मिस्टर लक्ष्मण / राजा सिंह
उससे अचानक ही मुलाकात हो गई थी। मैं बैंक में अपनी सैलरी निकालने गया था और वह आपने एक ड्राफ्ट का भुगतान लेने। बैंक के एक बाबू प्रदीप ने हम दोनों का परिचय करवायाँ था। वह डाक्टर सलीम अख्तर मुरादाबाद के एक ब्लाक शेरपुर में सरकारी चिकित्सालय में नियुक्ति था, मैं साकेत अवस्थी स्थानीय आर्यन इन्टर कालेज में भौतिक विज्ञान का अध्यापक। परिचय क्या हुआ, हम लोग पहले ही दिन से आपस में काफी खुल गये थे। कारण साधारण था और एक तरह से विशिष्ट भी, हम दोनों एक ही शहर कानपुर के रहने वाले थे, मैं निखालिश शहर का और भौंती कानपुर के एक गॉंव का। एक दूसरे शहर में अपने शहर का अपनी बोली वाला कोई व्यक्ति मिल जाये तो अपने आप लगाव हो जाता है, फिर वह एक साफ, सुथरा सीधा, सच्चा आत्मीय व्यक्ति था, पूर्णतया भद्र पुरूष। मैं उससे प्रभावित हो चुका था।
आपस की ढेर सारी जानकारियाँ हम लोगों ने पहले ही मुलाकात मैं शेयर कर ली थी। उससे अक्सर मिलना हो जाता था। वह अपने चिकित्सीय कार्य के सिलसिले में, आफिस कार्य की वजह से जिला चिकित्सालय मुरादाबाद आता रहता था। जब भी आता मुझसे मिले बगैर नहीं जाता था और हर मुलाकात में कानपुर शहर की प्रशंसा, भाषा, बोली और तहजीब की और रोजी-रोटी वाले शहर की हर दृष्टिकोण से आलोचना प्रमुख होती थी। वह तीन साल से पोस्टेड था और मुझे आये बमुश्किल तीन माह ही हुये थे। धीरे-धीरे हम लोगों के सम्बन्ध प्रगाढ होने लगे थे और हम लोग एक-दूसरे घर परिवार के विषय में पूरी तरह परिचित हो गये थे। उससे हफ्ते में एक या दो चक्कर मुलाकात के हो ही जाते थे। वह कालेज में आकर मिलता था।
एक दिन सलीम अचानक मेरे कमरे में आ धमका। उसे घर का पता तो दे रखा था, परन्तु उसने कभी कमरे आने की तकलीफ नहीं की थी। छुट्टी का दिन था और मैं बेफिक्र था, किसी भी संभावित आगमन से। सब कुछ अस्त व्यस्त था, बिखरा था, बेतरतीब था। किताबें, मैंगजीन, कपड़े सभी बिखरे पड़े थे। एकदम से जल्दी-जल्दी उसके बैठने की जगह करनी थी, सब कुछ समेंटने में उसने भी मेरी मदद की और अपने बैठने की जगह ईजाद कर ली। उसे मौका मिल गया था मेरी खिचाई करने का, उसने उपदेशक की मुद्रा अख्तियार कर ली। मेरी दिनचर्या और रहन-सहन की कटु आलोचना साथ-साथ ही उपचार भी सुझाता जा रहा था। कमरे में फैली गंदगी पर तो वह बुरी तरह बिगड़ गया, 'साइंस पढे हो और ये हालत, नहाते-धोते हो भी कि वह भी नहीं।' किसी भी तरह की रियायत नहीं दे रहा था। 'मै अपने को बचाता और इन सभी का कारण अपनी बैचलर स्थिति तथा आई0ए0एस0 की परीक्षा की तैय्यारी में व्यस्त रहने का रोना रोता रहा। उसने इसे सिरे से खारिज कर दिया और बताया' वह कानपुर में एक कमरा लेकर ही अपनी सारी पढाई पूरी की है, मजाल है सफाई और पढाई में कोई कमी रही हो। मेडीकल की पढाई में भी हास्टल में रहा कभी ऐसा दृश्य मेरे कमरे में नहीं रहा है। उसका कथन जारी था, 'मेरा भाई दिल्ली में एक कमरा लेकर आई0ए0एस0 की तैय्यारी कर रहा है उसने प्रीलिमनरी इक्जाम पास भी कर लिया है, चलो एक दिन उसका रहने का ढंग दिखाकर लाते है, इस तरह का बूचड़खाना भी नहीं बना रखा है उसने।' जल्दी से स्टोव पर चाय बनाकर उसे पिलाई, किसी प्रकार उसका रोष शान्त किया। उसे बाहर ले जाकर ढाबे में खाना खिलाया और उसे ठंडा किया।
