मिसेज वाटसन की भूतहा कोठी / उमा शंकर चौधरी
जब सन 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने अपने आकाओं के लिए भारतीय समाज की भूमि व्यवस्था में परिवर्तन कर दिया था तब उसमें बिहार का यह इलाका भी चपेट में आया था। कार्नवालिस ने अपने अंग्रेज मालिकों के खजाने में पैसों की बारिश करवाने के लिए इस नई व्यवस्था को जन्म दिया था। इस व्यवस्था के तहत गाँव वालों से सामुदायिक रूप में जमीन का मालिकाना अधिकार छीन लिया गया। अब पट्टे के आधार पर खेती का बंटवारा हुआ और जिसके हिस्से जिस जमीन का पट्टा आया वह उस जमीन का मालिक हुआ। लेकिन अब लगान को उस जमीन के साथ नियत कर दिया गया। लगान न देने पर जमीन गई हाथ से और फिर 'जमींदार' जैसे एक नए शब्द की उत्पत्ति हुई। अपनी इस जमींदारी प्रथा कि योजना में कार्नवालिस ने भारतीय समाज में एक बिचैलिया पैदा करने की कोशिश की जो वास्तव में अंग्रेजों के पिट्ठू थे। इन जमींदारों को अपने गाँव का लगभग मालिक बना दिया गया। जमींदार गाँव के मालिकाना अंदाज का आनन्द लेता था और अंग्रेजों को अपने हिस्से का बंधा-बंधाया स्थायी कर देकर छुट्टी पा लेता था और फिर अग्रेजों का क्या था, अपने बंद कमरों में वे अपनी गोरी मेमों के साथ चैन की नींद सोने लगे थे।
इतिहास गवाह है कि गवर्नर जनरल बनकर भारत आये कार्नवालिस ने कुछ नया सोचा था। उसने सोचा सरकार की स्थिरता के लिए एक ऐसा वर्ग तैयार किया जाए जो अंग्रेजों के मित्र हों। अंग्रजों का पहला भारतीय मित्र। एक ऐसा वर्ग जिनके हित अंग्रेजों से जुड़ जाएँ और वह पूरे गाँव को और इस तरह पूरे भारत को एक पैकेट में बंद कर और चमकीले रैपर में लपेट कर अंग्रजों को गिफ्ट कर दे।
कार्नवालिस ने जो चाहा वही हुआ। कार्नवालिस अपनी योजना में इतना सफल रहा कि बाद के उनके उत्तराधिकारियों ने भी उसकी जमकर तारीफ की। विश्वास कीजिए कि 1828 में गवर्नर जनरल बनकर भारत आये लार्ड बैंटिक ने अपनी प्रतिद्वन्दिता और अपनी मानवीय जलन को भूलकर इस स्थायी बन्दोबस्त के लिए कार्नवालिस की जमकर तारीफ की। उसने माना ब्रिटिश शासन के स्थायित्व के लिए किया गया हर छोटा-बड़ा प्रयास सर-आंखों पर और यह तो एक बड़ा प्रयास था, जिसने सचमुच भारत की तस्वीर बदल दी थी।
यह कहानी बिहार के उन्हीं स्थायी बन्दोबस्त वाले गांवों में से एक गाँव की है। उसी गाँव के जो जमींदार बने उनकी ही पुश्त की कहानी। जमींदारों को मालगुजारी देना पड़ता था और इसी के बल पर वह गाँव का मालिक भी होता था लेकिन अगर वह मालगुजारी देने में दिक्कत पैदा करता था तो उसे अपनी उस जमींदारी से हाथ भी धोना पड़ जाता था। लेकिन जिस जमींदार परिवार की यह कहानी है उसके साथ ऐसी स्थिति कभी नहीं आयी।
कालान्तर में उस गाँव में अंग्रजों की एक कोठी बनवायी गयी। बिल्कुल ब्रिटिश शिल्प में। अपने शासन में कई जगहों पर अंग्रेजों ने अपने मातहत को गाँव के भीतर तक पैठाना शुरू किया ताकि पकड़ कहीं भी ढ़ीली न होने पाये और सच यह है कि पकड़ मजबूत हो भी गयी।
एक तरह से समझिये लार्ड कार्नवालिस द्वारा शुरू की गयी इस भूमि व्यवस्था से शुरू होकर यह कहानी अब से लगभग बीस वर्ष या उससे कुछ पहले तक की है। बीस वर्ष पहले या उससे कुछ और पहले यानी जब इंदिरा या राजीव की सरकार रही होगी।
यह कोठी ब्रिटिश शिल्प में तैयार किया गया अंग्रेजों के बड़े अफसर का आवास था। कोठी का निर्माण कब हुआ था इसे ठीक-ठीक तो अब जानना तभी संभव है जब कुछ सरकारी फाइलांे को अलटा-पलटा जाए। लेकिन कोठी देखकर लोग सहज ही अंदाज लगा लेते थे कि यह कम से कम सौ-डेढ़ सौ साल तो पुरानी होगी ही। जब की यह कहानी है अंग्रेजों को तो तब भी इस देश से गए लगभग चालीस साल के करीब हो ही गये थे। अब उससे सौ साल पहले के समय को तो कोठी के रहस्य में पड़कर भी जोड़ा जा ही सकता था। लोग कोठी को देखते थे और उसकी अतल गहराई में खो जाते थे। लेेकिन अब यह कोठी ब्रिटिशों की नहीं रही। जब ब्रिटिश ही नहीं रहे तो उनकी कोठी कैसी। कार्नवालिस द्वारा शुरू की गई भूमि व्यवस्था से इस गाँव में जिस जमींदार का उद्भव हुआ था यह कोठी अब उसी जमींदार की हवेली थी।
हवेली नहीं, लोग अब भी इसे कोठी ही कहते थे।
इस कस्बे के सभी लोगों को मालूम था कि इस कोठी को राम पोद्दार बाबू ने अंग्रेजों से 1947 में तब खरीदा था जब अंग्रेज इस देश को छोड़कर अपने देश (इंग्लैण्ड) जा रहे थे। राम पोद्दार बाबू यानी राम पोद्दार सिंह। तब राम पोद्दार बाबू ही इस गाँव में एक ऐसे आदमी थे जिनके पास इस कोठी को खरीदने की हैसियत थी और हैसियत क्या, वे तो जमींदार ठहरे। इस गाँव के सम्मानित सदस्य होने के नाते उनकी उस अंग्रेज अफसर से दोस्ती भी थी। अंग्रेज जब जाने लगे तब उन्होंने काफी आंसू बहाए। इस कोठी को छोड़ने का भी उन्हें दुख था और राम पोद्दार बाबू जैसे दोस्त के छूट जाने का भी।
इस कोठी में पहले पहल कौन आया और मि। क्रिस्टोफी वाटसन से पहले उस कोठी में कौन रहता था यह अब किसी को नहीं मालूम था। इस कोठी के साथ जिस अंग्रेज का नाम जुड़ा था वह मि। वाटसन ही था। वैसे भी मामला इतना पुराना हो चुका है कि जितना याद है और जितनी बातें यहाँ वहाँ फैली हुई हैं वही क्या कम हैं। मि। वाटसन से पहले उस कोठी में कोई और रहता ज़रूर होगा इतना कम से कम उस कोठी की उम्र देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है और जब कोठी अंग्रेजों की थी तो उसमें अंग्रेज ही रहे होंगे।
जब मि। वाटसन भारत आये थे तो आप समझिये की यह उनकी अपनी नौकरी का स्थानान्तरण था।
छः फीट लम्बे वाटसन तब गबरू जवान थे। एकदम गोरे-चिट्टे। जब वाटसन की नौकरी भारत में लगी तब वे कुंवारे थे। लेकिन उन्होंने कभी किसी भारतीय लड़की से दिल नहीं लगाया। उनकी कम उम्र में नौकरी हुई थी इसलिए उसकी अपने देश, अपने इलाके में बहुत पूछ रही होगी। वाटसन ने अपने देश जाकर ही शादी की और तब मिस जुलियस पीट का पदार्पण इस देश में मिसेज जुलियस वाटसन के रूप में हुआ। उन्होंने अपनी शादी में दहेज लिया या नहीं यह तो यहाँ किसी को मालूम नहीं लेकिन हाँ वे वहाँ से अपने साथ जहाज पर एक पियानो अवश्य लाए थे। शायद यह पियानो उनकी सास ने उन्हें उपहार के रूप में दिया था।
जुलियस तब बहुत खुबसूरत थीं। जब क्रिस्टोफी की शादी हुई तब उनकी पोस्टिंग कलकत्ता में थी लेकिन यह उनकी किस्मत या बदकिस्मती थी कि जब उनकी शादी हुई तब उसके कुछ महीने बाद ही उन्हें इस गाँव में भेज दिया गया था। गाँव भी क्या एकदम भुच्च देहात।
इसमें कोई शक नहीं है कि जुलियस जब इस गाँव में पहली बार आयीं तब उन्हें एकदम अजीब लगा होगा लेकिन पता नहीं जुलियस के स्वभाव में ऐसा क्या था कि उन्हें इस गाँव को अपनाने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा। ब्रिटेन की एकदम आधुनिक जुलियस यहाँ गाँव के भदेस रंग में रंग गई। वह यहाँ इस गाँव के स्वभाव में एकदम घुलमिल गईं। मि। क्रिस्टोफी को थोड़ा ज़्यादा वक्त लगा इस गाँव को अपना बनाने में और इस बीच उनके मन में कई बार यह आया कि वह इस गाँव और इस नौकरी को छोड़कर अपने देश में मुर्गा पालना शुरू कर दें लेकिन हर बार उनकी पत्नी जुलियस का भारत और यह गाँव नहीं छोड़ने का दबाव उन पर बना रहा।
"हमको इस विलेज के ओस के बूंड से प्यार हो गया।" जुलियस ऐसा कहती। वह बहुत जल्दी यहाँ टूटी फूटी हिन्दी सीख रही थी।
लेकिन क्रिस्टोफी जानते थे कि उनको अपनी पत्नी के दबाव में लिये गये इस निर्णय को लेकर कभी पश्चाताप नहीं हुआ क्योंकि बहुत कम दिनों में ही मि। वाटसन को भी इस गाँव सेे प्यार हो गया।
मि और मिसेज वाटसन ने धीरे-धीरे इस गाँव को इतना अपना लिया कि रंग और भाषा को छोड़कर यह कहना मुश्किल था कि वे इस मिट्टी के नहीं थे। सारे पर्व-त्यौहार से लेकर शादी-ब्याह तक में मिसेज वाटसन जातीं थीं और खूब लुत्फ उठाती थीं। मिसेज वाटसन यूं तो सामान्यतया अंग्रजों के आधुनिक ड्रेस ही पहनती थीं लेकिन उन्हें साड़ी पहनना बेहद पसंद था। साड़ी पहनकर सजने का वह बहाना ढूंढ़ती रहती थीं। जरा-सी भी कोई महफिल जमती नहीं कि वे साड़ी पहनकर इस कोठी में यहाँ वहाँ फुदकना शुरू कर देतीं।
मि। वाटसन ने अपने जीवन में कभी भी जंगल को इतने नजदीक से नहीं देखा था और इस गाँव के साथ में तब बहुत बड़ा जंगल था। साथ में क्या एक तरह से कहिए यह गाँव जंगल के बीच में बना हुआ था। इसलिए वे उस जंगल के दीवाने हो गये थे। उन्हें शिकार बहुत पसंद था और इसके लिए उनके पास दो तगड़े घोड़े थे।
अंग्रेज अफसर होने के नाते मि। वाटसन से तब राम पोद्दार बाबू का सीधा वास्ता पड़ता था। कार्नवालिस ने अंग्रजों के जिस नए मित्र की खोज करने की कोशिश की थी वास्तव में अंग्रेज उन जमींदारों पर अपना हुक्म ही चलाते थे। तब अपने खानदान में राम पोद्दार बाबू जवान थे और पूरी जमींदारी वही देखने लगे थे। इसलिए मि। वाटसन के सामने हाजिर भी उन्हें ही होना होता था। लेकिन मि। वाटसन दिल के बहुत साफ थे इसलिए उन्होंने राम पोद्दार बाबू के साथ कभी भी मालिकाना व्यवहार नहीं रखा। दोनों लगभग हम उम्र थे और बहुत कम समय में दोनों में अच्छी दोस्ती हो गयी थी।
तब अक्सर शाम में मि। वाटसन की इस कोठी में बैठकी लगती थी। राम पोद्दार बाबू इस महफिल के नियमित मित्र थे। कभी बैठकी में शहर से अंग्रेज अफसर आते तो कभी अन्य आसपास के गांवों के जमींदार। तब चीनी बहुत मंहगी थी और बहुत कम घरों में इसका इस्तेमाल होता था। राम पोद्दार बाबू ने पहली बार यहाँ चाय पी थी। गाँव के सफेद झक्क दूध में जब चाय की बूंद गिरती तो दूध सुनहरा रंग ले लेता। राम पोद्दार बाबू दूध के इस परिवर्तन को देखते और भांैचक हो जाते। चाय की चुस्की को पहली बार उन्होंने यहीं महसूस किया। कड़क चाय का स्वाद उन्हें अद्भुत लगा था। मि। वाटसन को चाय की पत्ती तो भारत में ही उपलब्ध होती थी लेकिन आज तक राम पोद्दार बाबू इस आभिजात्य स्वाद से बेखबर थे।
शाम की महफिल में कभी चाय की चुस्की चलती तो कभी वाइन।
अंग्रेजों द्वारा बनवाई गई यह कोठी लाजवाब थी।
