्ति छायी हुई थी, एक क्रान्ति की राख में दूसरी क्रान्ति की आग सुलग रही थी...
इधर-उधर से विचित्र समाचार आने लगे। साम्यवादी फ़ौज का एक अंश जाकर साम्राज्यवादियों के दल से मिल गया, और घर ही में युद्ध होने लग गया।...
फिर एक दिन सुना, नयी क्रान्ति होने वाली है। बर्फ़ पड़नी आरम्भ ही हुई थी कि नयी क्रान्ति हो भी गयी-उसको दस दिन भी नहीं लगे।...
फिर देश में कुछ शान्ति हुई, और मेरा जीवन पुराने ढाँचे में अच्छी तरह बैठ गया।
शान्ति तो हो गयी, पर साम्राज्यवादियों के उत्पात बन्द नहीं हुए। मॉस्को में, कीव में और विशेषतः पीट्रोगाड में - पीटर्सबर्ग अब पीट्रोग्राड हो गया था उनकी गुप्त समितियाँ आंतक फैलाने लगीं। सोवियत ने उनके प्रति घोर दमन-नीति का अनुसरण किया।
होते-होते सन 1920 आया... हमें फिर सन 1905 की घोषणा के उपलक्ष्य में छुट्टी मिली...
इस बार स्कूल का उत्सव नहीं हुआ। सब अपने-अपने घरों को चले गये। और मैं सारा दिन बाज़ार में घूमता रहा, शाम को थका-माँदा उसी होटल पर पहुँचा, जहाँ किसी दिन हमारा स्कूल होता था। मैंने दरवाजे के पास ही एक मेज़ पर बैठ कर रोटी, भूने हुए आलू, सिरका और एक गिलास पानी - बीयर उन दिनों दुर्लभ थी! - मँगाया और धीरे-धीरे खाने लगा। खाते-खाते सोच रहा था, जिन दिनों यहाँ स्कूल था, उन दिनों की और आज की मनोवृत्ति में कितना अन्तर है। उन दिनों आशावाद कितना सुखमय था और आज जीवन कितना नीरस हो गया है! मैं सोचता जाता और होटल के बाहर लगे उस बड़े गैस-लैम्प की ओर देखता जाता। उस पर जब पतंगे जल-जल कर गिरते, तो मुझे एक विचित्र शान्ति का अनुभव होता। शायद अपने जीवन की नीरसता के लिए सान्त्वना मिलती थी!
एका-एक मैं चौंका। उस लैम्प के नीचे ओवरकोट और टोप पहने एक व्यक्ति आकर खड़ा हो गया। उसके शरीर का गठन, उसकी चाल परिचित मालूम होती थीं। पर मस्तिष्क में स्मृतियाँ चक्कर खाने लगीं... पर उसकी याद न आयी। फिर-
सर्जियस! स्मृति की एक बड़ी-सी लहर आयी-सर्जियस, दिमीत्री, वह षड्यन्त्र और अपनी प्रतिज्ञा-सभी किसी अँधेरी गुफा-से निकल कर सतह पर आ गये...
पहले मेरी इच्छा हुई, उसे बुलाऊँ। फिर मैंने सोचा, मैं तो दर्शक ही था, उनका मिलन देख लूँ, फिर जाऊँगा। मैं वहीं बैठा देखने लगा, भूख की ओर मेरा ध्यान नहीं रहा। शायद मैं दो-एक आलू बिना छीले ही खा गया...
अँधेरे में से एका-एक गैस के प्रकाश में एक और व्यक्ति आया-गठा हुआ, चुस्त, सोवियत की फ़ौजी वर्दी पहने हुए दिमीत्री!
क्षण-भर दोनों खड़े रहे। फिर सर्जियस ने धीरे से कुछ रुकते हुए कहा, “दिमीत्री पिट्रोविच?”
दिमीत्री के मुख पर आनन्द की रेखा दौड़ गयी। वह बोला - “सर्जी! सर्जी!” और लपक कर उसके गले से लिपट गया।
फिर धीरे-धीरे कुछ बातें हुई। मैं नहीं सुन पाया। उसके बाद मैंने देखा दोनों होटल की ओर आ रहे हैं। मैं पीछे हटकर अँधेरे में हो गया।
वे आकर एक मेज़ पर बैठे और कहवा माँग कर पीते-पीते बातें करने लगे।
“कहो सर्जी, कैसे रहे?”