मैं मौके की तलाश में था। मुझे उससे बदला लेना था। उसने जो मेरी कमियाँ गिनाई थीं, खामियाँ दिखाई थीं, उसे मैं अविवाहित जीवन की स्वाभाविक स्थितियाँ मानता था, सब ऐसा ही चलता है, जिसमें सुधार की आवश्यकता है भी तो कौन करे? परन्तु अनजाने में मैं अपने को ठीक करने में लग गया था। मैं उससे किसी मामले में उन्नीस नहीं रहना चाहता था। उसके चिकित्सीय दृष्टिकोंण ने मुझे प्रेरित किया था सुधार हेतु परन्तु मेरा अध्यापकीय व्यवहार, सुनना नहीं प्रवचन करने को उद्वेलित कर रहा था। मैं सलीम को उसके घर पर ही, उसे उसकी पत्नी के सामने ही, उसके वैवाहिक जीवन को असंगतियों पर पलटवार करना था। परन्तु असंगतियाँ थी क्या? कुछ पता नहीं था। खोजना तो था फिर उसे अपने समान सिद्ध करना था। मुझे इतवार के दिन उसके घर जाना था और अचानक पहुंच कर उसे घेरना था और मैंने ऐसा ही किया।
पूॅंछता-पूॅंछता मैं उसके घर पहुॅच गया। हांलांिक मुश्किल हुयी थी, फिर भी उत्सुकता अपने चरम पर थी। बाहर ही उसका कम्पाउन्डर हामिद खॉं मिल गया, वही घर के भीतर ले गया। ईटों का मकान बिना प्लास्टर का, परन्तु फर्श कच्ची था, लिपि-पूती साफ चकाचक। बाहर और भीतर कमरें थे और बीच में खुला मैदान टाइप आंगन। जब मैं पहुंचा, एक औरत, एक बच्चा और तीन लड़कियाँ, एक दो खाट पर बैठी कुछ कर रही थी, या बातें कर रही थी। मैं अनुमान लगाता कि वे देखते-देखते सरपट आपने को सम्हालती कमरों के भीतर प्रवेश कर चुकी थीं और मैदान साफ हो गया। मैं अपरिचित का बोध लिये हामिद खॉं की तरफ देखा, तो उसे किंचित भी अप्रयाशित महसूस नहीं पाया। अचानक हुयी भगदड़ से, एक कमरे से डाक्टर सलीम निकल आया।
'अहो!' भाग्य साकेत साहब पधारे है। ' उसने हर्षातिरेक में गले लगकर अभिवादन् किया। उसकी खुशी देखकर मेरा मन प्रसन्न हुआ और क्षणभर पहले आयींे अनजान परिस्थितियों में घिर आयी कटुता तिरोहित हो चुकी थी। वह अपने कमरे में मेरा हाथ पकड़े-पकडे ले चला। उसका कमरा सफाई के उच्चतम स्तर को छू रहा था और वह खुद झकाझक सफेद कुर्तें पैजामें में था, जैसे कि वाशिंग पाउडर की सफाई का प्रचार कर रहा हों। मैंने ध्यान दिया सम्पूर्ण परिसर साफ-सुथरा था, कमी कहीं नहीं थी। अब डाक्टर भी ऐसा नहीं लगेगा, ऐसा नहीं रहेगा, तो फिर डाक्टर कैसा? मैंने अपने मन को समझाया। डाक्टर के चेहरें पर भौचक्कापन अब भी विद्यमान था, उसे यकीन नहीं आ रहा था कि मैं शहर छोड़कर सिर्फ़ उससे मिलने गॉंव आ सकता हॅू। सलीम अतिरिक्त उत्साह में था परन्तु बनावटीपन नहीं था।