मुख्य दरवाजे से इस कोठी को पूरा देख पाना असंभव था। मुख्य दरवाजे के बाद बहुत दूर तक खाली जमीन थी और फिर कोठी का सामने वाला हिस्सा।
लगभग दस बीघे जमीन को घेरकर बनायी गयी इस कोठी में घर तो खैर कितनी जगह खींच सकता था लेकिन इस अहाते की जमीन को मि। वाटसन ने काफी उपजाऊ बना रखा था। जमीन के बहुत बड़े भाग को उन्होंने खेती में तब्दील कर दिया था। उसी अहाते के भीतर ही आम का पूरा एक बागीचा था। मिसेज जुलियस वाटसन को आम के इस बगीचे से काफी प्यार था। उन्होंने इसमें तरह-तरह के आम के पेड़ लगवा रखे थे। आम की कई नस्लें उन्होंने अपने मायके से मंगवायी थीं। उस बगीचे में स्वादिष्ट आम के कई पेड़ थे। मिसेज वाटसन उस बगीचे की देखभाल खुद करवाती थीं। उस बगीचे में आम आ जाने के समय में वह काफी उत्साहित दिखती थीं।
अंग्रजों की कड़वी सच्चाइयों से विलग सच यह है कि यह अंग्रेज दम्पत्ति यहाँ इस गाँव में अमन-चैन की ज़िन्दगी गुजार रहे थे। लेकिन यह तस्वीर तब बदल गई जब अचानक देश स्वाधीन हुआ और इस दम्पत्ति को अचानक इस देश से चले जाने का फरमान जारी किया गया। देश स्वाधीन हो जायेगा इसकी चर्चा तो कुछ वर्षों से चल ही रही थी लेकिन वृद्ध हो रहे इस दम्पत्ति को कभी लगा नहीं था एक दिन उन्हें अचानक यहाँ से चले जाने को कह दिया जायेगा। विस्थापन का यह भी एक रंग था जिसे शायद हम-आप ठीक उस तरह न समझ पायें जैसा उन्होंने झेला था।
मि। क्रिस्टोफी वाटसन जब इस गाँव में आये थे तब एकदम गबरू जवान थे और जब उन्हें यहाँ से देश निकाला दिया जा रहा था तब वे वृद्ध हो रहे थे। उन्होंने इस गाँव में अपने जीवन के लगभग तीस वर्ष गुजारे थे। एक लम्बा समय।
जब मि। वाटसन इस देश से गये तो यह बंगला राम पोद्दार बाबू के हाथ में आया। अंग्रेज़ी फरमान के अनुसार कोठी किसी के हाथ तो आनी ही थी। हाँ, यह चुनने का अधिकार बंगले में रहने वाले मि। वाटसन को दिया गया। मि। वाटसन के सबसे करीब यहाँ शुरू से अंत तक राम पोद्दार बाबू ही रहे।
मि। वाटसन ने अपने दोस्त राम पोद्दार सिंह को यह घर मिसेज वाटसन के दबाव पर भी दिया था। मिसेज वाटसन का राम पोद्दार सिंह से यह निवेदन था कि वे उनके आम के बगीचे को बर्बाद नहीं करें। उन्होंने कहा था कि मैंने इसे अपने बच्चे की तरह पाला है इसलिए वे इसका खासा ध्यान रखें।
"हमारा कोई सन नहीं है हमने तो इसे ही अपना सन माना है। दिस आॅचर्ड इज माइ लाइफ।" ऐसा कहते हुए मिसेज वाटसन की आंखों के कोर भींग गए थे।
मिसेज वाटसन ने आम के बगीचे से सम्बन्धित बहुत-सी ज़रूरी जानकारियाँ भी रामपोद्दार बाबू को दीं कि जब आम के पेड़ पर मंजर आ जाएँ तब पेड़ पर गुलाब जल का छिड़काव करना चाहिए जिससे आने वाले फल में सुगन्ध फैल जाती है। जड़ से कब मिट्टी को हटाना चाहिए और कब जड़ को मिट्टी से ढंकना चाहिए। इस कोठी को छोड़ते हुए मिस्टर और मिसेज वाटसन इस कोठी को बहुत गौर से बहुत देर तक निहारते रहे थे। उनकी आंखों में आंसू थे।
लोग कहते हैं जाने के एक सप्ताह पहले से ही मिसेज वाटसन थोड़ी अनमनी-सी हो गयी थी और इस आम के बगीचे में दिन भर टहलती रहती थीं। उन्होंने एक सप्ताह में उस बगीचे के हर पेड़ से पांच-पांच पत्तों को तोड़कर अपने पास सहेजा था और उन्हें अपने साथ इंग्लैण्ड ले गयी थीं।
यह कहानी जब की है तब मि। वाटसन को यहाँ से गये चालीस वर्ष से ऊपर हो गए थे। इस लम्बे समय में इस गाँव में काफी तब्दीली आ गई। कस्बे में अब ऐसा कोई जीवित तो नहंीं था जिसने मि। वाटसन के परिवार को देखा हो, या जीवित हैं भी तो वे उन दिनों काफी बच्चे थे और उन्हंे कुछ याद नहीं है। लेकिन मि। वाटसन से सम्बन्धित ये कहानियाँ इस कस्बे में अब भी जस की तस हैं। इस कस्बे के लोग जानते हैं कि यह कोठी पहले अंग्रेजों की थी। अंग्रेज मि। वाटसन भारत और विशेषकर इस गाँव से बहुत प्रेम करते थे और उनकी गोरी मेम मिसेज वाटसन की जान इस आम के बगीचे में बसती थी। मिसेज वाटसन जब गयीं तब वे काफी उदास थी। मिसेज वाटसन द्वारा लगाया गया आम का बगीचा अभी भी वैसा ही हरा-भरा था। उसमें कुछ पेड़ अगर कभी सूख भी गये थे तो वहाँ नये पेड़ लगाकर इस बगीचे को वैसा ही हरा-भरा और घना रखा गया था।
इस कस्बे में मि। वाटसन की तमाम सच्ची-झूठी कहानियों के साथ ही यह कहानी भी बहुत प्रचलित थी कि मिसेज वाटसन सत्ता के आदेश के कारण भारत छोड़कर चलीं तो अवश्य गईं लेकिन उनकी आत्मा यहीं आम के बगीचे में भटकती रह गई। लोगों ने देर रात इस कोठी के अहाते के भीतर से आम के बगीचे के बीच से किसी औरत के रोने की आवाज़ सुनी थी। लोग कहते देर रात मिसेज वाटसन की आत्मा आम के हर पेड़ के नीचे बैठकर, उससे गले लगकर जार-जार रोती है। जब आम के पकने का समय होता तब अक्सर बगीचे में पके हुए आम आधा खाकर इधर-उधर फेकें हुए मिल जाते। इस कोठी मंे रहने वाले लोगों को इस आम के बगीचे से उठने वाली चीख सुनाई पड़ती थी या नहीं यह किसी को नहीं मालूम था और न ही किसी को ऐसा उनसे पूछने की हिम्मत थी। इस कोठी में रहने वाले लोग इस कस्बे के सबसे अमीर और जमींदार थे इसलिए उनसे आम लोगों की एक दूरी थी।
राम पोद्दार बाबू ने जब अपने दोस्त मि। वाटसन से यह कोठी खरीदी थी तब महज यह अंग्रेजों की कोठी थी लेकिन धीरे-धीरे समय बीतने के साथ इसे विलायती कोठी कहा जाने लगा। लेकिन इस आम के बगीचे से रोने की आने वाली आवाज के कारण इस कोठी को लोग पीछे भुतहा कोठी भी कहते थे-'मिसेज वाटसन की भुतहा कोठी।'
अपनी उम्र पर राम पोद्दार बाबू का निधन हुआ और उनके दो बेटों-सत्यव्रत सिंह और त्रिलोचन सिंह में छोटे बेटे त्रिलोचन ने जमींदारी को संभाला।
त्रिलोचन बाबू ने जमींदारी को संभाला ही नहीं बल्कि उसे एक ऊंचाई भी दी। उन्होंने खेती में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया। समय पर पानी, समय पर कीटनाशक, उर्वरक आदि देकर उन्होंने पैदावार में गुणात्मक वृद्धि कर दी। खेत जोतने के लिए बैल के स्थान पर टेªक्टर का इस्तेमाल किया। कई पम्पिंग सेट लगाकर सभी खेतों तक सिंचाई के लिए पानी मुहैया करवाया। उन्होंने कई नई जमीनें खरीदीं। कई परती पड़ी अनुपजाऊ जमीन को अपनी मेहनत और अपनी लगन से उपजाऊ बनाया। प्रायः खेतों में एक के बदले दो मौसम की फसलों को उगाया। ंउन फसलों को ज़्यादा तवज्जो दी जिनकी बाज़ार में मांग ज़्यादा है। यानी जिसमें मुनाफा ज़्यादा है। फसल को बेचने के लिए सही समय का इंतजार किया। फसल के रख-रखाव के लिए गोदाम की व्यवस्था की। गोदाम में अनाज तब तक रखा रहता जब तक कि बाज़ार में उसकी कीमत अधिकतक ऊंचाई को न छू ले। इन सब कारणों से त्रिलोचन बाबू की हैसियत अनवरत (निरंतर) बढ़ती रही।
बड़े भाई के रहते हुए त्रिलोचन बाबू मालिक क्यों बने और उन्होंने जमींदारी क्यों संभाली इस रहस्य की गुत्थी इसी कहानी में छिपी है जिसे अलग से बतलाने की ज़रूरत नहीं है। कहानी आगे बढ़ेगी और वह गुत्थी कोई गुत्थी नहीं रहेगी। त्रिलोचन बाबू को भी दो बेटे हुए-निरंजन सिंह और रघुवर सिंह।
कहानी में चूंकि पात्रों की संख्या बढ़ती जा रही है इसलिए यहाँ यह बतला दिया जा रहा है कि यह कहानी मूल रूप से त्रिलोचन बाबू और उनके दो बेटे निरंजन सिंह और रघुवर सिंह की ही है। ऊपर की सारी कहानी को यहाँ महज पृष्ठभूमि के रूप में समझा जा सकता है।
मि। वाटसन की इस कोठी को अब बिगड़े हुए रूप में लोग वासन कोठी कहते हैं। वासन कोठी इसलिए क्योंकि यहाँ के देहाती लोगों को ट बोलने में दिक्कत आती है तो उन्होंने इसे वाटसन से वासन में विकृत कर दिया। इस वासन कोठी के अहाते के बगल से दो तरफ से सड़कें गुजरी हंै। एक तो जहाँ इस कोठी का मुख्य दरवाजा है उसके सामने से ही और दूसरा उसके बगल से। मुख्य दरवाजे का फाटक बहुत बड़ा है। लोहेे की बड़ी-सी फाटक से अंदर झांक कर उस कोठी का बहुत कुछ अंदाजा लगा लेने की कोशिश हर राहगीर करता है लेकिन बहुत सफल नहीं हो पाता है।
इस मुख्य दरवाजे से उस कोठी की दूरी बहुत अधिक है। दरवाजे से कोठी का सिर्फ़ कुछ ही हिस्सा दिखता है। ब्रिटिशकालीन नक्काशी में बनी इस कोठी में बड़े-बड़े खम्भे हैं, ऊंची छत है। सभी कमरों की छत इतनी ऊपर है कि अब पंखे को पाइप से नीचे लटका कर लगाया गया है। हर कमरे के दरवाजे और खिड़कियाँ बड़े-बड़े हैं। बड़े-बड़े रोशनदान हैं। खिड़की में मोटे-मोटे छड़ लगे हैं। इस कोठी की दीवारें काफी मोटी हैं। तीस इंच की मोटी दीवार में दो ईंटों को जोड़ने के लिए मिट्टी का प्रयोग किया गया है। अब की भाषा में इस कोठी में एक एसी है। ठंडी हवा के लिए दीवार में गड्ढ़ा छोड़कर उसमें पंखी को इस तरह लगाया गया है कि बाहर चलने वाली हवा से उसकी पंखी अंदर घूमती रहे और उस गड्ढ़े में पानी भरे होने के कारण पंखे से ठंडी हवा अंदर की ओर आती रहे।
इस कोठी के पिछले हिस्से में थोड़ा दूर हटकर एक अस्तबल है। अब यह सिर्फ़ कहने को अस्तबल है। चूंकि मि। वाटसन घोड़ों के प्रेमी थे और वे यहाँ की प्रकृति की सैर घोड़ों पर किया करते थे उनके पास दो तंदरुस्त घोड़े थे। वे उन्हीं घोड़ों से शिकार भी किया करते थे। बाद में इस कोठी में रहने वाले किसी भी आदमी को चूंकि घोड़ों से प्यार नहीं हुआ इसलिए यह अस्तबल वर्षों खाली रहा। पहले तीस इंच की मोटी दीवार के बीच से चूहों ने मिट्टी को बाहर निकालकर रहना शुरु किया और फिर धीरे-धीरे सांपों का इस बिल में प्रवेश हुआ। सांपों ने उन चूहों को खाकर उसे हथिया लिया। दो ईटों के बीच सांप आराम से लेटते थे। चूंकि इस अस्तबल की छत पक्की नहीं होकर टीन की थी इसलिए धीरे-धीरे वह भी गिर गयी। कई विषैले सांप इस घर में रहते थे। इस गिरे हुए अस्तबल में कोई नहीं आता था और सांपों को भी यह लगभग अघोषित नियम पता था और वे कोठी की तरफ नहीं बढ़ते थे। इन्हीं सांपों में एक धामन सांप भी था जिसे कभी-कभी इस कोठी की तरफ बढ़ते देखा गया। धामन विषैला तो नहीं होता है लेकिन कहते हैं उस औरत की तलाश में होता है जो बच्चा जनने की स्थिति में हो या बच्चा जन चुकी हो। यह या तो धामन सांप ही था या फिर धामन की प्रजाति का ही कोई दूसरा सांप।