“बड़े मज़े में। कर्नल तो नहीं हो पाया, कप्तान हो गया था। उसके बाद हमारी सेना ही छिन्न-भिन्न हो गयी।”
“अब क्या करते हो?”
सर्जियस कुछ रुककर बोला, “अब तो कुछ नहीं कर रहा हूँ, हाँ, थोड़े दिनों में कहीं नौकरी कर लेने की आशा है। पर तुम कहो।”
“मैंने बहुत धक्के खाये। यहाँ से जाकर कुछ दिनों तो कुली का ही काम किया। फिर मजदूरों की मिलिशिया में भर्ती हो गया। फिर क्रान्ति आयी तो उसमें भी भाग लिया। अब-मैं सेना का लेफ्निेंट हूँ।”
दिमीत्री ने जेब से सिगरेट-केस निकालकर सर्जियस की ओर बढ़ाया। सर्जियस ने कहा - “इस वक्त इच्छा नहीं है।”
दिमीत्री जेब टटोलने लगा। फिर बोली, “सर्जी, तुम्हारे पास दियासलाई है?”
सर्जियस ने ओवरकोट के बटन खोले और अन्दर से दियासलाई की डिबिया निकाली।
मैंने देखा, दिमीत्री चौंका। और फिर अनिमेष होकर सर्जी के गले की ओर देखने लगा। मैंने भी उसकी ओर देखा, सर्जियस के ओवरकोट के अन्दर गले में एक सफेद और नीली धारियों वाला रेशमी रूमाल बँधा हुआ था...
दिमीत्री ने दियासलाई लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो उसका हाथ काँप रहा था।
सर्जियस ने भी यह देखा, और चिन्तित होकर बोला, “दिमीत्री, तुम बीमार तो नहीं हो?”
दिमीत्री ने कहा, “नहीं, मेरे कुछ सरकारी कागज़ बाहर गिर गये हैं। तुम बैठो, मैं अभी आया।” कह कर वह सर्र से बाहर चला गया।
मैं कुछ देर सर्जियस की ओर देखता रहा, फिर उठकर उसके पास चला गया।
“सर्जियस, मुझे पहचानते हो?”
उसने मेरी ओर ध्यान से देखा। फिर खड़ा होकर बोला, “मास्टर निकोलाई, आप यहाँ कहाँ?”
मैं झूठ कई बार बोला हूँ। पर सर्जियस से मैं पहली बार झूठ बोला। मैंने कहा, “षड्यन्त्र में अपना भाग पूरा करने आया था।”
वह हँसा। फिर हम दोनों बैठ गये। मैंने कहा, “मैं तुम्हारी बातें सुन रहा था। तुम जो कह रहे थे, आजकल कुछ नहीं कर रहे हो, तो सेना में भर्ती क्यों नहीं हो जाते? पहले कप्तान तो रह ही चुके हो, अब-”
वह खिलखिला कर हँस पड़ा। मैं कुछ अप्रतिभ-सा होकर चुप हो गया। फिर वह कहने लगा-”मास्टर निकोलाई, इस सेना में-
सीढ़ियों पर किसी के पैर की आहट आयी। मैंने समझा, दिमीत्री आ रहा है। उसको स्तम्भित करने के लिए मैंने पुकारा, “दिमी!”
वह दिमी नहीं था।
एक सार्र्जेंट के साथ पांच-छः सिपाही भीतर घुस आये। सार्जेंट ने सर्जियस के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, “सर्जियस मार्टिनोवस्की, भूतपूर्व कप्तान, अब साम्राज्य-वादी गुप्त-समिति के सदस्य, मैं तुम्हें गिरफ्तार करता हूँ!” वह सब ऐसे कह गया, मानो रटा हुआ पाठ पढ़ा रहा हो। सर्जियस ने एक तीव्र दृष्टि से मेरे मुख की ओर देखा, उस पर दुख और विस्मय के भाव स्पष्ट देखकर गुनगुनाया, “दिमी। दिमीत्री पिट्रोविच!”
एक फीकी हँसी हँसकर उसने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिये - हथकड़ियाँ लग गयीं...