हामिद खॉ साहब चाय नास्ता ले आये थे और हम तीनों उसी में व्यस्त हो गये थे। इधर-उधर की बातंे हो रही थीं और मुझे एक-बात रह-रह कर खटक रही थी कि सलीम अख्तर की बीबी अभी तक नहीं आयी थी। एक तो कमियाँ कोई नजर नहीं आ रही थी और न ही उत्सुकता शान्त हो रही थी।
'दोस्त, आपकी श्रीमती जी के दर्शन नहीं हुये।' मैं उतावला हो उठा।
'वे यहॉं कहॉं?' वे तो कानपुर में है। '
'और, जब में आया था, तो वे सब कौन थे जो उठ कर भागे थे। जैसे बिल्ली को देखकर चूहे भागते है।' न चाहते हुये मेरे मुॅह से अनायास निकल गया, हालांकि उसमें तल्खी नहीं थी।
' वे सब डाक्टर साहब के बीबी बच्चे थे। वास्तव में यह घर डाक्टर साहब का है, उसने कम्पाउन्डर हामिद खॉं साहब की तरफ ईशारा कर के बताया। इन्हीं के मकान में सरकारी अस्पताल या क्लीनिक है, बाहर वालों कमरो में और भीतर के कमरों में डाक्टर साहब और उनका परिवार रहता है। मुझे भी एक बड़ा कमरा दे रखा है रहने के लिये। मेरा खाना-पीना भी डाक्टर साहब की कृपा से हो जाता है। मैं खुद छडें़ वाली लाइफ गुजार रहा हॅू। यह कहते हुये, मैने उसके चेहरे पर कुछ पीड़ा-भाव उभरते हुये महसूस किये।
'मगर तुम तो शादी-शुदा हो,' बीबी को क्यों नहीं ले आते। ' मैंने एक कमजोर प्वाइन्ट पकड़ा। तब तक हामिद खॉ साहब जा चुके थे और मैं मुखर हो उठा था।
'वह नहीं आ पा रही है।' दोस्त कुछ मायूस हुआं और दब गया।
'आ नहीं रही है या ला नहीं रहे हो?' जब तुम यहॉं गुलछर्रे उड़ा रहे हो, तो बीबी की क्या ज़रूरत? '
'यार कुछ तो सोंच-समझ कर बोला करो, हामिद साहब सुनेगें तो क्या कहेगें और क्या सोचेेगे तुम्हारे और मेरे विषय में?' मैं सम्हला और अपनी जीव्हा को काबू में किया। '
'वास्तव में मेरा कहने का मतलब ये है कि जब तुम्हे भाभी के बगैर कोई असुविधा नहीं है, तो क्या ज़रूरत है, उन्हें इस गॉंव नुमा कस्बे मंे परेशान करने की।'
'नहीं ऐसा नहीं है, वहॉं पर भी तो वे अपना घर कानपुर शहर छोड़कर, शौहर के घर, गॉंव नुमा कस्बे में ही रह नहीं है।'
'फिर, ऐसे ही चलता रहेगा?' मैंने उसे कुरेदा। वह उत्प्रेरित हो उठा।
'नहीं हरगिज नहीं। मैं आमना को बहुत चाहता हूूॅं, वह मेरा प्यार है। उसके बगैर मैं कैसे रह रहा हॅू, ये मेरा दिल ही जानता हैं। मैंने जिद करके उससे शादी की है। मेरी अम्मी तो अपनी बहन की लड़की से मेरी शादी कराना चाहती थीं। अब्बू भी रजामंद थे और एक तरह से सारा घर राजी था।' वह बेहद खूबसूरत थी और ढेर सारा दहेज भी मिलने वाला था। दो साल से ज़्यादा बीत गये है परन्तु अब भी अम्मी इसे छोड़ने को कहती है और कजिन से शादी करने को कहती रहती है। इन विपरीत परिस्थितियों में भी आमना खूबसूरती से निर्वाह किये जा रही है और उम्मीद के धागे से बंघी हर बार साथ चलने को कहती रहती है। किस तरह से अपने प्यार को छोड़कर आता हॅू ये मेरा दिल ही जानता है। ' दबी चिंगारी उॅभरी और मांयूसी की पर्ते उघड़ने लगी थीं। अफसोस और मजबूरी का आलम उसके चेहरे पर छा गया था।