इस कोठी के पिछले हिस्से में ही दूर तक खेत है जिसमें सब्जी उगायी जाती है। कोठी के बगल में आम का बगीचा है जिसे मिसेज वाटसन ने तैयार करवाया था। आम के पेड़ काफी घने हैं। घने इतने कि आदमी गुम हो जाये। आम के बगीचे के बगल से अहाता है और अहाते के बाद एक लम्बा रास्ता। इस रास्ते के एक तरफ तो अहाते की दीवार है और अहाते के भीतर आम के पेड़ों के झुंड हंै और दूसरी ओर खाली जमीन या गड्ढ़े हैं। अहाता लम्बा है और उससे लगा हुआ यह रास्ता भी लम्बा और सुनसान है। लोग इस रास्ते से देर रात अंधेरे में गुजरने में डरते हैं। बच्चे तो दोपहर को भी इस रास्ते से गुजरना नहीं चाहते है। आम के इस बगीचे पर मिसेज वाटसन की आत्मा इस रास्ते को डरावना बनाती है।
"चुड़ैल पेड़ पर से ढेला मारती है।" ऐसा इस गाँव का हर बच्चा कह सकता है।
चुड़ैल पेड़ पर से दिन में ढेला मारती हो या नहीं मारती हो लेकिन लोगों ने रात के घुप्प अंधेरे में किसी स्त्री के रोने की दारुण आवाज ज़रूर सुनी है। एकदम दर्दनाक आवाज़ आम के झुरमुटों को चीर कर बाहर निकलती हुई। आवाज़ ऐसी कि दिल बैठ जाए। औरत के जार-जार आंसू मिसेज वाटसन की आत्मा कि याद दिलाती है।
त्रिलोचन बाबू इस गाँव के सबसे सम्मानित और इज्ज़तदार व्यक्ति थे और जहाँ तक लोगों को याद है त्रिलोचन बाबू ने इसमें तेजी से बढ़ोत्तरी ही की थी। उन्हांेने जिस चीज को छुआ सोना बन गया। गाँव का कोई भी फैसला उनकी मर्जी के बगैर नहीं होता था। गाँव का कोई लफड़ा-झगड़ा या फिर शादी-ब्याह में उनकी मर्जी की अहमियत होती थी। लेकिन त्रिलोचन बाबू ने कभी अपनी इस इज्ज़त, इस सम्मान का बेजा फायदा नहीं उठाया। उन्हें अपने इस गाँव से प्रेम था और उन्होंने इस गाँव के लिए बहुत कुछ किया भी। गाँव में सड़कों का निर्माण, प्राथमिक विद्यालय का खुलना और सबसे बड़ा नदी पर बाँध का बंधना त्रिलोचन बाबू के प्रयास के बगैर कहाँ संभव था। त्रिलोचन बाबू ने इस गाँव को प्यार दिया और इस गाँव ने उन्हें सम्मान दिया, इज्ज़त दी।
जब भी लोग त्रिलोचन बाबू को कहते कि आपके तो दिल में यह गाँव बसता है तब त्रिलोचन बाबू भावुक हो जाते। "यह भी कोई कहने की बात है। अरे इ गाँव में हैये है कुछ ऐसी बात कि लोग प्यार करने लगंे। जब उ अंग्रेजन लोग को इ गाँव से प्यार हो गया तो हम तो इसी की कोख से निकले हैं।"
लोग उनके बढ़ते हुए धन और आम के बगीचे में रहनेवाली मिसेज वाटसन की आत्मा को आपस में जोड़ कर देखते हैं। इस गाँव के लोग कहते अगर किसी की आत्मा किसी घर पर छूट जाये तब वह या तो धारती है या फिर विनाश करती है। अगर किसी घर पर यह आत्मा धार जाए तो फिर सब कुशल ही कुशल। घर का मालिक मिट्टी को भी छू दे तो सोना। आप जो चाहेेगें वह आत्मा उसे पूरा करने में जुट जायेगी।
चूंकि मि। वाटसन की दी हुई हवेली का त्रिलोचन सिंह ने और उनके पिता ने बहुत ध्यान रखा था और खासकर उन्होंने मिसेज वाटसन के आम के बगीचे को सही तरह से सहेज कर रखा था इसलिए लोग कहते उस आत्मा ने ही इस घर को और उन्नति दे दी है। चूंकि मिसेज वाटसन की आत्मा इस आम के बगीचे में रहती है और आम का बगीचा अब भी जस का तस फल-फूल रहा है इसलिए मिसेज वाटसन की आत्मा इस परिवार पर मेहरबान है और फिर जब आत्मा ही मेहरबान है तब इस परिवार को कोई दुख-तकलीफ छू भी नहीं सकती है।
त्रिलोचन सिंह की बढ़ती अमीरी को लेकर गाँव में चाहे जितनी तरह की बातें हों लेकिन इस बात से सभी सहमत हैं कि आखिर उनके पास अकूत सम्पत्ति थी इसलिए वे इसे और अधिक बढ़ा सके। त्रिलोचन सिंह को अपने जीवन में पुश्तैनी बहुत कुछ मिला। पुश्तैनी सम्पत्ति मिली, पुश्तैनी सम्मान, इज्ज़त सब विरासत में ही मिली। यह दस बीघे में बनी शानदार कोठी भी पुश्तैनी ही कह लीजिए। अगर उनके पिता इतने बड़े जमींदार नहीं होते तो क्या मि। वाटसन उनको वह कोठी बेचकर जाते। वह भी औने-पौने दाम में। आज गाँव का एक-एक सदस्य अगर उन्हें त्रिलोचन बाबू या मालिक कह कर पुकारता है तो यह उस पुश्तैनी सम्पत्ति और पुश्तैनी दबदबे का ही असर है। लेकिन त्रिलोचन बाबू को पुश्तैनी मिली इन अच्छाइयों के अतिरिक्त भी कुछ मिला।
त्रिलोचन सिंह अपने खानदान के वह पांचवी पुश्त थे जिन्हें दो बेटे पैदा हो रहे थे। पिछली पांच पुश्तों से उनके खानदान में कोई बेटी पैदा नहीं हुई। इस कोठी के लोग लक्ष्मी के पांव के लिए तरस गए थे।
लेकिन उस कोठी के लिए यह उतना बड़ा मुद्दा नहीं था। बड़ा मुद्दा तो यह था कि पिछली पांच पुश्तों से उस घर में सिर्फ़ एक बेटे को ही संतान पैदा हो रही थी। वह भी सिर्फ़ बेटा। क्रम यूं समझ लीजिए कि पिछली पांच पुश्तों से इस कोठी में हर छोटे बेटे को दो बेटे होते आ रहे हैं। फिर उन दो बेटों में छोटे वाले बेटे को दो बेटे। बड़ा बेटा निःसंतान और यह क्रम अनवरत है।
यह बिहार के जिस इलाके की कहानी है वहाँ माना जाता है कि परिवार में कोई भी रूढ़ि एक बार शुरू होने पर तीन पुश्त चलती है। कम से कम। अगर उस खास रूढ़ि ने तीन पुश्त को भी लांघ लिया तो फिर तीन पुश्त और।
त्रिलोचन बाबू के खानदान में जब इस रूढ़ि ने तीन पुश्त को पूरा कर लिया तब लगा जैसे इस कलंक से घर को मुक्ति मिल गयी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जब चैथी पुश्त के बड़े बेटे भी निःसंतान ही रह गये तब इस घर के साथ गाँव के लोगों ने भी आह भरी कि अब तो फिर इसे छठी पुश्त से पहले रोकना संभव ही नहीं है। यह ग्रहण काले साये की तरह इस घर पर था।
जब राम पोद्दार सिंह के दो बेटों-सत्यव्रत सिंह और त्रिलोचन सिंह में सिर्फ़ त्रिलोचन सिंह को ही संतान पैदा हुई और सत्यव्रत सिंह निःसंतान रह गये तब किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। यह तो होना ही था। यह तो विधि का विधान था।
राम पोद्दार सिंह की पत्नी और सत्यव्रत सिंह की माँ इस सत्य को बचपन से ही जानती थीं इसलिए अपने बच्चे को गले लगाकर खूब आंसू बहाती थी। छाती पीटती थी और कहती थी
"तोर करमे फूटल हौ रे बेटा।"
निःसंतान बेटों की धीरे-धीरे घर और समाज में इज्जत कम होती रही और अपने आप ही छोटे बेटों के पास मालिकाना अधिकार आते रहे।
यही कारण है कि अपने पिता राम पोद्दार सिंह के निधन के बाद त्रिलोचन सिंह को उनकी जमींदारी की जिम्मेदारी अपने आप ही मिल गई। त्रिलोचन सिंह जमींदार कहलाये और सत्यव्रत सिंह उस जमींदारी पर सिर्फ़ पलते रहे। एक यह भी बड़ा कारण था उस घर में सम्पत्ति के अकूत रूप से बढ़ते चले जाने का। इस घर वालों को जहाँ तक याद है और जहाँ तक ये जानते हैं इस घर में आजतक कभी बंटवारा नहीं हुआ या यूं कहा जाए कि कभी इसकी नौबत ही नहीं आयी। सारी सम्पत्ति इकट्ठी रही।
चूंकि बड़े बेटे को संतान नहीं होती थी इसलिए उसका लोभ-लाभ कुछ रह नहीं जाता था। सारी सम्पत्ति को देखने वाला सिर्फ़ बचता था छोटा बेटा जिसकी संतान से यह घर किलकारियांे से गूंजता था। बड़ा बेटा बस अपनी पत्नी के साथ इस घर के कोने में पड़ा रह कर भौतिक सुखों का आनन्द लेता था। यह कहानी जब की है तब त्रिलोचन सिंह के बड़े भाई इसी कोठी में अपनी पत्नी के साथ रहते थे।
त्रिलोचन सिंह का प्रताप उनकी चल-अचल सम्पत्ति ने तो बढ़ाया ही लेकिन उनके प्रताप को सबसे अधिक बढ़ाया दो बेटों के जन्म ने। बेटों के जन्म ने उस कोठी को किलकारियों से गंुजा दिया। दो बेटे-निरंजन सिंह और रघुवर सिंह। त्रिलोचन बाबू दो बेटोें को अपने जीवन में पाकर बहुत खुश थे। दोनों बच्चों में तीन साल का अंतराल था और दोनों बच्चों के बचपने को जीते हुए लगभग दस वर्षों तक त्रिलोचन सिंह इस कोठी में बच्चे के साथ बच्चा बनकर घूमते रहे। दोनों बच्चों के लिए ही इस कोठी में पहली बार हाथी लाया गया था। हाथी के साथ एक महावत था और हाथी बहुत ऊंचा था। दोनों बच्चों को उस पर बैठाने के लिए त्रिलोचन बाबू महावत को सीधे नहीं बल्कि हाथी को आदेश देते थे।
"हाथी बैठ जाओ, हमारे राजकुमार सवारी करेंगे।" और सचमुच हाथी त्रिलोचन सिंह के सामने घुटने टेक देता था। उस कोठी के अहाते में ही इतनी जगह थी कि हाथी पूरा घूम कर आ जाता था और दोनों बच्चे की सैर पूरी हो जाती थी।
त्रिलोचन सिंह बहुत खुश थे लेकिन उनकी पत्नी के मन में आशंकाओं के बादल घुमड़ते थे। जब निरंजन सिंह का जन्म हुआ तब से ही उसकी माँ के मन में आशंकाएँ थीं और जब रघुवीर का जन्म हुआ तब माँ खुश तो बहुत हुई लेकिन कहीं न कहीं मन के भीतर डर का हल्का कंपन बैठ गया था। सब ठीक वैसा ही चल रहा था जैसा वह नहीं चाह रही थी।
शुरू के तीन साल जब निरंजन अकेला था तब तक तो नहीं पता चला लेकिन रघुवीर के जन्म के साथ ही माँ का प्यार और सावधानी बड़े बेटे निरंजन के लिए बढ़ती गयी थी। उस बड़ी-सी हवेली में निरंजन के पीछे साये की तरह उसकी माँ होती थी। कई बार त्रिलोचन सिंह अपनी पत्नी पर चिढ़ जाते थे।
"क्या उसको मौगा बनाओगे जी! अरे जमींदार का बेटा है कौनो हलवाहा का थोड़े ही न है।"
माँ निरंजन के खाने पीने का खूब ध्यान रखती थी। दूध, मक्खन, छाली खाकर निरंजन की सेहत बनती गई थी। निरंजन के जन्म के साथ ही माँ के मन में एक आंशंका थी। माँ दूध, मक्खन खिलाती थी और ईश्वर से दुआ करती थी।
"हे भोला बाबा इ बार कुछ उलट पुलट कर दो। इ बौआ क कौन कसूर है। ऐकरा भीतर शक्ति दे दो बाबा।"
निरंजन की माँ सिर्फ़ निरंजन की उस शक्ति के लिए भोला बाबा के लिंग पर दूध चढ़ाती रही। कहते हैं दूध से लिंग की शक्ति मजबूत होती है।
लेकिन इसके ठीक उलट त्रिलोचन सिंह का प्यार छोटे बेटे रघुवीर के साथ बढ़ता रहा था। ऐसा तो नहीं है कि वे अपने बड़े बेटे को प्यार नहीं करते थे लेकिन उनके मन के भीतर कहीं न कहीं यह ज़रूर था कि इस वंश को चलाने वाला बड़ा नहीं बल्कि छोटा बेटा है। उनकी नज़र छोटे बेटे और उसके रख रखाव पर होती थी।
दोनों बच्चों को कुछ मालूम नहीं था इसलिए वे समझ नहीं पाते थे कि माता-पिता में कौन किसको ज़्यादा प्यार करते हैं और क्यों? लेकिन जब निरंजन धीरे-धीरे बड़ा होने लगा और उसकी समझदारी बढ़ने लगी तब उसे यह महसूस होने लगा कि पिता का प्यार उसको कम मिल रहा है।
उस दिन ढ़ेर सारे बच्चे राजा-प्रजा खेल रहे थे तब दोनों भाइयों के बीच झगड़ा हुआ इसके लिए कि राजा कौन बनेगा?