सर्जियस खड़ा हो गया। बोला, “मास्टर निकालोई, यदि आप को दिमी कहीं मिले, तो - उसको मेरी याद दिला दीजिएगा।”
मैं कुछ उत्तर न दे सका। वे उसे ले गये...
मैं सोचने लगा, पन्द्रह साल बाद न जाने कहाँ से वह आया था-एक स्मृति के लिए! और अब-
एक व्यक्ति आकर मेरे सामने बैठ गया। वह युवक था; पर उसके मुख पर झुर्रियाँ पड़ गयी थीं, अपनी टोपी नीचे खींचकर उसने अपनी आँखों पर छाया कर रखी थी। क्षण-भर मैंने उसे पहचाना नहीं; फिर मैंने कहा, ‘दिमी!”
उसने मेरी ओर देखकर कहा, “मास्टर निकोलाई!” उसकी आवाज में न आनन्द था, न विस्मय। मैंने देखा, उसकी आँखें छिपे हुए आँसुओं से चमक रही थीं।
मैंने कहा, “सर्जियस तो गया!”
उसने उदास भाव उत्तर दिया, “हाँ।”
हम दोनों चुप हो गये। फिर वह आप-ही-आप बोला, “अनुमान तो मैंने पहले भी किया था, पर जब मैंने उसके गले में वह चिह्न - वह नीली और सफेद धारियों वाला रूमाल - देखा, तो मेरा कर्त्तव्य स्पष्ट हो गया। पर मैं स्वयं कुछ नहीं कर सका-बीस वर्षों से संचित स्मृति ने साहस तोड़ दिया।”
मैंने कहा, “दिमी, ‘दिमी! क्या कह रहे हो तुम!”
वह उठ खड़ा हुआ। अपनी फ़ौजी जैकेट का तीसरा बटन खोलकर उसने अन्दर की ओर सकेंत किया। वहाँ एक छोटा-सा पीतल का बैज था, उस पर तीन अक्षर लिखे हुए थे...
‘जी. पी.यू.’, फ़ौजी जासूस...
मैं भौंचक होकर उसके मुख की ओर देखने लगा। वह बोला, “मित्रघात बुरा है या देशद्रोह, मैं नहीं जानता!” फिर एकदम होटल से बाहर निकल गया और अन्धकार में ओझल हो गया।
इसके बाद जो दिमीत्री ने सर्जियस को बचाने का विफल प्रयत्न किया, जो कोर्ट-मार्शल के आज्ञानुसार सर्जियस गोली से उड़ा दिया गया, और उसके बाद ही दिमीत्री अपने पद से इस्तीफ़ा देकर विदेश चला गया, यह सब इस प्रसंग की बात नहीं है।
इस घटना की व्याख्या विभिन्न प्रकृतियों के लोग विभिन्न तौर से करेंगे। दिमीत्री के कर्म को कोई विश्वासघात कहकर सर्वथा अक्षम्य समझेगा, कोई उसे विश्वासघात कहकर क्षमा कर देगा, क्योंकि राष्ट्र के आगे एक आदमी का व्यक्तित्व क्या है? कोई शायद उसके काम को एक कठोर कर्त्तव्य का समुचित पालन मानकर सर्वथा उसकी सराहना भी करे... पर इसकी मनोगति के, उसके कर्म के औचित्य का निर्णय करने वाले हम कौन हैं, इस पर शायद कोई विचार नहीं करेगा...
मैंने जो - कुछ देखा है, उसमें मैं इसी परिणाम पर पहुँचा हूँ कि मानव-हृदय की वृत्तियों का विवेचन करना हमारी शक्ति से बाहर है। दिमीत्री का कर्म अच्छा था या बुरा, मैंने इस प्रश्न पर कभी ध्यान नहीं दिया। मैं तो यही सोचता हूँ, कितनी महत्ती शक्ति है वह, जो इन दोनों को न-जाने कहाँ-कहाँ से खींचकर इस अनुष्ठान की पूर्ति के लिए ले आयी! वर्षों से सिक्त उस मैत्री की इस पराकाष्ठा में, वर्षों से संचित उस महती आकांक्षा के आकस्मिक विफलीकरण में मुझे उसी नियन्त्रित शक्ति का प्रवाह दीखता है... या यों कहूँ कि उसी शक्ति का अनियन्त्रित, विकट, उन्मत्त अट्टहास...!
(दिल्ली जेल, सितम्बर 1931)