'फिर प्राब्लम् क्या है, शहजादे सलीम, जो अनारकली से जुदाई सहन कर रहे हो? मैंने वातावरण को तनाव रहित करने के लिए व्यंग्योक्ति की। उसके होठों पर मुस्कराहट और आंखों पर अफसोस एक साथ पसरे और मेरी ही टोन पर, उससे भी अनायास निकला' शहनशाह अकबर! ' अगले पल वह पंछॅताया और चुप लगा गयाँ।
...'अलग तो मैं रह ही रहा हूॅ। जब बाहर नौंकरी है, तो साथ कैसे रह सकते हैं?' वह अनिच्छुक हो उठा था, आगे किसी भी तरह की बातचीत के लिए. परन्तु मैंने जिद पकड़ ली कारण जानने की। वह ज़्यादा देर मेरी जिद के आगे ठहर नहीं पाया। वेदना उसकी आंखों में उतर आयी थी और भारी मन से उसने बताना स्वीकार कर लिया था।
अब्बू कहते हैं कि 'आमना को अपने साथ ले जाने का मतलब है कि इस घर से अलग हो जाना। एक घर के दो घर करना। अपना अलग घर बनाना। फिर तुम अपने घर के लिये करोगे? इस घर के लिए क्यों करोगे? तुम्हारी बीबी यहॉ रहेगी तो ये घर तुम्हारा बना रहेगा। वहॉ पर रहने खाने-पीने की कोई दिककत तो है नहीं। दस-पन्द्रह दिनों में यहॉ पर आ ही जाते हो। सबसे मिल ही जाते हो। बहू को ले गये तो क्यों आओगे भला? ईद-बकरीद आ गये तो ठीक नहीं ंतो वह भी नहीं। ज़रूरत क्या है वहॉ पर बहू ले जाने की?'
' आमना का मन करता है, साथ रहने का। मैंने डरते-डरते ये कहा, तो बिफर गये अब्बू।
'यहॉ कोई तकलीफ है, उसंे? हम लोग उसे परेशान करते हैं क्या?' हम लोग गैर हैं क्या? तुम्हारी अनोखी बीबी है। कौंम के लोग विदेश चले जाते हैं कमाने दुबई, कुबैत, सउदियांॅ, उनकी बीबियॉं घर में बनी नहीं रहती हैं क्या? वे लोग तो साल-साल भर में आते हैं। उनकी बीबियों को कोई खा जाता है क्या? ...अजीब घर तोड़ेने वाली लड़की से शादी करी हैं।
अब अब्बू को कौंन समझाये? कहते हैं मुझे डाक्टर बनाने में अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी, अब मेरा फर्ज बनता है कि अपने भाई-बहनों की सारी ज़रूरतें पूरी करूॅं। मानता हॅू और यथासम्भव पूरी भी करता हॅू। अपनी पूरी सैलरी मैं घर भेज देता हॅू और मुझसे छोटा भाई जो देहली रहकर आई0ए0एस0 परीक्षा की तैय्यारी हेतु कोंचिंग कर रहा है, उसका भी सारा खर्चा उठाता हॅू। अपना और आमना का खर्चा कैसा उठाता हॅू बता नहीं सकता। ...मेरे विषय में कोई कुछ सोचने और विचार करने को तैय्यार नहीं है। ...एक स्तर से ज़्यादा खिलाफत भी तो नहीं कर सकता। जबरदस्ती अपनी बीबी को ला भी नहीं सकता। ज़िन्दगी भर के लिए घर से सम्बन्ध बिगड़ जायेेंगें। आमना आ जायेगी परन्तु घर छूट जायेगा और मैं अपनी जड़ों से कट जाऊॅंगा जो मैं बरदास्त नहीं कर पाऊॅंगा। इस स्थिति में कम से कम आमना है और मेरे वालिद भी है। दोनों कमोवेश, कुछ कम और कुछ ज़्यादा संतुष्ट, असंतुष्ट। ' ...