"बाबू हमको मानवे नहीं करते हैं। उ बस रघुवरवा को मानते हैं। बड़ा हम हैं। राजा हमको बनना था लेकिन बाबू ने कहा राजा तो रघुवरे बनेगा।" निरंजन जब अपनी माँ से शिकायत कर रहा था तब उसकी माँ सब बूझ रही थी।
"देखना बौआ एक दिन भोला बाबा सब ठीक कर देंगे।" जब माँ ने उसे अपने सीने से चिपटाते हुए ऐसा कहा तो वह समझ नहीं पाया कि बाबू के प्यार नहीं करने को भला भोला बाबा कैसे ठीक करेंगे और क्या महज उसे राजा बनवाने के लिए भोला बाबा उनके पास ओयेंगे।
वास्तव में दोनों बच्चों के बीच विभेदीकरण की यह शुरुआत थी।
निरंजन अपने पिता को बाबू कहता था और रघुवर अपने पिता को पप्पा कहता था।
दोनों बच्चे जब स्कूल जाने लगे तो उनका अनुभव कुछ नया अनुभव था। दोनों भाइयों में उम्र का फर्क तो तीन साल का था लेकिन स्कूल तक पहुँचते-पहुचते यह फर्क महज एक साल का रह गया। बाबू निरंजन सिंह एक वर्ष देर से विद्यालय में दाखिल हुए और बाबू रघुवर सिंह बड़े भाई की छत्रछाया में एक साल पहले ही विद्यालय चले आये।
दोनों बच्चों की स्कूल में कुछ खास अहमियत थी। उन्हें स्कूल छोड़ने और ले जाने नौकर साथ में आता था। वे स्कूल में प्रार्थना के बाद आते थे और क्लास में हमेशा उनका स्थान नियत होता था। स्कूल के मास्टर को उन्हें डंाटने का अधिकार नहीं था। स्कूल में कभी उनसे सफाई करने, सब्जी लगाने के लिए नहीं कहा जा सकता था।
लेकिन बाबू निरंजन सिंह के लिए सब कुछ इतना सामान्य नहीं था। निरंजन कक्षा में भले ही रघुवर से एक वर्ष ही बड़ा हो लेकिन उम्र में तीन साल बड़े होने के कारण पहली बार उसे उस स्कूल में अपने सहपाठियों से यह पता चला कि वह जिस कोठी में रहता है वह तो एक भुतहा कोठी है। सहपाठी उत्सुकता से पूछते कि रात में उस आम के बगीचे से आने वाली रोने की आवाज़ से क्या उसे डर नहीं लगता है। पहली बार निरंजन सिंह अपनी कोठी से उठने वाली रोने की आवाज के रहस्य के बारे में जान रहे थे।
उस रात घोर अंधेरी रात में उसे अपने बिस्तर पर नींद नहीं आयी जबकि उसके ठीक बगल में आठ वर्ष का रघुवर चैन की नींद सो रहा था। फिर उस घुप्प अंधेरी रात में पता नहीं किस वक्त लेकिन सचमुच एक रुदन उसने सुना था। एकदम गहरा रुदन। ऐसे जैसे कोई अपने घोर विपद को बस आज निकाल देना चाहता हो। आम के बगीचे के ठीक बीचों-बीच से उठने वाली एक दर्दनाक आवाज़। एक औरत की आवाज़। निरंजन के डरने की वह हद थी। उसने उस डर में रघुवीर को कसकर पकड़ लिया। कांपते हुए निरंजन का चेहरा तब एकदम जर्द पड़ गया था।
निरंजन एक नहीं कई दिनों तक डरा। वही रुदन, वही दर्द, वही गहराई और फिर अपने इस डर के साथ वह अपनी माँ के सामने उपस्थित हुआ।
"आम के बगीचा में चुड़ैल है। लगता है चुड़ैल क बच्चा खो गया है। उ जोर-जोर से कानती (रोती) है। कोनो दिन हमरा या रघुवरवा मेें से कौनो क उठा ले जायेगी। हमरा बहुतै डर लगता हैै।" तब निरंजन बहुत डरा हुआ था। उसके चेहरे पर उस रहस्य का डर था।
निरंजन तब मुश्किल से ग्यारह वर्ष का रहा होगा। वह बहुत बड़ा नहीं था कि सब बातों को समझ जाए लेकिन उसे यह जानकर अजीब लगा कि उसकी माँ ने इस इतनी बड़ी बात को जानकर भी बहुत आश्चर्य व्यक्त नहीं किया। ऐसा लगा जैसे उसे सब पता हो।
"बौआ तू डर मत कुछौ नांय होतै। चुडै़ल वगैरह कुछ नांय है। तू तो बाबू क बहादूर बेटा है न। तू जल्दी सो जाया कर। भोला बाबा सब ठीक कर देगें।" एक बार फिर निरंजन को यह समझ नहीं आया था कि चुड़ैल को भोला बाबा कैसे भगा देेगें।
"तू नहीं समझेगा बेटा औरत का दर्द। इ हवेली को नहीं समझेगा बेटा।" माँ ने इसे बहुत धीरे से लेकिन एकदम गहराई में उतर कर बोला ऐसे जैसे वह निरंजन के कानों तक नहीं पहुँच सके।
यह रुदन वाला रहस्य निरंजन के लिए बड़ा ही होता गया और वह इस रहस्य के साथ ही बड़ा होता रहा। उसे हर दिन रात के होने से डर लगता था और रात को वह अपने आप को अपने में समेट कर सोता था। लेकिन निरंजन सिंह बड़े थे और उन्होंने धीरे-धीरे बड़े होते अपने छोटे भाई के साथ कभी इस डर को सांझा नहीं किया।
निरंजन सिंह यह जान चुके थे कि रोने की वह गहरी आवाज़ उस अंग्रेज मेम की थी। परन्तु वे यह समझ नहीं पाते थे कि जब वह अंग्रेज मेम इतने दिन पहले चली गई और लोगों ने उसे जाते देखा भी तब वह यहाँ कैसे है। वे सोचते थे कि वह अंग्रेज मेम क्या यहाँ अपने विदेशी कपड़ों में होती होगी।
यह सच ज़रूर है कि निरंजन इस भय से कभी मुक्त नहीं हो पाये। चुड़ैल अगर कभी निरंजन सिंह को अपना बच्चा मान उठाकर नहीं ले गयी तो वे जानते हंै कि इसके पीछे उनकी माँ और माँ के भोला बाबा हैं।
लेकिन ज्यांे-ज्यों निरंजन सिंह बड़े होते गये स्कूल में छोटे भाई के सामने उनकी पूछ कम होती चली गई। निरंजन सिंह गाँव के सबसे बड़े जमींदार के बेटे थे इसलिए उनकी पूछ खैर कितनी कम होती लेकिन दोनों भाइयों में फर्क दिखने लगा था। यह कोई सोच-समझ कर-कर रहा था या नहीं, नहीं पता लेकिन यह उस गाँव की फिज़ाओं में था कि उस कोठी के बड़े बेटे के साथ ऐसा ही बर्ताव होता रहा है। निरंजन सिंह का रुतबा कम होता गया और निरंजन ंिसंह दबते चले गये।
स्कूल का ही वह एक कठोर दिन था जब बड़े होते निरंजन सिंह को दबे स्वर में ही सही ज़िन्दगी के सबसे कड़वे अनुभव से गुजरना पड़ा।
तब निरंजन के स्कूल का आखिरी साल था। यानी दसवीं कक्षा। पंद्रह वर्ष के निरंजन सिंह को जब साथ फुटबाॅल नहीं खेलने पर उसके सहपाठी में से ही किसी उदंड सहपाठी ने यह कह दिया कि "तेरे उसमें दम ही नहीं है त तू खेलेगा क्या जी। तू तो बस उससे बोरिंग चला बोरिंग। पानी की धार।"
तब निरंजन एकदम बच्चे भी नहीं रह गये थे। उन्होंने इस पर बहुत सोचा और फिर वह धीरे-धीरे अपने घर के इतिहास तक पंहुच गये। उन्हें अपनी घर की परम्परा से धीरे-धीरे सब समझ में आने लगा।
कोई और मुद्दा होता और उस पर लड़कों ने निरंजन सिंह के साथ बदतमीजी की होती तो सम्भव है वे इसकी शिकायत करते और इसका कोई ठोस हल निकालने की कोशिश करते। लेकिन निरंजन सिंह जान गये थे कि यह दर्द एक ऐसा दर्द है जिसके बारे में किसी से कहना संभव नहीं है। वे यह भी जान गये थे कि उन्हें अब पूरे जीवन इस दर्द के साथ ही रहना है।
निरंजन सिंह जब धीरे-धीरे व्यस्क होते चले गए और उनके अंदर मर्द होने के कुछ खास अहसास होने लगे तब उनके मन में हर बार यह प्रश्न उठता रहा कि क्या वह वाकई अपूर्ण हैं। वे अपनी अपूर्णता को ढ़ूंढ़ना चाहते थे, उससे रूबरू होना चाहते थे। इस भरे पूरे घर में आखिर वह कौन-सी जगह है जहाँ उनके घर की परम्परा चुक जा रही है। उन्होंने कई बार बन्द कमरे में अपने को आजमाना चाहा और उन्हें हर बार सब प्राकृतिक लगता रहा। वही सब, बर्फ की सिल्ली की सख्ती और फिर उसका पिघलकर बूंद-बूंद कर टपक जाना।
लेकिन निरंजन सिंह आश्वस्त नहीं होते थे। उनके मन के डर को खत्म करने के लिए यह आजमाइश काफी नहीं थी। उनके सामने उनके घर की परम्परा एक इतनी बड़ी दीवार बन कर खड़ी थी कि वे लाख चाहने के बाद भी उनकी आश्वस्ति का सवाल ही नहीं उठता था। उन्हें हर बार लगता कुछ ऐसा है जो उनकी पकड़ से छूट रहा है। कुछ ऐसा है जो उनके वश में नहीं है। उन्हें बचपन में माँ द्वारा भोला बाबा से मांगी गई दुआ बार-बार याद आती थी "भोला बाबा इ बार कुछ उलट-पुलट कर दो। ऐकरा भीतर कुछ शक्ति भर दो बाबा।"
निरंजन ंिसंह के भीतर बैठे इसी डर ने उनके भीतर से मर्द होने के अहसास को डांवाडोल कर दिया और फिर निरंजन सिंह व्यस्क तो होते गए लेकिन उसी रफ्तार से उनके मन के भीतर का विश्वास हारता चला गया।
धीरे-धीरे निरंजन सिंह की पढ़ाई तो खत्म हुई ही उनके मालिक बने रहने का अहसास भी क्षीण होता चला गया।
यही सात-आठ वर्षों का वह संक्रमण का समय था जब निरंजन सिंह आहिस्ते-आहिस्ते सिमटते चले गए और रघुवर सिंह ने अपने पिता के कामों में हाथ बंटाना शुरू कर दिया।
वैसे त्रिलोचन बाबू अभी एकदम बूढ़े तो नहीं हो गये थे। लेकिन अगर बेटा काबिल हो तो पिता जल्दी ही अपनी जिम्मेदारियांे को छोड़ने लगता है। त्रिलोचन बाबू के बाल सफेद तो हुए थे लेकिन उनकी हड्डियाँ अभी कमजोर नहीं पड़ीं थीं। सब अनायास ही होता चला गया। बड़े होते अपने छोटे बेटे रघुवर सिंह को त्रिलोचन बाबू ने जिम्मेदारी के लायक समझा और फिर रघुवर ने आगे बढ़कर उन कामों में अपना हाथ बंटाना शुरू कर दिया।
रघुवर सिंह महत्त्वाकांक्षी थे और उनकी उड़ान बहुत ऊंची थी। उनकी ऊंची उड़ान ने मोटर साइकिल से लेकर उन्हें टाटा सूमो और टाटा सफारी तक की सवारी करवाई। वे बहुत तेज दौड़ना चाहते थे और इसके लिए उनके पास बहुत सारी योजनाएँ भी थीं। सिनेमा हाॅल से लेकर पेट्रोल पम्प तक के धंधे में हाथ आजमा कर वे अपनी रफ्तार को बनाये रखना चाहते थे। पिता थोड़ा धीमे चलने को कहते तो रघुवीर सिंह उन्हें ढांढ़स बंधाते "आप तो बस अब राम नाम जपिये औरो मजा लीजिए।"
त्रिलोचन बाबू बेटे की इस रफ्तार से थोड़ा बहुत डरते तो थे लेकिन उनके दिल के भीतरी कोने में कहीं न कहीं थोड़ी सकून भी मिलता था कि वे ऐसा ही बेटा तो चाहते थे। एकदम शेर। जमींदार का बेटा तो जमींदार ही बनना चाहिए भाई। त्रिलोचन बाबू अपनी जवानी को याद करते और बेटे को देखकर रोमांचित होते थे। लेकिन यह सब एकाएक नहीं हो गया। इसमें वक्त लगा।
इस बीच निरंजन सिंह अपनी कोठी में सिमटते चले गए। यहाँ वहाँ उस गाँव में थोड़ा-बहुत घूमना और फिर अखबार में घुसे रहना, यही उनकी दिनचर्या बनती गयी। निरंजन सिंह दो-दो अखबार मंगाते थे और दिन भर में दोनों अखबारों को चाट जाते थे।
निरंजन सिंह की शादी में त्रिलोचन बाबू की कोई खास रुचि नहीं थी। क्योंकि वे जानते थे कि उनके खानदान का वारिस तो छोटे बेटे के पास है। लेकिन चूंकि वह जमींदार खानदान था और बड़े बेटे की शादी के बिना छोटे की शादी करना अशुभ माना जाता इसलिए उन्होंने निरंजन की शादी तय की।
यह किसी के लिए कोई छुपी हुई बात नहीं थी कि इस घर पर कौन-सा प्रकोप है और यह भी कि यह छठी पुश्त है। लेकिन इस सब के बावजूद त्रिलोचन बाबू के लिए निरंजन सिंह के लिए लड़की ढ़ूढ़ लेना कोई मुश्किल काम नहीं था।
"अरे सब खेत सुदभरना लगा हुआ था सबको छुड़वा दिए हैं। अब घर में खोटा सिक्का है तो इ सब तो करना ही पड़ेगा न। न त ओकरा औकात था जी हमसे नाता जोड़ने का।" जब अंदर वाले कमरे में बैठ कर त्रिलोचन सिंह ने ऐसा अपनी पत्नी को सुनाया था तब पत्नी का कलेजा छलनी हो गया था। यह 'खोटा सिक्का' शब्द ऐसा लगा जैसे उनकी पत्नी के कलेजे के आर-पार हो गया। त्रिलोचन सिंह ने देखा नहीं लेकिन उनकी पत्नी ने अपनी साड़ी की कोर से अपनी आंखों के धुंधलेपन को खत्म किया। पत्नी ने अपनी आँख उठा कर अपने पति की ओर देखा। उसके पति जहाँ बैठे थे उसी के ठीक पीछे वाले कोने में खानदानी तलवार भी टंगी हुई थी।
शादी तो तय हो गयी थी लेकिन सच यह है कि निरंजन सिंह का मन काफी डरा हुआ था। आम के बगीचे से निकलने वाली औरत की चीत्कार, मिसेज वाटसन की कराह से निरंजन सिंह के मन के भीतर बचपन में उत्पन्न हुआ डर अब बहुत आगे निकल आया था।
"हमको शादी नहीं करनी है। हम ऐसे ही ठीक हैं।" निरंजन सिंह अपने दर्द को सिर्फ़ अपनी माँ से कह सकते थे। उनके मन में तब वही बर्फ की सिल्ली की सख्ती और बूंद-बूंद कर टपकना था। वे जिस बात को लेकर सबसे अधिक डरे हुए थे उसको वह अपनी माँ को जस-का-तस तो नहीं बता सकते थे लेकिन उन्हांेने अपने भीतर बसे हुए डर को अपनी माँ को दिखाया अवश्य था।
निरंजन ंिसंह की माँ जानती थी इस डर के पीछे का कारण। निरंजन की माँ को लगा कि उसका छोटा-सा निरंजन उसके सामने खड़ा है। एकदम बच्चा। मासूम बच्चा। उन्हें लगा ईश्वर क्या कुछ नहीं दिखायेगा।
"बौआ ऐसन नहीं कहते। सब भगवान पर छोड़ द। सब कुछ क पीछे भगवान है। उ ज़रूर तोरो लिए कुछ सोचे होंगे।" उनकी माँ की आंखों में आंसू थे जिसे वे दिखाना नहीं चााहती थीं। लेकिन उनके मन में फिर एक बार भोला बाबा से वही दुआ थी कि "इ बार कुछ उलटा-पुलटा कर दो। इ बौआ क शक्ति दे दो बाबा।" यह पहली बार था जब निरंजन सिंह की माँ इस दुआ को अपने मन में मांग रही थीं लेकिन निरंजन जान रहे थे कि माँ के मन में ठीक इस वक्त क्या है।
लेकिन निरंजन जानते थे कोई उलट-पुलट नहीं होने वाला है। उलट-पुलट ऐसे थोड़े ही न हो जाता है। यह तो परम्परा कि देन है। इस नियति से बचना असंभव है।
निरंजन सिंह की शादी में त्रिलोचन बाबू ने अपनी इज्ज़त बचाने के लिए खर्च तो बहुत किया लेकिन वे बार-बार कहते थे कि "अरे इ त एक झलक है जी असली शादी की रौनक तो हम अपने राजा कि शादी में लगायेंगे।"
त्रिलोचन बाबू अक्सर ऐसी बातें कहते थे। वैसे वे सामान्यतया कोशिश करते थे कि निरंजन उस वक्त वहाँ नहीं हो लेकिन न चाहते हुए भी ऐसी बातों को कई बार उन्होंने सुन ही लिया था। वे इसे सुनकर उदास होते थे और बस उदास।
निरंजन सिंह की शादी में रघुवीर ंिसंह ने कई राउन्ड फायर किए थे। उस रिवाल्वर के छूटने की आवाज़ से निरंजन सिंह के दिल में एक घबराहट होने लगती थी जिसे वे किसी से कह नहीं सकते थे।
निरंजन सिंह की शादी चाहे जितनी भी बेमन से की गई हो लेकिन इस शादी ने उन्हें बहुत कुछ दिया। निरंजन की पत्नी का नाम अनुराधा था। अनुराधा एक रूपसी थी। वह देखने में बहुत ही सुन्दर थी। उसके नैन नक्श बहुत पतले थे। लेकिन उसके घर की गरीबी ने उसकी सुन्दरता को ढंक रखा था। अनुराधा इस कोठी में रहकर और ऐशो आराम में पलकर निखरने लगी थी।
अनुराधा ने स्नातक कर रखा था और पढ़ाई मेें काफी तेज थी। उसके सपने बड़े थे। उसने जब सुना कि उसकी शादी एक बड़े घर में हो रही है तब उसके अरमानों को पंख लग गए थे। यहाँ वह मालकिन थी और उसके साथ कई नौकर चाकर लगे होते थे। वह दाय को कहती थी कि "आज तो माथा भारी लग रहा है।" तो तुरन्त ही दाय नारियल तेल लेकर उसके सर को दबाने बैठ जाती थी। उसे अच्छा लगता था। इसलिए कई बार वह जानबूझकर ऐसा करती थी।
उस कोठी में एक नौकर था जिसका नाम था विलायती। उसका असली नाम बचपन में ज़रूर कुछ और रहा होगा। लेकिन उसके विलायती नाम रखे जाने के पीछे का कारण बहुत साफ था। वह जिस घर में पैदा हुआ था वहाँ इतने गोरे बच्चे की संभावना से सब इंकार करते थे। विलायती काफी गोरा था और इसी गोरेपन के कारण ही उसे बचपन से विलायती कहा गया। वह इस कोठी में तब से था जब वह काफी छोटा था। इस कोठी की बहू अनुराधा उसे टहटही दोपहरी में कहती "विलायती जाओ गन्ने के खेत से ताजा गन्ना ले आओ।" और विलायती बिना कुछ सोचे समझे उस चिलचिलाती दोपहर में खेत की तरफ दौड़ जाता था। विलायती गबरू जवान था और उसका बदन एकदम गठीला था।
अनुराधा को इस कोठी में जितने भी सुख मिले उसमें सबसे बड़ा सुख यह था कि उसका पति उससे बहुत प्रेम करता था। निरंजन सिंह शादी को लेकर जितने डरे हुए थे, अनुराधा जैसी पत्नी ने मिलकर लगभग उस डर को भुला दिया था। निरंजन सिंह को कैसी पत्नी चाहिए थी उन्होंने कभी इस पर रुककर सोचा तो नहीं था लेकिन अनुराधा एक समझदार लड़की थी ऐसा उसे अवश्य लगता था। दोनों एक-दूसरे को पसंद करते थे और सुख से उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत की थी।
शादी से दोनों खुश थे, इसे देखकर निरंजन सिंह की माँ को काफी राहत मिली थी। माँ निरंजन को लेकर काफी दुखी रहतीं थीं। उनकी ज़िन्दगी में अनुराधा एक परी की तरह आयी थी जिसने उसके कलेजे के टुकड़े के दुख को हर लिया था। लेकिन माँ आने वाले दुख को भूल नहीं पाती थी। वह जानती थी कुछ बदलने वाला नहीं है। हाँ अपने उपेक्षित हो रहे बेटे को थोड़ा-बहुत खुश देखकर उन्हें बहुत सकून मिलता था।
निरंजन शादी को लेकर जितना डरे हुए थे वह डर अनुराधा के साथ रहकर धीरे-धीरे निकलने लगा था। निरंजन सिंह बंद कमरे में अपनी पत्नी को अपनी बांहों में भरकर कहते थे "आपको मालूम नहीं आपने हमारी ज़िन्दगी को कैसा रंगीन बना दिया है।"
अनुराधा इन प्यार भरी बातों को सुनकर मचलती थी और कहती थी "आप तो बस झूठ्ठे बोलते हैं। आप तो हैइए हैं झुठठा। आपके मन में अगर हम बसते हैं त हमको एगो तारा तोड़कर ला दीजिए।" अनुराधा मचलती थी और निरंजन सिंह का दिल बाग-बाग हो जाता था।
अभी शादी के कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन निरंजन ंिसंह ने घुप्प अंधेरे में अनुराधा के कान में कह दिया "हमको आपसे प्रेम हो गया है। हमरा ज़िन्दगी से कभी जाइयेगा नहीं।"
इस बड़ी हवेली में अनुराधा के पांव को जैसे पंख लग गए थे। वह दिन भर यहां-वहाँ बस उड़ती रहती थी। उसने पूरी कोठी का चक्कर लगाया और महसूस किया कि इसके बड़े-बड़े दरवाजे बड़े ही रहस्यमय हैं। अनुराधा ने इस कोठी में रहने वाली मेम के बारे में इसके इतर सब जान लिया था कि वह तो यहाँ से चली गईं लेकिन उनकी आत्मा यहाँ रह गई है। अनुराधा इस बड़ी-सी कोठी में यहाँ वहाँ फुदक कर यह अंदाज लगाने की कोशिश करती कि वह गोरी मेम आखिर कहाँ शृंगार करती होेगी और अपने पति के साथ इस कोठी के किस हिस्से में प्रेम करती होगी। आम के बगीचे में जब वह यहाँ वहाँ दौड़ रही थी तब उसे कुछ मालूम नहीं था लेकिन निरंजन सिंह के हाथ-पांव फूल रहे थे। अनुराधा न तो उस बगीचे के इतिहास को तब बढ़िया से जानती थी और न ही उससे उठने वाली दारुण आवाज को। अनुराधा ने उस गिरे हुए अस्तबल को भी देखा था जो इस कोठी के पिछले हस्से में थोड़ी दूर हटकर था।
जब अनुराधा इस कोठी में यहाँ वहाँ फुदकती रहती थी तब निरंजन सिंह की माँ को बहुत अच्छा लगता था। वह अनुराधा को अपनी बेटी की तरह प्यार करती थी। लेकिन उनके मन के भीतर एक डर बैठा हुआ था। वह यह जानती थी कि जिस दिन अनुराधा को इस सच का पता चलेगा, उसका सारा बचपना खत्म हो जायेगा। लेकिन अनुराधा को उस गिरे हुए अस्तबल से सबसे अधिक डर लगता था। उसमें रहने वाले सांप उसको रात को नींद में दिखते थे।
लेकिन निरंजन सिंह की माँ कहती थी "एकदम निडर रहअ। इ सब सांप में से एक भी तोरा कुछ न कहतो।"
"अरे एकरा में कोनो विष थोड़े न है। इ त मौगा है मौगा। जनानी के पीछे-पीछे बस।"
और फिर उनकी स्मृतियाँ तरल होती चली गईं।
"जब तक निरंजन और रघुवीर क दूध लगल रहल इ छिनार हमर पीछे। बाहर घुमना-फिरना इ चक्कर में सभै बन्दे समझो। इधर हमर छाती से दूध टपकना शुरू होए बस उधर एकर छटपटी शुरू। जब निरंजनवा दूध छोड़लकै और हमर छाती सूखल तभी इ हमर पीछा छोड़लक। फिर रघुवरे के टेम में भी इहे सब।" निरंजन सिंह की माँ काफी उत्साहित थीं और उनके चेहरे पर कम से कम तब बहादुरी जैसै भाव ज़रूर थे।
"पांच हाथ क लम्बा सांप इ दरवाजा के पीछे घात लगाए बैठा था। उ त हमरा साथ हमेशा दीदी रहती थी नहीं त इ त हमरा छान क सब दूधे सोख लेता और दूध के बाद खून। जान थोड़े न बचता।"
"दीदी त मजे-मजे में पूरा बगीचा घूमत रहथिन। उनका कौन स डर और एक हम, कम से कम पांच साल तक इ सांप स बचे क जुगाड़ में यहाँ वहाँ बचते फिरलियै।"
"तू भी काहे ल डरै है तोहरा डरे क कौनो बात न है।" निरंजन सिंह की माँ ने एकदम से झोकें में यह कह तो दिया लेकिन उन्हें अचानक लगने लगा कि अगर अनुराधा इस बात को समझ लेगी तो इस फूल-सी बच्ची को कितना आघात लगेगा। इसलिए वे एकदम से चुप हो गयीं।
लेकिन सच का छुपना कितने दिनों तक संभव हो पाता। एक दिन सच को तो बाहर आना ही था। धीरे-धीरे अनुराधा ने सारा सच जान लिया। उसने जान लिया कि इस चमकदार कोठी के अंदर किस तरह के श्राप दबे पड़े हैं। लेकिन अल्हड़ अनुराधा को यह कभी इतनी बड़ी बात नहीं लगी जिसके लिए निरंजन सिंह की माँ इतनी अधिक दुखी दिखती थीं। किन्तु अनुराधा तब यह जान नहीं पायी थी कि मिसेज वाटसन अभी भी यहीं हैं इस आम के बगीचे पर। वह अपने इस प्यारे बच्चे को छोड़ कर जा नहीं पायी हैं।
कुछ महीने तक तो अनुराधा को सांपों के उस घर से डर लगता रहा था लेकिन फिर उसे भी लग गया था कि यहाँ सांपों को भी पता था कि उनकी अपनी सीमा क्या है।