वह खामोश हो गया था। एक गहरा सन्नाटा ख्ंिाचा था जिसके एक तरफ मैं था और दूसरी तरफ वह था। मैंने अपने हथियार डाल दिये थे, समर्पण की मुद्रा अख्तियार कर ली, वह पहले ही समर्पण कर चुका था। 'ठीक है...! मैने एक लम्बी उसॉंस ली।' जब तुम इस स्थिति को उचित समझ रहे हो तो और कोई क्या कर सकता है?
'नहीं, मुझे यह स्थिति स्वीकार नहीं है, परन्तु असहाय हॅॅॅॅू। शायद अल्ला ही कोई मदद करंे, तभी निजात मिल सकेगी।'
' अच्छा चलते है। मैं उठ खड़ा हुआ। मुझमें अनजानी, अनदेखी आमना के प्रति सहानभूति गहरें तक धस गयी थी।
'यार कुछ कर सकते हो?' उसने मेरा हाथ पकड़ कर बैठा लिया और एक दुःखी प्रश्न मेरी तरफ उछाल दिया। प्रश्न के नागपाश में बंधकर मैं फिर लद्द होकर पसर गया और सम्भावनाओं की तलाश में भटक गया। मैं न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, कल्प और विकल्प में विचरता हुआ निरूपाय-सा था और वह हताश और निराश मूक-बधिर-सा मेरी भॉंव-भंगिमां पढ़ने में मशगूल था। मेरी तरफ से कोई सुझाव न पाकर एक लम्बे अन्तराल के बाद उसने फिर कहना शुरू किया। ...
...'ये विकट स्थितियाँ सहज होना तो दूर इसमें जटिलतायें और पैदा होने वाली हैं। जो चाहे अनचाहे मामले को और दूरूह कर देगीं जिसके चक्रव्यूह में मैं, अब्बू और आमना उलझ कर रह जायेगें और किसी का भला नहीं हो पावेंगा।' मैंने आश्चर्यजनक उत्सुकता से उसकी ओर देखा। वह असंमंजस में था। कोई बात ऐसी थी जो हजम नहीं कर पा रहा था और आखिर में उसने उलट दिया। वह मेरे निकट आया और फुसफुसाने लगा। एक ऐसा राज उगलने लगा जो वह किसी से शेयर नहीं कर पा रहा था।
' भाई मेरे! हामिद साहब की बड़ी बेटी सलीमा मेरे से बहुत क्लोज होने लगी है। अक्सर मौका देखकर मेरे कमरें में घुस आती है। मुझे पसंद करने और प्यार करने का दावा करती है, जबकि वह अच्छी तरह जानती है कि मैं शादी-शुदा हॅू, फिर भी बिछी-बिछी जाती है। कई बार झिड़क चुका हॅू, परन्तु बेहया की तरह पीछे पड़ी है। कुछ ऊॅंच-नीच हो गया तो मैं फंस जाऊॅंगा। ऐसा लगता है कि हामिद साहब या उनकी बेगम का प्रायोजित कार्यक्रम है और न फंस पाया तो फांस दिया जाऊॅगा, किसी दुःचक्र के तहत। मेरे गले मढ़ न दी जायें। मैं क्या जबाब दूॅंगा आमना को, जिससे मैंने आयोजित प्रेमविवाह किया है? मैंने बड़ी मुश्किल से अपने को बचा कर रखा है, आमना के लिए परन्तु कब तक? कहीं आमना छूट न जाये। आमना का यहॉं होना ज़रूरी है, मुझे ताड़का से बचाने के लिए परन्तु अब्बू ने उसे रोक रखा है लक्ष्मी की तरह।