लगभग तीन वर्ष गुजरे और वाकई श्राप के अनुसार ही अनुराधा माँ नहीं बन पाई। शादी से निरंजन सिंह के चेहरे पर आया उछाह धीरे-धीरे डर की उसी अतल गइराई में खोता चला गया। जब अनुराधा को इस कड़वे सच का पता चला था तब उसने एक रात अपने बंद कमरे में निरंजन सिंह को बांहों में भरकर कहा था कि "मेरे लिए तो आप ही हैं सब कुछ।" ऐसा कहते हुए अनुराधा के मन में तब दो बातें थीं। एक तो यह कि उसके मन में अभी उम्मीद की किरण बाकी थी। उसे लगा था कि अभी भी सब कुछ दरका नहीं है। क्या पता सब कुछ उलटा-पुलटा ही हो जाए। दूसरी बात जो एक उसके मन के भीतरी कोने में दबी हुई थी वह यह कि अगर निरंजन सिंह को हतोत्साहित कर दिया जाए तो फिर यह बच्चा होने की संभावना को मारने जैसा ही है।
लेकिन निरंजन सिंह को लगा था जैसे वह पत्नी के सामने एकदम नंगा हो गये हैं। जिस दिन से वह डर रहा था आज वह एकदम कठोर रूप में उसके सामने खड़ा था। अनुराधा देख नहीं पायी थी लेकिन उसकी छाती में गड़े हुए निरंजन सिंह के चेहरे पर पसीने की बूंदे छलछला आयी थीं।
ज्यों ज्यों दिन बीतते गए अनुराधा के माँ बनने की संभावना खत्म होती गई। निरंजन ंिसंह धीरे-धीरे अपने आप में सिमटते चले गए। निरंजन ंिसंह की माँ को साफ लगने लगा कि भोला बाबा इ बार भी कुछ उलट-पुलट नहीं किए। लेकिन जब तीन वर्ष के बाद रघुवर सिंह की शादी तय हुई तब सब कुछ उघड़ कर सामने आता चला गया।
बाबू रघुवर सिंह की शादी में त्रिलोचन बाबू काफी उत्साह में थे। उन्होंने उस शादी को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
"अरे उ तो सिर्फ़ झलक दिखाये थे जी? बाबू त्रिलोचन सिंह का असली जलवा तो अबकी दिखेगा। वह शादी तो सिर्फ़ खोटा सिक्का चलाने के लिए था।"
ऐसा त्रिलोचन बाबू अपने उछाह में खुलकर कहते थे और सचमुच वह शादी लोगों को आज भी भुलाये नहीं भूलती है। छोटी गाड़ियों का काफिला और दोनाली बन्दूकांे का जमावड़ा। छोटी चिंगारियों के साथ बन्दूक से धांय-धांय गोलियाँ निकलती थीं और निरंजन सिंह का दिल बैठा जाता था। शादी के दो दिन पहले से ही हवेली को पूरी तरह से रोशनी में नहला दिया गया था। हवेली के कोने-कोने में रोशनी के टुकड़े बिखरे हुए थे। वह आम का बगीचा भी रोशनी में डूबा हुआ था। अकेले निरंजन सिंह के मन में ंयह ख्याल आता था कि क्या आम के बगीचे से आज भी इस झक्क रोशनी के बीच से उस मिसेज वाटसन की आत्मा के रोने की आवाज़ आयेगी। अपने बिस्तर पर सकुचाये पड़े निरंजन सिंह पूरी रात जगे रहे लेकिन उस झक्क रोशनी वाली रात में सिर्फ़ सन्नाटा था और उस सन्नाटा को तोड़ती झींगुर की आवाज सुनाई दी थी।
जब रघुवर सिंह की शादी होकर दुल्हन घर आ गयी तो न चाहते हुए भी अनुराधा के प्रति निरंजन सिंह की माँ का व्यवहार बदलता चला गया।
त्रिलोचन सिंह के लिए तो वैसे भी बाबू रघुवर सिंह की ही महत्ता थी लेकिन निरंजन सिंह की माँ भी रघुवर और उसकी पत्नी की तरफ ढ़लती चली गईं।
शादी के ठीक एक वर्ष बाद रघुवर सिंह ने चली आ रही परम्परा के अनुसार एक बेटे को जन्म दिया। रघुवर की पत्नी का इस घर में आना और उसका अपने समय पर गर्भवती होना अनुराधा कि स्थिति को उस घर में बहुत खराब करता चला गया। रघुवर की पत्नी पहले एक-दो महीने तो नई दुल्हन होने के कारण पलकों पर बैठी रही और उसके बाद वह गर्भवती हो गयी। गर्भवती बहू निरंजन सिंह की माँ की सोच के केन्द्र में न चाहते हुए भी आ गई। रघुवर सिंह की पत्नी जहां-जहाँ डोलती रघुवर सिंह की माँ उसके पीछे होतीं। रघुवर सिंह की पत्नी ने अभी रसोई में हाथ लगाया भी नहीं था कि गर्भवती होने के कारण उसे आराम दे दिया गया। वह पलंग पर लेटी रहती और अनुराधा रसोईघर में महरी के साथ महरी बनी रहती। माँ आकर छोटी बहू के खाने की खास हिदायत दे जातीं और फिर अनुराधा उस रसोई में घंटों चूल्हे में अपनी आँख फोड़ती रहती। रघुवर सिंह की पत्नी का यही वह समय था जब उस मौगा धामन सांप से उसे बचाना था। वह पांच हाथ का मोटा धामन सांप औरत के शरीर से खास इस समय के गंध को कैसे पकड़ता है इसे समझना कठिन था लेकिन उससे इस घर को बचाना ज़रूरी था। रघुवर सिंह की पत्नी के दरवाजे पर वह लिपटा हुआ न हो या फिर वह उसके बिस्तर पर ठीक एक आदमी की तरह लेटा हुआ न हो-इसका खास ध्यान रखा जाता था। वास्तव में वह एक चालाक धामन सांप की प्रजाति थी जो अपनी धूर्तता से अपने शिकार को पकड़ती थी।
ऐसा अक्सर होता था कि रघुवर की पत्नी को अपने बिस्तर से कहीं जाना होता तो रघुवर की माँ अनुराधा को उसके साथ जाने के लिए कहती। माँ को सबसे अधिक विश्वास अनुराधा पर था। किन्तु वह यह भी सोचती थी कि अनुराधा इस मद में सबसे अधिक सुरक्षित है। रघुवर सिंह की पत्नी रोज तुलसी में जल डालने जाती और अनुराधा को एक डंडे के साथ उसके साथ जाना पड़ता। अनुराधा उस ध्वस्त हो चुके अस्तबल से गुजरती तो उसे दिखती मोटे धामन सांप की बेकरार आंखें और लपलपाती हुई जीभ। अनुराधा डंडे को जमीन पर पटकती हुई चलती। डंडे की उस आवाज ने ही उस धामन सांप को अपने शिकार से दूर रख रखा था।
अनुराधा को शुरुआत में एक-दो दिन उस मोटे तगड़े सांप से डर लगता रहा था लेकिन फिर वह समझ गई थी कि इस सांप की उसमें कोई रुचि नहीं थी। उस सांप की लपलपाती जीभ तब उसे मुुंह चिढ़ाती हुई-सी लगती थी। उस बेजुबान सांप से तब अनुराधा को एक प्रतिद्वंद्विता हो गयी थी। वह उसे देखती, उसके बारे में सोचती और गहरी ग्लानि में चली जाती। वह अपनी व्यथा को शुरुआती दिनों में अपने पति से बंद कमरे में सुनाती थी। निरंजन सिंह सुनते थे और चुप रहते थे। अनुराधा को अपने पति से कोई शिकायत नहीं थी। वह जानती थी कि इसमें उनका क्या दोष। लेकिन वह कई बार अपने साथ हो रहे इस भेदभाव से दुखी होती थी और अपनी किस्मत पर खीझती थी।
निरंजन सिंह इन सब बातों के लिए अपने आप को दोषी मानते थे। वे अक्सर अपनी पत्नी को कहते "सब मेरे कारण हो रहा है। मेरी किस्मत ने तुमको भी बर्बाद कर दिया। हम सिर्फ़ इसी डर से शादी से इंकार कर रहे थे। हमको तुम माफ कर दो।" यह कहते हुए निरंजन सिंह के चेहरे पर एक बेचारगी छा जाती थी। उनके गले में आवाज फंस जाती थी। अनुराधा अपने पति के चेहरे को तब अपने दोनों वक्षों के बीच में धांस लेती थी।
अनुराधा तब लाचार और विवश होकर सहवास करते वक्त अपने पति निरंजन सिंह की हर हरकत पर नजर रखने की कोशिश करती। वह अपना पूरा साथ देकर अपने पति के उत्साह को दुगूना करने की प्रयास करती। अनुराधा निरंजन सिंह के शरीर को बहुत देर तक चूमती, बहुत देर तक उससे इंतजार करवाती और तब तक अपने शरीर के साथ उसे खलने देती। वह उसकी बेसब्र धड़कन को सुनना चाहती। अपने हाथ से उसकी उत्तेजना को महसूस करने की कोशिश करती। आखिर कहाँ कमी है, अनुराधा समझ नहीं पाती। अनुराधा को सब सामान्य लगता। लेकिन उसकी ज़िन्दगी सामान्य नहीं थी।
उन दिनों अनुराधा एकदम गुमसुम उस हवेली और मिसेज वाटसन के अकेलेपन के बारे में सोचती थी। उस कोठी के बड़े-बड़े कमरे, बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ, बड़े-बड़े गलियारे उसे परेशान करते थे। वह सोचती थी कि जब मि। वाटसन शिकार पर चले जाते होगें तब मिसेज वाटसन अकेले बिना बच्चे के इस हवेली में अपना वक्त कैसे काटती होगीं। अनुराधा कई बार घंटों अकेले गुमसुम अपनी कोठरी में बैठकर ऊपर छत की ओर निहारती थी। उसे वह छत काफी ऊपर दिखती थी। उस घर में काठ की बनी एक आराम कुर्सी थी। अक्सर अनुराधा उस आरामकुर्सी पर बैठकर उस छत को निहारा करती थी। ऐसा करते हुए उसके मन में हमेशा यह रहता था कि वह इस वक्त ठीक उस तरह लग रही होगी जिस तरह मिसेज वाटसन अपने घोर अकेलेपन के साथ दिखती होंगी। उस आरामकुर्सी पर तब अनुराधा कि दोनों आंखों से अनवरत आंसू झड़ते रहते थे।
अनुराधा उस टूटे हुए अस्तबल के पास कभी अकेले जाती और उन सांपों को झांकने की कोशिश करती। लेकिन वहाँ एक घोर सन्नाटा पसरा हुआ रहता था। बाहर से उस बड़े से अस्तबल में सांप दिखते नहीं थे। न ही वहाँ कोई हलचल ही दिखती थी। परन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं था कि सांपों के उस घर में सांप नहीं थे। सांप वहाँ आराम से लेटे रहते थे। अनुराधा को हमेशा लगता था कि आखिर यह कैसे संभव था कि उन सांपों में से उस मोटे धामन को यह पता चल जाता था कि कौन औरत उसका शिकार हो सकती थी और कौन नहीं। अनुराधा का मन अंदर से कचोटता था। वह सोचती थी कि काश ऐसा होता कि उसके लिए भी वह सांप लालायित होता और वह खुद उससे बचने के लाख जतन करती। वह और उसका पूरा परिवार उस धामन सांप से बचाने के लिए उसे एक सुरक्षित घेरे में रखते।
उन दिनों अक्सर रात में अनुराधा सपना देखती थी और डर कर उठ बैठती थी। वह भाग रही हैै। वह भाग रही है और वह धामन उसका पीछा कर रहा है। उस मोटे और आलसी धामन में पता नहीं तब कहाँ से इतनी फुर्ती आ जाती थी। अनुराधा का भागना सांप की रफ्तार से कम होता और वह धामन की शिकार हो जाती थी। धामन उसे अपने घेरे में लपेट लेता था। वह घेरा एकदम कड़ा था। ऐसा जैसा सारी नसें अभी तड़क जायेंगी और फिर वही सब। अपने दुधमुंहे बच्चे की तरह उस धामन के मुंह में तब अनुराधा के वक्ष का अगला भाग होता। दूध के बाद जब शरीर से रक्त खिंचाने लगता तब अनुराधा कि नींद खुल जाती थी। पसीने की बूंदें उसके ललाट पर चुहचुहा जाती थीं। उसके पैर आपस में गुंथ जाते थे ऐसे जैसे वह धामन के उस फंदे से छूटने के लिए पूरी ताकत लगा रही हो।
अनुराधा अपने इस सपने के बारे में किसी को कह नहीं सकती थी और न ही वह यह कह सकती थी कि कैसे अपने जगने पर वह देखती थी कि उसके इस झूठे सपने में उसका वक्ष कितना कड़ा हो जाता था। अपने ब्लाउज के ऊपर से तब वह अपने वक्ष के ऊपरी नुकीले भाग को महसूस कर सकती थी। एकदम लकड़ी-सा सख्त।