'हर्ज क्या है? एक घर वाली एक बाहर वाली। दो ही तो हुयी? तुम लोग तो चार तक रख सकते हो।' मैंने समस्या की गम्भीरता और तनाव को सिगरेट के धुंवे की तरह फेंकने की कोशिश कीं। उसने मुझे अविश्वनीय और तिरस्कारित तीक्ष्ण नजरों से देखा। समस्या की जटिलता का दर्द उसकी ऑंखों उंॅतर आया था और चेहरा तमतमा गया था। मुझे लगा ज्वालामुखी फट पड़ने को है और लावा शब्दों का रूप लेकर बिखर पडेंगा, परन्तु उसने अपने आप को संयत किया और बड़ी ही सधीं आवाज में मुझे लज्जित किया।
' तुममें भावुकता और संवेदनायें रंच मात्र भी है या नहीं? किसी के दर्द महसूसने की क्षमता नदारत है क्या? तुम्हारी सोंच और सलीमा की सोंच एक ही है क्या? तुम्हें मैं अपना हमदर्द मानता हॅू क्या ये ग़लत है? मेरा ईरादा उसे चोट पहुंचाने का नहीं था, सिर्फ़ समस्या को तत्कालित क्षणों में गम्भीर से हल्का करने को था। मैंने अपने दोनों हाथ उसके कंधे पर रखें और हल्की-सी मुस्कराहट के साथ निवेदननुमा अभिव्यक्ति की।
'भाई, मैं सिर्फ़ हंसी कर रहा था, जिससे कि तुम समस्या की जटिलता के मानसिक चक्रव्यूह से बाहर आ सको और कुछ अलग हट कर सांेचा जा सके. यार तुम बुरा मान गये। सारी! एक बार फिर मुझे मॉंफ कर दो।' माफी ने ताप और संताप पर मरहम का काम किया और कुछेक समय के अन्तराल पर वह सहज हो उठा। बात-चीत फिर प्रारम्भ नहीं हो सकी क्योंकि हामिद साहब हम दोनों का खाना लेकर हाजिर हो गये थे। हम दोनों सामान्य लग रहे थे, परन्तु मेरे दिल में उसकी समस्या का तीर चुभा था और उसके दिल में शायद मेरे प्रति खटास थी।
अरे! ये क्या? अख्तर और उसके साथ बुरके में कौन आ रहा है? क्या आमना आ रही है? उसे सुखद आश्चर्य हो रहा था। ये कब आये? कैसे आये? अब्बू की गिरफ्त से आजाद हो गये? कब, कैसे सैकड़ो प्रश्न दिमाग में चक्कर लगा रहे थे कि वे दोनों दाखिल हो गये। अख्तर गले मिला और थोड़ी देर तक वैसे ही मिलता रहा, शायद अपने को काबू में कर रहा था। तब तक आमना ने अपना बुरका उतार लिया था और फिर वह भी मेरे गले मिल पड़ी। मैं शर्म और संकोच से गड़ गया। इतना, अपनापन और सम्मान शब्दहीन था मैं।
'ये हैं लक्ष्मण, जिन्होनें राम और सीता को मिलवांया।' अख्तर ने मेरा नया परिचय आमना से इस कदर करवायाँ। उसने अपने हाथ में मेरा हाथ लेकर भाव विह्वल होकर कहा। उसकी ऑंखों में तरलता उॅतर आयी थी और उसकी तरलता ने मेरी और आमना की भी ऑंखें नम कर दीं। मैं हतप्रभ्र था फिर बहने वाली भावनाओं को विराम देने का प्रयास किया और आगाह किया 'मुझे भाई मत बनाओं, मैं दोस्त ही ठीक हॅू।'
'भाई जान आप ने यह सब किया कैसे? हम दोनों जो पच्चीस महीनें से नहीं कर पाये, वह आपने अब्बू से पच्चीस मिनट में कैसे करवां लिया।' आमना विस्मित थी, अपनी रिहाई पर और मेरे करिश्में पर।
मैं, आपका भी भाई नहीं बनना चाहता, क्योंकि आपका भाई बनते ही, मेरे दोस्त से रिश्ते बदल जायेंगें। मुझे सिर्फ़ साकेत ही रहने दो सिर्फ़ साकेत। ' मैंने उसे भी हिदायत दी।
'छोड़ों रिश्तेदारी और सम्बोधन की स्वीकार्यता। ये बताइयें आपने क्या जादू किया अब्बू पर, जब आप होली की छुट्टी में हमारे घर आये थे।' आमना की उत्सुकता चरम पर थी और सलीम भी बेचैन था, सारा प्रकरण जानने को। मैं दुविधा में था, कैसे मैं आमना के सामने सलीम का वह राज खोलू जो शेरपुर में सलीम और सलीमा को जोड़ने का षणयंत्र किया जा रहा था और जिसके उद्घाटन से हकीम साहब ने अपना सिकंजा ढीला कर दिया था और घर में कैद लक्ष्मी को आजाद कर दिया था।
अच्छी तरह याद है कि हकीम साहब से और उनके विषय में बात करते हुये, उत्तेजित होकर, मेरी बातों के लहजे में तल्खी और तेजी उतर आयी थी और मैंने हकीम साहब से कहा था 'अगर अब की बार आपने अपनी बहू को बेटे के साथ नहीं जाने दिया तो आप न केवल अपने राम जैसे बेटे को खो देगें अपित् अपनी सीता बहू को जिसे आपने लक्ष्मी बना कर कैद कर रखा है, उसे भी भिखारिन में तब्दील कर देंगें।' हकीम साहब तैश में आ गये थे और मुझे लगा कि वह मुझे बाहर का रास्ता दिखा देगें। परन्तु पता नहीं क्या सोंच कर उन्होनें वजह की दरयाफ्त की। मैंने सलीम और सलीमा का सम्पूर्ण प्रकरण अपनी टिप्पड़ियों समेत उनके सामने पेश कर दिया था। मैंने सलीम द्वारा खिलाई गयी गोपनीयता की कसम भी तोड़ दी थी जो उसने सलीमा के विषय में खिलाई थी।
हॉंलाकि हकीम साहब ने मुझे उस दिन बैरंग भेज दिया था बिना किसी भी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त किये हुयें। मैं निराश ज़रूर लौट आया था, परन्तु मैंने हकीम साहब के चेहरे पर चिंता की लकीरंे ज़रूर खींच दीं थी।
मुझे तनिक भी अंदेशा नहीं था कि मेरे द्वारा वर्णित अतिरंजित समस्या की प्रतिक्रिया इतनी सटीक, सुखद और त्वरित होगी। उन्होनें भी राज को राज ही रहने दिया था।
मैंने किसी तरह अख्तर और आमना को अप्रासंगिक बातों से उलझा दिया था और यह समझाने में सफल रहा कि अब्बू को मैंने धर्म और दर्शन की मिली-जुली खिचड़ी खिलाकर आमना को उनकी गिरफ्त से आजाद करवाने में सफल रहा हॅू। मैंने उन्हें कोई विवरण नहीं दिया।