अनुराधा को तब अपने वक्ष में टीस उठती थी लेकिन वह जानती थी कि इस टीस के बावजूद उसका मन बार-बार करता है कि उसे रोज ऐसा सपना आये। इस सपने के साथ उसका यह रोमांच जुड़ा हुआ था कि जैसे उसके वक्ष से उसका अपना बच्चा दूध निचोड़ रहा है। खास वह पल जब उसके वक्ष के ऊपरी भाग को मुंह में लेकर उससे दूध की बूंदें निचोड़ने की कोशिश होती थी। उस खास एक पल में अनुराधा के मन में माँ बनने का सपना पूरा होता-सा दिखता था। तब वह सोचती थी जैसे इस पल का कभी अंत नहीं हो। वह धामन उसका दूध ही नहीं बल्कि इसी रास्ते उसके शरीर से उसका पूरा रक्त ही निचोड़ ले। वह अपने मन में कहती "लोगों ने तो नहीं समझा कम से कम तुम तो मेरा दर्द समझ लेते। मेरे खून का कतरा-कतरा निचोड़ लो। मुझे छोड़ो मत, मत छोड़ो मुझे।"
अपनी बढ़ती उपेक्षा के इन्हीं दिनों में से किसी एक दिन अपने पति निरंजन ंिसंह के साथ अनुराधा उस आम के बगीचे में घूम रही थी।
"तुमको मालूम है मिसेज वाटसन इसी बगीचे को अपना बेटा मानती थी। इसलिए इसे बहुत प्यार करती थी। उन्होंने इसे खुद ही तैयार करवाया था इसे सींचा और पाल-पोस कर बड़ा किया था। वह जब यहाँ से जा रही थीं तब बहुत दुखी थीं और इस बगीचे में घंटों फूट-फूट कर रोयी थीं।" ऐसा बताते हुए निरंजन सिंह अपने मन में यह सोच रहे थे कि आगे की बातें अनुराधा को बतायंे या नहीं।
अनुराधा चुप थी। वह सुन रही थी।
"अपना बच्चा मानती थी।" अनुराधा के मुंह से अचानक निकला।
किन्तु उस दिन में कुछ ऐसा था कि निरंजन सिंह अपनी पत्नी से चाहते हुए भी इस बात को छुपा नहीं पाये कि मिसेज वाटसन अपने इस बच्चे को आज तक भुला नहीं पायी हैं और कैसे आज भी वह यहाँ आकर फूट-फूट कर रोती हैं।
"एक बात पता है तुम्हंे अनु! मिसेज वाटसन अभी भी आती हैं। अपने इस बच्चे से मिलने।" निरंजन सिंह की बातें कहीं बहुत गहराई से निकल रही थीं।
अनुराधा डरी कम, चैंक ज़्यादा गई। आखिर कितना कुछ रहस्य अभी और है इस घर में जान लेने के लिए।
"अभी भी उनकी आत्मा भटकती है इस बगीचे के बीच। कभी-कभी वह यहाँ आकर अपने बच्चे से लिपट कर रोती है। एकदम दर्दनाक रुदन। तुम सुन लो तो तुम्हारा सीना छलनी हो जाये। मैंने खुद सुना है उस रुदन को अपने कानों से।"
निरंजन बाबू के लिए यह जितना बड़ा मुद्दा था अनुराधा उसकी तुलना में बहुत कम घबराई। अनुराधा को तो वास्तव में आज अपने प्रश्नों का उत्तर मिल गया था कि निःस्संतान मिसेज वाटसन अपना जीवन इस इतनी बड़ी हवेली में कैसे काटती होगीं। अनुराधा जानती है निःस्संतान होने का पहाड़-सा दुख।
अनुराधा ने बस इतना कहा, "इसी बगीचे ने ही तो उनकी ज़िन्दगी बचाये रखी होगी।"
रघुवर सिंह की पत्नी के होने वाले बच्चे के लिए आए दिन त्रिलोचन सिंह अपनी पत्नी के साथ विभिन्न तीर्थों, मन्दिरों में उसके स्वास्थ्य के लिए मन्नत मांगने जाते थे। आए दिन उस घर में पूजा-पाठ रखा जाता था और उस पूजा-पाठ से अनुराधा को दूर रखा जाता था। वास्तव में अनुराधा उस अनुष्ठान के लिए अपशकुन थी। कुछ खुल कर कहा नहीं जाता था। बस रघुवर सिंह की माँ कहती "दुल्हिन पूजा तक तूं भनसे घर (रसोई) में काम संभाल ल। अभी बहुत लोग आवे वाला है न।"
ऐसा नहीं था कि अनुराधा सब समझती नहीं थी। अनुराधा सब समझती थी और चुप रहती थी। अनुराधा को तब अपना घर, अपना बचपन बहुत याद आता था। कैसे माँ ने उसे हमेशा अपने आंचल में सहेज कर रखा था। कैसे हर पर्व-त्यौहार, पूजा-पाठ में घर में उसे लक्ष्मी की तरह रखा जाता था। परन्तु हर बार अनुराधा सोचती थी कि लेकिन बाबा ने उसके साथ जानबूझकर ऐसा क्यों किया। यह उसके लिए सवाल था कि क्या बाबा सच को पूरा नहीं जानते थे या फिर उनकी गरीबी उन पर हावी थी। अनुराधा जानती थी कि पिता कि ताउम्र की गरीबी ने बेटी को अमीर घर में देखने की चाहत को उन पर हावी हो जाने दिया। आज वह सोचती है "इस हवेली को क्या वह चाटेगी।"
किन्तु अनुराधा के मन में ऐसे विचार जब भी आते उसके सामने उसके पति निरंजन ंिसंह का चेहरा घूम जाता था। अनुराधा जानती है कि निरंजन सिंह उसके बगैर बिल्कुल अधूरे हैं। किन्तु क्या वह भी निरंजन सिंह के बगैर अधूरी नहीं है? अनुराधा का दुख धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा था। उसे रात-रात भर नींद नहीं आती थी।
अपने बढ़ते हुए दुख की उसी घड़ी में अनुराधा ने रात के घुप्प अंधेरे में उस आम के बगीचे का सहारा लिया जहाँ के बारे में उसे पता था कि मिसेज वाटसन अपने निःस्संतान होने के दुख को कम करने आती हैं। अनुराधा रात के उस घुप्प अंधेरे में आम के पेड़ के नीचे अपने दुखों के साथ होती थी और मिसेज वाटसन की आत्मा उस फ़िजा में रहकर उसका साथ देती थी। अनुराधा को मिसेज वाटसन की रूह नज़र नहीं आयी लेकिन हवेली के बंद कमरे में अपने बिस्तर पर पसरे निरंजन सिंह को ज़रूर एक बार फिर मिसेज वाटसन का दर्दनाक रुदन सुनाई पड़ने लगा। तब निरंजन सिंह पहली बार अनुराधा को उस रुदन की वेदना सुनाने के लिए उसकी उपस्थिति चाहते थे लेकिन अनुराधा वहाँ नहीं थी।
लेकिन अगर यह अकेले अनुराधा का दुख होता तो वह झेल भी लेती वह अपने पति निरंजन सिंह की इस घर में हुई हालत को देखकर बहुत दुखी रहती थी। अपने पति निरंजन सिंह को, जिन्हंे वह दिल से प्यार करती थी। जिसने पहली बार अपनी हथेली पर ओस की बूंद लेकर उसके चेहरे पर बिखेर दी थी। जिसने उसके आते ही कह दिया था कि 'हमको आपसे प्रेम हो गया है। हमारी ज़िन्दगी से कभी जाइयेगा नहीं।' अनुराधा पल-पल सोचती थी कि वह 'जिन्दगी से नहीं भी जाएँ लेकिन यह ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है।' यह डरी-सहमी ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है। अनुराधा को आज भी याद है या फिर आज वह उन बातों को याद करके समझने की कोशिश करती है। अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी की शुरुआती कुछ रातें। निरंजन सिंह का सहमा हुआ चेहरा और सहवास के दौरान निरंजन का एकदम हल्का दबाव।
अनुराधा हर दिन अपने पति को उस घर में उपेक्षित होते और घुट-घुट कर जीते देखती थी। वह जानती थी कि निरंजन सिंह को उस घर में ऐसे कोई कष्ट नहीं था परन्तु उस घर में उनकी कोई कद्र नहीं थी। निरंजन सिंह उस घर में सिर्फ़ जिंदा थे। उस हवेली की सारी जिम्मेदारियाँ रघुवर सिंह के कंधे पर थीं। रघुवर सिंह टाटा सूमो की सवारी खुद करते थे।
समय बीतने के साथ जब रघुवर सिंह ने जब पेट्रोल पम्प और सिनेमा हाॅल का धंधा शुरू कर दिया तब अपने साथ अपनी उस सूमो पर एक गनर साथ रखते थे। गनर लम्बा तगड़ा था। उसके कन्धे पर हर वक्त एक दोनाली बन्दूक टंगी होती थी। उस दोनाली बन्दूक का लाइसेंस रघुवर सिंह के पास था जिसे वे अपने सन्दूक में रखते थे। गनर जिसका नाम राम अवतार था वह अपनी उस दोनाली बन्दूक को रोज साफ करता था। उस बन्दूक की आगे की जो नली थी उसमें वह रस्सी डालकर उसे साफ करता था और रात में जब वह रघुवर सिंह की जान की रक्षा करके घर लौटता था तब उसी रस्सी को जलाकर अपने चिलम में आग पैदा करता था। इस तरह वह गनर अपने चिलम द्वारा गांजे के साथ रोज उस बन्दूक की गन्दगी को भी अपने शरीर के भीतर करता था। लेकिन वह रघुवर सिंह का पक्का वफादार था और वह हर पल इस ताक में रहता था कि कभी रघुवर सिंह पर हमला हो और वह उस हमलावर को वहीं अपनी उस दोनाली बन्दूक से मार गिराये। जब भी रघुवर सिंह अपने घर आते थे उस हवेली में टाटा सूमो को अन्दर तक लेकर आते थे। गाड़ी बन्द करने के बाद वे इधर ड्राइवर की सीट पर से उतरते थे और तब गाड़ी के पीछे वाले दरवाजे से उनके साथ के कई आदमी उतरते थे। वह गनर उनके साथ आगे वाली सीट पर ही बैठता था। रघुवर ंिसंह दाईं तरफ का दरवाजा खोलकर उतरते थे और वह गनर बाईं तरफ का। रघुवर सिंह उस गाड़ी से उतरकर बरामदे को पार कर अपने घर में घुसते थे तब उस दरवाजे तक उनके साथ वह गनर साथ होता था। उस वक्त निरंजन ंिसंह उस हवेली के उसी दरवाजे पर या तो अखबार पढ़ रहे होते थे या फिर चुपचाप बाहर चैकी पर लेटे हुए होते थे।
अनुराधा ने सैकड़ों बार देखा था कि बरामदे पर बैठे निरंजन सिंह के सामने लोग मालिक को ढ़ूंढ़ते थे। मालिक माने रघुवर सिंह। खेत का हिसाब, हलवाहे का हिसाब, पम्पिंग सेट का हिसाब या फिर कोई भी हिसाब करने के लिए लोग आते और बरामदे पर बैठे निरंजन ंिसंह से ही पूछते कि मालिक नहीं हैं क्या? या फिर मालिक कब तक मिलेंगे? कभी शुरुआत में उस हवेली के नौकर-चाकर ने निरंजनं सिंह की ओर ईशारा करते हुए किसी से पूछ भी लिया कि बात क्या है बताओ मालिक तो बैठे ही हैं, तब आगंतुक साफ कह देता कि 'नही ंहम फिर आ जायेंगे।' अब तो यह बात इतनी साधारण हो चुकी थी कि निरंजन सिंह भी उस बरामदे पर बैठे-बैठे मालिक को ढ़ूंढ़ने आने वाले लोगों को कह देते थे कि 'अभी शाम तक आयेगा वह'। यह सब कोई एक दिन की घटना नहीं थी इसलिए निरंजन ंिसंह इसके आदी हो चुके थे। फिर कभी उन्हें लगा भी नहीं कि इन सब घटनाओं से अनुराधा रूबरू होती होगी। लेकिन अनुराधा पृष्ठभूमि में रहकर प्रायः सब कुछ देखा करती थी।
वह घोर अंधेरी रात थी जब अनुराधा ने अपने पति निरंजन सिंह को यह पूछ दिया था कि "आप चलाना चाहेंगे तो क्या इ सूमो नहीं चला पायेंगे।" अनुराधा ने जानबूझ कर ही इस सवाल के करने से पहले यह देख लिया था कि उस कोठरी में पर्याप्त अँधेरा हो।
सवाल सूमो का नहीं, हिम्मत का था। इसे अनुराधा भी जानती थी और निरंजन सिंह भी। अनुराधा इस सवाल के बाद की चुप्पी को जानती भी थी और अपेक्षा भी करती थी। उसने उस समय निरंजन सिंह के चेहरे पर पसीने की बूंदों को महसूस किया था।
लेकिन निरंजन सिंह ने थोड़ी देर से ही सही, जबाव दिया।
"हम पुरुष नहीं हैं। अधूरा हैं अधूरा। इस धरती पर हमारा जन्म कुछ सर्जनात्मक करने के लिए नहीं ंहुआ है। हमको माफ कर दो। हमारी परछाई ने तुम्हारी ज़िन्दगी को बर्बाद कर दिया।" निरंजन सिंह भावुकता में बहुत तटस्थ हो गये थे।
अनुराधा ने अपने मुंह को निरंजन सिंह के सीने में गड़ा लिया। उस सीने में एक कंपन थी। लेकिन अनुराधा आज चुप नहीं हुई।
"हमको क्या सचमुच बच्चा नहीं होगा।"
"अनु ईश्वर ने हमको यही ज़िन्दगी दी है। इस सच को स्वीकार कर लो। यह हवेली, यह श्राप, यह ज़िन्दगी सब मेरे कारण तुमको भी मिल गयी।"
"इ कौन ज़िन्दगी है। एक बच्चा नहीं होने की इतनी बड़ी सजा। हम कौनो पाप किए हैं क्या?"
"यही समाज है अनु! हम तुम्हारे साथ हैं। हम ही तुम्हारे बच्चा हैं और तुम हमारा बच्चा हो।"
"नहीं हम आपको रोज-रोज इ तरह से बेइज्जत होते नहीं देख सकते। जब तक ज़िन्दगी है ज़िन्दगी को सुधारने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए। अरे बच्चा नहीं हो तो इस दुख को तो अपने सीने पर पत्थर रखकर सह भी लूं लेकिन आपको रोज इस तरह घुटते देखना मेरे वश में नहीं।" अनुराधा ऐसा कहते हुए लग रहा था जैसे कहीं गहरे उतर कर कुछ सोच रही है और कुछ निर्णय की स्थिति में पहुँचने वाली है।
यह उस घुप्प अंधेरी रात की अगली दोपहर थी जब हवेली के पीछे कुएँ की जगत के पास खड़े होकर अनुराधा कुंए के भीतर पानी में अपनी शक्ल को देखने की सफल कोशिश कर रही थी। कुएँ का पानी एकदम शांत था। उस पानी में झांकती अनुराधा कि तस्वीर साफ-साफ दिख रही थी। अनुराधा के चेहरे के साथ-साथ अनुराधा कि टिकुली, अनुराधा के दोनों झूमके, अनुराधा कि नथुनी सब वही दिख रहे थे जो अनुराधा ने वास्तव में उस वक्त पहन रखे थे। अनुराधा ने एकटक पानी में बनने वाली अपनी उस तस्वीर को देखा। उसने पहली बार शिद्दत से यह महसूस किया कि उसके चेहरे की चमक अभी खोई नहीं है, अनुराधा ने महसूस किया अभी उसकी उम्र उसके हाथ से बहुत नहीं फिसली है। अभी भी इस ज़िन्दगी में बहुत कुछ बदल जाने की संभावना बची हुई है। उसे पति निरंजन सिंह का मासूम-सा चेहरा उस वक्त याद आया। उसने अपने मन में सोचा "मंै आपको इस ज़िन्दगी में हारने नहीं दूंगी। आपका नाम इस धरती पर बचेगा। आप मेरे सब कुछ हैं। आपकी इस महत्त्वहीन ज़िन्दगी के होने से बढ़िया है मेरी इस ज़िन्दगी का खतम हो जाना।" अनुराधा ने पत्थर का एक छोटा-सा टुकड़ा उठाया और उस कुएँ में गिरा दिया। कुएँ में बनने वाली उसकी तस्वीर पानी की लहरों की साथ बिखर कर कहीं विलीन हो गई। अनुराधा वहीं खड़ी रही और उसने देखा एक बार फिर से उसके चेहरे की वह तस्वीर बनने लगी है।
उस कुएँ की जगत पर से लौटते हुए अनुराधा उस अस्तबल की ओर झांकना आज भी नहीं भूली। वहाँ वह धामन आज भी नहीं था।
अपने निर्णय की स्थिति में पहुँच कर अनुराधा ने इसे अपने मन के भीतर जज्ब कर लिया और फिर सटीक दिन और सटीक वक्त का इंतजार करने लगी। सटीक दिन जो उसकी ज़िन्दगी को बदल देने वाला था।
सर्दी का वह कोई दिन था। सर्दी इतनी तो नहीं थी कि आदमी कांप जाये लेकिन इतनी ज़रूर थी कि धूप सुहावनी लगे। अनुराधा ने आम के बगीचे के तरफ जाते हुए देखा कि विलायती कुएँ से पानी निकाल कर सब्जी की क्यारी में पानी पटा रहा था। विलायती, जिसका नाम विलायती उसके मां-बाप ने नहीं रखा था और जिसका नाम अपने गोरेपन के कारण विलायती पड़ा था। अनुराधा उस सुहावनी धूप में कुछ देर तक खड़ी विलायती को देखती रही। फिर उसने एकदम से आवाज लगा दी।
उस ध्वस्त अस्तबल में घुसते हुए अनुराधा को डर अवश्य लगा किन्तु एक नई ज़िन्दगी के सामने यह डर उसे तब बहुत छोटा लगा। अनुराधा जानती थी इस हवेली का यही एक कोना ऐसा था जो सबसे सुरक्षित था। उसने अंदर प्रवेश कर सांपों को देखने की कोशिश की। गिरे हुए छप्पर के बांसों में सांप लटके हुए थे। दीवारों में कई बड़े छेद थे। उन कई छेदों से पूंछ या सांप का चेहरा दिख रहा था। जमीन पर यहां-वहाँ सांपों के कई छोटे-छोटे बच्चे एक दूसरे से उलझे हुए थे। कहीं किसी खिड़की की छड़ से तो कहीं घोड़े को बाँधने वाले खंभे से सांप लिपटे हुए थे। वहाँ सांपों के किट-किट की हल्की आवाज भी थी। उस अस्तबल में जहां-तहाँ सांप के कंेचुल पड़े हुए थे। अनुराधा ने एक झलक में कम से कम तीस-चालीस सांपों को वहाँ देख लिया। अस्तबल में घोड़ों को खाना खिलाने के लिए जो नादें बनीं हुुई थीं, अनुराधा ने देखा उसके ठीक समानान्तर वह आलसी धामन लेटा हुआ था। एक मिनट को उसकी हिम्मत जबाव देती-सी लगी। उसके मन के भीतरी कोने मेें बैठे डर ने कहा कि वह यहाँ से भाग जाए। उसके शरीर के सारे रोएँ खड़े हो गए थे। उसका मन किया कि वह अचानक से उस अस्तबल से दौड़ लगा दे। लेकिन उसे तब अपने मन में सेाची हुई पंक्ति याद आ रही थी। इस ज़िन्दगी से तो बेहतर है ज़िन्दगी को नष्ट कर देना।
अनुराधा ने अपने निर्णय को अंजाम देने के लिए इस अस्तबल को क्यों चूना, इसके पीछे सिर्फ़ कारण यह था कि यह अस्तबल लोगों के आने के डर से एकदम सुरक्षित था। लोग उस अस्तबल में नहीं जाते थे ऐसा अनुराधा जानती थी। अनुराधा ने उस अस्तबल में घुसने का जब निर्णय लिया था जब वह यह जानती थी कि सांपों के बीच यूं जाना अपनी ज़िन्दगी को हथेली पर रखना था। लेकिन अनुराधा को बार-बार यह लगता रहा था कि इस जिल्लत भरी ज़िन्दगी से निकलने का बस यही एक रास्ता है।
अनुराधा अगर अपनी और अपने पति की ज़िन्दगी को कोई मायने देने के लिए उस डर से पार पाना चाहती थी तो विलायती एक आज्ञाकारी सेवक था। विलायती जिसकी कई पुश्तों ने इस हवेली का नमक खाया था उसने जन्म से लेकर आज तक इस हवेली में अपने मालिकों की आज्ञा को काटना नहीं सीखा था, चाहे उसके लिए उसकी जान ही क्यांे न चली जाए। उसके पिता ने इस हवेली में लाकर उसे सिर्फ़ यही सिखाया था कि यहाँ के मालिक ही हमारे ईश्वर हैं और ईश्वर से रुसवाई ठीक नहीं।
अस्तबल के अंदर पत्थर का एक ऊंचा पाट बना हुआ था और जिस पर कभी अस्तबल की निगरानी करने वाले का बिस्तर लगता रहा होगा। वही अस्तबल की निगरानी करने वाले का बिस्तर आज अनुराधा का बिस्तर बना। अनुराधा बहुत सतर्कता से केंचुलों और सांपों को टाप कर उस पाट तक पहुँची। उस पाट का फर्श ठंडा था। अनुराधा कि पीठ एकदम ठंडी हो गई थी।
जब उस अस्तबल से अनुराधा निकल रही थी तब उसने देखा कि उन सांपों में एक हरकत थी। बाहरी प्रजाति के प्रवेश को सांपों ने महसूस कर लिया था। उस अस्तबल से निकलते हुए वह काफी संतुष्ट और आश्वस्त थी। वह आलसी धामन अपनी गर्दन उठाए हुए था। अनुराधा ने जाते हुए उस धामन की आंखों में अपनी आंखें डालकर अपने मन में सोचा अब तुम्हें मेरे पीछे भी आना होगा। अब मैं भी तुम्हारी शिकार हूँ। मैं बचूंगी और तुम मेरा पीछा करोगे। तुम मेरे प्यारे मौगा सांप।
जब अनुराधा विलायती के साथ उस अस्तबल से बाहर निकल रही थी तब वहीं बाहर उस कुएँ के पास निरंजन सिंह खड़े थे। निरंजन सिंह ने अनुराधा को देखा और सब समझ लिया। दोनों की आंखें मिलीं और एक मौन समर्थन। अनुराधा निरंजन सिंह के पास आई और निरंजन ंिसंह ने उसे अपनी बांहों के घेरे में समेट लिया। चलते हुए निंरजन सिंह एक क्षण को रुके और फिर अनुराधा के माथे को चूम लिया। वे उसे उसी तरह अपने घेरे में समेटे अपने कमरे तक ले गये। अनुराधा ने तब अपने आप को निरंजन सिंह की बांहों में निढ़ाल छोड़ दिया था। अनुराधा तब बहुत हल्का महसूस कर रही थी। कमरे में निरंजन सिंह ने बिस्तर पर अनुराधा को लिटा दिया। अनुराधा कि आंखें बन्द थीं। निरंजन ंिसंह ने तब धीरे से उसके कान में कहा "यह सच है अनु कि आदमी बहुत कमजोर होते हैं। वास्तव में तो इस धरती को औरत ने ही अपने बल पर बचा रखा है। तुमने आज फिर यह साबित कर दिया। तुमने इस जीवन को व्यर्थ होने से बचा लिया अनु।" अनुराधा ने तब भी अपनी आंखें नहीं खोलीं। अनुराधा कि दोनों पलकों के भीतर तब आंसू बन्द थे।
कुछ ही महीनों में यह खबर उस हवेली में आग की तरह फैल गयी और हवेली ही क्यों उस गाँव और जहां-जहाँ तक लोगों ने इस मिसेज वाटसन की भूतहा कोठी की चर्चा सुनी थी वहाँ तक यह बात फैल गई कि पांच पुश्त के बाद पहली बार यह हवेली श्राप से मुक्त हो गयी है। इस गाँव में पहली बार यह तीन या छह वाला मिथक टूट गया था।
नौ महीने पूरे होने पर अनुराधा ने एक स्वस्थ पु़त्री को जन्म दिया और फिर सब कुछ बदलता चला गया। अनुराधा ने इन नौ महीनों में और बाद में पूरे वर्ष तक उस आलसी धामन की फुर्ती से बचने की कोशिश के सुख को जिया। वह उसी तरह धामन की आंखों को देखती और अपने भीतर जीत के इस सुखद अहसास को जीती।
उस पुत्री के जन्म पर पूरी हवेली को दुल्हन की तरह सजाया गया था और पहली बार अपने चमकदार कपड़ों में निरंजन सिंह उस समारोह के केन्द्र में थे। अपनी याद में इस हवेली ने पहली बेटी को देखा था इसलिए यह समारोह बहुत बड़ा था।
निरंजन सिंह की माँ ने भोले बाबा को बहुत धन्यवाद दिया और अपनी अनेक मन्नतों को पूरी करने तीर्थयात्राओें का अम्बार लगा दिया। त्रिलोचन सिंह बूढ़े हो गये थे लेकिन उनकी निगाह में निरंजन सिंह और उनसे भी ज़्यादा अनुराधा कि इज्जत बढ़ती चली गई थी।
निरंजन सिंह के प्रति लोगों का व्यवहार बदलता चला गया और निरंजन सिंह खुद भी बदलते चले गये और फिर एक दिन निरंजन सिंह ने अपनी पत्नी के कान में धीरे से यह फुसफुसाया कि "हमारे जीवन के उजाले के हर कण पर आपका ही नाम लिखा है। आप हैं तभी तो मैं हूँ।"
अनुराधा के बच्चा होने की प्रक्रिया के बीच एक बड़ी बात यह हुई कि फिर कभी किसी ने भी उस आम के बगीचे से मिसेज वाटसन के रोने की दारुण आवाज को कभी नहीं सुना। लोगों ने सोचा श्राप को ध्वस्त कर आने वाली इस बच्ची के रूप में वास्तव में मिसेज वाटसन का ही जन्म हुआ था। वह बच्ची बहुत गोरी थी और एकदम गोरी मेम की तरह ही लग रही थी। अनुराधा ने उसका नाम रखा था-अवन्तिका, अवन्तिका निरंजन सिंह।
उस हवेली में बहुत तेजी से सब कुछ बदल रहा था और उस दिन जब पहली बार टाटा सूमो की सवारी करते हुए निरंजन सिंह उस हवेली के कैम्पस में अपने गनर के साथ उतरे तब अनुराधा उस बरामदे पर अपनी मुस्कराहट के साथ उनका स्वागत कर रही थी। वह दोनाली बन्दूक टांगे गनर उनके दरवाजे तक आया और निरंजन सिंह अपनी पत्नी के साथ अपने कमरे में चले गये।
वर्षों बीत गये हैं हवेली वैसी ही है निरंजन सिंह बूढ़े हो रहे हैं। लोग यह धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं कि कभी हवेली के आम के इस बगीचे में मिसेज वाटसन की आत्मा के रोने की आवाज सुनाई देती थी। यह कि कभी इस हवेली में चुड़ैल का वास था या फिर यह कि इसे कभी भुतहा कोठी कहा जाता था।